हिन्दुओं के कलैंडर यानि कि पञ्चांग में हर 14 से 19 साल में एक महीना खिसकता है। 2015 ऐसा ही एक साल था। इस अलग महीने वाले वर्ष पुरी के जग्गनाथ मंदिर में जो मूर्तियां रखी हैं उन्हें बदला जाता है।
मंदिर प्रांगण में जिन मूर्तियों की पूजा होती है उन्हें लकड़ी से बनाया जाता है। मुख्यतः इसमें नीम की लकड़ी इस्तेमाल होती है। इन चारों मूर्तियों में भगवान जगन्नाथ की मूर्ती 5 फुट 7 इंच की होती है और उनके फैले हुए हाथ 12 फुट का घेरा बनाते हैं।
इनका वजन इतना ज्यादा होता है कि पांच-पांच लोग इनके 1-1 हाथ और बीस लोग उन्हें पीठ की तरफ से उठाते हैं। करीब पचास लोग उन्हें आगे से खींचते हैं। बलभद्र की मूर्ती इस से कहीं हल्की होती है । उनकी मूर्ती 5 फुट 5 इंच ऊँची होती है।
उनके हाथ भी 12 फुट का घेरा बनाते हैं। सुभद्रा की मूर्ती 5 फुट से थोड़ी सी काम होती है, वो भी वजन में हलकी होती है। सुदर्शन की मूर्ती में कोई नक्काशी इत्यादि नहीं होती। लेकिन इसकी ऊंचाई 5 फुट 10 इंच होती है। समस्या है इसके लिए नीम का पेड़ ढूंढना।
किसी भी पेड़ से मूर्ती नहीं बनाई जा सकती। भगवान जगन्नाथ सांवले हैं इसलिए उनकी मूर्ती जिस पेड़ से बनेगी उसे भी गहरे रंग का होना चाहिए। लेकिन उनके भाई और बहन की मूर्तियों के लिए हलके रंग वाली लकड़ी ढूंढी जाती है।
जिस पेड़ से भगवान जगन्नाथ की मूर्ती बनेगी, उस पेड़ में चार मुख्य शाखाएँ होनी चाहिए, जो भगवान के चार हाथों का प्रतीक हैं। पेड़ को किसी श्मशान के पास होना चाहिए। उसके पास कोई तालाब या जलाशय भी होना चाहिए। पेड़ या तो किसी तिराहे के पास हो, या वो तीन पहाड़ों से घिरा हुआ होना चाहिए।
पेड़ पर कोई लताएँ चढ़ी हुई नहीं होनी चाहिए। उसके पास वरुण, सहदा और विल्व (बेल) के पेड़ भी होने चाहिए। इनके अलावा पेड़ के आस पास किसी साधु की कुटिया-आश्रम भी होनी चाहिए। कोई न कोई शिव मंदिर भी पास ही होना चाहिए। इस पेड़ पर किसी चिड़िया का घोंसला नहीं होना चाहिए।
ख़ास बात ये भी है कि पेड़ की जड़ में किसी सांप की बांबी हो और पास ही कहीं चीटियों का घोंसला भी जरुरी है। अब सबसे जरूरी चीज़! पेड़ के तने पर प्राकृतिक रूप से बने हुए शंख और चक्र के निशान होने चाहिए। इतनी शर्तें पूरी करने वाले पेड़ के तने से ही भगवान जगन्नाथ की मूर्ती बन सकती है।
आप अब कहेंगे कि इतनी शर्तों को पूरा करने वाला पेड़ मिलेगा कहाँ? तो हर बार ऐसा पेड़ मिला है। पिछले सौ साल का रिकॉर्ड आप कभी भी देख सकते हैं। इससे लम्बा रिकॉर्ड (500-1000 वर्ष जैसा कुछ) देखना हो तो दो चार दिन का समय लगेगा।
वर्ष 2015 में जिस वृक्ष से जगन्नाथ जी की मूर्ती बनी थी -
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बकरीद पर किसी को बकरा काटने के लिए कोस रहे हैं? एक काम कीजिये जरा उनकी ही तरह अगली दिवाली में पटाखों के चार हिस्से कीजिये और एक हिस्सा पड़ोसियों, एक रिश्तेदारों, एक गरीबों को बाँटकर केवल चौथा हिस्सा खुद के लिए इस्तेमाल करके दिखाइये!
वो जो बकरे की खाल होगी, उसे बेचकर वो मकतब (मस्जिद के स्कूल-मदरसे) के लिए मौलवी को देंगे। आपने अपने पूरे जीवनकाल में क्या घर का रद्दी अख़बार वगैरह भी बेचकर उसके पैसे किसी वैदिक पाठशाला में दिए हैं या सिर्फ पानी पी पी कर बम्मनों को कोसने से काम चलाया है?
उनके घर में बच्चों से पूछ लें तो वो फ़ौरन बता देंगे कि ये बकरीद का त्यौहार क्यों मनाया जाता है। आप बताएं आपके घर क्या होगा? बच्चे छोड़िये, 20-25 के नवयुवक-युवतियां बता देंगी की होली, दिवाली, दशहरा, कौन सा किस उपलक्ष्य में मनाया जाता है?
पद्म पुरस्कारों में एक ऑटो चालक, महतो जी की बिटिया, दीपिका कुमारी की तस्वीरें भी दिखी होंगी। दीपिका कुमार की तीर चलाते हुए कई तस्वीरें हैं इन्टरनेट पर। उन्हें देखते ही भारतीय लोगों को कम से कम ये तो पता चल ही जायेगा कि तीर चलाने के लिए दाहिने हाथ का अंगूठा इस्तेमाल नहीं होता।
तीर इंडेक्स और मिडिल फिंगर, यानि की प्रथमा और मध्यमा उँगलियों के बीच पकड़ा जाता है। जैसा कि कई बार दल-हित चिन्तक बरगलाते हैं, वैसे चुटकी में पकड़कर तीर नहीं चलता। ऐसे कठिन प्रश्नों से दल हित चिंतकों को डर लगता है।
इसके जवाब में वो अक्सर बरगलाने की और कोशिश करने लगते हैं। कहा जाता है कि एकलव्य वाली घटना के बाद से धनुष चलाने का तरीका बदल गया! ये पूरी तरह एक नया झूठ होता है क्योंकि भारत में हमेशा से लॉन्ग बो इस्तेमाल किया जाता है।
जब आप इतिहास से नहीं सीखते, तो इतिहास खुद को दोहराता है। दूसरे विश्वयुद्ध के शुरू होने के समय भारत में जो नौसेना थी, वो मामूली सी थी। सैन्य विद्रोह न हो सकें इसके लिए अंग्रेजों ने वर्षों से अफवाहें फैलाई थीं। बड़े पोत बनाने पर प्रतिबन्ध लगाए इस समय तक सौ वर्ष के लगभग बीत चुके थे।
जब द्वित्तीय विश्वयुद्ध के लिए सैनिकों की जरुरत पड़ी तो जान देने वाले सैनिक कहाँ से आते? जाहिर है वो भारत जैसे देशों से लिए गए, जो फिरंगी हुक्मरानों की गुलामी करने के लिए मजबूर थे। रॉयल ब्रिटिश नेवी का भारतीय हिस्सा अपने 1939 के आकार से बढ़कर 1945 में करीब दस गुना हो चुका था।
इस नौसेना में 1942 से 1945 के दौर में सीपीआई के नेताओं ने भर्तियाँ करवाने के लिए बड़े स्तर पर अभियान चलाये। उपनिवेशवादियों की सेना में भारतीय क्यों भर्ती करना चाहते थे? संभवतः इसलिए क्योंकि स्टालिन के हिटलर से मनमुटाव होने के बाद के दौर में नाजियों के खिलाफ होना जरूरी था!
बंदरगाह पर लगे जहाज पर माहौल तनावपूर्ण था। नौसैनिक फ्रिगेट एचएमआईएस शमशेर की स्थिति और भी नाजुक थी। रॉयल ब्रिटिश नेवी के इस जहाज की कमान संभाल रहे लेफ्टिनेंट कृष्णन ने बंदरगाह छोड़ने का सिग्नल देने का आदेश दे दिया था।
उनसे सहमत न होते हुए भी सब-लेफ्टिनेंट आर.के.एस. गांधी ने सैन्य अनुशासन का पालन किया था, लेकिन क्या विद्रोह पर उतारू नाविक मानेंगे? इसी तनावपूर्ण माहौल में लड़ने और मरने के लिए वर्षों से तैयार नाविकों के सामने लेफ्टिनेंट कृष्णन आये।
भीड़ चीरकर आगे बढ़ते जहाज के इस कप्तान के लिए तेज चलती सांसें, क्रोध और असंतोष भांप लेना कोई मुश्किल नहीं था। उस 18 फ़रवरी की सुबह लेफ्टिनेंट कृष्णन का भारतीय होना काम आया।
अगर आपने एक बार में ये तस्वीर नहीं पहचानी हो तो आपको सोचना चाहिए कि ऐसा कैसे हुआ होगा? इनके नाम से जाने-माने पत्रकारिता की पढ़ाई के संस्थान आईआईएमसी का हॉस्टल है। फिर भी किसी लेखक-पत्रकार को रानी गाइदिन्ल्यू का जिक्र करते क्यों नहीं सुना?
करीब सत्रह वर्ष की उम्र में उनके सर पर फिरंगियों ने 500 रुपये का इनाम रखा था। इसके अलावा जिस गाँव से पकड़ी जाती, उनका लगान दस साल तक माफ़ होने की घोषणा भी थी। फिर भी उन्हें पकड़ने के लिए असम राइफल्स की तीसरी और चौथी, दो बटालियनों को उतारना पड़ा था। #RaniGaidinliu
प्रकृति पूजक हेराका (शुद्धिकरण) आन्दोलन से वो तेरह वर्ष की उम्र में जुड़ी थीं और अपने भाई जदोनांग को फांसी पर चढ़ा दिए जाने के बाद रानी गाइदिन्ल्यू ने आन्दोलन का नेतृत्व संभाल लिया। वो कोई रानी भी नहीं थी। उनके गिरफ्तार होने के कई साल बाद, 1932 में नेहरु उनसे मिले थे।
Once we pass the matriculation exams, it's only by chance that we pick up history books to read. Often our knowledge of history as adults is only the knowledge given to us by our school books and teachers. What if someone chooses to manipulate it at that point!
Today it's a well-known fact that #Indian#history has not been written by #Indians. At best, they were brown sahibs instead of the white ones who choose what we would learn about our history & what we won't. Every few months some strange manipulation of history comes to light!
How about those #NCERT books? What would you say about the most trusted books that are often used by students preparing for #UPSC? Well, you know the answer, even if you choose not to state the fact in public. They are biased, aren't they?