श्री कृष्ण के अनेक नामों में से एक 'मुरारी' है। ये नाम इसलिए पड़ा था क्योंकि श्री कृष्ण ने मुर नाम के राक्षस का वध किया था। इस राक्षस का वध क्यों किया? क्योंकि ये नरकासुर की सेना का सेनापति था और सत्यभामा ने नरकासुर पर आक्रमण कर दिया था।
शेखुलर गल्पकार (जो स्वयं को इतिहासकार बताते हैं), कहते हैं कि प्राचीन काल में स्त्रियों के शिक्षा इत्यादि की व्यवस्था नहीं थी। इसलिए स्त्रियों के युद्धकला में दक्ष होने, रथ चलाने इत्यादि की बात नहीं होती। महाभारत में कम से कम दो बार तो सुभद्रा और सत्यभामा ही रथ चलाती दिखती हैं।
मगर खैर, हमारा मुद्दा स्त्रियों की शिक्षा और युद्धकला की जानकारी तो था नहीं। मुद्दा ये था कि सत्यभामा ने आखिर नरकासुर पर आक्रमण किया ही क्यों? अदिति के कुंडल छीन लाने के अलावा नरकासुर ने कई स्त्रियों का भी अपहरण कर रखा था। इससे क्रुद्ध सत्यभामा ने आक्रमण का आदेश दिया था।
नरकासुर को वरदान मिला था कि उसकी माता भूदेवी जबतक प्रहार न करे उसकी सेना पर विजय पाना, या उसे मारना संभव नहीं होगा। इसलिए श्री कृष्ण उससे जीत नहीं सकते थे। नरकासुर का विवाह विदर्भ की एक राजकुमारी से हुआ था जिसमें विष्णु ने स्वयं ही उसे एक दिव्य रथ भी दिया था।
इसलिए सत्यभामा श्री कृष्ण का रथ चला रही थीं। वो भूमि की अवतार थीं, इस नाते से नरकासुर की माता भी थीं, इसलिए उनके आक्रमण और प्रहार से नरकासुर की पराजय संभव थी। अब चलते हैं 'अवतार' नाम की विख्यात फिल्म पर।
'अवतार' फिल्म के अंतिम दृश्य में नायक का घायल होना और नायिका का अचानक आकर खलनायक को तीर मार देने वाला दृश्य याद है? वो दृश्य सत्यभामा के नरकासुर पर तीर चलाने से ही प्रेरित है!
इन्टरनेट पर असम के 'अश्वक्लांत' मंदिर का चित्र मिल जाता है। अश्व मतलब घोड़ा और क्लांत मतलब थका हुआ। ऐसी मान्यता है कि नरकासुर से युद्ध करने जाते समय श्री कृष्ण के अश्व थक गए, और जहाँ रूककर उन्होंने विश्राम किया, वहाँ ये मंदिर बना है। (अभी का स्वरुप 1720 के आस पास बना था)
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बिल्ली का बच्चा लगातार उसे अपने साथ खेल में उलझाने की कोशिश करता दिखता है, और असफल होता है। क्या आपके लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए आपका ध्यान भी इतना ही एकाग्र है? अगर ये बच्चा कर सकता है, तो आप भी कर सकते होंगे न?
भगवद्गीता के दूसरे अध्याय के 41वें श्लोक में कहा गया है -
इस श्लोक की "व्यवसायात्मिका बुद्धि" ने कई विद्वानों-मनीषियों ने भगवद्गीता की व्याख्या पर गंभीर प्रभाव पड़े। इस श्लोक में कहा गया है - सम बुद्धि की प्राप्ति के विषय में व्यवसायात्मिका बुद्धि एक ही होती है। अव्यवसायी मनुष्यों की बुद्धियाँ अनन्त और अनेक शाखाओं वाली होती हैं।
हिन्दुओं के कलैंडर यानि कि पञ्चांग में हर 14 से 19 साल में एक महीना खिसकता है। 2015 ऐसा ही एक साल था। इस अलग महीने वाले वर्ष पुरी के जग्गनाथ मंदिर में जो मूर्तियां रखी हैं उन्हें बदला जाता है।
मंदिर प्रांगण में जिन मूर्तियों की पूजा होती है उन्हें लकड़ी से बनाया जाता है। मुख्यतः इसमें नीम की लकड़ी इस्तेमाल होती है। इन चारों मूर्तियों में भगवान जगन्नाथ की मूर्ती 5 फुट 7 इंच की होती है और उनके फैले हुए हाथ 12 फुट का घेरा बनाते हैं।
इनका वजन इतना ज्यादा होता है कि पांच-पांच लोग इनके 1-1 हाथ और बीस लोग उन्हें पीठ की तरफ से उठाते हैं। करीब पचास लोग उन्हें आगे से खींचते हैं। बलभद्र की मूर्ती इस से कहीं हल्की होती है । उनकी मूर्ती 5 फुट 5 इंच ऊँची होती है।
बकरीद पर किसी को बकरा काटने के लिए कोस रहे हैं? एक काम कीजिये जरा उनकी ही तरह अगली दिवाली में पटाखों के चार हिस्से कीजिये और एक हिस्सा पड़ोसियों, एक रिश्तेदारों, एक गरीबों को बाँटकर केवल चौथा हिस्सा खुद के लिए इस्तेमाल करके दिखाइये!
वो जो बकरे की खाल होगी, उसे बेचकर वो मकतब (मस्जिद के स्कूल-मदरसे) के लिए मौलवी को देंगे। आपने अपने पूरे जीवनकाल में क्या घर का रद्दी अख़बार वगैरह भी बेचकर उसके पैसे किसी वैदिक पाठशाला में दिए हैं या सिर्फ पानी पी पी कर बम्मनों को कोसने से काम चलाया है?
उनके घर में बच्चों से पूछ लें तो वो फ़ौरन बता देंगे कि ये बकरीद का त्यौहार क्यों मनाया जाता है। आप बताएं आपके घर क्या होगा? बच्चे छोड़िये, 20-25 के नवयुवक-युवतियां बता देंगी की होली, दिवाली, दशहरा, कौन सा किस उपलक्ष्य में मनाया जाता है?
पद्म पुरस्कारों में एक ऑटो चालक, महतो जी की बिटिया, दीपिका कुमारी की तस्वीरें भी दिखी होंगी। दीपिका कुमार की तीर चलाते हुए कई तस्वीरें हैं इन्टरनेट पर। उन्हें देखते ही भारतीय लोगों को कम से कम ये तो पता चल ही जायेगा कि तीर चलाने के लिए दाहिने हाथ का अंगूठा इस्तेमाल नहीं होता।
तीर इंडेक्स और मिडिल फिंगर, यानि की प्रथमा और मध्यमा उँगलियों के बीच पकड़ा जाता है। जैसा कि कई बार दल-हित चिन्तक बरगलाते हैं, वैसे चुटकी में पकड़कर तीर नहीं चलता। ऐसे कठिन प्रश्नों से दल हित चिंतकों को डर लगता है।
इसके जवाब में वो अक्सर बरगलाने की और कोशिश करने लगते हैं। कहा जाता है कि एकलव्य वाली घटना के बाद से धनुष चलाने का तरीका बदल गया! ये पूरी तरह एक नया झूठ होता है क्योंकि भारत में हमेशा से लॉन्ग बो इस्तेमाल किया जाता है।
जब आप इतिहास से नहीं सीखते, तो इतिहास खुद को दोहराता है। दूसरे विश्वयुद्ध के शुरू होने के समय भारत में जो नौसेना थी, वो मामूली सी थी। सैन्य विद्रोह न हो सकें इसके लिए अंग्रेजों ने वर्षों से अफवाहें फैलाई थीं। बड़े पोत बनाने पर प्रतिबन्ध लगाए इस समय तक सौ वर्ष के लगभग बीत चुके थे।
जब द्वित्तीय विश्वयुद्ध के लिए सैनिकों की जरुरत पड़ी तो जान देने वाले सैनिक कहाँ से आते? जाहिर है वो भारत जैसे देशों से लिए गए, जो फिरंगी हुक्मरानों की गुलामी करने के लिए मजबूर थे। रॉयल ब्रिटिश नेवी का भारतीय हिस्सा अपने 1939 के आकार से बढ़कर 1945 में करीब दस गुना हो चुका था।
इस नौसेना में 1942 से 1945 के दौर में सीपीआई के नेताओं ने भर्तियाँ करवाने के लिए बड़े स्तर पर अभियान चलाये। उपनिवेशवादियों की सेना में भारतीय क्यों भर्ती करना चाहते थे? संभवतः इसलिए क्योंकि स्टालिन के हिटलर से मनमुटाव होने के बाद के दौर में नाजियों के खिलाफ होना जरूरी था!
बंदरगाह पर लगे जहाज पर माहौल तनावपूर्ण था। नौसैनिक फ्रिगेट एचएमआईएस शमशेर की स्थिति और भी नाजुक थी। रॉयल ब्रिटिश नेवी के इस जहाज की कमान संभाल रहे लेफ्टिनेंट कृष्णन ने बंदरगाह छोड़ने का सिग्नल देने का आदेश दे दिया था।
उनसे सहमत न होते हुए भी सब-लेफ्टिनेंट आर.के.एस. गांधी ने सैन्य अनुशासन का पालन किया था, लेकिन क्या विद्रोह पर उतारू नाविक मानेंगे? इसी तनावपूर्ण माहौल में लड़ने और मरने के लिए वर्षों से तैयार नाविकों के सामने लेफ्टिनेंट कृष्णन आये।
भीड़ चीरकर आगे बढ़ते जहाज के इस कप्तान के लिए तेज चलती सांसें, क्रोध और असंतोष भांप लेना कोई मुश्किल नहीं था। उस 18 फ़रवरी की सुबह लेफ्टिनेंट कृष्णन का भारतीय होना काम आया।