पद्म पुरस्कारों में एक ऑटो चालक, महतो जी की बिटिया, दीपिका कुमारी की तस्वीरें भी दिखी होंगी। दीपिका कुमार की तीर चलाते हुए कई तस्वीरें हैं इन्टरनेट पर। उन्हें देखते ही भारतीय लोगों को कम से कम ये तो पता चल ही जायेगा कि तीर चलाने के लिए दाहिने हाथ का अंगूठा इस्तेमाल नहीं होता।
तीर इंडेक्स और मिडिल फिंगर, यानि की प्रथमा और मध्यमा उँगलियों के बीच पकड़ा जाता है। जैसा कि कई बार दल-हित चिन्तक बरगलाते हैं, वैसे चुटकी में पकड़कर तीर नहीं चलता। ऐसे कठिन प्रश्नों से दल हित चिंतकों को डर लगता है।
इसके जवाब में वो अक्सर बरगलाने की और कोशिश करने लगते हैं। कहा जाता है कि एकलव्य वाली घटना के बाद से धनुष चलाने का तरीका बदल गया! ये पूरी तरह एक नया झूठ होता है क्योंकि भारत में हमेशा से लॉन्ग बो इस्तेमाल किया जाता है।
ऐसा इसलिए माना जा सकता है क्योंकि इतिहास की किताबों में उन्होंने ही आपको पढ़ाया था कि एलेग्जेंडर और पोरस की लड़ाई में पोरस के धनुर्धर इसलिए काम नहीं आये थे क्योंकि जमीन गीली थी और उसपर धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाना मुमकिन नहीं था। लॉन्ग बो को जमीन पर टिकाकर प्रत्यंचा चढ़ाते थे।
महाभारत के इस एकलव्य नाम के किरदार पर दोबारा आयें, तो वो महाभारत में दूसरी बार द्रौपदी के स्वयंवर में नजर आता है। इस बार वो हस्तिनापुर के शत्रु राज्य मगध के राजकुमार (जरासंध के पुत्र) का अंगरक्षक होता है। राजा-राजकुमार का अंगरक्षक होना सेना का ऊँचा पद होता होगा? ये उसे कैसे मिला?
इसलिए क्योंकि उसके पिता भी जरासंध की सेना में ही थे! यानि जिस समय वो द्रोणाचार्य से शिक्षा लेने आया था, उस वक्त भी उसकी निष्ठा स्पष्ट थी। जाहिर सी बात है द्रोणाचार्य ने शत्रु देश की सेना में काम करने वाले को युद्ध कलाएँ सिखाने से मना कर दिया।
अगर इसके बाद भी वो चोरी-छुपे द्रोणाचार्य से ही सीख लेता है, जैसा कि उसने किया भी, तो फिर उसका दंड क्या होता? गुप्तचर के लिए आमतौर पर प्राणदंड की सजा है। सबसे कम सजा भी अंग-भंग होती थी। ऐसा रामायण में रावण के हनुमान जी की पूँछ जलाने के प्रयास में भी दिख जायेगा।
अब प्रश्न ये है कि द्रोणाचार्य ने आखिर अंगूठा मांगकर क्या बेईमानी की? वो अपने शिष्य को प्राणदंड या अंग-भंग का दंड मिलने से बचा रहे थे। उन्हें एकलव्य को दरबार को सौंपना चाहिए था। तब शायद हाथ जाता, वो युद्ध के लिए सक्षम नहीं रह जाता, यहाँ द्रोणाचार्य बीच में आ गए।
चुटकी से तीर पकड़ने, यानि "पिंच ड्रा" से नुकसान क्या होता? इस तरीके से तीर चलाने पर "लॉन्ग बो" को पूरा नहीं खींचा जा सकता, यानि तीर कम दूरी तक जायेगा। दूसरे उससे निशाना सही नहीं लगाया जा सकता, कुत्ते के मुंह में ही कई तीर तो हरगिज नहीं!
पिंच ड्रा को विशेष मंगोल धनुषों में इस्तेमाल किया जाता है जिसे घुड़सवार चलाते हैं। तेज गुजरते घोड़े की पीठ से बहुत दूर जाने वाले तीर नहीं, अपेक्षाकृत छोटे तीर प्रयोग किये जाते हैं।
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जब आप इतिहास से नहीं सीखते, तो इतिहास खुद को दोहराता है। दूसरे विश्वयुद्ध के शुरू होने के समय भारत में जो नौसेना थी, वो मामूली सी थी। सैन्य विद्रोह न हो सकें इसके लिए अंग्रेजों ने वर्षों से अफवाहें फैलाई थीं। बड़े पोत बनाने पर प्रतिबन्ध लगाए इस समय तक सौ वर्ष के लगभग बीत चुके थे।
जब द्वित्तीय विश्वयुद्ध के लिए सैनिकों की जरुरत पड़ी तो जान देने वाले सैनिक कहाँ से आते? जाहिर है वो भारत जैसे देशों से लिए गए, जो फिरंगी हुक्मरानों की गुलामी करने के लिए मजबूर थे। रॉयल ब्रिटिश नेवी का भारतीय हिस्सा अपने 1939 के आकार से बढ़कर 1945 में करीब दस गुना हो चुका था।
इस नौसेना में 1942 से 1945 के दौर में सीपीआई के नेताओं ने भर्तियाँ करवाने के लिए बड़े स्तर पर अभियान चलाये। उपनिवेशवादियों की सेना में भारतीय क्यों भर्ती करना चाहते थे? संभवतः इसलिए क्योंकि स्टालिन के हिटलर से मनमुटाव होने के बाद के दौर में नाजियों के खिलाफ होना जरूरी था!
बंदरगाह पर लगे जहाज पर माहौल तनावपूर्ण था। नौसैनिक फ्रिगेट एचएमआईएस शमशेर की स्थिति और भी नाजुक थी। रॉयल ब्रिटिश नेवी के इस जहाज की कमान संभाल रहे लेफ्टिनेंट कृष्णन ने बंदरगाह छोड़ने का सिग्नल देने का आदेश दे दिया था।
उनसे सहमत न होते हुए भी सब-लेफ्टिनेंट आर.के.एस. गांधी ने सैन्य अनुशासन का पालन किया था, लेकिन क्या विद्रोह पर उतारू नाविक मानेंगे? इसी तनावपूर्ण माहौल में लड़ने और मरने के लिए वर्षों से तैयार नाविकों के सामने लेफ्टिनेंट कृष्णन आये।
भीड़ चीरकर आगे बढ़ते जहाज के इस कप्तान के लिए तेज चलती सांसें, क्रोध और असंतोष भांप लेना कोई मुश्किल नहीं था। उस 18 फ़रवरी की सुबह लेफ्टिनेंट कृष्णन का भारतीय होना काम आया।
अगर आपने एक बार में ये तस्वीर नहीं पहचानी हो तो आपको सोचना चाहिए कि ऐसा कैसे हुआ होगा? इनके नाम से जाने-माने पत्रकारिता की पढ़ाई के संस्थान आईआईएमसी का हॉस्टल है। फिर भी किसी लेखक-पत्रकार को रानी गाइदिन्ल्यू का जिक्र करते क्यों नहीं सुना?
करीब सत्रह वर्ष की उम्र में उनके सर पर फिरंगियों ने 500 रुपये का इनाम रखा था। इसके अलावा जिस गाँव से पकड़ी जाती, उनका लगान दस साल तक माफ़ होने की घोषणा भी थी। फिर भी उन्हें पकड़ने के लिए असम राइफल्स की तीसरी और चौथी, दो बटालियनों को उतारना पड़ा था। #RaniGaidinliu
प्रकृति पूजक हेराका (शुद्धिकरण) आन्दोलन से वो तेरह वर्ष की उम्र में जुड़ी थीं और अपने भाई जदोनांग को फांसी पर चढ़ा दिए जाने के बाद रानी गाइदिन्ल्यू ने आन्दोलन का नेतृत्व संभाल लिया। वो कोई रानी भी नहीं थी। उनके गिरफ्तार होने के कई साल बाद, 1932 में नेहरु उनसे मिले थे।
Once we pass the matriculation exams, it's only by chance that we pick up history books to read. Often our knowledge of history as adults is only the knowledge given to us by our school books and teachers. What if someone chooses to manipulate it at that point!
Today it's a well-known fact that #Indian#history has not been written by #Indians. At best, they were brown sahibs instead of the white ones who choose what we would learn about our history & what we won't. Every few months some strange manipulation of history comes to light!
How about those #NCERT books? What would you say about the most trusted books that are often used by students preparing for #UPSC? Well, you know the answer, even if you choose not to state the fact in public. They are biased, aren't they?
You think you need to improve your style of writing? There are a lot of books which can help you with that. Ever tried reading and learning from them? Let's take a look at what help is available in this thread.
There's "The Sense of Style" by Steven Pinker (amzn.to/3hkT4eb) which tells you why we all need a sense of style. It uses research in linguistics and cognitive science to help the author in enabling the spread of ideas and gaining the reader's trust.
Another one is "Bird by Bird" by Anne Lamott (amzn.to/3aEMKgh) which has been offering authors some practical advice on the craft of writing in a humourous style for about three decades.
It's too hard they say! Why so? That's because even voracious readers insist that they can't write more than one-two lines about a book. Is that bad? Actually, it's not, because summarizing a 200 pages book in 1 sentence should be called an achievement!
But then the question arises how do we write a longer #BookReview? Let's first see how we can make it a paragraph long. Maybe approaching the problem in steps would make it easier to solve. So we move toward adding one more line to your review first.
Have you noticed that many readers love the touch and feel of a book and even when they read a soft copy or on Kindle, they miss that touch, smell & feel of paper? Well, that's the first thing you CAN talk about. Consider a few examples.