जानना चाहेंगे कि जूही जी को ये एक्टीविज्म का जोश क्यों चढ़ा..?
आज तक जूही विवादों से दूर रही है तो अभी ऐसा क्या हुआ कि वे सीधे न्यायालय पहुँच गई..?
क्या हो सकती है उनकी इस तुरत सक्रियता के पीछे की कहानी..?
जूही ने दिल्ली उच्च न्यायालय में दायर याचिका में कहा कि "हम ने इस विषय पर स्वयं छानबीन कर पता लगाया है कि 5G विकिरण हानिकारक हैं.."
उनके इस "हम" में शामिल हैं..जूही स्वयं, सेलोरा और विल्कॉम..
जूही इस क्षेत्र में पिछले एक दशक से सक्रिय हुईं जब से उन्होंने अपने निवास स्थान के आसपास मोबाइल रेडिएशन के विरुद्ध आवाज उठाई। विकिरण विरोधी अभियान में वे IIT प्रोफेसर गिरीश कुमार का साथ दे रही हैं..
वे विकिरणरोधी उपकरण कंपनी WilcomTech के चेयरमेन हैं।उनकी पुत्री नेहा कुमार कंपनी की निदेशक हैं जिन्होंने विकिरणरोधी विलयन का पेटेंट लिया हुआ है तो ये अभियान बिक्री बढ़ाने की एक रणनीति से अधिक कुछ नहीं है ताकि लोग डरें और विल्कॉम के उत्पाद बिकें..
पिता-पुत्री दोनों मोबाइल टावर रेडिएशन के हल्ला मचाए रहते हैं और अपनी कंपनी का उत्पाद आगे बढ़ाते रहते हैं..
सरकारी एजेंसी की नज़र में आए तो पूरे अभियान की असलियत सामने आई..
बचाव के लिए जूही का समर्थन जुटाया..
कहा जाता है कि जूही के पति जय मेहता लुसाका प्रोपर्टीज़ से जुड़े हुए हैं जो विल्कॉमटेक में मुख्य निवेशक हैं और पेरेंट कंपनी सलोरा समूह से भी संबद्ध हैं।उल्लेखनीय है कि सलोरा भी कम विकिरण वाले 3G फोन बनाता है।सलोरा के प्रबंध निदेशक भी विल्कॉम के निदेशक हैं।
जूही चावला अपने प्रचार का पूरा समय विकिरण के हानिकारक प्रभावों को सामने लाने में लगाती है किंतु
स्वयं कुरकुरे जैसे कैंसरकारक का विज्ञापन करती है।
यूँ तो पर्यावरणविद् कहती हैं वे स्वयं को किंतु अपने पति के प्लास्टिक पैकेजिंग व्यवसाय के खिलाफ चूं नहीं करतीं।
सच तो यह है कि जूही गिरीश कुमार और विल्कॉम के बचाव,लाभ और प्रचार में केवल एक भूमिका अदा कर रही हैं..
जैसा कि सभी मशहूर हस्तियाँ करती आईं हैं..
कुमार-विल्कॉम-सेलोरा-मेहता..सब घर की ही बात है..!
दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस याचिका को सिरे से खारिज कर न्यायालय का अमूल्य समय बर्बाद करने के लिए जूही चावला को 20लाख रूपये का जुर्माना भरने को कहा है..सबक मिलना ही चाहिए.. @DessieAussie के थ्रेड से साभार..
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व्यापारियों द्वारा कालाबाजारी और जमाखोरी तो होती आई है..आखिर बाजार में बैठे हैं..मगर कोरोना महामारी में सरकारें भी कालाबाजारी पर उतर आईं..!
कारण..?
मोदी से नफरत या मुनाफे की हुड़क..
अब जनता कहाँ जाए..?
चौथा स्तंभ जिसका उत्तरदायित्व था कि जनता की बात रखता..सरकारों पर नज़र रखता,यहाँ-वहाँ जलती लाशों, चिताओं की तस्वीरें बेचता रहा,लोगों को भयभीत करता रहा..उल्टे-सीधे अर्थहीन विषयों पर कुकरहाव करता रहा..और फ्रंट लाईन वारियर के नाम मुफ्त वैक्सीन माँगता रहा..
तो जनता कहाँ जाए..?
पंजाब सरकार 400रू की दर से वैक्सीन खरीद कर कोल्ड स्टोरेज में रख देती है..वैक्सीन की कमी का ठीकरा रो रो कर केन्द्र के नाम फोड़ती है और मूल्य बढ़ते ही प्रायवेट अस्पतालों को 1060रू में बेचती है..और वे इसे 1500 से लेकर 1800 तक बेचते हैं..
कोरोना की दूसरी लहर में प्रशासन जनता को विश्वास दिलाने में असफल रहा फिर चाहे वे राज्य सरकार हो या केन्द्र सरकार.. ऑक्सीजन,वैंटीलेटर,रेमीदेसिविर, वैक्सीनेशन किसी भी क्षेत्र में लगा ही नहीं कि हमारा कोई धणी-धोरी है,जनता ने स्वयं को इतना अनाथ, इतना असहाय कभी महसूस नहीं किया..
भ्रष्टाचार मिटाने का ढोल पीटते रहें और हमारी ही नाक के नीचे दवाओं की कालाबाजारी,ऑक्सीजन की जमाखोरी चलती रही तो सरकार रही कहाँ..?
कोई सात सौ सिलेंडर दबा कर बैठा रहा और न्यायालय ने उसे जमानत दे दी..
थू है ऐसी न्याय व्यवस्था पर..!
क्या न्याय ऐसा होता है..?
सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही सोशल मीडिया पर कुतरभसाई कर के अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझने लगे हैं..
किसी के पास किसी तरह का कोई जवाब नहीं है सिवा तू-तू मैं-मैं के..
और टीवी पर डिबेट के नाम की नौटंकी की क्या कहिए..?
शर्म आती है कि ये राजनैतिक दलों के प्रवक्ता हैं..
नमस्कार मित्रों..
वैसे तो हम सभी गूगल चाची और वाट्स अप यूनिवर्सिटी के चलते कोरोना विशेषज्ञ हो गए हैं..फिर भी कुछ महत्वपूर्ण बातें बताना चाहूँगी जो डाक्टर @DNeurosx ने कुछ देर पहले ट्विटर स्पेस में बताई और मेरी मोटी बुद्धि में समझ आई।
सबसे महत्वपूर्ण बात तो ये कि अति आत्मविश्वास में ना रहें। कोरोना की किसी से रिश्तेदारी नहीं है इसलिए मास्क पहनने और सावधानियों में बिल्कुल भी ढील न दें।
इस बीमारी से बचाव ही बेहतर है। इसलिए ध्यान रखें अपना भी और अपने अपनों का भी..
वैक्सीन अवश्य लगवाएं।
अब यदि सारी सावधानियों के बावजूद भी कोरोना हो जाता है तो क्या करें।
पहली चीज..लक्षण..
बिल्कुल आम बुखार जैसा महसूस होगा..
तापमान बढ़ा हुआ और बदन दर्द।
घबराहट की कोई बात नहीं है..
हर बुखार कोरोना नहीं होता।
बुखार आते ही जाँच के लिए यहाँ - वहाँ भागने की जरूरत नहीं है।
1739 के "कत्लेआम" में नादिरशाह दुर्रानी ने करीब एक लाख बीस हजार लोगों को मौत के घाट उतार दिया था और तब से दिल्ली "मुर्दों का शहर" बन गई.
यूँ भी ऐबक,लोधी,खिलजी,तुगलक, सयैद आदि इत्यादि के अधीन रही दिल्ली के कोने-कोने में तो कब्रें और कब्रगाहें बनी पड़ी हैं ज़िंदगी आती भी कहाँ से..?
फिर मुगल स्थापत्य कला तो जानी ही मुर्दों की स्थापत्यकला के रूप में जाती है।
"जीतों को ज़िंदा जलाते थे आखिर
मैयत की मिट्टी सजाते थे आखिर"
दिल्ली के कोने-कोने में कब्रें तो थीं ही तो क्या आश्चर्य कि आजादी के बाद हमारे महान राष्ट्रीय खानदान यानि नेगाँधी वंश ने भी वैसा ही किया?
पुराने समय के समाज में महिलाओं और पुरुषों के लिए कई नियम बने थे जिन्हें रिवाज या परंपरा कहा गया।
प्राचीन भारतीय समाज में स्वास्थ्य एवं शुचिता की दृष्टि से इन नियमों का पालन आवश्यक था।
कालांतर में यही रिवाज कुरीतियों में बदल गए..
रजस्वला होने के समय रसोई अथवा मंदिर न जाना, अलग कक्ष में सोना आमोद-प्रमोद से दूर रहना, प्रसव के उपरान्त 30-40 दिन प्रसूति कक्ष में पुरुष का प्रवेश वर्जित होना उतना ही वैज्ञानिक था जितना आज शल्य चिकित्सा के बाद गहन चिकित्सा इकाई में रहना..
#प्रसंगवश..
दिशा रवि की आयु 21, 22 या 24 कुछ भी हो सकती है..किंतु उसके विचारों से परिलक्षित उसकी सोच हमें यह सोचने पर बाध्य करती है कि हम कहाँ चूके हैं..
यदि आपका संवाद इन दिनों किसी किशोरवय के बालक या बालिका से हुआ हो तो आप जानते पाएंगे कि वामपंथी घुन कितने गहरे पैठ चुका है।
स्वाभाविक भी है..
पूर्व प्राथमिक कक्षाओं से ही छद्म धर्मनिरपेक्षता और विकृत वैश्विकता का विष घोला जाता है।
आप धार्मिक हों या न हों उससे कोई अंतर नहीं पड़ता क्योंकि आपके पास समय नहीं है और हवा में जहर घुला है..
हमारे चारों ओर का वातावरण कुछ ऐसा बना दिया गया है कि बच्चे न चाह कर भी विष पीने को बाध्य हो रहे हैं।
किशोरावस्था तक पहुँचते-पहुँचते स्थिति
आपके नियंत्रण से बाहर चली जाती है।