Importance of Rudraksha.

शिवप्रियतमो ज्ञेयो रुद्राक्षः परपावन‌ः।
दर्शनात् स्पर्शनाज्जाप्यात् सर्वपापहरः स्मृतः।।२-५-२।।
रुद्राक्ष शिव को अत्यंत प्रिय है। इसे परम पावन समझना चाहिये। रुद्राक्ष का स्पर्श,दर्शन और जप समस्त पापों का हरण करनेवाला कहा गया है।
वर्णैस्तु तत्फलं धार्यं भुक्तिमुक्तिफलेुसुभिः।
शिवभक्तैर्विशेषेण शिवयोः प्रीतये सदा॥२-५-१३॥
भोग और मोक्ष की इच्छा वाले चारों वर्णों के लोगों और विशेषत शिवभक्तों शिव पार्वती की प्रसन्नताके लिये रुद्राक्ष फलोंको अवश्य धारण करना चाहिये॥
रुद्राक्षधारणं प्रोक्तं पापनाशनहेतवे।
तस्माच्च धारणीयो वै सर्वार्थसाधनो ध्रुवम्॥२-५-१९॥
यथा च दृश्यते लोके रुद्राक्षः फलदः शुभः।
न तथा दृश्यतेऽन्या च मालिका परमेश्वरि॥२-५-२०॥
पापों का नाश करने के लिये रुद्राक्षधारण आवश्यक बताया गया है।
वह निश्चय ही सम्पूर्ण अभीष्ट मनोरथों का साधक है अतः उसे अवश्य ही धारण करना चाहिये॥
लोक में मङ्गलमय रुद्राक्ष जैसा फल देनेवाला देखा जाता है वैसी फलदायिनी दूसरी कोई माला नहीं दिखायी देती॥
रुद्राक्षधारणं प्रोक्तं महापातकनाशनम्॥२-५-२४
रुद्राक्ष धारण बडे-बडे पातकों का नाश करनेवाला बताया गया है।
दिवा बिभ्रद्रात्रिकृतै रात्रौ बिभ्रद्दिवाकृतैः।
प्रातर्मध्याह्नसायाह्ने मुच्यते सर्वपातकैः॥२-५-४८॥
ये रुद्राक्षधरास्ते वै यमलोकं प्रयान्ति न॥२-५-४९॥
मनुष्य दिन में रुद्राक्ष धारण करने से रात्रि में किये गये पापों से और रात्रिमें धारण करने से दिनमें किये गये पापों से प्रातः,मध्याह्न और सायह्न में रुद्राक्ष धारण करने से समस्त पापों से मुक्त हो जाता है॥
रुद्राक्ष धारण करने वालों की यमलोक मे गति नहीं होती॥
ध्यानज्ञानावमुक्तोऽपि रुद्राक्षं धारयेत्तु यः।
सर्वपापविनिर्मुक्तः स याति परमां गतिम्॥२-५-५७॥
ध्यान और ज्ञान से रहित होने पर भी जो रुद्राक्ष धारण करता है,
वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त होकर परमगति को प्राप्त होता है।
Origin of Rudraksha as narrated by Bhagvaana Shiva to Maa Parvati.

दिव्यवर्षसहस्त्राणि महेशानि पुनः पुरा।
तपः प्रकुर्वतस्त्रस्तं मनः संयम्य वै मम॥२-५-५॥
स्वतन्त्रेण परेशेन लोकोपकृतिकारिणा।
लीलया परमेशानि चक्षुरुन्मीलितं मया॥२-५-६॥
पुटाभ्यां चारुचक्षुर्भ्यां पतिता जलबिन्दवः।
तत्राश्रुबिन्दुतो जाता वृक्षा रुद्राक्षसंज्ञकाः॥२-५-७॥
स्थावरत्वमनुप्राप्य भक्तानुग्रहकारणात्।
ते दत्ता विष्णुभक्तेभ्यश्चतुर्वर्णेभ्य एव च॥२-५-८॥
भूमौ गौडोद्भवांश्चक्रे रुद्राक्षाञ्छिववल्लभान्।
मथुरायामयोध्यायां लङ्कायां मलये तथा॥२-५-९॥
सह्याद्रौ च तथा काश्यां देशेष्वन्येषु वा तथा।
परानसह्यपापौघभेदनाञ्छ्रुतिनोदनान्॥२-५-१०॥
हे महेशानि पूर्वकालकी बात है, मैं मनको संयम में रखकर हजारों दिव्य वर्षों तक घोर तपस्या में लगा रहा।
मैं सम्पूर्ण लोकों का उपकार करनेवाला स्वतन्त्र परमेश्वर हूँ। एक दिन मेरा मन क्षुब्ध हो उठा अतः उस समय मैंने लीलावश ही अपने दोनों नेत्र खोले।
नेत्र खोलते ही मेरे नेत्रों से कुछ जलकी बूँदें गिरीं।
अश्रुओं की उन बूँदों से वहाँ रुद्राक्ष नामक वृक्ष उत्पन्न हो गये।
भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये वे अश्रुबिन्दु स्थावरभावको प्राप्त हो गये। वे रुद्राक्ष मैंने विष्णुभक्तों को तथा चारों वर्णों के लोगों को बाँट दिये।
भूतलपर अपने प्रिय रुद्राक्षोंको मैंने गौड देश में उत्पन्न किया।
मथुरा, अयोध्या, लंका, मलयाचल,सह्यगिरि, काशी तथा अन्य देशों मे भी उनके अंकुर उगाये। वे उत्तम रुद्राक्ष असह्य पापसमूहों का भेदन करनेवाले तथा श्रुतियों के भी प्रेरक हैं।२-५-५-१०॥
Varnas of Rudrakshas as explained by Bhagvaana Shiva.

ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्रा जाता ममाज्ञया।
रुद्राक्षास्ते पृथिव्यां तु तज्जातीयाः शुभाक्षकाः॥२-५-११॥
श्वेतरक्ताः पीतकृष्णा वर्णा ज्ञेयाः क्रमाद् बुधैः।
स्वजातीयं नृभिर्धार्यं रुद्राक्षं वर्णतः क्रमात्॥२-५-१२॥
मेरी आज्ञा से वे रुद्राक्ष ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र जाति के भैद से इस भूतल पर उत्पन्न हुये।
रुद्राक्षों की ही जातिके शुभाक्ष भी हैं।
उन ब्राह्मणादि जातिवाले रुद्राक्षोंके वर्ण श्वेत,रक्त,पीत तथा कृष्ण जानने चाहिये।
मनुष्यों को चाहिये कि वे क्रमशः वर्ण के अनुसार अपनी जाति
का ही रुद्राक्ष धारण करें॥२-५-११-१२॥
Features of Rudraksha.
समाः स्निग्धा दृढाः स्थूलाः कण्टकैः संयुताः शुभाः।
रुद्राक्षाः कामदा देवि भुक्तिमुक्तिप्रदाः सदा॥२-५-२१
सम आकार प्रकारवाले,चिकने,सुदृढ,स्थूल,कण्टकयुक्त(उभरे हुये छोटे-छोटे दानोंवाले)और सुन्दर रुद्राक्ष अभिलषित पदार्थों तथा सदैव भोग और मोक्ष देनेवाले हैं।
कृमिदृष्टं छिन्नभिन्नं कण्टकैर्हीनमेव च।
व्रमयुक्तमवृत्तं च रुद्राक्षान् षड् विवर्जयेत्॥२-५-२२
जिसे कीडोंने दूषित कर दिया हो,जो खण्डित हो,फूटा हो, जिसमें उभरे हुये दाने ना हों,जो व्रणयुक्त हो तथा जो गोल ना हो ऐसे रुद्राक्षों को त्याग देना चाहिये।
Disciplines and Eligibilities of wearing the Rudrakshas.
मद्यं मांसं तु लशुनं पलाण्डुं शिग्रुमेव च।
श्लेष्मान्तकं विड्वराहं भक्षणे वर्जयेत्ततः॥२-५-४३॥
रुद्राक्ष धारण करनेवाले व्यक्ति के लिये खान पान में मदिरा,मांस,लहसुन,प्याज,सहिजन,लिसोडा,विड्वराह आदि वर्जित हैं।
वलक्षं रुद्राक्षं द्विजतनुभिरेवेह विहितं सुरक्तं क्षत्राणां प्रमुदितमुमे पीतमसकृत्।
ततो वैश्यैर्धार्यं प्रतिदिवसमावश्यकमहो तथा कृष्णं शूद्रैः श्रुतिगदितमार्गोऽयमगजे॥२-५-४४
हे उमे श्वेत रुद्राक्ष केवल ब्राह्मणों को धारण करना चाहिये।गहरे लाल रंगका रुद्राक्ष क्षत्रियों लिये हितकर है
वैश्यों के लिये पीले रंग का रुद्राक्ष धारण करना आवश्यक है और शूद्रों को कृष्ण वर्ण का रुद्राक्ष धारण करना चाहिये यह वेदोक्त मार्ग है।
सर्वाश्रमाणां वर्णानां स्त्रीशूद्राणां शिवाज्ञया।
धार्याः सदैव रुद्राक्षा यतीनां प्रणवेन हि॥२-५-४७
सभी आश्रम,वर्णों और स्त्रियों को भी भगवान शिव की आज्ञा के अनुसार सदैव रुद्राक्ष धारण करना चाहिये। यतियों के लिये प्रणवके उच्चारणपूर्वक रुद्राक्ष धारण करने का विधान है।
पञ्चदेवप्रियश्चैव सर्वदेवप्रियस्तथा।
सर्वमन्त्राञ्जपेद्भक्तो रुद्राक्षमालया प्रिये॥२-५-६२
विष्ण्वादिदेवभक्ताश्च धारयेयुर्न संशयः।
रुद्रभक्तो विशेषेण रुद्राक्षान्धारयेत्सदा॥२-५-६३
हे प्रिये
पंचदेवप्रिय अर्थात स्मार्त और वैष्णव तथा सर्वदेवप्रिय सभी लोग रुद्राक्ष की माला से समस्त मन्त्रों का जप कर सकते हैं।
विष्णु आदि देवताओं के भक्तों को भी निस्संदेह इसे धारण करना चाहिये। रुद्रभक्तों को तो विशेष रूप से रुद्राक्ष धारण करना आवश्यक है।
Description of fourteen different types of Rudrakshas.
एकवक्त्रः शिवः साक्षाद्भक्तिमुक्तिफलप्रदः।
तस्य दर्शनमात्रेण ब्रह्महत्यां व्यपोहति॥२-५६४
एकमुखवाला रुद्राक्ष साक्षात शिव का स्वरूप है।
वह भोग और मोक्ष फल प्रदान करता है।
उसके दर्शनमात्र से ब्रह्महत्या पाप नष्ट हो जाता है।
यत्र सम्पूजितस्तत्र लक्ष्मीर्दूरतरा न हि।
नश्यन्त्युरद्रवाः सर्वे सर्वकामा भवन्ति हि॥२-5६५
जहाँ रुद्राक्ष की पूजा होती है वहाँ से लक्ष्मी दूर नहीं जाती,उस स्थान के सारे उपद्रव नष्ट हो जाते हैं तथा वहाँ रहनेवाले लोगों की सम्पूर्ण कामनायें पूर्ण होती हैं।
द्विवक्त्रो देवदेवेशः सर्वकामफलप्रदः।
विशेषेतः स रुद्राक्षो गोवधं नाशयेद् द्रुतम्॥२-५-६६
दो मुखवाला रुद्राक्ष देवदेवेश्वर कहा गया है।
वह सम्पूर्ण कामनाओं और फलों को देनेवाला है।
वह विशेष रूप से गोहत्या के पाप को नष्ट करता है।
त्रिवक्त्रो यो हि रुद्राक्षः साक्षात्साधनदः सदा।
तत्प्रभावाद्भवेयुर्वै विद्याः सर्वाः प्रतिष्ठिताः॥२-५-६७
तीन मुखवाला रुद्राक्ष सदा साक्षात साधनका फल देनेवाला है।
उसके प्रभाव से सारी विद्यायें प्रतिष्ठित हो जाती हैं।
चतुर्वक्त्रः स्वयं ब्रह्मा नरहत्यां व्यपोहति।
दर्शनात् स्पर्शनात् सद्यश्चतुर्वर्गफलप्रदः॥२-५-६८
चार मुखवाला रुद्राक्ष साक्षात ब्रह्मा का रूप है और ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति देनेवाला है। उसके दर्शन और स्पर्श से शीघ्र ही धर्म अर्थ काम मोक्ष चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति होती है।
पञ्चवक्त्रः स्वयं रुद्रः कालाग्निर्नामतः प्रभुः।
सर्वमुक्तिप्रदश्चैव सर्वकामफलप्रदः॥२-५-६९
पाँच मुखवाला रुद्राक्ष साक्षात कालाग्निरुद्ररूप है।
वह सब कुछ करनेमें समर्थ सबको मुक्ति देनेवाला तथा सम्पूर्ण मनोवांछित फल प्रदान करनेवाला है।
अगम्यागमनं पापमभक्ष्यस्य च भक्षणम्।
इत्यादिसर्वपापानि पञ्चवक्त्रो व्यपोहति॥२-५-७०
वह पञ्चमुख रुद्राक्ष अगम्या स्त्री के साथ गमन और पापान्न भक्षणसे उत्पन्न समस्त पापोंको दूर करनेवाला है।
षडवक्त्रः कार्तिकेयस्तु धारणाद् दक्षिणे भुजे।
ब्रह्महत्यादिकैः पापैर्मुच्यते नात्र संशयः॥२-५-७१
छः मुखवाला रुद्राक्ष कार्तिकेयका स्वरूप है।
यदि दाहिनी बाँहमें उसे धारण किया जाय , तो धारण करनेवाला मनुष्य ब्रह्महत्या आदि पापों से मुक्त हो जाता है इसमें संशय नहीं है।
सप्तवक्त्रो महेशानि ह्यनङ्गो नाम नामतः।
धारणात्तस्य देवेशि दरिद्रोऽपीश्वरो भवेत्॥२-५-७२
सात मुखवाला रुद्राक्ष अनंग नामसे प्रसिद्ध है।
उसको धारण करने से दरिद्र भी ऐश्वर्यशाली है जाता है।
रुद्राक्षश्चाष्टवक्त्रश्च वसुमूर्तिश्च भैरवः।
धारणात्तस्य पूर्णायुर्मृतो भवति शूलभृत्॥२-५-७३
आठ मुखवाला रुद्राक्ष अष्टमूर्ति भैरवरूप है उसको धारण करने से मनुष्य पूर्णायु होता है और मृत्यु के बाद शूलधारी शंकर हो जाता है।
भैरवो नववक्त्रश्च कपिलश्च मुनिः स्मृतः।
दुर्गा वा तदधिष्ठात्री नवरूपा महेश्वरी॥२-५-७४
नो मुखवाला रुद्राक्ष को भैरव और कपिलमुनि का प्रतीक माना जाता है अथवा नौ रूप धारण करनेवाली महेश्वरी दुर्गा को उसका अधिष्ठात्री देवी माना जाता है।
तं धारयेद्वामहस्ते रुद्राक्षं भक्तितत्परः।
सर्वेश्वरो भवेन्नूनं मम तुल्यो न संशयः॥२-५-७५
जो मनुष्य भक्तिपरायण होकर अपने बायें हाथ में नवमुख रुद्राक्ष धारण करता है वह निश्चय ही मेरे समान सर्वेश्वर हो जाता है इसमें संशय नहीं है।
दशवक्त्रो महेशानि स्वयं देवो जनार्दनः।
धारणात्तस्य देवेशि सर्वान्कामानवाप्नुयात्॥२-५-७६
दस मुखवाला रुद्राक्ष साक्षात भगवान विष्णु का रूप है उसको धारण करने से मनुष्य की सम्पूर्ण कामनायें पूर्ण हो जाती हैं।
एकादशमुखो यस्तु रुद्राक्षः परमेश्वरी।
स रुद्रो धारणात्तस्य सर्वत्र विजयी भवेत्॥२-५-७७
ग्यारह मुखवाला रुद्राक्ष वह रुद्र रूप है उसको धारण करने से मनुष्य सर्वत्र विजयी होता है।
द्वादशास्यं तु रुद्राक्षं धारयेत् केशदेशके।
आदित्याश्चैव ते सर्वे द्वादशैव स्थितास्तथा॥२-५-७८
बारह मुखवाला केशप्रदेशमें धारण करे। उसको धारण करने से मानो मस्तकपर बारहोॆ आदित्य विराजमान हो जाते हैं।
त्रयोदशमुखो विश्वेदेवस्तद्धारणान्नरः।
सर्वान्कामानवाप्नोति सौभाग्यं मङ्गलं लभेत्॥२-५-७९
तेरह मुखवाला रुद्राक्ष विश्वेदेवोंका स्वरूप है उसको धारण करके मनुष्य सम्पूर्ण अभीष्टों को प्राप्त करता है तथा सौभाग्य और मङ्गल लाभ करता है।
चतुर्दशमुखो यो हि रुद्राक्षः परमः शिवः।
धारयेन्मूर्ध्नि तं भक्त्या सर्वपापं प्रणश्यति॥२-५-८०
चोदह मुखवाला जो रुद्राक्ष है वह परम शिवरूप है उसे भक्तिपूर्वक मस्तकपर धारण करे, इससे समस्त पापों का नाश हो जाता है।
Important points and virtues of Rudrakshas.
विना मन्त्रेण यो धत्ते रुद्राक्षं भुवि मानवः।
स याति नरकं घोरं यावदिन्द्राश्चतुर्दश॥२-५-८३
जो मनुष्य विना अभिमन्त्रित किये रुद्गाक्ष धारण करता वह क्रमशः चौदह इन्द्रों के कालपर्यन्त घोर नरक को जाता है।
रुद्राक्षमालिनं दृष्टवा भूतप्रेतपिशाचकाः।
डाकिनी शाकिनी चैव ये चान्ये द्रोहकारकाः॥२-५-८४
रुद्राक्ष की माला धारण करनेवाले पुरुष को देखकर भूत,प्रेत,पिशाच,डाकिनी,शाकिनी तथा जो अन्य द्रोहकारी राक्षस आदि हैं वे सभी दूर भाग जाते हैं।
कृत्रिम चैव यत्किञ्चिदभिचारादिकं च यत्।
तत्सर्वं दूरतो याति दृष्टवा शङ्कितविग्रहम्॥२-५-८५
जो कृत्रिम अभिचार आदि कर्म प्रयुक्त होते हैं वे सभी रुद्राक्ष धारण करनेवाले को देखकर दूर चले जाते हैं।
रुद्राक्षमालिनं दृष्टवा शिवो विष्णुः प्रसीदति।
देवी गणपतिः सूर्यः सुराश्चान्येऽपि पार्वति॥२-५-८६
हे पार्वति रुद्राक्षमालाधारी को देखकर मैं ,शिव,भगवानविष्णु,देवी दुर्गा,गणेश,सूर्य तथा अन्य देवता भी प्रसन्न हो जाते हैं।

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May 4
Description of different types of Brahmins.
विभिन्न प्रकार के ब्राह्मणों का वर्णन।

सदाचारयुतो विद्वान् ब्राह्मणो नाम नामत।
वेदाचारयुतो विप्रो ह्येतैरेकैकवान्द्विजः॥ १-१२-२॥
सदाचार का पालन करनेवाला विद्वान ब्राह्मण ही 'ब्राह्मण' नाम धारण करने का अधिकारी है।
वेदोक्त आचार और विद्या से युक्त ब्राह्मण 'विप्र' कहलाता है। सदाचार, वेदाचार और विद्या से युक्त ब्राह्मण 'द्विज' कहलाता है।
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