कोरोना की दूसरी लहर में प्रशासन जनता को विश्वास दिलाने में असफल रहा फिर चाहे वे राज्य सरकार हो या केन्द्र सरकार.. ऑक्सीजन,वैंटीलेटर,रेमीदेसिविर, वैक्सीनेशन किसी भी क्षेत्र में लगा ही नहीं कि हमारा कोई धणी-धोरी है,जनता ने स्वयं को इतना अनाथ, इतना असहाय कभी महसूस नहीं किया..
भ्रष्टाचार मिटाने का ढोल पीटते रहें और हमारी ही नाक के नीचे दवाओं की कालाबाजारी,ऑक्सीजन की जमाखोरी चलती रही तो सरकार रही कहाँ..?
कोई सात सौ सिलेंडर दबा कर बैठा रहा और न्यायालय ने उसे जमानत दे दी..
थू है ऐसी न्याय व्यवस्था पर..!
क्या न्याय ऐसा होता है..?
सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही सोशल मीडिया पर कुतरभसाई कर के अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझने लगे हैं..
किसी के पास किसी तरह का कोई जवाब नहीं है सिवा तू-तू मैं-मैं के..
और टीवी पर डिबेट के नाम की नौटंकी की क्या कहिए..?
शर्म आती है कि ये राजनैतिक दलों के प्रवक्ता हैं..
सिद्धांतविहीन अवसरवादी राजनीति और आयाराम-गयाराम के चलते राजनीतिक दलों में कोई अंतर ही नहीं है..
भाजपा को इतनी अपेक्षाओं से लाया गया..पुराने चोरों को पकड़ना तो दूर उन पर अँगुली तक नहीं उठा पाई..
रीढ़विहीन सरकार कभी आप के नाटक, कभी किसानों में तो कभी शाहीन बाग में उलझी रही..
जर्जर सरकारी अस्पतालों, दवाखानों और डिस्पेंसरियों के भरोसे बेचारी जनता को छोड़ दिया गया..जाने कहाँ गया वो पैसा जो स्वास्थ्य और चिकित्सा में हर वर्ष आवंटित किया जाता रहा..?
पीपीई किट तो पिछले लॉकडाउन में बना लिए पर और भी तो बहुत कुछ करना था?
सोचा क्यों नहीं..?
और निजी अस्पतालों, फार्मा कंपनियों की तो क्या कहिए..जिसने जहाँ जैसे जितना चाहा लूटा..
उन्हें भी तो अभी ही अवसर मिला था..क्या पता फिर इस जन्म में ऐसा मौका मिले न मिले..?
ये दौलत की भूख कभी खत्म होगी..?
डॉक्टरों को तो अपना काम करना ही था..गिरते-पड़ते सोते-जागते 72-100 घंटों की ड्यूटी करते रहे बेचारे और जनता का कोप भी सहते रहे..इसका उसका दबाव सह कर भी काम करते रहे और जब-तब मीडिया में भी उछाले गए..
सरकारें लॉकडाउन से किनारा करती रहीं,कभी खुला कभी बंद कभी तेज कभी मंद चाल चलती रहीं.
पुलिसकर्मियों को उठाया और झोंक दिया,लोगों को समझाना-धमकाना सब उन्हीं के हवाले.
और मीडिया..कहीं उत्तरदायी नजर नहीं आया..चारों ओर सनसनी फैला कर अफरातफरी का माहौल बनाना ही मानो
पत्रकारिता समझ लिया..
रोगियों और शवों की जैसी छिछालेतन मीडिया ने की उसे देख गिद्ध भी शर्मा जाए.
श्मशानों में माइक-केमरा लिए घुसे चले गए,दर्द और मौत की नुमाइश में ही इन्हें अपनी सार्थकता दिखाई दी।
लोगों को ढाढ़स बँधाना भूल ये लोग उनके जख्मों को कुरेदते नजर आए,कभी डाक्टर,कभी नर्स किसी के भी पीछे पड़ गए।
और वैक्सीन..?
अच्छी नहीं-सही-गलत-सस्ती-महँगी में उलझती-सुलझती जाने जनता तक क्या पहुँची कि के.के.अग्रवाल जैसे नामचीन डॉक्टर दोनों खुराक ले कर भी बच नहीं पाए..
जाँच होगी मगर क्या लाभ..?
जनता का मनोबल तो टूट ही गया..
कहने को तो और भी बहुत कुछ है किंतु केवल इतना कह कर विराम देना चाहूँगी कि इस नेतृत्वहीनता की अपेक्षा नहीं थी..कारण जो भी रहा हो एक 74 वर्षीय संप्रभु राष्ट्र से इतनी दयनीय शासन व्यवस्था की अपेक्षा नहीं थी..
क्षमा करें किंतु आप ने हमें निराश किया..🙏
नमस्कार मित्रों..
वैसे तो हम सभी गूगल चाची और वाट्स अप यूनिवर्सिटी के चलते कोरोना विशेषज्ञ हो गए हैं..फिर भी कुछ महत्वपूर्ण बातें बताना चाहूँगी जो डाक्टर @DNeurosx ने कुछ देर पहले ट्विटर स्पेस में बताई और मेरी मोटी बुद्धि में समझ आई।
सबसे महत्वपूर्ण बात तो ये कि अति आत्मविश्वास में ना रहें। कोरोना की किसी से रिश्तेदारी नहीं है इसलिए मास्क पहनने और सावधानियों में बिल्कुल भी ढील न दें।
इस बीमारी से बचाव ही बेहतर है। इसलिए ध्यान रखें अपना भी और अपने अपनों का भी..
वैक्सीन अवश्य लगवाएं।
अब यदि सारी सावधानियों के बावजूद भी कोरोना हो जाता है तो क्या करें।
पहली चीज..लक्षण..
बिल्कुल आम बुखार जैसा महसूस होगा..
तापमान बढ़ा हुआ और बदन दर्द।
घबराहट की कोई बात नहीं है..
हर बुखार कोरोना नहीं होता।
बुखार आते ही जाँच के लिए यहाँ - वहाँ भागने की जरूरत नहीं है।
1739 के "कत्लेआम" में नादिरशाह दुर्रानी ने करीब एक लाख बीस हजार लोगों को मौत के घाट उतार दिया था और तब से दिल्ली "मुर्दों का शहर" बन गई.
यूँ भी ऐबक,लोधी,खिलजी,तुगलक, सयैद आदि इत्यादि के अधीन रही दिल्ली के कोने-कोने में तो कब्रें और कब्रगाहें बनी पड़ी हैं ज़िंदगी आती भी कहाँ से..?
फिर मुगल स्थापत्य कला तो जानी ही मुर्दों की स्थापत्यकला के रूप में जाती है।
"जीतों को ज़िंदा जलाते थे आखिर
मैयत की मिट्टी सजाते थे आखिर"
दिल्ली के कोने-कोने में कब्रें तो थीं ही तो क्या आश्चर्य कि आजादी के बाद हमारे महान राष्ट्रीय खानदान यानि नेगाँधी वंश ने भी वैसा ही किया?
पुराने समय के समाज में महिलाओं और पुरुषों के लिए कई नियम बने थे जिन्हें रिवाज या परंपरा कहा गया।
प्राचीन भारतीय समाज में स्वास्थ्य एवं शुचिता की दृष्टि से इन नियमों का पालन आवश्यक था।
कालांतर में यही रिवाज कुरीतियों में बदल गए..
रजस्वला होने के समय रसोई अथवा मंदिर न जाना, अलग कक्ष में सोना आमोद-प्रमोद से दूर रहना, प्रसव के उपरान्त 30-40 दिन प्रसूति कक्ष में पुरुष का प्रवेश वर्जित होना उतना ही वैज्ञानिक था जितना आज शल्य चिकित्सा के बाद गहन चिकित्सा इकाई में रहना..
#प्रसंगवश..
दिशा रवि की आयु 21, 22 या 24 कुछ भी हो सकती है..किंतु उसके विचारों से परिलक्षित उसकी सोच हमें यह सोचने पर बाध्य करती है कि हम कहाँ चूके हैं..
यदि आपका संवाद इन दिनों किसी किशोरवय के बालक या बालिका से हुआ हो तो आप जानते पाएंगे कि वामपंथी घुन कितने गहरे पैठ चुका है।
स्वाभाविक भी है..
पूर्व प्राथमिक कक्षाओं से ही छद्म धर्मनिरपेक्षता और विकृत वैश्विकता का विष घोला जाता है।
आप धार्मिक हों या न हों उससे कोई अंतर नहीं पड़ता क्योंकि आपके पास समय नहीं है और हवा में जहर घुला है..
हमारे चारों ओर का वातावरण कुछ ऐसा बना दिया गया है कि बच्चे न चाह कर भी विष पीने को बाध्य हो रहे हैं।
किशोरावस्था तक पहुँचते-पहुँचते स्थिति
आपके नियंत्रण से बाहर चली जाती है।
न्यूनतम समर्थन मूल्य की बात करें?
कैसे चलता है नकली किसानों का गोरखधंधा?
कैसे लगाते हैं वो देश की अर्थव्यवस्था को चूना..?
आइए सीधे शब्दों में समझने का प्रयास करते हैं..
तो शुरुआत से शुरू करते हैं..
एक किसान 70 रुपये की अपनी उपज
80 रुपये में एक नकली किसान को बेचता है..नकद..बिना किसी आय कर के..
नकली किसान 80 रुपये की ये खरीद
सरकार को 100 रुपये में बेचता है..
आय कर विभाग के लिए कोई गुंजाइश नहीं यहाँ ..
किसने कितना कमाया..कोई हिसाब नहीं..
नया कृषि कानून खरीदने और बेचने वाले दोनों से आधार और PAN नम्बर की अनिवार्यता चाहता है जो नकली किसानों यानि दलालों के लिए परेशानी वाली बात होगी..
आइए आज बात करते हैं श्री रामचन्द्र काक की जो 1945 से 1947 तक कश्मीर के मुख्यमंत्री रहे।
एक कश्मीरी पंडित होने के नाते रामचन्द्र जी अच्छी तरह जानते थे किस प्रकार सूफी समाज ने कश्मीरी संस्कृति और रिवाजों का ह्रास किया और उन्होंने महाराजा हरी सिँह से परिग्रहण संधि पर हस्ताक्षर करने से पहले कुछ वर्ष रुक कर निर्णय लेने को कहा..