सोच कर ही हँसी आती है..किस तरह शेखर गुप्ता जैसे धर्मनिरपेक्षता के प्रवर्तक इस बात को बढ़ावा देते हैं कि समाज के एक बड़े तबके को हाथों में उठा कर रखा जाए,उसके सब नखरे उठाए जाएँ,उसकी सही गलत हर बात को माना जाए,कहीं वो रूठ न जाए..कहीं वो बुरा न मान जाए,दूसरों के विरुद्ध न हो जाए..
अजीब बात है..इस डर ने न केवल हमारी लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्षता को विकृत किया है बल्कि हमें सबसे ज्यादा हानि पहुँचाई है..
एक तो उन्हें पूरा भरोसा दिलाया गया है कि "देश के
संसाधनों पर पहला अधिकार उनका है.."
अपेक्षा की जाती है कि उनकी भावनाओं,संवेदनाओं और धार्मिक हितों का ध्यान सबसे पहले रखा जाए..
लेकिन अब समाज के दूसरे समुदाय का असंतोष छलकने लगा है..अब वे इस खास बर्ताव के प्रति अपने क्रोध की अभिव्यक्ति करने से हिचकिचाते नहीं..फिर चाहे बात शिक्षा की हो,पूजा स्थलों पर सरकारी नियंत्रण की हो..त्योहार मनाने का अधिकार या समाचारों में अपराधियों के नाम छुपाने की हो..
प्राथमिकता नहीं केवल समानता माँगने भर से लगता है कि अब तक विशेषाधिकार भोगने वाले समुदाय में एक असुरक्षा की भावना जाग गई है..
और अब तक शांत रहने वाले लोगों में उभरे क्रोध को देख धर्मनिरपेक्षता के तथाकथित प्रवर्तकों को झटका सा लगा है..
क्या समाज के बुद्धिजीवी वर्ग
की आँखों पर परदा पड़ा है.. या वे इतने कुंदमस्तिष्क है कि उन्हें अब तक की गलतियां
दिखाई नहीं दे रहीं?
उन्हें स्वीकार कर सुधार करने के बजाय वे अभी भी उन्हें पहले की तरह हाथों में उठाए रखना चाहते हैं..कभी भी एकीकरण और समान अवसर के सुझाव ही नहीं देते..
लगता है सारा जोर एक समुदाय विशेष को अलग-थलग करने
पर लगाया जा रहा है.. मानसिक और वास्तविक तौर पर एक समुदाय को यहुदियों की तरह एक अँधी खाई में ढकेला जा रहा है जिससे न तो उस समुदाय का भला होगा और ना ही देश के बाकी लोगों का..!
दुर्भाग्य की बात है कि विभाजन के 74वर्ष बाद भी इन सौदागरों के कारण आज फिर हम एक दोराहे पर खड़े हैं..या तो वे या हम..!
वे अपनी गलतियाँ मानना ही नहीं चाहते..
और फिर आती है रविवार की सुबह..जबरदस्ती की बेतुकी और अर्थहीन लीपापोती के साथ..
भारतीय इस्लाम..!!
"उत्तर भारत में पले-बढ़े मेरी पीढ़ी के लोगों के लिए इस्लाम का अर्थ पाँच वक्त की नमाज से न हो कर शायरी, साहित्य, मौसिकी और सिनेमा से है..
मेरी यादें हिंदूत्व के पहले की दिल्ली की हैं..जब हम दूसरे रोज मुशायरों और महफिलों में जाया करते थे.."
"कभी हम जुम्मेरात की शाम निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर कव्वालियां सुनने जाना तो कभी अलस्सुबह जामा मस्जिद के साये में करीम के रेस्त्रां में निहारी पर नाश्ते के लिए जाना.."
जब सब कुछ इतना ही अच्छा था तो कोई इन मोहतरमा से पूछे कि 1947 में पंजाब और बंगाल के दो टुकड़े करने की नौबत क्यों आन पड़ी..?
और बाद के दशकों में इतनी बार हिंदू-मुस्लिम खूनी दंगे क्यों हुए..?
ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि (यदि मैं अपनी बात कह सकूँ)
वो लोग जो-
जुम्मेरात की शाम को निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर कव्वाली सुनने जाते थे या जामा मस्जिद के साये में निहारी करने जाते थे"
वे लोग अधकचरी धर्मनिरपेक्षता के नाम पर खेली जा रही घिनौनी राजनीति से अपनी आँखें मूँद लिया करते थे..
वो राजनीति जो इन महफिलों के चाहने वालों की शै से कच्ची बस्तियों और छोटे-मोटे कस्बों में खेली जाती थी..
बड़ी ही आसानी से वे उन लोगों की चीखों को अनसुना कर देते थे जो माँस के लोथड़ों के बीच से अपनी गृहस्थी के अंजर-पंजर समेट यहाँ-वहाँ डरकर भागते रहे थे।
चिंता की जरूरत भी नहीं थी..
मारकाट के बाद ज्यादा फायदा जो था..
साफ कहा जाए तो हिंदूत्व के पहले 33साल पूरे करने वाली मेरी पीढ़ी साक्षी है हैवानियत की..
याद कीजिए..
रांची '67
अहमदाबाद '69, '73
मुरादाबाद '80
नैल्ली '83
भिवंडी '84
गुजरात '85
जम्मू कश्मीर '86
मेरठ '87
दिल्ली '87
...
औरंगाबाद '88
मुजफ्फरनगर '88
भागलपुर '89
कोटा '89
बदायूं '89
इंदौर '89
कश्मीरी पंडित '90
कर्नलगंज '90
गुजरात '90
कर्नाटक '90
कानपुर '90
हैदराबाद '90
आगरा '90
गोंडा '90
खुरजा '90
सहारनपुर '91
मेरठ '91
वाराणसी '91
सीतामढ़ी '92
बॉम्बे '92
कर्नाटक '92
....
हुबली '94
बैंगलोर '94..
क्या फर्क पड़ता है..?
कुछ लोगों को सिर्फ रसीली "निहारी" याद आती है..!!
थोड़ा बहुत खूनखराबा क्या मायने रखता है अगर उससे "निहारी" का बंदोबस्त हो जाए..!!
यदि आप ये मानते रहे हैं कि सब को समान नियमों से लड़ना चाहिए और न्याय के मापदंड भी समान होने चाहिए तो 60 साल पहले आपको एक कट्टरपंथी कहा जाता, 30 साल पहले एक उदार की उपाधि मिलती और आज एक नस्लवादी का खिताब मिलता..
~थॉमस सॉवेल
As is evident C-19 has taken it's toll..
On everyone..Teachers and students alike..
Like everything else teaching Post Corona
Is going to be much more challenging a task.
Teaching a class of 40-50 teens bubbling with insane energy and enthusiasm gives an instant adrenaline rush..The Good, bad and ugly sort of motley crowd armed with the googlies beyond google are bound to bowl you off..
Brace yourself dear teachers..
Considered superhumans until last couple of years,these bright young minds are now equipped with full awareness that the teacher is just another human being.
You will have to take them in your stride once again..
ओलंपिक प्रदर्शन पर चार साल में एक बार प्रलाप से कुछ नहीं होता..
बच्चों के साथ सर्दी-गर्मी-बरसात भूल खेल के मैदान में तपस्या करनी होती है..
हैं तैयार आप..?
फेल/पास सब छोड़ कर धुन लगानी होती है..
हैं तैयार आप?
सुबह चार बजे से आरंभ होती है दिनचर्या..
हैं तैयार आप?
इस शहर से उस शहर दौड़ लगानी होती है बच्चे को लेकर..तैयार हैं आप!
खिलाड़ियों को अक्सर किसी छात्रावास या विद्यालय में एक साथ ठहराया जाता है..तैयार हैं आप?
कोच की सुननी होती है..शादी-ब्याह सब भूलना होता है..तैयार हैं आप?
भारत खेल प्राधिकरण के चक्कर काटने होते हैं..तैयार हैं आप?
व्यक्तिगत प्रतिस्पर्धाओं के उपकरण महँगे आते हैं..तैयार हैं आप?
लालफीताशाही से लड़ने को तैयार हैं आप..तैयार हैं आप?
भाई-भतीजावाद से पार पाना होता है..तैयार हैं आप?
खेलों के क्लबों की सदस्यता लेनी होती है..तैयार हैं आप?
ड्राइंग रूम में टीवी चैनल बदल कर खिलाड़ी नहीं बनते..
जानना चाहेंगे कि जूही जी को ये एक्टीविज्म का जोश क्यों चढ़ा..?
आज तक जूही विवादों से दूर रही है तो अभी ऐसा क्या हुआ कि वे सीधे न्यायालय पहुँच गई..?
क्या हो सकती है उनकी इस तुरत सक्रियता के पीछे की कहानी..?
जूही ने दिल्ली उच्च न्यायालय में दायर याचिका में कहा कि "हम ने इस विषय पर स्वयं छानबीन कर पता लगाया है कि 5G विकिरण हानिकारक हैं.."
उनके इस "हम" में शामिल हैं..जूही स्वयं, सेलोरा और विल्कॉम..
जूही इस क्षेत्र में पिछले एक दशक से सक्रिय हुईं जब से उन्होंने अपने निवास स्थान के आसपास मोबाइल रेडिएशन के विरुद्ध आवाज उठाई। विकिरण विरोधी अभियान में वे IIT प्रोफेसर गिरीश कुमार का साथ दे रही हैं..
व्यापारियों द्वारा कालाबाजारी और जमाखोरी तो होती आई है..आखिर बाजार में बैठे हैं..मगर कोरोना महामारी में सरकारें भी कालाबाजारी पर उतर आईं..!
कारण..?
मोदी से नफरत या मुनाफे की हुड़क..
अब जनता कहाँ जाए..?
चौथा स्तंभ जिसका उत्तरदायित्व था कि जनता की बात रखता..सरकारों पर नज़र रखता,यहाँ-वहाँ जलती लाशों, चिताओं की तस्वीरें बेचता रहा,लोगों को भयभीत करता रहा..उल्टे-सीधे अर्थहीन विषयों पर कुकरहाव करता रहा..और फ्रंट लाईन वारियर के नाम मुफ्त वैक्सीन माँगता रहा..
तो जनता कहाँ जाए..?
पंजाब सरकार 400रू की दर से वैक्सीन खरीद कर कोल्ड स्टोरेज में रख देती है..वैक्सीन की कमी का ठीकरा रो रो कर केन्द्र के नाम फोड़ती है और मूल्य बढ़ते ही प्रायवेट अस्पतालों को 1060रू में बेचती है..और वे इसे 1500 से लेकर 1800 तक बेचते हैं..
कोरोना की दूसरी लहर में प्रशासन जनता को विश्वास दिलाने में असफल रहा फिर चाहे वे राज्य सरकार हो या केन्द्र सरकार.. ऑक्सीजन,वैंटीलेटर,रेमीदेसिविर, वैक्सीनेशन किसी भी क्षेत्र में लगा ही नहीं कि हमारा कोई धणी-धोरी है,जनता ने स्वयं को इतना अनाथ, इतना असहाय कभी महसूस नहीं किया..
भ्रष्टाचार मिटाने का ढोल पीटते रहें और हमारी ही नाक के नीचे दवाओं की कालाबाजारी,ऑक्सीजन की जमाखोरी चलती रही तो सरकार रही कहाँ..?
कोई सात सौ सिलेंडर दबा कर बैठा रहा और न्यायालय ने उसे जमानत दे दी..
थू है ऐसी न्याय व्यवस्था पर..!
क्या न्याय ऐसा होता है..?
सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही सोशल मीडिया पर कुतरभसाई कर के अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझने लगे हैं..
किसी के पास किसी तरह का कोई जवाब नहीं है सिवा तू-तू मैं-मैं के..
और टीवी पर डिबेट के नाम की नौटंकी की क्या कहिए..?
शर्म आती है कि ये राजनैतिक दलों के प्रवक्ता हैं..
नमस्कार मित्रों..
वैसे तो हम सभी गूगल चाची और वाट्स अप यूनिवर्सिटी के चलते कोरोना विशेषज्ञ हो गए हैं..फिर भी कुछ महत्वपूर्ण बातें बताना चाहूँगी जो डाक्टर @DNeurosx ने कुछ देर पहले ट्विटर स्पेस में बताई और मेरी मोटी बुद्धि में समझ आई।
सबसे महत्वपूर्ण बात तो ये कि अति आत्मविश्वास में ना रहें। कोरोना की किसी से रिश्तेदारी नहीं है इसलिए मास्क पहनने और सावधानियों में बिल्कुल भी ढील न दें।
इस बीमारी से बचाव ही बेहतर है। इसलिए ध्यान रखें अपना भी और अपने अपनों का भी..
वैक्सीन अवश्य लगवाएं।
अब यदि सारी सावधानियों के बावजूद भी कोरोना हो जाता है तो क्या करें।
पहली चीज..लक्षण..
बिल्कुल आम बुखार जैसा महसूस होगा..
तापमान बढ़ा हुआ और बदन दर्द।
घबराहट की कोई बात नहीं है..
हर बुखार कोरोना नहीं होता।
बुखार आते ही जाँच के लिए यहाँ - वहाँ भागने की जरूरत नहीं है।