पंजशीर वादी (दरी फ़ारसी: درهٔ پنجشير, दरा-ए-पंजशीर) उत्तर-मध्य अफ़ग़ानिस्तान में स्थित एक घाटी है। यह राष्ट्रीय राजधानी काबुल से १५० किमी उत्तर में हिन्दु कुश पर्वतों के पास स्थित है। यह वादी पंजशीर प्रान्त में आती है और इसमें से प्रसिद्ध पंजशीर नदी गुज़रती है। @Kanchan93333001
यहाँ लगभग १,४०,००० लोग बसे हुए हैं जिनमें अफ़ग़ानिस्तान का सबसे बड़ा ताजिक लोगों का समुदाय भी शामिल है।
तालिबान अफगान सत्ता पर काबिज हो गया है, लेकिन पंजशीर उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती बनकर खड़ा है। ये वो इलाका है जिसे तालिबान @Kanubha21169684
कभी नहीं जीत सका। इस बार भी इस अभेद्य दुर्ग को तालिबानी अब तक भेद नहीं पाए हैं।
पंजशीर की घाटियां तालिबान के विरोध का प्रतीक बनती जा रही हैं। कभी पंजशीर के शेर अहमद शाह मसूद का गढ़ रहे इस इलाके से विरोध का झंडा उनके बेटे अहमद मसूद ने उठाया है। @madhu_surana
उनके साथ अशरफ गनी सरकार में उप राष्ट्रपति रहे अमरुल्लाह सालेह भी हैं।ऐसा इस इलाके में क्या है जो तालिबान यहां कभी कब्जा नहीं कर सका?
इस इलाके का इतिहास और भूगोल क्या कहता है? पिछले बीस साल में पंजशीर कितना बदला है? @RPDULAR
पंजशीर की इस बार की लड़ाई पिछली बार से कितनी अलग है? आइए जानते हैं...
लड़ाई में पंजशीर घाटी के भूगोल की क्या भूमिका है?
काबुल से 150 किलोमीटर दूर उत्तर में स्थित पंजशीर घाटी हिंदुकुश के पहाड़ों के करीब है। उत्तर में पंजशीर नदी इसे अलग करती है। @
पंजशीर का उत्तरी इलाका पंजशीर की पहाड़ियों से भी घिरा है।
वहीं दक्षिण में कुहेस्तान की पहाड़ियां इस घाटी को घेरे हुए हैं। ये पहाड़ियां सालभर बर्फ से ढंकी रहती हैं। इसी से अंदाजा लगा सकते हैं कि पंजशीर घाटी का इलाका कितना दुर्गम है।
इस इलाके का भूगोल ही दुश्मन के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन जाता है।
कभी चांदी के खनन के लिए मशहूर रही है पंजशीर
मध्यकाल में ये घाटी चांदी के खनन के लिए मशहूर रही है। इस घाटी में अभी पन्ना के भंडार हैं। इनका सही इस्तेमाल हो तो ये पन्ना खनन का हब बन सकती है।
1985 तक इस वैली में करीब 190 कैरेट क्रिस्टल पाया गया था। कहा जाता है कि यहां पाए जाने वाले क्रिस्टल की क्वॉलिटी कोलंबिया की मुजो खदानों जैसी है। मुजो खदानों के क्रिस्टल दुनिया में सबसे बेहतरीन होते हैं। पंजशीर की धरती के नीचे पन्ना का बहुत बड़ा भंडार है।
जिसे अब तक छुआ तक नहीं गया है। अगर यहां माइनिंग का इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार हो जाता है तो इस इलाके का बहुत तेजी से विकास हो सकता है।पंजशीर का इतिहास क्या कहता है?
1980 के दशक में सोवियत संघ का शासन, फिर 1990 के दशक में तालिबान के पहले शासन के
दौरान अहमद शाह मसूद ने इस घाटी को दुश्मन के कब्जे में नहीं आने दिया। पहले पंजशीर परवान प्रोविंस का हिस्सा थी। 2004 में पंजशीर को अलग प्रोविंस का दर्जा मिल गया। अगर आबादी की बात करें तो 1.5 लाख की आबादी वाले इस इलाके में ताजिक समुदाय की बहुलता है। मई के बाद जब तालिबान ने एक बाद एक
इलाके पर कब्जा करना शुरू किया तो बहुत से लोगों ने पंजशीर में शरण ली। उन्हें ये उम्मीद थी कि पहले की ही तरह इस बार भी ये घाटी तालिबान के लिए दुर्जेय साबित होगी। उनकी ये उम्मीद अब तक सही साबित हुई है।
क्या पंजशीर के लड़ाकों को कभी विदेशी मदद भी मिली है?
1980 के दशक में सोवियत संघ के खिलाफ लड़ाई में पंजशीर के लड़ाकों को अमेरिका ने हथियार देकर मदद की थी। वहीं वित्तीय मदद उसे पाकिस्तान के जरिए आती थी। उसके बाद जब तालिबान सत्ता में आया तो यहां सक्रिय नॉर्दर्न अलायंस को भारत, ईरान और रूस से मदद मिली।
उस दौर में अफगानिस्तान का अधिकांश उत्तरी इलाका तालिबान के कब्जे से दूर ही रहा।
इस बार तालिबान पिछली बार की तुलना में ज्यादा मजबूत हुआ है। पंजशीर एकमात्र प्रोविंस है जो तालिबान के कब्जे से दूर है। तालिबान को चीन, रूस और ईरान का भी समर्थन है।
ये भी तय नहीं है कि पंजशीर के लड़ाकों को इस बार कोई इंटरनेशनल मदद मिलेगी भी या नहीं। अहमद शाह मसूद के बेटे और इस बार पंजशीर में लड़ाई की अगुआई कर रहे अहमद मसूद ने भी कहा है कि वो अपने पिता के नक्शे कदम पर चलने को तैयार हैं,
लेकिन इसके लिए उन्हें और हथियार और गोला-बारूद की जरूरत पड़ेगी। वो इंटरनेशनल कम्युनिटी से मदद चाहते हैं।
पिछले बीस साल से तो अफगान सरकार सत्ता में थी, इस दौरान क्या पंजशीर में कोई डेवलपमेंट नहीं हुआ?
पिछले बीस साल के दौरान पंजशीर में विकास के कुछ काम हुए हैं।
घाटी में आधुनिक सड़कों का निर्माण हुआ है। एक नया रेडियो टावर भी यहां लगाया गया है। इसके लगने के बाद घाटी के लोग काबुल रेडियो का प्रसारण सुन पाते थे। हालांकि अभी भी यहां मूलभूत सुविधाओं का अभाव है। अफगान सरकार के दौरान यहां किसी तरह का कोई खूनी संघर्ष नहीं हुआ।
इस वजह से इस इलाके को अमेरिकी मानवाधिकार कार्यक्रमों के जरिए मदद नहीं मिल सकी। 512 गांवों और 7 जिलों वाले इस प्रोविंस में बिजली और पानी तक की सप्लाई की व्यवस्था नहीं है।
पंजशीर के सामने बड़ी चुनौती क्या है?
पंजशीर की सीमा से लगने वाले हर इलाके पर तालिबान का कब्जा हो चुका है।
ऐसा खतरा जताया जा रहा है कि तालिबान जरूरी समानों और खाने-पीने की चीजों की सप्लाई रोक सकता है। ऐसे में इस इलाके को अंतरराष्ट्रीय मदद की जरूरत होगी। हालांकि आधिकारिक रिपोर्ट्स कहती हैं कि पंजशीर घाटी के पास इतना खाना और मेडिकल सप्लाई है कि अगली सर्दियों तक उसका काम चल सकता है।
2001 में तालिबान को सत्ता से बेदखल करने में क्या था पंजशीर का रोल?
बात 1996 की है, जब तालिबान ने काबुल पर कब्जा किया। तालिबान ने उस वक्त तक उत्तरी अफगानिस्तान छोड़कर अधिकांश इलाकों पर कब्जा कर लिया था।
उसके सत्ता में आने के बाद राष्ट्रपति बुरहानुद्दीन रब्बानी और रक्षा मंत्री अहमद शाह मसूद अपने साथियों के साथ उत्तरी अफगानिस्तान आ गए। यहां, पंजशीर के शेर मसूद ने तालिबान के खिलाफ नॉर्दर्न अलायंस का गठन किया। पंजशीर से ही तालिबान के खिलाफ लड़ाई जारी रही।
2001 में मसूद अल-कायदा के हमले में मारे गए। इसके बाद जब अमेरिका अफगानिस्तान आया तो उसके सफल होने में नॉर्दर्न अलायंस का बड़ा रोल था। नॉर्दर्न अलायंस की मदद से अमेरिका ने तालिबान को सत्ता से बेदखल कर दिया।
इस बार पंजशीर के लिए कितनी अलग है लड़ाई?
पिछली बार जहां उत्तरी अफगानिस्तान के कई इलाके तालिबान के कब्जे में नहीं थे। वहीं, इस बार पंजशीर को छोड़कर पूरा उत्तरी अफगानिस्तान भी तालिबान के कब्जे में है। तालिबान के खिलाफ लड़ाई की अगुआई अहमद शाह मसूद के 32 साल के बेटे अहमद मसूद कर रहे हैं।
उनके साथ गनी सरकार में उप-राष्ट्रपति रहे अमरुल्लाह सालेह भी हैं। गनी के देश छोड़कर चले जाने के बाद सालेह ने खुद को देश का केयर टेकर राष्ट्रपति घोषित किया है। ऐसे संकेत हैं कि तालिबान के खिलाफ लड़ाई का केंद्र अब पंजशीर ही होगा।
पिछली बार के मुकाबले इस बार हालात ज्यादा मुश्किल हैं।
सालेह और मसूद के लिए अफगान लोगों के बीच 1990 के दशक जैसा समर्थन हासिल करना भी बड़ी चुनौती होगी। चारो तरफ से तालिबान से घिरा पंजशीर हर तरह की सप्लाई लाइन काट दिए जाने के बाद उससे कैसे लड़ेगा, ये भी देखना होगा।
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अब तक हम बात कर रहे थे इस्लाम की, जहां हमने यह समझा कि इसमे कितने पंथ है और क्यों सब एक दूसरे के खून के प्यासे है।
आज समझने की कोशिश करते हैं कि क्यों ईसाई यहुदी और इस्लाम में इतनी बड़ी जंग चल रही है।
फर्क़ यह है कि ईसाई वाले इस्लाम का इस्तेमाल कर के उसे अंदर अंदर ही खत्म
करवा रहे हैं जबकि यहुदी बाकायदा जंग पर है।यहूदी, ईसाई और मुसलमानों की जंग का सच
यहूदी और मुस्लिम धर्म लगभग समान है फिर भी यहूदी और मुसलमान एक-दूसरे की जान के दुश्मन क्यों हैं? ईसाई धर्म की उत्पत्ति भी यहूदी धर्म से हुई है, लेकिन दुनिया @Sanjay42194654
अब ईसाई और मुसलमानों के बीच जारी जंग से तंग आ चुकी है।
तीनों ही धर्म एक दूसरे के खिलाफ हैं, जबकि तीनों ही धर्म मूल रूप में एक समान ही है। आओ जानते हैं इस जंग के इतिहास का संक्षिप्त।
613 में हजरत मुहम्मद ने उपदेश देना शुरू किया था तब मक्का, मदिना सहित पूरे @Sanjeev_Nahata
इसबार राहुल गांधी जीस वायनाड से चुनाव लड़े उस वायनाड और उसके इतिहास को जानना जरूरी है क्योंकि आज के समम में केरल से ISIS का संपर्क भी लगातार सामने आता रहा है।
इस लेख में बहुत सी ऐसी बातें उजागर होगी जिससे बहुत कम लोग जानते हैं।
वायनाड का काला सच
दक्षिण भारत को छोड़कर शेष भारत में रहने वाले लोगों को यह संभवत प्रथम बार ज्ञात हुआ कि केरल में एक ऐसा भूभाग है जहाँ पर अहिन्दू (मुस्लिम +ईसाई) जनसंख्या हिन्दुओं से अधिक है । बहुत कम हिन्दुओं को यह ज्ञात होगा कि उत्तरी केरल के कोझिकोड, मल्लपुरम और वायनाड के इलाके दशकों
पहले ही हिन्दू अल्पसंख्यक हो चुके थे। इस भूभाग में हिन्दू आबादी कैसे अल्पसंख्यक हुई ? इसके लिए केरल के इतिहास को जानना आवश्यक हैं। @bkMisralOO7_O7
इस्लाम के पंथों (फिरको) की जानकारी पिछले कुछ दिनों से चल रहीं हैं उसी लेख को आगे बढाते हुए आज इस्लाम में जीस पंथ या फिरके को बहुत ही कम इस्लामिक माना जाता है ऐसे "अहमदिया" मुस्लिम के बारे में आज का लेख हैं।
इस्लाम के 73 फिरको में से इस्लाम द्वारा सबसे ज्यादा प्रताड़ित फिरका है "अहमदिया"। प्रताड़ित किए जाने की वजह को भी समझते हैं।
कहने को मुसलमान फिर भी पाकिस्तान में इनके लिए कोई जगह नहीं है।
अहमदिया समुदाय की नींव 23 मार्च 1889 को भारत के पंजाब राज्य में आने वाले गुरदासपुर के
कादियान नामक कस्बे में रखी गई थी। मिर्जा गुलाम अहमद जो इसके संस्थापक थे उन्होंने सन् 1891 में अपने आप को 'पैगंबर' घोषित कर दिया था।
जर्मनी में रहने वाले अहमदिया मुसलमानों पर इस समय बड़ा संकट आया हुआ है। उन पर इस समय पाकिस्तान भेजे जाने का खतरा मंडरा रहा है।
हिन्दू में बनी वर्ण प्रथा (जो कि कर्म के आधारित थी उसे जातिवाद में बदल दिया गया) सिर्फ़ 4 हु हैं। जब कि इस्लाम में 72 (की जगह पर 73 कहा गया है) फिरको में से आज कुछेक को जानने की कोशिश करते हैं।
कल के लेख में दो मुख्य फिरके सुन्नी और शिया के बारे में पढ़ा आज थोड़ा
और आगे जानते हैं।
दुनिया के मुसलमान कितने पंथों में बंटे हैं?
चरमपंथ और इस्लाम के जुड़ते रिश्तों से परेशान भारत में इस्लाम की बरेलवी विचारधारा के सूफियों और नुमाइंदों ने एक कांफ्रेंस कर कहा कि वो दहशतगर्दी के खिलाफ हैं। सिर्फ इतना ही नहीं बरेलवी समुदाय ने इसके लिए वहाबी
विचारधारा को जिम्मेदार ठहराया।
इन आरोप-प्रत्यारोप के बीच सभी की दिलचस्पी इस बात में बढ़ गई हैकि आखिर ये वहाबी विचारधारा क्या है। लोग जानना चाहते हैं कि मुस्लिम समाज कितने पंथों में बंटा है और वे किस तरह एक दूसरे से अलग हैं?
इस्लाम के सभी अनुयायी खुद को मुसलमान कहते हैं
हम सब हिन्दू जातिवाद और हिन्दू के अंदर कुपोषित कीए गए बहुत से तथ्यों को रोज सुनते रहते हैं पर हम कभी भी मुस्लिम समुदाय में चल रहे सबसे बड़े भेदभाव से अभी तक अज्ञात है।
आईये आज सफर करते हैं कुछ ऐसे ही विषय पर जहां कुछेक पहलु को उजागर करने की कोशिश की गई है।
दुनियाभर में क्यों भिड़े हैं शिया और सुन्नी?
इराक़ में जारी संघर्ष ने एक बार फिर सुन्नी और शियाओं के बीच मतभेदों को उजागर कर दिया है. सीरिया में भी जारी संघर्ष में शिया-सुन्नी विवाद की गूंज सुनाई देती है लेकिन इस मतभेद के बुनियादी कारण क्या हैं, जानते हैं। @madhu_surana
शिया और सुन्नियों में अंतर
मुसलमान मुख्य रूप से दो समुदायों में बंटे हैं- शिया और सुन्नी. पैगंबर मोहम्मद की मृत्यु के तुरंत बाद ही इस बात पर विवाद से विभाजन पैदा हो गया कि मुसलमानों का नेतृत्व कौन होगा.
फिल्मी हस्ती जावेद अख्तर भारत में मुगल शासन को "खुशहाली का समय" मानते हैं। तुलना करते हुए वे अकबर, जहाँगीर और औरंगजेब को महान और अंग्रेजों को गया-गुजरा बताते हैं।
मुख्यतः इसी मतभेद पर वे तारिक फतह को हिन्दू सांप्रदायिकों का ‘प्रवक्ता’ कहते हुए जलील कर रहे हैं। वस्तुतः मुगल काल को गौरव-काल बताना लंबे समय से चल रहा है। यह स्वतंत्र भारत में अधिक प्रचारित हुआ। कांग्रेस-कम्युनिस्ट सत्ता गठजोड़ ने राजकीय बल से इसे स्कूल-कॉलेजों तक फैला दिया।
हमारे नेताओं ने सच दबाने और झूठ फैलाने का गंदा काम किया, करवाया हैं। इसी का दूरगामी असर अब हर कहीं दिखता है।
सचाई यह है कि भारत में मुगल शासन भी ब्रिटिश शासन जैसा "विदेशी" था।