एक सीनियर बैंकर जिनसे सिर्फ दो दिन मुलाकात हुई मगर एक जैसी परिस्थितियों का भुक्तभोगी होने के कारण अच्छी मित्रता हो गई, कुछ दिन पहले मिले। बताया कि कुछ दिन से छुट्टी पे चल रहे हैं। हमने पूछा कि फरबरी-मार्च में छुट्टी?
वो भी बैंक में? वो भी ब्रांच मैनेजर रहते हुए? और वो भी सिंगल अफसर ब्रांच में? हम उनके इस सौभाग्य पर मन ही मन ईर्ष्या में जल-भुन रहे थे कि उन्होंने बताया कि उनको डॉक्टर ने MDD और GAD बताया है। अब ADS, CBS, CCDP वगैरह तो समझ में आता है ये MDD और GAD पहली बार सुना था।
पूछने पर सर ने बताया कि MDD मतलब Major Depression Disorder और GAD मतलब General Anxiety Disorder. अब बात थोड़ी गंभीर हो गई थी। सर ने बताया कि बीमारी का अंदेशा तो काफी पहले से था लेकिन डॉक्टर को दिखाने का समय ही नहीं मिल पा रहा था।
बीच में कंट्रोलर को बताया तो छुट्टी या कोई और सपोर्ट देने की जगह दूसरे रीजन में ट्रांसफर करवा दिया। शायद साहब डर गए होंगे कि कहीं डिप्रेशन में आकर कोई गलत कदम उठा लिया तो उनके माथे ठीकरा न फूटे। अब दूसरा ब्रांच मैनेजर जाने और उसका कंट्रोलर।
जिस मनोरोग डॉक्टर के पास इलाज चल रहा था उस डॉक्टर ने बताया कि उसके पास इसी बैंक के 8 और लोगों का डिप्रेशन का इलाज चल रहा है।
जब इंजीनियरिंग पढ़ रहे थे तो "Occupational Health hazards" करके एक सब्जेक्ट था, यानी इंजीनियरिंग व्यवसाय से जुड़े स्वास्थ्य खतरे। जब फील्ड में नौकरी करने गए तो वहां हर जगह इस प्रकार के पोस्टर लगे होते थे जो काम के साथ सुरक्षा पर भी ध्यान देने को कहते थे।
भारत में खदानों और फैक्ट्रियों में एक पुराना सिस्टम है। हर मजदूर के सैलरी के गुड़ भी दिया जाता है। पूछने पर बताया गया कि फैक्ट्री में काम करते समय जो धूल और गन्दगी सांस के साथ शरीर के अंदर चली जाती है उसे निकालने में गुड़ काफी मददगार होता है।
अगर गुड़ नहीं खाएंगे तो सिलिकोसिस और न्यूमोकोनियोसिस जैसी बीमारियों से 50 की उम्र में सांस उखड जायेगी। जब बैंक ज्वाइन किया तो यहाँ किसी "Occupational Health hazards" के बारे में नहीं बताया गया था। जरूरत भी क्या है।
यहाँ कौनसे हथौड़े चलाने हैं या मिट्टी छाननी है जो स्वास्थ्य का खतरा होगा। लेकिनए थोड़े ही पता था कि यहाँ तो दिमाग पर हथौड़े चलते हैं। जितनी जल्दी बाल बैंकर के उड़ते हैं उतनी जल्दी तो अनुपम खेर के भी नहीं गए होंगे। बैंकर कम्युनिटी में माइग्रेन एक आम समस्या है।
बैंकर के घर में और कुछ मिले न मिले सरदर्द की दवाई जरूर मिलेगी। कम से कम बैंकिंग क्षेत्र के बारे में ये बहुत गलत अवधारणा है कि यहाँ स्वास्थ्य खतरे नहीं है। हो सकता पहले नहीं रहे हों। तभी तो पुराने बैंकर इस मुद्दे के बारे में ना जानते हैं न कभी बोलते हैं।
शायद इसीलिए आजतक ये ऑफिसियल आंकड़ा नहीं आया कि कोरोना में कितने बैंकर शहीद हुए। कोरोना हमारे लिए "Occupational Health hazards" ही तो था। जान का खतरा है ये जानते हुए भी बैंक जाना है। लॉकडाउन में, बिना मास्क के, बैंक पासबुक को VIP पास बनाकर घूम रहे आवारा लोगों से जूझना है।
आजकल तो बैंकों में हिंसा कि घटनाएं भी काफी बढ़ गई हैं। हिंसक पशु की आत्मा के साथ गलती से मानव योनि में जन्म पा गए इंसान जैसे दिखने वाले लेकिन अंदर से पशुवत लोग तुरंत बैंकरों पर हमला बोल देते हैं। ये भी तो बैंकिंग का "Occupational Health hazards" ही है।
वैसे तो बीच बीच में "स्ट्रेस मैनेजमेंट सेशन" होते हैं मगर उसमें ज्ञान देने अक्सर वो पुराने बैंकर आते हैं जिनको शायद ही कभी स्ट्रेस रहा हो। और इन सेशंस में जाने का मौका भी अक्सर ऐसे ही लोगों को मिलता है।
वैसे भी एक P-review मीटिंग ऐसे सैंकड़ों स्ट्रेस मैनेजमेंट सेमिनार पर भारी पड़ जाती है। इसलिए मेरी एक छोटी सी मांग है कि बैंकिंग ज्वाइन करते समय ट्रेनिंग में "Banking Health hazards" की भी क्लास होनी चाहिए। जहाँ विस्तार से इस व्यवसाय से जुड़े स्वास्थ्य खतरों के बारे में बताया जाए।
साथ ही एक मनोरोग विशेषज्ञ का नंबर भी दिया जाए। जिस प्रकार से बैंकरों पर मानसिक दबाव बढ़ रहा है, बैंक को कॉर्पोरेट लेवल पर ही मनोरोग विशेषज्ञों से अनुबंध कर लेना चाहिए। और हर तीन महीने बाद Mandatory e-Learning की तरह mandatory मेन्टल हेल्थ चेक-अप भी करवाना चाहिए।
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बैंकर, विशेषकर ब्रांच मैनेजर्स जब आपस में मिलते हैं तो अक्सर मैनेजमेंट के खिलाफ अपना दुखड़ा रोते हैं जिसमें स्टाफ की कमी और कंट्रोलर के घटिया व्यवहार के साथ साथ सैटरडे संडे को जबरदस्ती बैंक खुलवाने वाला मुद्दा भी होता है।
उनमें से अक्सर कई लोग ये दावे करते हुए पाए जाते हैं कि चाहे जो हो जाए वो छुट्टी के दिन ब्रांच नहीं खोलते। ऐसे ब्रांच मैनेजरों को देखकर प्रेरणा मिलती है। लेकिन वही प्रेरणा बेवफा हो जाती है जब पता चलता है कि जो मैनेजर चौड़े होकर मैनेजमेंट के खिलाफ सीना ठोक रहे थे,
वही शनिवार रविवार के दिन व्हाट्सएप ग्रुप में साहब की नजरों में गुड बॉय बनने के लिए फोटो डाले बैठे रहते हैं
"branch opened for pending work",
"branch opened for compliance"
"branch opened for loan sourcing"
"branch opened for फलाना धिमका कैंपेन"
"branch opened for साहब की खुशी"
अधिकतर बातों से सहमत हूँ। लेकिन "स्वहित" पूरा होने से सरकार का समर्थक बन जाने वाली बात से नहीं। अगर ये बात एक व्यक्ति के लिए कही गई है तो सही है। मगर ऐसा होना नहीं चाहिए। स्वहित पूरा होने से सरकार समर्थक बन जाने वाली समस्या से ही तो हमारे नौकरशाह और यूनियन लीडर ग्रसित हैं।
इनके अपने हित पूरे हो रहे हैं इसलिए देश और बैंकर जाए भाड़ में। सरकार भी यही चाहती है। आपका पेटभरा रहे तो दूसरे के भूखे होने पे सवाल मत उठाओ। इसमें कोई दोराय नहीं कि सोशल मीडिया पर बहुत सारे नैरेटिव चलते हैं। कई देश विरोधी भी हैं।
उदाहरण के तौर पर The Wire के संस्थापक को लेते हैं। इनका न्यूज़ पोर्टल बेहूदगी की हद तक जाकर भारत और भारतीय संस्कृति और की आलोचना करने से नहीं चूकता। कई लोग जानते भी होंगे कि इनके ही भाई एक अलगाववादी हैं और द्रविड़िस्तान बनाने का सपना देखते हैं। और भी ऐसे कई गिना सकता हूँ।
लोगों की एक मानसिकता है कि सरकार का विरोध नहीं करना चाहिए। क्यूंकि अगर सरकार का विरोध करोगे तो फिर सरकार के सामने अपनी मांगें कैसे रख पाओगे? लॉजिकली सही बात है।
जिससे लड़ाई लड़ोगे, जिसके खिलाफ आवाज उठाओगे उससे तो ये उम्मीद तो नहीं करोगे न कि वो तुम्हारे भले की सोचे, तुम्हारी जरूरतें पूरी करे। जैसे, अगर बैंकर सरकार की विदेश नीति, कृषि नीति, आर्थिक नीति पर सवाल उठाते हैं तो फिर सरकार को पूरा हक़ है कि वो आपको निजी हाथों में सौंप दे।
कम से कम सरकार में बैठे कुछ लोग और सरकार के समर्थक तो यही मानते हैं। इसके प्रत्युत्तर में मैं दो तर्क दूंगा। जब 1885 में कांग्रेस का गठन हुआ था तो वहां नरम दल का राज था। ये लोग अंग्रेज सरकार का विरोध तो करते थे मगर तरीके से।
साहब: यहाँ हम किसी को टारगेट नहीं देते। BM खुद अपने टारगेट सेट करते हैं। BM साहब, पिछले महीने किया बीमा किया?
BM: सर, 4 लाख।
साहब: पिछली मीटिंग में आपने कितना प्रॉमिस किया था?
BM: सर, 10 लाख।
साहब: फिर क्यों नहीं कर पाए? टारगेट खुद आपने ही बताया था न। खुद का टारगेट भी अचीव नहीं कर पाए?
BM: सर वो इस महीने एक स्टाफ छुट्टी पे था तो काम का लोड बढ़ गया था। फिर क्वार्टर क्लोजिंग थी इसलिए NPA रिकवरी भी करनी थी। लोक अदालत के नोटिस...
साहब: ये सब मुझे मत सुनाओ। BM तुम हो या कोई और?
BM : मैं ही हूँ सर।
साहब: तो ब्रांच की जिम्मेदारी किसकी है? NPA रिकवरी, लोक अदालत, ये सब मैं देखूँगा? ब्राँच के रेगुलर काम के लिए अलग से आदमी चाहिए तुमको? बैंकिंग का मतलब सिर्फ डेबिट-क्रेडिट नहीं होता।
नए बिज़नेस खुल रहे हैं मगर या किसी न किसी तरीके से बड़े उद्योगपतियों का शिकार बन रहे हैं। यानी मार्किट में कम्पटीशन बढ़ने की बजाय कुछ बड़े उद्योगपतियों की मोनोपोली होती जा रही है। (ठीक वैसे ही जैसे मार्क्स ने कहा था)।
बड़ी कंपनियां बैंकों से लोन लेने की जगह सीधे मार्केट से पैसा उठाना ज्यादा पसंद कर रही हैं। और सरकारी बैंक हैं कि छोटे लोन की जगह बड़ी कंपनियों की तरफ ही भागे जा रहे हैं। और छोटे उद्योगों को PSBs से लोन नहीं मिल पा रहा।
कारण?
- सरकारी बैंकों में आजकल लोन के डिसीजन ब्रांचों के हाथों से छीन कर केंद्रीकृत कर दिए गए हैं। इससे छोटे लोन की प्रक्रिया भी जटिल हो गई है।