बुर्जहोम उत्खनन और वैज्ञानिक साक्ष्य :
1961 में आरम्भ हुई बुर्जहोम की खुदाई से प्राप्त चीज़ें कश्मीर के प्रागैतिहासिक काल की सबसे विश्वसनीय जानकारी का स्त्रोत हैं। टी एन खजांची कश्मीर मे 1960से1970
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के बिच में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की उस टीम के निदेशक थे जिसने कश्मीर में बुर्जहोम में पुरातत्व सर्वेक्षण का काम शुरू किया। एम. के. कॉ. द्वारा सम्पादित किताब 'कश्मीर एन्ड इट्स पीपल' में वह कश्मीर के प्रागैतिहासिक युग के बारे में विस्तार से बात करते। 1935 में येल-कैंब्रिज
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द्वारा गए संयुक्त अध्ययन में एच.डी.ई. टेरा, टी. चार्डिन और टी.टी. पैटरसन ने कश्मीर में 'करेवा फॉर्मेशन' को लेकर रोचक निष्कर्ष निकाले। प्रतिनूतन काल, जिसमें चट्टानों का निर्माण हुआ के आरंभिक काल में जहाँ हिमालय जैसे पर्वतों का निर्माण हुआ, वहीँ कश्मीर में नदियों, झीलों और
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ग्लेशियरों के आलोड़न से जो सरंचनाएं बनीं,उनमे आधुनिक झेलम के आसपास बने करवा सबसे मत्वपूर्ण हैं।कश्मीर घाटी का आधे से अधिक हिस्सा इसी करवा से बना हुआ है। इस अध्ययन में पाया गया कि लाखों वर्ष पहले ग्लेशियरों के निर्माण की प्रक्रिया में इन झीलों का निर्माण और फिर संकुचन हुआ जिससे++
ये करेवा निर्मित हुए। फलस्वरूप कटाव आदि के कारण झील का पानी बाह गया तथा वह स्थान मनुष्यों के रहने योग्य बन गया। बाद के भूगर्भशास्त्रियों की मान्यता है कि वूलर ,मानसबल, डल और अंचार जैसी झीलें उसी आदि-झील की अवशेष हैं।
श्रीनगर से कोई आठ किलोमीटर दूर बुर्जहोम कश्मीर में
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प्राप्त यह पहला नवपाषाण-युगीन अवशेष है। कश्मीर में बुर्ज़ का मतलब है भुर्ज या भोजपत्र। भुर्जहोम यानि भोजपत्रों का गांव। इस खुदाई में भोजपत्र के अनेक पेड़ों के अवशेष पाए गए हैं जिससे स्पष्ट है कि ये पेड़ यहाँ बहुतायत में रहे होंगे। यहाँ पत्थरों पर शिकार के चित्र भी पाए गए हैं+
यह गांव ऊंचाई पर बसा हुआ था और ऐसा लगता है कि इसी वजह से यह सुरक्षित बचा रहा। इस खुदाई में प्राप्त अवशेषों से यह निष्कर्ष निकलता है कि इस काल में लोग ज़मीन के नीचे मिट्टी और टहनियों के घर बनाकर रहते थे और दीवारों पर मिटटी का प्लास्टर होता था जो ठण्ड और गर्मी से बचाव करने में
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सहायक था । आटा पीसने की चक्की और हड्डियों तथा पत्थरों के औज़ारों आदि से निष्कर्ष निकलता है कि कश्मीर में पहली मानवीय बस्तियां 3000 सहस्त्राब्दी ईसा-पूर्व से 1000 सहस्त्राब्दी ईसा-पूर्व पहले बसी थीं। इस काल में मनुष्य भोजन एकत्र करने वाला शिकारी था। हांगलू (कश्मीरी हिरण) सबसे
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महत्वपूर्ण पशु था, क्योंकि वह न केवल मांस उपलब्ध कराता था बल्कि उसकी हड्डियां और सींग भी हथियारों के रूप में उपयोगी थे।
लेकिन इन मनुष्यों के धार्मिक विश्वासों को लेकर कोई निष्कर्ष नहीं निकला जा सका । खजांची स्पष्ट कहते हैं कि 'इस आरंभिक काल में किसी संगिठत धार्मिक व्यवहार का+
कोई सबूत नहीं मिलता।' प्राचीन मानव बस्तियों में शवों का निराकरण जादू-टोन और धार्मिक विश्वासों का अनुमान लगाने के लिए सबसे मुफ़ीद माध्यम होता है लेकिन यहाँ उस दौर में शवों के निराकरण की कोई नियत व्यवस्था नहीं दिखती। यहाँ शवों के निराकरण की एक स्पष्ट व्यवस्था महापाषाण काल
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आते-आते मिलती है जिसमें शवों को दफ़नाया जाता है।मनुष्यों के अलावा पशुओं की कब्रें भी मिली हैं जिनमे सबसे प्रमुख है कुत्ते।पुरातत्वविदों का निष्कर्ष है कि कुत्तों को उनके मालिकों के साथ ही घर के अहाते में दफ़नाया जाता था। खजांची प्रतिष्ठित पुरातत्विद प्रो.एलचीन के हवाले से बताते
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हैं कि 'कुत्ता ऊपरी अमु नदी के शीलका गुफ़ा संस्कृति में लगभग दैवी पशु था और अभी हाल तक इस क्षेत्र के गिल्याक, उलची और गोलदी लोगों में मालिकों के शवों के साथ उनके कुत्तों को दफ़न किये जाने की परंपरा थी। उस समय के कश्मीरी लोगों का सांस्कृतिक संपर्क चीन और रूस की सीमाओं पर बहनेवाली+
इस नदी के किनारे रहनेवाले प्रागैतिहासिक मनुष्यों से होना सहज ही है। हालाँकि बाद में पूर्व हड़प्पा और हड़प्पा काल के निवासियों से इनके संपर्क के पर्याप्त साक्ष्य भी मिलते है।
इन वैज्ञानिक खोजों ने जैसाकि ख़ज़ांची कहते हैं, 'कश्मीर के मिथकीय जनक कश्यप को भ्रामक सिद्ध कर दिया'
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ज़ाहिर है, काशेफ तथा मध्यान्तिक को भी ।
मज़ेदार यह है कि आख्यानों के खेल में विज्ञान के इस हस्तक्षेप को अक्सर नज़र अंदाज़ कर दिया जाता है ।
#कश्मीरनामा #कश्मीर_और_कश्मीरी_पंडित
क्या #ब्राह्मण कश्मीर के मूलनिवासी हैं ?
आम तौर पर कश्मीरी पंडितों के नैरेशन में यह बताया जाता है कि कश्मीर में ब्राह्मणों के अलावा कोई जाति नहीं थी और ये ब्राह्मण कहीं और से नहीं आए थे बल्कि यहीं के मूल निवासी थे। उदाहरण के लिए 1996 से 1999+
तक कश्मीरी एसोसिएशन के अध्यक्ष तथा1997से 2000तक ऑल इंडिया कश्मीरी समाज के वरिष्ठ उपाध्यक्ष रहे शिया पोस्ट-ग्रेजुएट कॉलेज,लखनऊ से सेवानिवृत डॉ.बैकुंठनाथ शर्गा कश्मीरी ब्राह्मणोंको #सरस्वतीनदी के किनारे रहने वाले संत-महात्माओं की संतानें बताते हैं जो कश्मीर में जाकर2000 ईसा-पूर्व++
बस गए थे। वह इन्हे शुद्ध #आर्य नस्ल का बताते हैं और इनकी उत्पत्ति भारतीय मानते हैं। इसी आधार पर वह दावा करते हैं कि कश्मीर में सिर्फ़ ब्राह्मण निवास करते थे।
लेकिन इस दावे की बाक़ी आलोचनाओं को छोड़िये, #राजतरंगिणी का एक सावधान पाठ भी इसे आधारहीन साबित करदेता है। #कल्हण न केवल+