ता ना ना ना ना ना ना ना s s s s
ता ना ना ना ना ना ना ना ...

अगर ये धुन गाकर सुना दूं तो नब्बे के दशक का हर बच्चा इसे तुरंत पहचान लेगा। कुछ ने तो शायद अंदाज़ा लगा भी लिया होगा। ये धुन हमारे बचपन में यूं पैबस्त है मानो ज़िंदगी में सुखदुख। ब्लैक एंड व्हाइट टीवी पर दूरदर्शन के ज़रिए
गूंजती ये धुन बीन जैसा काम करती थी जिसे सुनकर हम बच्चे सांप की तरह लपककर टीवी के सामने कुंडली मार कर बैठ जाते थे। उसके बाद होश कहां रहता था...

हम पूरी चेतना के साथ मालगुडी कस्बे की दुनिया में प्रवेश करते थे।स्वामी का वो कस्बा मद्रास से कुछ ही दूरी पर बसा था..शायद 1935 के आसपास।
फ्रैरैडरिक लॉयले नाम के अंग्रेज़ ने उसे आबाद किया था।वही लॉयले जिसकी मूर्ति मालगुडी में लगी है।मेंपी के जंगल के पास जहां सरयू नाम की नदी बहती है ठीक उसी के किनारे मालगुडी की दुनिया थी।मैसूर और मद्रास को अलग करनेवाली सीमा पर उसका अस्तित्व था। सरयू के बहुत किस्से मिलते हैं।
वहां स्वामी दोस्तों के साथ खेलता था।उसी के किनारे द गाइड उपन्यास का राजू ईश्वर से बारिश के लिए प्रार्थना करता है,और वही तो नदी थी जहां गांधी जी आकर अपना प्रवचन देते हैं।नदी के उस पार मेंपी का घना जंगल था जो पहाड़ियों और गुफाओं से भरा था।कैसे भयानक जानवर बसा करते थे वहां.. उफ्फ।
मालगुडी में एक छोटा सा रेलवे स्टेशन भी था। करीब करीब हर कहानी में उसका ज़िक्र मिल ही जाता है।पास में ही मालगुडी मेडिकल सेंटर की स्थापना भी की गई थी।भले मालगुडी गांव हो लेकिन आधुनिकता के सारे निशान आप वहां देख सकते हैं।ज़ाहिर है स्कूल भी था जिसका नाम एल्बर्ट मिशन स्कूल था।
एक एल्बर्ट मिशन कॉलेज भी था।हां, एक छोटा सा रेस्तरां भी किसी ने खोला लिया था जहां दिनभर लोगों का जमावड़ा लगा रहता।अखबार में छपने से पहले मालगुडी की सारी खबरें यहीं से प्रसारित हो जातीं।पुराने वैरायटी हॉल को तोड़कर साल 1935 में एक पैलेस टॉकीज़ भी बना लिया गया था। मालगुडी के
बीचोंबीच बड़ी-बड़ी दुकानों से भरी एक सेंट्रल स्ट्रीट थी।लॉयले एक्सटेंशन और कबीर स्ट्रीट भद्रजनों की रिहायश थी।तेलियों का रहना एलेमेन स्ट्रीट में होता था जो सरयू नदी के एकदम किनारे और मालगुडी के आखिर में बसाई गई थी।नदी और एलेमेन स्ट्रीट के बीच में नलप्पा का बाग और एक श्मशान घाट
भी पड़ता था। गांव के अस्पृश्य और दलित नदी के किनारों पर रहते थे।
कितना सजीव लगता है ये सब कुछ।एकदम असली, लेकिन कैसी हैरानी की बात है कि ये सब आर के नारायण की कल्पना है।आज से 86 साल पहले विजयादशमी के दिन उन्होंने जब 'रेलगाड़ी मालगुड़ी स्टेशन पर बस पहुंची ही थी' लिखा तो वो नहीं
जानते थे कि एक दिन उनका मालगुडी स्टेशन भरा पूरा गांव बनकर भारत भर के दर्शकों को कई दशकों तक के लिए अपने आकर्षण में बांध लेगा।

आर के नारायण अंग्रेज़ी के कितने बड़े लेखक थे इसका अंदाज़ा ऐसे लगाइए कि पश्चिम की दुनिया को उनके लेखन के कारण ही पता चला कि अंग्रेज़ी में भारतीय शैली का
लेखन क्या होता है।माना जाता है कि कभी इंटरव्यू ना देनेवाले और फैन कल्चर में भरोसा ना रखनेवाले नारायण का मालगुडी दरअसल बैंगलोर की दो जगहों मल्लेश्वरम और बासवानगुडी को मिलाकर बना था।बात सिर्फ उनके एकाध उपन्यास की ही नहीं है, बल्कि उनके लगभग सारे लेखन में मालगुडी के दर्शन हो जाते
हैं। उनके पात्र वहीं पैदा होते हैं, वहीं बड़े होते हैं और अंत में उसी गांव की मिट्टी से मिल जाते हैं।
दरअसल मालगुडी को राग दरबारी के गोपालगंज की तरह मिनी इंडिया ही समझिए।जो यहां होता है वही कमोबेश सारे भारत में होता है।लालच, दीनता, दोस्ती, दुश्मनी, समझदारी, विश्वास, धोखे, अहसास
करीब करीब सभी वही है जो आप अपने ईर्दगिर्द महसूस करते हैं।
बहुत से लोगों ने मालगुडी को ढूंढ निकालने की वैसी ही कोशिश की जैसी कोशिश नाइटहॉक्स पेंटिंग के उस रेस्तरां को खोजने की हुई थी जिसे एडवर्ड हूपर ने बनाया था। सभी को निराशा हाथ लगी क्योंकि अगर मालगुडी कहीं था तो
वो रसिपुरम कृष्णास्वामी नारायण के दिलोदिमाग में था।
उन्होंने आज़ादी से पहले स्वामी एंड फ्रेंड्स, द बैचलर ऑफ आर्ट्स, द डार्क रूम, द इंग्लिश टीचर रचे थे, लेकिन 1947 के बाद उनकी रचनात्मकता का चरम आया। द फाइनेंशियल एक्सपर्ट, गाइड, द मैनईटर ऑफ मालगुडी उसी दौर के मोती हैं जिन्हें रचना
के सागर में पैठ नारायण ने बाहर निकाला।इनमें से अधिकांश मैंने भी पढ़े हैं और सच ये है कि आर के नारायण की दुनिया में प्रवेश करते ही आप खुद को उनके हवाले कर देने के पर मजबूर हो जाते हैं। वेटिंग फॉर द महात्मा और द वेंडर ऑफ स्वीट्स में हमें गांधी के विचार का समाज पर प्रभाव देखने को
मिलता है। इन दोनों किताबों को पढ़ना मेरी प्राथमिकताओं में है।नारायण के लेखन में व्यंग्य का पुट एकदम सहजता से देखने को मिलता है और यही वजह है कि उनसे उकताहट नहीं होती।
आर के नारायण 94वे साल की उम्र तक कहानी-किस्से रचते रहे। हमने 10 अक्टूबर को उनका 115वां जन्मदिन मनाया।
मालगुडी कस्बे का प्रभाव था कि शंकर नाग ने 1986 में जिस तरह उसे टीवी पर उतारा वो और दिलचस्प हो गया। दुर्भाग्य है कि नाग 35 की कम उम्र में चल बसे। मेरे लिए मालगुडी डेज़ के सारे एपीसोड्स उन चमकीले पत्थरों की तरह हैं जिन्हें छोटे बच्चे अपने डिब्बे में करीने से सजाते हैं और जब कोई
मेहमान घर आता है तो बहुत अभिमान के साथ उनका प्रदर्शन करते हैं। नारायण जी की स्मृति को नमन।
#इतिइतिहास

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