थ्रेड: आदि-अनादि- 1
डिस्क्लेमर: ये पूरा फ़र्ज़ी थ्रेड है। फिलोसोफी का अपच है। हो सके तो इग्नोर करिये।
आजकल शिवभक्ति का काफी उबाल आया हुआ है। केदारनाथ, कैलाश मानसरोवर, तुंगनाथ से लेकर देश विदेश के भिन्न भिन्न कोनों में छुपे हुए शिवलिंग देखने को मिल रहे हैं।
आधुनिक पीढ़ी का शिव के साथ ये प्रेम देखकर थोड़ा आश्चर्य सा होता है। आश्चर्य इसलिए क्यूंकि दोनों बिलकुल ही विपरीत प्रवृति के हैं। आधुनिक पीढ़ी के पास आराम की सारी ऐसी चीजें उपलब्ध हैं जिनके बारे में सौ साल पहले कोई सोच भी नहीं पाता था।
गर्मी में AC, सर्दी में हीटर, सीढ़ी चढ़ने के लिए लिफ्ट, घूमने के लिए गाडी, एक से बढ़कर एक गैजेट, मनोरंजन के इतने साधन हैं कि कंफ्यूज हो जाएँ। दूसरी तरफ शिव हैं, बर्फ से पूरी ढकी पहाड़ के चोटी पर आधा शरीर ढके हुए, पशुओं के सानिध्य में, बिना घर बिना छत के वैरागी जैसे बैठे रहते हैं।
दोनों जीवन शैली के चरम छोर जैसे प्रतीत होते हैं। फिर क्यों शिव से मिलने की इतनी इच्छा है? और जितनी दुर्गम जगह पर शिवलिंग होगा उसका क्रेज उतना ही ज्यादा। मेरे जैसे कई लोगों का तो रिटायरमेंट प्लान ही है कि सारी सुख सुवधाओं को आग लगाकर किसी सुदूर जंगल या पर्वत की घाटी में रहा जाएगा।
प्रकृति की गोद में, शिव के पास। हमारे पूर्वज भी ये देख के सर पीट लेते होंगे कि उन्होंने तो इतनी मेहनत करके इतने बड़े बड़े नगर बसाये, इतनी सुविधाएँ जुटाई, और एक हम हैं जिनको फिर से जंगल-पहाड़ों में बसना है। जहां न इंटरनेट है, न गाडी जाती है, खाने को न स्विगी है न जोमैटो।
मानसिकता में ये परिवर्तन अकारण तो नहीं लगता। वरना 'शिवभक्तों' की तादाद इतनी मात्रा में ना बढ़ती। कहीं न कहीं ये दोनों छोर आपस में मिलने की कोशिश कर रहे हैं। भारतीय दर्शन भी तो समय की चक्रीय गति को मानता है। तभी तो सबसे नवीन पीढ़ी सबसे पुरातन आदिपुरुष की ओर आकर्षित हो रही है।
कहीं न कहीं हमारी सर्वसुविधा संपन्न आधुनिक जीवन शैली में कुछ रिक्ति है। भौतिकता का तो विकास हुआ है, मगर कुछ न कुछ पीछे छूट गया है। शायद उसी को लेने शिव के पास वापिस जा रहे हैं हम।
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जॉर्ज विल्हेम फ्रेडरिक हेगेल। एक जर्मन दार्शनिक जिनके विचार आधुनिक पाश्चात्य दर्शन की नींव रखते हैं। मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और उनके धर्म को लेकर विचारों के पीछे भी इनकी ही प्रेरणा थी।
मार्क्स ने कहा है कि "Religion is Opiate of Masses यानी धर्म जनता की अफीम है"। हेगेल ने इसके पीछे पूरा कारण भी बताया है। हेगेल कहते हैं कि जब व्यक्ति भगवान् को मानने लगता है तो वो अपनी शक्ति उसे दे देता है। बदले में उससे उम्मीद लगा लेता है।
अपनी इच्छा से अपनी शक्ति का त्याग करना उसे कमजोर कर देता है, और उम्मीद लगा कर बैठना उसे आश्रित बना देता है। और ये शक्ति भी वो ऐसी सत्ता के हवाले करता है जिससे कोई सवाल नहीं पूछ सकता। यही भक्ति कहलाती है। ऐसा व्यक्ति समाज के लिए तो क्या अपने लिए भी किसी काम का नहीं रहता।
किसी भी आदमी के पास ताकत दिखाने के दो तरीके होते हैं, 1. तू जानता है मेरा बाप कौन है? 2. जाके अपने बाप से पूछ मैं कौन हूँ। मतलब एक बात तो तय है कि किसी भी व्यक्ति का अस्तित्व दो हिस्सों से मिलकर बना होता है।
एक है "Traditional identity" यानी परंपरागत पहचान, और दूसरी "achieved identity" यानी "उपार्जित पहचान"। पारम्परिक पहचान का सम्बन्ध परिवार, क्षेत्र, जाति, पंथ इत्यादि से होता है। इनसे व्यक्ति का भावना का रिश्ता होता है। यहां लॉजिक, विज्ञान इत्यादि नहीं चलता।
वहीँ उपार्जित पहचान व्यक्ति स्वश्रम से हासिल करता है। यहां आप कॅल्क्युलेटेड निर्णय लेते हैं, फायदा नुक्सान देखते हैं। एक शांतिपूर्ण जीवन के लिए दोनों में बैलेंस आवश्यक है।
Disclaimer: यह पोस्ट पूरी तरह से पॉलिटिकल है। अगर आप BJP या कांग्रेस में से किसी के भक्त हैं तो हो सकता है कि ये पोस्ट पढ़ के आपकी भावनाएं आहत हो जाएँ। ऐसे केस में या तो आगे न पढ़ें, या फिर अपनी भावनाओं को स्थान विशेष में डाल कर रखें।
आजादी के बाद का भारत काफी समय तक एक परिवार विशेष की छत्रछाया में रहा। एक पूरी रणनीति के जरिये देश में ये माहौल बना कर रखा गया कि भारत आज जो भी है उस परिवार विशेष की मेहरबानी से ही है।
ये कोई आश्चर्य की बात भी नहीं है क्यूंकि 75 में से लगभग 38 साल तो देश के प्रधानमंत्री सीधे सीधे उसी परिवार से रहे। उनमें से भी सबसे ज्यादा (17 साल) नेहरूजी ने प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली। अब सत्ता के साथ सत्ता के चाटुकार भी आते हैं।
हिंदुस्तान में हॉकी के साथ सबसे बड़ी ट्रेजेडी ये नहीं है कि इसकी उपेक्षा की गई। सबसे बड़ी ट्रेजेडी ये है कि इसे राष्ट्रीय खेल घोषित किया गया। आजादी के समय भारत हॉकी में विश्व चैंपियन था। हर ओलंपिक में हॉकी में गोल्ड आते थे। लोग मेजर ध्यानचंद के दीवाने थे।
सरकार ने भी जोश जोश में आकर हॉकी को राष्ट्रीय खेल घोषित कर डाला। ये नहीं सोचा कि भारत की हॉकी में विश्वविजेता की पदवी परमानेंट नहीं है। हॉकी कोई भारत में कबड्डी या नौकायन की तरह सदियों से खेला जाने वाला खेल तो है नहीं कि भारत का युवा इस खेल में बचपन से ही पारंगत हो।
तो ऐसे में सिर्फ पिछले कुछ सालों की परफॉर्मेंस को देख कर हॉकी को राष्ट्रीय खेल घोषित कर देना ऐसा ही था जैसे नोकिया के पुराने मोबाइल को देखकर नोकिया को आजीवन मोबाइल सप्लाई करने का ठेका दे दिया जाए।
मेरे यहां एक महोदय 10-10 के एक हजार के लगभग सिक्के लेके आए और बोले कि चेंज करो। RBI सर्कुलर का हवाला देते हुए हमने मना कर दिया। कस्टमर ने पहले तो जम के तमाशा किया, जब फिर भी हमने सिक्के नहीं लिए तो सारे सिक्के ब्रांच में फेंक के चला गया।
थोड़ी देर हमको पुलिस स्टेशन से फोन आया कि साहब सिक्के ले लो (PSI से हमारी अच्छी जानकारी थी). हमने कहा कि हमारे पास इतने सारे सिक्के गिनने के लिए आदमी नहीं है। बेचारे PSI साहब बोले कि भाई आदमी मैं दे देता हूं, आप इसका काम कर दो, इसने पूरे पुलिस स्टेशन में हंगामा मचाया हुआ है।
हमने कहा ठीक है। पुलिस स्टेशन से एक कांस्टेबल सिक्के गिनने आया। गिनने पे पता चला कि 92 सिक्के कम हैं (शायद लोग उठा के ले गए थे). हमको लगा कि ये फिर बवाल मचाएगा, मगर कस्टमर खुश हो के बोला कि चलो फायदा हो गया।
अलाउद्दीन ख़िलजी पद्मावती को पाने के लिए विक्षिप्तता के स्तर पर पहुंच चुका था। वो कुछ भी करने को तैयार था। ताकत का नशा इस कदर हावी था कि जो चीज पसंद आ गई वो तो चाहिए ही थी। न सुनने के आदत नहीं थी। दिल्ली छोड़कर, चित्तौड़ के किले के बाहर आठ महीने तक डेरा डाले पड़ा रहा।
अंततः किले का फाटक खोला गया। भीषण लड़ाई हुई। दोनों तरफ के न जाने कितने ही सैनिक मारे गए। मगर खिलजी के पास ताकत ज्यादा थी। वो जीत गया। चितौड़ के अभेद्य किले पर अब खिलजी का अधिकार था। बड़ी उम्मीद के साथ खिलजी विजेता की तरह चित्तौड़ में घुसा। मगर भीतर का माहौल देखकर दंग रह गया।
नगर में उसे मिला तो धुएं का गुबार, जलती हुई लाशों की गंध, वीरान वीथियां। जीवित मनुष्य का कोई नामोनिशान तक नहीं। ऐसा लग रहा था कि शमशान में खड़ा हो। खिलजी जीतने के बाद भी हारा हुआ महसूस कर रहा था। जिसके लिए इतनी मेहनत की थी, इतनी लाशें बिछाई थी वो भी नहीं मिली।