It took me almost 15 years to get an inkling of what's "अविद्या" in Vedanta. It was the result of listening following spoken by Swami Akhandananda Ji in the context of Aagam Parakaran of Mandukya Karika. Just in case someone interested.
1/
"अच्छा जी, यह अविद्या कहाँसे आयी? तो वेदान्ती लोग कहते हैं कि,
"अविद्यास्तीत्यविद्यायामेवासित्वा प्रकल्प्यते।
ब्रह्मदृष्ट्या त्वविद्येयं न कथञ्चन विद्यते॥" ~ (पंचदशी)
अविद्यामें बैठकर ही अविद्याकी कल्पना की जाती है।
2/
ब्रह्म-दृष्टिसे तो अविद्या न थी, न है, न होगी। ब्रह्म दृष्टिसे तो अविद्यमान ही है यह। परन्तु,अविद्यमान होनेपर भी मनुष्यको जो "अज्ञोऽहं" यह अनुभूति होती है, इस अनुभूतिके बलपर अविद्याकी कल्पना करनी पड़ती है।
3/
देखो, एक मजेकी बात सुनाता हूँ। ब्रह्म ज्ञान-स्वरूप है कि नहीं? ज्ञानस्वरूप है। ज्ञान-स्वरूप तो उसीको कहते हैं जो दूसरेको भी जाने ! जानना ही तो ज्ञान है न! जब ब्रह्म ज्ञान-स्वरूप है, तो जानेगा! किसको जानेगा? बोले कि दूसरा तो कोई है ही नहीं। अतः अपनेको जानेगा।
4/
तो अपनेको पूरी तरहसे जानेगा कि नहीं जानेगा? यदि अपनेको पूरी तरहसे जानले तो अपनी इयत्ता, अपना अन्त उसको मिल जायेगा।
5/
ब्रह्मका स्वभाव है जानना और अनन्तका स्वभाव है न जाना जाना। क्यों? जैसे आकाश है, तो आँखका स्वभाव है देखना और आकाशका स्वभाव है पूरी तरहसे न दीखना। इसका फल क्या होता है? इसका फल यह होता है कि हम आकाशको नीला देखने लगते हैं।
6/
आँख देखे बिना मानती नहीं है और आकाश दीखनेके फंदेमें फँसता नहीं है। इसका नतीजा यह होता है कि हम आकाशको नीला देखते हैं। इसी प्रकार, ब्रह्मका ज्ञान स्वरूप होनेसे स्वभाव है देखना और अनन्त होनेसे दृश्य न होना स्वभाव है। देखना स्वभाव है और न दीखना भी स्वभाव है।
7/
"अदृष्टं दृष्ट अश्रुतं श्रोतृ अमतं मंतृ अविज्ञातं-विज्ञातृ।" ~ (बृहदा०--३.८.११)
असलमें वह अदृष्ट रहकर द्रष्टा है-यह श्रुति कहती है कि स्वयं तो दृश्य होता नहीं और देखनेवाला है। अजी, यह देखे बिना तो मानता नहीं और अपनेको देख पाता नहीं।
8/
भागवतमें एक प्रसंग आया है कि स्वयं परब्रह्म परमात्मा भी अपना अन्त नहीं जान सकता। क्यों नहीं जान सकता? क्योंकि, अन्त है ही नहीं। अत: वह यदि अपना अन्त जानेगा तो गलत जानेगा।
9/
अच्छा, तो अब देखो कि अविद्या क्या है? यही अविद्या है कि स्वयं ग्रहणात्मक होनेपर भी अपने स्वरूपका ग्रहण न होना, ज्ञान स्वरूप होनेपर भी ज्ञेय न बनना यही ब्रह्मका स्वरूप है और वह देखे बिना तो मानता नहीं, अतः अपने स्वरूपका अग्रहण होनेके कारण अन्यथा-ग्रहण हो जाता है।
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अपने आपको पूरी तरहसे न देखनेके कारण अपनेको वह प्रपञ्चके रूपमें देख रहा है।एक को देख नहीं पाता तो एकको ही अनेक देखता है, अपरिच्छिन्नको देख नहीं पाता तो अपरिच्छिन्नको ही परिच्छिन्न देखता है, चेतनको देख नहीं पाता तो चेतनको ही जड़ देखता है
11/
और अपनेको देख नहीं पाता तो अपनेको ही अन्य देखता है। यह तो "स्वभाव एष देवस्य आप्तकामस्य का स्पृहा"-परमात्माका स्वभाव ही है।
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अब यह दीखना तो कोई अपराध नहीं है। भान तो ब्रह्मका स्वरूप है। यह नहीं समझना कि कोई वेदान्त-ज्ञान भानको मिटा देगा। ज्ञान भानका विरोधी नहीं है। ज्ञान तो अभावका विरोधी है। ज्ञान और भान तो एक है। स्वरूप, स्वरूपका विरोध नहीं होता है।
13/
जो प्रपंच मालूम पड़ रहा है, इस मालूम पड़नेका विरोधी ज्ञान नहीं है। इसीसे तो प्रकृति और प्राकृत-कार्यको सांख्य, योगवाले नित्य मानते हैं। अतः इसकी प्रतीति तो रहेगी, केवल इसमें सत्यत्वकी भ्रान्ति है माने आत्मासे भिन्न जो इसे सत्य वस्तु माने बैठे हैं, वह मिट जायेगी।
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अच्छा, इसे भ्रान्ति क्यों कहते हैं? जहाँ ज्ञानमें आना-जाना माना, वहाँ भ्रान्ति हुई। "भ्रमणं भ्रान्ति: " भ्रान्ति माने भ्रमण, भटकना। जब हमारा ज्ञान अंत:करणकी प्रमाण-वृत्तिपर आरूढ़ होकर प्रमेय देशमें जाता है तो समझ लो कि भ्रम हो गया।
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ज्ञान कोई देश-परिच्छिन्न तो है नहीं कि एक देशसे दूसरे देशमें जायेगा। वह तो देशका प्रकाशक है। वह कोई काल-परिच्छिन्न तो है नहीं कि एक कालमें यहाँ और दूसरे कालमें वहाँ और वह वस्तु-परिच्छिन्न तो है नहीं कि देहमें रहकर "अहम्" और विषयमें रहकर "इदं"।
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परन्तु, जहाँ ज्ञानमें भ्रमण हुआ, प्रमाण-वृत्तिपर आरूढ़ होकर विषय-देशमें गया और वहाँसे टकराकर लौटा, तो यह जो ज्ञानका आना-जाना है, यही भ्रमण है और "भ्रमणं भ्रान्ति:"-भ्रमण ही तो भ्रान्ति है।
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देखो, जैसे हमारी आँखकी वृत्ति शीशेमें जाकर टकराती है तो शीशेको नहीं देखती है। वहाँसे टकराकर, लौटकर अपने मुँहको देखती है। यदि शीशे में टकरानेकी कोई जगह न हो तो अपना मुँह नहीं दिखेगा।नेत्र-वृत्ति शीशेके उसपार चली जायेगी। जब नेत्र-वृत्ति शीशेसे टकराकर लौटती है,तब मुँह देखती है।
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यही तो हो गया न भ्रमण। विपरीत ज्ञानसे अपना मुँह दिखाई पड़ता है। यदि ज्ञान कहीं जाकर टकराये नहीं तो ज्ञेयकी उपस्थिति बुद्धिमें होगी नहीं। जब टकराकर लौटता है, तब ज्ञेयकी उपस्थिति बुद्धिमें होती है। तो यह लौटा हुआ ज्ञान हुआ न ! इसलिए इस ज्ञानका नाम हुआ "विपरीत ज्ञान" ।
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माने जो कुछ हम देखते हैं, वह ज्ञानके वैपरीत्यसे देखते हैं माने वह भ्रान्ति-ज्ञान है। जो कोई दूसरी चीज़ मालूम पड़ती है, वह विपरीतज्ञानसे मालूम पड़ती है। सो अपनेको ही अन्य देखते हैं। अतः
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अतः
"द्वैत-प्रपञ्चस्य अविद्याकृतत्वात्" ~ (शांकर भाष्य)
अर्थात् यह द्वैत-प्रपञ्च अविद्या है बिलकुल-इतनी बात ध्यानमें बैठा लो! "
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" “हिन्दू नववर्ष” कहना अनुचित है । “हिन्दू” शब्द अवैदिक है । सनातनी वा वैदिक नववर्ष कह सकते हैं । उससे भी बेहतर है केवल “नववर्ष” कहना, क्योंकि यह एकमात्र वैज्ञानिक एवं प्राकृतिक एवं दिव्य एवं अनादि एवं शाश्वत नववर्ष है,
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अन्य सब तो चाण्डालवर्ष वा म्लेच्छवर्ष वा व्रात्यवर्ष आदि हैं जो आर्यों द्वारा समाज से बहिष्कृत संस्कारहीन लोगों ने आरम्भ किये — उन सबमें सर्वाधिक भ्रष्ट एवं अवैज्ञानिक है ईसाई कैलेण्डर ।
2/
केवल वैदिक नववर्ष के अनुसार धार्मिक अनुष्ठानों का फल मिलता है। वैदिक कालमान नौ प्रकार के होते हैं,जिनमें संक्रान्ति वाले वर्ष एवं मासों का फल देश पर घटित होता है,यद्यपि व्यक्तियों को भी उस काल के जप−तप का फल मिलता है,जबकि धार्मिक कर्मों का वर्ष चैत्र शुक्लादि से आरम्भ होता है।3/
The same question applies to all the scientific theories of cosmology eg the Big Bang. They are nothing but imagination as by their own admission these theories deny the presence of any form of intelligence/consciousness at the start.
It's very simple. Between अहम् (Drashta) and इदम् (Drishya) there is never a state when अहम् is not present ie अहम् (Drashta) is experienced even when इदम् (Drishya) is not experienced ie during deep sleep.
"पराशरी होरा में ग्रहों को देवता कहा गया जो जीवों को कर्मफल देने के लिये अवतरित हुए। परन्तु दृक्पक्षवादियों के अनुसार आकाशीय मृतपिण्ड ही कर्मफल देते हैं और पूजन द्वारा शान्त होते हैं! ऐसे नक्षत्रसूचकों से बेहतर आधुनिक वैज्ञानिक हैं जो मुर्दा पिण्डों में दैवी शक्ति नहीं मानते।1/
मुर्दा पिण्डों में ज्योतिषीय प्रभाव मानना संसार की सबसे बड़ी मूर्खता है । देवता यदि हैं तो अदृश्य हैं । बाह्य चक्षु से जो दिखते हैं वे ऐन्द्रिक विषय हैं,देवता नहीं । ज्योतिष का प्रमाण फलादेश की जाँच है,न कि ऐन्द्रिक नक्षत्रसूचन । 2/
ऐन्द्रिक नक्षत्रसूचन चाण्डालकर्म है । मनुस्मृति में छ वेदाङ्गों की बड़ाई है परन्तु नक्षत्रसूचकों की चाण्डाल तथा पङ्क्तिदूषक कहकर निन्दा है । 3/
"देखोजी, वह तो उपासक लोग भी 'यह' के रूपमें ब्रह्मको जानते हैं। 'यह' के रूपसे ब्रह्मको जानेगा तो उससे अलग रहेगा। द्वैतवादका यही सिद्धान्त है। 'इदं' रूपसे उन्होंने ब्रह्मको जाना तो 'अहं' का लय कभी 'इदं' में होना सम्भवं ही नहीं है।
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पहले-पहल जब उनका सिद्धान्त अपनी दष्टिमें आया तो हम तो चकित रह गये। बड़ा आश्चर्य हुआ! ओ-हो, इतने अनुभवी, इतने विद्वान् ! जब 'यह' के रूपमें उन्होंने परमात्माको स्वीकार किया, तो 'मैं'का लय किसी 'यह' में कभी हो ही नहीं सकता। यदि 'मैं' का लय होगा तो 'मैं' का साक्षी कौन रहेगा?
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तो इसलिए, यदि अन्यरूप परमात्मामें जीवका मिलना होता है तो भेद स्वीकार करना ही सिद्धान्त हो सकता है। परन्तु, यदि स्वरूप-भूत परमात्मामें अन्यका लय होता है, तो वहाँ द्वैत रहनेकी कोई आवश्यकता नहीं है।
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"कोलकाता का भद्रलोक बेसिकली क्या है? भद्रलोक एक तरह का आप समझ लीजिये साहित्य फाइन आर्ट्स इत्यादि में रुचि रखने वाला पढा लिखा मध्यम वर्गीय तबका। 1/3
भद्रलोक थियोरेटिकली इज नोट सेम ऐज कास्ट लेकिन यह भी फैक्ट है कि भद्रलोक में ज्यादातर लोग जो हैं वह, ब्राह्मण, कायस्थ और वैद्या ये जो तीन कास्ट हैं बेंगाल कि, ज्यादातर इससे आये बिकाज ओफ हिस्टोरिकल रीजन्स."
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It's basically the Bengali equivalent of "Gora Gaa**d Khujhau Class" (or Double Distilled Raibahaduri Class) which was born (as a local brown cooley) to serve the needs of the colonial state.
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You are talking as if @govardhanmath handle is operated by Shankaracharya Ji himself. The handle is operated most likely by some caste supremacist Tambraham. I was blocked when I used to take on Steppe Aryan gang of Tambrahams.