आधुनिकता कहती है कि जैसे जैसे समाज तरक्की करता जाता है, काम अधिक जटिल होता जाता है, जिसके लिए विशेषज्ञता अपरिहार्य हो जाती है। किसी भी क्षेत्र में जितनी अधिक विशेज्ञता प्राप्त कर लेते हैं, उतने ही अधिक सफल समझे जाते हैं।
जैसे कि बैंक का ही उदाहरण ले लेते हैं। एक बैंकर को ब्रांच मैनेजर बनाया और उसने बहुत अच्छी ब्रांच चलायी तो बहुत अधिक सम्भावना है कि वो अगले कई वर्षों तक BM ही बनाया जायेगा। क्यूंकि उसको मैनेजरी में महारथ/विशेज्ञता हासिल हो चुकी है।
उसके ब्रांच मैनेजर के अनुभव को जाया थोड़े ही जाने देगी बैंक। अब इससे कोई फरक नहीं पड़ता कि वो आदमी क्या चाहता है। वो एक सर्टिफाइड एफ्फिसिएंट BM बन चुका है। बड़े सन्दर्भ में हम इसे कैरियर प्रोग्रेशन कह सकते हैं।
आपको आपकी विधा के अनुसार कोई भी एक फील्ड पकड़ा दिया जाता है और फिर जीवन भर आपको उसी क्षेत्र में अंदर घुसते ही जाना है। अगर आप बीच में कहीं फील्ड बदलने कि बात करते हैं तो आपकी अभी तक की मेहनत बेकार साबित कर दी जायेगी। नए क्षेत्र में नए सिरे से शुरुआत करनी होगी।
आपको फिकल माइंडेड घोषित कर दिया जायेगा। लेकिन मानव स्वभाव को तो आप नकार नहीं सकते। एक ही फील्ड में बरसों से काम कर रहे व्यक्ति के मन में ये बात कभी न कभी तो आती ही है कि "क्या जीवन भर यही करने के लिए पैदा हुए थे?"
लोग बोलते हैं कि आधुनिक समाज में मनुष्य को स्वतंत्रता है अपना प्रोफेशन चुनने की। क्या सच में? ये याद रखिये कि पूंजीवाद की सत्ता में हम एक फसल से ज्यादा कुछ नहीं। हमको उतनी ही स्वतंत्रता है जिससे पूंजीवाद के साम्राज्य को खतरा न हो।
आज अगर मैं ये 9-9 की ऑफिस की कैद से छूटने की सोचूंगा तो साथ में मुझे ये भी सोचना होगा कि अपने बीवी बच्चों का पेट कैसे पालूंगा। बच्चों को कैसे पढ़ाऊंगा? मैं सारी जिंदगी किसी दूसरे कि नौकरी करता हुआ इसलिए निकाल देता हूँ ताकि मेरे बच्चे अच्छी शिक्षा प्राप्त कर सकें।
वही शिक्षा जिसका कि एकमात्र उद्देश्य है पूंजीवाद के लिए मज़दूर तैयार करना। इससे इतर उसे स्कूल में कुछ नहीं पढ़ाया जाएगा। मतलब मैंने सारी जिंदगी किसी कंपनी को इसलिए कुर्बान कर दी है ताकि मेरा बच्चा भी अपनी जिंदगी किसी कंपनी के लिए कुर्बान करने लायक बन सके।
कभी सोचिये कि पूंजीवाद हमारे जीवन पर किस कदर हावी हो गया है। ऑफिस से छुट्टी मिलती है तो सिनेमा देखने जाते हैं, महँगी शराब पीते हैं। ये वही सिनेमा है जिसका एड पिछले एक हफ्ते से मोबाइल पर आ रहा है। ये वही दारु है जो मेरा दोस्त अमेरिका में बैठ कर पीता है।
मतलब मेरी छुट्टी और आराम का तरीका भी पूंजीवाद ही डिसाइड करता है। पूंजीवाद की चक्की में हफ्तेभर पिसकर जो कमाया था वो वापिस पूजीपतियों की ही जेब में जा रहा है, "तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा"। पूंजीवाद ने तरक्की की परिभाषा भी अपने हिसाब से ही बनाई है।
वहाँ व्यक्ति के विकास से कोई लेना देना नहीं। वहां तरक्की का मतलब है कि आप पूंजीवाद का कितना विकास कर सकते हैं। आप साइकिल चलाते हैं, साधारण खाना खाते हैं, स्वस्थ जीवन जीते हैं तो पूंजीवाद आपको सफल नहीं मानेगा।
पूंजीवाद के लिए आपकी तरक्की तब है जब आप महँगी कार खरीदें, एक्सोटिक फाइन डाइनिंग रेस्टोरेंट्स में महंगा 7 कोर्स डिनर करें और फिर जिम जाएँ, दवाइयां खाएं। यही हमारा सोचने का तरीका भी हो गया है।
जाने कब तक चलेगा ये गुलामी का चक्र। दुःख इस बात का नहीं कि हमारा जीवन पूंजीवाद कि सेवा करते हुए निकल गया या जाएगा। दुःख इस बात का है कि हम अपने आने वाली पीढ़ियों को भी इसी सनातन गुलामी की आग में झोंक रहे हैं।
In the concluding volume of Das Kapital, Marx wrote that the average man in a communist society would be able to go fishing in the morning, work in a factory in the afternoon and read Plato in the evening यानि साम्यवाद में व्यक्ति को वो सब करने की आजादी होगी जो वो करना चाहता है।
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वैसे ताइजी तो कुछ और बोल रही थी। ऑयल बॉन्ड वाला झूठ पकड़ा गया तो आ गए वही पुराना राग अलापने पर। कुणाल कामरा मुझे पसंद नहीं लेकिन ये लोग हर बार उसकी बात को सच साबित कर देते हैं। "वहां सियाचिन में सैनिक मर रहे हैं तुम इतना भी नहीं कर सकते?"
"वहां LOC पर सैनिक खड़े हैं, तुम भूखे नहीं रह सकते?" " वहां सैनिक...तुम...नहीं कर सकते"? कब तक चलाओगे ये एक ही गाना? 2014 से पहले सैनिक नहीं थे? कपड़े नहीं पहनते थे? बंदूक की जगह लाठी लेकर घूमते थे? 2014 से पहले वायुसेना हैरी पॉटर की झाड़ू लेकर उड़ती थी?
नौसेना के पास तो पनडुब्बियां तो अभी भी पूरी नहीं हैं। तीन एयरक्राफ्ट कैरियर की जरूरत है नौसेना को। जरा बताइए तो हमारी मौजूदा सरकार ने कितने नए एयरक्राफ्ट कैरियर का ऑर्डर दिया? (विक्रांत का नाम मत लेना क्योंकि इसका ऑर्डर बहुत पहले हुआ था, अभी केवल कमिशन हुआ है)
पेट्रोल डीजल की कीमतें ऐसे ही नहीं बढ़ रही हैं। सरकार लाख बहाना बनाये कि ऑयल बांड का ब्याज चुका रहे हैं, अंतर्राष्ट्रीय कीमतें बढ़ रही हैं, या घोड़ी ने गधे का बच्चा दिया है। पर थोड़ी थोड़ी सच्चाई सभी को पता है। मुझे लगता है कि सरकार ये कीमतें जान बूझकर बढ़ा रही है ताकि:
1. ताकि लोग त्राहि त्राहि कर उठें। फिर सरकार आकर बताएगी कि तेल इसलिए महंगा है क्यूंकि ये GST के अंतर्गत नहीं आता। और ईंधन को GST में लाने के लिए राज्य सरकारें मान नहीं रहीं। मतलब ठीकरा राज्य सरकारों के सर फोड़ा जाए, जिससे राज्य सरकारों से तेल पर टैक्स लगाने का अधिकार छीना जा सके।
2. देश में सबसे बड़ी रिफाइनरी आज रिलायंस के पास है। बाकी आप समझदार हैं। 3. सरकार की मेहरबानी से आज सारे नए ऑयल और गैस एक्सप्लोरेशन फील्ड प्राइवेट के पास ही जा रहे हैं। सरकार इस बात का ख़ास ध्यान रख रही है कि PSUs को इससे जितना हो सके दूर ही रखा जाए।
मीडिया के पास जाओगे तो आपको बताया जाएगा कि कैसे ये पैसा पाकिस्तान से गिलगित बाल्टिस्तान जीतने में लगाया जाएगा।
विपक्ष के पास जाओगे तो वो सरकार के खिलाफ एक ट्वीट कर देंगे फिर बैंकॉक छुट्टी मनाने चले जायेंगे।
सरकारी अधिकारियों के पास जाओगे तो सेब की कीमत सुनकर वो आश्चर्य में पड़ जाएंगे क्योंकि उनको सेब खरीदने ही नहीं पड़ते, उनको तो कंपनी पहले ही फ्री में दे रही है।
1. Who will decide if the asset is actually under utilized and how will it be ensured that it is not crony capitalism? 2. What is such an urgent need to "monetize" national assets created out of taxpayer's money?
3. If the assets are created from taxpayer's money then will the govt ensure that no additional fee will be charged for using them since we have already paid tax. 4. If they are going to be chargeable (obviously they will be), then how it is not double taxation?
5. Is there any mechanism to ensure that the service fee is going to be reasonable and not going to hurt the pocket of common man? E.g. at the Adani airports, free drop off facility has been removed and the parking charges have been increased.
जॉर्ज विल्हेम फ्रेडरिक हेगेल। एक जर्मन दार्शनिक जिनके विचार आधुनिक पाश्चात्य दर्शन की नींव रखते हैं। मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और उनके धर्म को लेकर विचारों के पीछे भी इनकी ही प्रेरणा थी।
मार्क्स ने कहा है कि "Religion is Opiate of Masses यानी धर्म जनता की अफीम है"। हेगेल ने इसके पीछे पूरा कारण भी बताया है। हेगेल कहते हैं कि जब व्यक्ति भगवान् को मानने लगता है तो वो अपनी शक्ति उसे दे देता है। बदले में उससे उम्मीद लगा लेता है।
अपनी इच्छा से अपनी शक्ति का त्याग करना उसे कमजोर कर देता है, और उम्मीद लगा कर बैठना उसे आश्रित बना देता है। और ये शक्ति भी वो ऐसी सत्ता के हवाले करता है जिससे कोई सवाल नहीं पूछ सकता। यही भक्ति कहलाती है। ऐसा व्यक्ति समाज के लिए तो क्या अपने लिए भी किसी काम का नहीं रहता।
किसी भी आदमी के पास ताकत दिखाने के दो तरीके होते हैं, 1. तू जानता है मेरा बाप कौन है? 2. जाके अपने बाप से पूछ मैं कौन हूँ। मतलब एक बात तो तय है कि किसी भी व्यक्ति का अस्तित्व दो हिस्सों से मिलकर बना होता है।
एक है "Traditional identity" यानी परंपरागत पहचान, और दूसरी "achieved identity" यानी "उपार्जित पहचान"। पारम्परिक पहचान का सम्बन्ध परिवार, क्षेत्र, जाति, पंथ इत्यादि से होता है। इनसे व्यक्ति का भावना का रिश्ता होता है। यहां लॉजिक, विज्ञान इत्यादि नहीं चलता।
वहीँ उपार्जित पहचान व्यक्ति स्वश्रम से हासिल करता है। यहां आप कॅल्क्युलेटेड निर्णय लेते हैं, फायदा नुक्सान देखते हैं। एक शांतिपूर्ण जीवन के लिए दोनों में बैलेंस आवश्यक है।