स कच्चिद् ब्राह्मणो विद्वान् धर्मनित्यो महाद्युतिः।
इक्ष्वाकूणामुपाध्यायो यथावत् तात पूज्यते॥९॥
तात क्या तुम इक्ष्वाकुकुलके पुरोहित ब्रह्मवेत्ता,विद्वान सदैव धर्म में तत्पर रहनेवाले महातेजस्वी ब्रह्मऋषि वशिष्ठ जी का यथावत पूजन तो करते हो ना।
तात कच्चिद् कौसल्या सुमित्रा च प्रजावती ।
सुखिनी कच्चिदार्या च देवी नन्दति कैकयी॥१०॥
भरत क्या माता कौसल्या और सुमित्रा सुख से हैं,और क्या माता आर्या कैकयी आनन्दित हैं ।
कच्चिद् विनयसम्पन्नः कुलपुत्रो बहुश्रुतः।
अनुसूयुरनुद्रष्टा सत्कृतस्ते पुरोहितः॥११॥
जो उत्तम कुल में उत्पन्न विनय से सम्पन्न बहुश्रुत किसी में दोष ना देखनेवाले और शास्त्रोक्त धर्म पर सदा द्रष्टि रखने वाले हैं उन पुरोहितजी का तुमने पूर्णतः सत्कार किया है।
कच्चिदग्निषु ते युक्तो विधिज्ञो मतिमानृजुः।
हुतं च होष्यमाणं च काले वेदयते सदा॥१२॥
हवनविधि के ज्ञाता बद्धिमान सरल स्वभाववाले जिन ब्राह्मणदेवता को तुमने अग्निहोत्र कार्य के लिये नियुक्त किया है..
वे सदा क्या तुम्हे ठीक समय पर आकर यह सूचित करते हैं कि इस समय पर आहुति दे दी गई है और अब अमुक समय पर हवन करना है।
कच्चिद् देवान् पित्तॄन् भृत्यान् गुरून् पितृसमानपि।
वृद्धांश्च तात वैद्यांश्च ब्राह्मणांश्चाभिमन्यसे॥१३॥
अर्थ- तात क्या तुम देवों पितरों भृत्यों गुरुओं पिता समान आदरणीय वृद्धों वैद्यों और ब्राह्मणों का सम्मान करते हो।
इष्वस्त्रसपन्नमर्थशास्त्रविशारदम्।
सुधन्वानमुपाध्यायं कच्चित् त्वं तात मन्यसे॥१४॥
अर्थ- तात जो मंत्ररहित श्रेष्ठ बाणों के और मंत्र सहित अस्त्रों का प्रयोग करने में सक्षम हैं और जो अर्थशास्त्र के विद्वान हैं ऐसे आचार्य सुधन्वा का तुम समादर करते हो ना ।
कच्चिदात्मसमाः शूराः श्रुतवन्तो जितेन्द्रियाः।
कुलीनाश्चेङ्गितज्ञाश्च कृतास्ते तात मन्त्रिणः॥१५॥
अर्थ-भरत क्या तुमने अपने समान वीर विद्वान शास्त्रज्ञ जितेन्द्रिय कुलीन और बाहरी चेष्टाओं से मन की बात जान लेने वाले सुयोग्य व्यक्ति को मंत्री बनाया है।
मंत्रोविजयमूलं हि राज्ञां भवति राघव ।
सुसंवृतो मंत्रिधुरैरमात्यैः शास्त्रकोविदैः॥१६॥
अर्थ-राघव अच्छी मंत्रणा ही राजा की विजय का मूलकारण होती है वह भी तभी सिद्ध होती है जब नीतिशास्त्र निपुण मंत्रि गण उसे सर्वथा गुप्त रखें।
कच्चिनिद्रावशं नैषि कच्चित्कालेऽवबुध्यसे।
कच्चिच्चापररात्रेषु चिन्तयस्यर्थनैपुणम्॥१७॥
अर्थ-भरत तुम असमय तो निद्रा के वशीभूत नहीं होते और समय पर जाग जाते हो ना रात्रि के पिछले पहर में अर्थसिद्धि के उपाय पर विचार करते हो ना ।
कच्चिन्मंत्रयसे नैकः कच्चिन्नबहुभिः सह।
कच्चित् ते मन्त्रितो मंत्रो राष्ट्रं न परिधावति॥१८॥
भरत गूढ़ विषय पर तुम केवल अकेले ही तो विचार नहीं करते या बहुत अधिक लोगों के साथ विचार विमर्श मंत्रणा तो नहीं करते कहीं तुम्हारी निश्चित की हुई मंत्रणा फूटकर शत्रु तक तो नहीं पहुँच जाती।
कच्चिदर्थं विनिश्चित्य लघुमूलं महोदयम्।
क्षिप्रमारभसे कर्म न दीर्घयसि राघव॥१९॥
अर्थ-रघुनन्दन जिस कार्य का साधन बहुत छोटा और फल बडा़ हो ऐसे कार्य का निश्चय करके तुम शीघ्र ही उसे आरम्भ कर देते हो ना उसमें विलम्ब तो नहीं करते हो ना।
कच्चिन्नु सुकृतान्येव कृतरूपाणि वा पुनः।
विदुस्ते सर्वकार्याणि न कर्तव्यानि पार्थिवाः॥२०॥
अर्थ-तुम्हारे सभी कार्य पूर्ण होने पर ही दूसरे राजाओं के ज्ञात होते हैं ना कहीं तुम्हारी योजनाओं का उन्हें पहले ही तो ज्ञान नहीं हो जाता।
कच्चिन्न तर्कैर्युक्तया वा ये चाप्यपरिकीर्तिताः।
त्वया वा तव वामात्यैर्बुध्यते तात मन्त्रितम्॥२१॥
तात तुम्हारे निश्चित किये हुये विचारों को तुम्हारे तथा मन्त्रियं के प्रकट ना करने पर भी तर्क और युक्तियों द्वारा ज्ञान तो नहीं कर लेते
तथा तुमको और मंत्रियो को दूसरों के गुप्त विचारों का ज्ञान होता रहता है ना।
कच्चित् सहस्त्रैर्मूर्खाणामेकमिच्छसि पण्डितम्।
पण्डितो ह्यर्थकृच्छ्रेषु कुर्यान्निःश्रेयसं महत्॥२२॥
अर्थ-क्या तुम सहस्त्रो मूर्खों के स्थान पर एक पण्डित कोअपने यहाँ रखने की इच्छा रखते हो क्योंकि विद्वान पुरुष ही अर्थसंकट के समय कल्याण कर सकता है।
सहस्त्राणयपि मूर्खाणां यद्युपास्ते महीपतिः।
अथवाप्ययुतान्येव नास्ति तेषु सहायता॥२३॥
राजा के पास सहस्त्र या दस सहस्त्र मूर्ख हो अवसर पर वे किसी भी सहायता के काम नहीं आते।
एकोप्यमात्यो मेधावी शूरो दक्ष विचक्षणः।
राजानं राजपुत्रं वा प्रापयेन्महतीं श्रियम्॥२४॥
एक बुद्धिमान,चतुर वीर नीतिज्ञ दूरदृष्टा मंत्री राजा या युवराज को बड़ी सम्पत्ति प्राप्त करा सकता है।
कच्चिन्मुख्या महत्स्वेव मध्यमेषु च मध्यमाः।
जघन्याश्च जघन्येषु भृत्यास्ते तात योजिताः॥२५॥
तात तुमने प्रधान योग्यता के व्यक्ति को प्रधान मध्यम को मध्यम और निम्न को निम्न योग्यता के अनुसार कार्य दिया है ना।
अमात्यानुपधातीतान् पितृपैतामहान् शुचीन्।
श्रेष्ठान श्रेष्ठेषु कच्चित् त्त्वं नियोजयसि कर्मसु॥२६॥
भरत तुमने उत्तम कार्यों के लिये श्रेष्ठ और पिता और प्रपितामह के समय से विश्वास प्राप्त अमात्यों को ही कार्य पर लगाया है ना।
कच्चिन्नोग्रेण दण्डेन भृशमुद्वेजिताः प्रजाः।
राष्ट्रे तवावजानन्ति मन्त्रिणः कैकयीसुत॥२७॥
कैकयीकुमार तुम्हारे शासन में प्रजा कठोर दंड से अत्यंत उद्विग्न होकर मंत्रियों का तिरस्कार तो नहीं करती।
कच्चित् त्वां नावजानन्ति याजकाः पतितं यथा।
उग्रप्रतिग्रहीतारं कामयानमिव स्त्रियः॥२८॥
जिस प्रकार याजक पतित यजमान का और स्त्री कामचारी पुरुष का त्याग कर देते हैं वैसे ही अधिक मात्रा में कठोरता पूर्वक कर गृहण करने से
प्रजा तुम्हारा तिरस्कार तो नहीं करती।
उपायकुशलं वैद्यं भृत्यसंदूषणे रतम्।
शूरमैश्वर्यकामं च यो हन्ति न स हन्यते।।२९
जो विद्वान हो साम दान दंड और भेद आदि उपाय करने में कुशल, विश्वासी भृत्यों को तोड़ने में लगा रहता हो वीर और राज्य को प्राप्त करना चाहता हो ऐसे पुरुषको जो राजा नहीं मारता वह स्वयं उसके हाथो मारा जाता है।
कच्चिद् धृष्टश्च शूरश्च धृतिमान् मतिमान् शुचिः।
कुलीनश्चानुरक्तश्च दक्षः सेनापतिः कृतः॥३०॥
भरत क्या तुमने धैर्यवान वीर विवेकवान बुद्धिमान पवित्र कुलीन सदासंतुष्ट युद्ध कला में निपुण अपनें राष्ट्र और राजा में अनुराग रखने वाले व्यक्ति को सेनापति बनाया है ना।
बलवन्तश्च कच्चित् ते मुख्या युद्धविशारदाः।
दृष्टापदाना विक्रान्तास्त्वया सत्कृत्य मानिताः॥३१॥
तुम्हारे सभी प्रधान प्रधान योद्धा बलवान,पराक्रमी युद्धकुशल तो है ना क्या तुमने उनकी शौर्य की परीक्षा करली है क्यावे सभी तुम्हारे द्वारा सत्कारपूर्वक सम्मान प्राप्त करते हैं।
कच्चिद् बलस्य भक्तं च वेतनं च यथोचित्तम्।
सम्प्राप्तकालं दातव्यं ददासि ना विलम्बसे॥३२॥
सैनिकों को तुम नियत किया हुआ वेतन और भत्ता समय पर दे देते हो ना उसे देने में विलम्ब तो नहीं करते।
कालातिक्रमणे ह्येव भक्तवेतनयोर्भृताः।
भर्तुरप्यतिकुप्यन्ति सोऽनर्थः सुमहान् कृतः॥३३॥
अर्थ- यदि समय बिताकर भत्ता और वेतन दिये जाते हैं तो सैनिक अपने स्वामीपर भी अत्यन्त कुपित हो जाते हैं और इसके कारण बड़ा भारी अनर्थ घटित हो जाता है।
कच्चित् सर्वेऽनुरक्तास्त्वाँ कुलपुत्राः प्रधानतः।
कच्चित् प्राणांस्तवार्थेषु संत्यजन्ति समाहिताः॥३४॥
क्या उत्तम कुलमें उत्पन्न मंत्री आदि समस्त प्रधान अधिकारी तुमसे प्रेम रखते हैं क्या वे तुम्हारे लिये एकचित्त होकर प्राणों के त्याग के लिये उद्यत रहते हैं।
कच्चिज्जानपदो विद्वान् दक्षिणःप्रतिभानवान्।
यथोक्तवादी दूतस्ते कृतो भरत पण्डितः॥३५॥
भरत तुमने जिसे राजदूत के पद पर नियुक्त किया है वह अपने देश का निवासी ,विद्वान,कुशल,प्रतिभाशाली सदविवेकयुक्त और जैसा कहा जाये वैसे ही दूसरे के सामने कहने वाला है ना ।
कच्चिदष्टादशान्येषु स्वपक्षे दश पञ्च च।
त्रिभिस्त्रिभिरविज्ञातैर्वेत्सि तीर्थानि चारकैः॥३६॥
क्या तुम शत्रुपक्ष के अठारह और अपने पक्ष के पंद्रह तीर्थोकी तीन तीन अज्ञात गुप्तचरों से देखभाल, ज्ञान करते रहते हो ना।
कच्चिद् व्यपास्तानहितान् प्रतियातांश्च सर्वदा।
दुर्बलाननवज्ञाय वर्तसे रिपुसूदन॥३७॥
शत्रुसूदन जिन शत्रुओं को तुमने राज्य से निकाल दिया था वे यदि पुनः लौटकर आते हैं तो तुम उनकी दुर्बल समझकर उपेक्षा तो नही करते।
कच्चिन्न लोकायतिकान ब्राह्मणांस्तात सेवसे।
अनर्थकुशला ह्येते बालाः पण्डितमानिनः॥३८॥
तात तुम कभी नास्तिक ब्राह्मणों का संग तो नहीं करते क्योंकि वे बद्धि को परमार्थ की ओर से विचलित करने में कुशल होते हैं तथा अज्ञानी होकर भी स्वयं को पण्डित समझते हैं।
धर्मशास्त्रेषु मुख्येषु विद्यमानेषु दुर्बुधाः।
बुद्धिमान्वीक्षकीं प्राप्य निरर्थं प्रवदन्ति ते॥३९॥
उनका ज्ञान वेद के विरुद्ध होने के कारण दूषित होता है और वे प्रमाणभूत प्रधान प्रधान धर्म शास्त्रों के होते हुये भी तार्किक बुद्धि का आश्रय लेकर व्यर्थ प्रलाप करते हैं।
वीरैरध्युषितां पूर्वमस्माकं तात पूर्वकैः।
सत्यनामां दृढद्वारां हस्त्यश्वरथसंकुलाम्॥४०॥
तात अयोध्या हमारे पूर्वजों निवासभूमि है उसका जैसा नाम है वैसा ही गुण है उसके द्वार सब ओर से सुदृढ़ हैं वह हाथी घोडे और रथों से परिपूर्ण है।
ब्राह्मणैः क्षत्रियैर्वैश्यैः स्वकर्मनिरतैः सदा।
जितेन्द्रियैर्महोत्साहैर्वृतामार्यैः सहस्त्रशः॥४१॥
ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य सहस्त्रों की संख्या में वहाँ निवास करते हैं और अपने स्वभाविक कर्म में रत रहते है वे सभी उत्साहपूर्ण और जितेन्द्रिय हैं ।
प्रासादैर्विविधाकारैर्वृतां वैद्यजनाकुलाम्।
कच्चित् समुदितां स्फीतामयोध्यां परिरक्षसे॥४२॥
नाना प्रकार के राजभवन मंदिर उसकी शोभा बढ़ाते हैं विद्वानों से पूर्ण वह अभ्युदयशील समृद्धशाली नगरी अयोध्या की तुम भलीभाँति रक्षा तो करते हो ना।
कच्चिच्चैत्यशतैर्जुष्टः सुनिविष्टजनाकुलः।
देवस्थानैः प्रपाभिश्च तटाकैश्चोपशोभितः॥४३॥
भरत जहाँ नानाप्रकार के अश्वमेध आदि महायज्ञों के अनुष्ठानस्थल शोभा पाते है जहाँ प्रतिष्ठित मनुष्य अधिक संख्या में निवास करते हैं अनेक देवस्थान पौंसले तालाब जिसकी शोभा बढ़ाते हैं।
प्रहृष्टनरनारीकः समाजोत्सवशोभितः।
सुकृष्टसीमापशुमान् हिंसाभिरभिवर्जितः॥४४॥
जहाँ के स्त्री पुरुष सदैव प्रसन्न रहते हैं जो समाज उत्सवों के कारण सदैव शोभासम्पन्न दिखायी देती है जहाँ खेत जोतने के योग्य पशुओं की अधिकता है जहाँ किसी प्रकार की हिंसा नहीं होती।
अदेवमातृको रम्यःश्वापदैःपरिवर्जितः।
परित्यक्तो भयैः सर्वैः खनिभिश्चोपशोभितः॥४५॥
जहाँ कृषि के लिये वर्षा जल पर निर्भर नहीं रहना पड़ता जो बहुत ही सुन्दर और हिंसक पशुओं से रहित है जहाँ किसी प्रकार का भय नहीं है और नाना प्रकार की खानें जिसकी शोभा बढ़ती हैं।
विवर्जितो नरैःपापैर्मम पूर्वैः सुरक्षितः।
कच्चिज्जनपदःस्फीतः सुखं वसति राघव॥४६॥
जहाँ पापी मनुषयों का सर्वथा अभाव है जिसकी हमारे पूर्वजों ने भली प्रकार से रक्षा की है वह अपना कोसल देश धन धान्य से सम्पन्न सुखपूर्वक बसा हुआ है ना भरत ।
कच्चित् ते दयिताःसर्वेकृषिगोरक्षजीविनः।
वार्तायां संश्रितस्तात लोकोऽयं सुखमेधते॥४७॥
तात कृषि गौरक्षा से आजीविका चलाने वाले सभी वैश्य तुम्हारे प्रीतिपात्र हैं ना क्योंकि कृषि और व्यापार में संलग्न रहने पर ही यह लोक सुखी एवं उऩ्नतिशील होता है।
तेषां गुप्तिपरीहारैः कच्चित् ते भरणं कृतम्।
रक्ष्या ही राज्ञा धर्मेण सर्वे विषयवासिनः॥४८॥
उन वैश्यों को इष्टकी प्राप्ति कराकर और उनके अनिष्ट का निवारण करके तुम उन सब लोगों का भरण पोषण तो करते हो ना क्योंकि राजा को अपने राज्य के सभी नागरिकों का धर्मानुसार पालन करना चाहिये।
कच्चित् स्त्रियः सान्त्वयसे कच्चित् तास्ते सुरक्षिताः।
कच्चिन्न श्रद्दधास्यासां कच्चिद् गुह्यं न भाषसे॥४९॥
क्या तुम अपनी स्त्रियों कों संतुष्ट तो रखते हो क्या वे तुम्हारे द्वारा भलीभाँति सुरक्षित हैं क्यातुम उनकी बातों मे आकर राज्य से संबंधित गुप्त बातें तो उन्हें नही बता देते ।
कच्चिन्नागवनं गुप्तं कच्चित् ते सन्ति धेनुकाः।
कच्चिन्न गणिकाश्वानां कुञ्जराणां च तृप्यसि॥५०॥
भरत जहाँ हाथी उत्पन्न होते हैं वे वन तुम्हारे द्वारा सुरक्षित हैं ना
तुम्हारे पास दूध देने वाली गायें अधिक संख्या में तो हैं ना हाथी हथिनियों और घोडों के संग्रह से तुम संतुष्ट तो नहीं होते हो ना।
कच्चिद् दर्शयसे नित्यं मानुषाणां विभूषितम्।
उत्थायोत्थाय पूर्वाह्णे राजपुत्र महापथे॥५१॥
राजपुत्र भरत क्या तुम पूर्वाह्ण कालमें वस्त्राभूषण से विभूषित हो प्रधान सड़कपर नगरवासी मनुष्योंको दर्शन देते हो।
कच्चिन्न सर्वे कर्मान्ताः प्रत्यक्षास्तेऽविशङ्कया।
सर्वे वा पुनरुत्सृष्टा मध्यमेवात्र कारणम्॥५२॥
कर्मचारी निडर होकर तुम्हारे सामने तो नहीं आते अथवा वे सब सदा तुमसे दूर तो नहीं रहते क्योंकि कर्मचारियों के विषय में मध्यम स्थिति का अवलम्बन करना ही अर्थ सिद्धिका कारण होता है।
कच्चिद् दुर्गाणि सर्वाणि धनधान्यायुधोदकैः।
यन्त्रैश्च प्रतिपूर्णानि तथा शिल्पिधनुर्धरैः॥५३॥
क्या तुम्हारे सभी दुर्ग धन-धान्य अस्त्र-शस्त्र यन्त्र जल शिल्पी और धनुर्धर वीर सैनिकों से भरे-पूरे रहते हैं।
आयस्ते विपुलःकच्चित् कच्चिदल्पतरो व्ययः।
अपात्रेषु न ते कच्चित् कोषो गच्छति राघव॥५४॥
भरत क्या तुम्हारी आय अधिक और व्यय कम है तुम्हारे राजकोष का धन अपात्रोंके हाथ में तो नहीं चला जाता।
देवतार्थे च पित्रर्थे ब्राह्मणाभ्यागतेषु च।
योधेषु मित्रवर्गेषु कच्चिद् गच्छति ते व्ययः॥५५॥
तुम्हारा धन देवता पितर ब्राह्मण अभ्यागत योद्धा और मित्रवर्ग के लिये व्यय होता है ना।
कच्चिदार्योऽपि शुद्धात्मा क्षारितश्चापकर्मणा।
अदृष्टः शास्त्रकुशलैर्न लोभाद् बध्यते शुचिः॥५६॥
कभी ऐसा तो नहीं होता कि कोई मनुष्य किसी श्रेष्ठ निर्दोष और शुद्धात्मा पुरुष पर दोष लगा दे तथा
शास्त्रज्ञानमें कुशल विद्वानों द्वारा उसके विषय में विचार कराये बिना ही लोभवश उसे आर्थिक दंड दे दिया जाता हो।
गृहीतश्चैव पृष्टश्च काले दृष्टः सकारणः।
कच्चिन्न मुच्यते चोरो धनलोभान्नरर्षभ॥५७
नरश्रेष्ठ जो चोरी में पकड़ा गया हो जिसे किसी ने चोरी करते देखा हो जिसके चोर होने का प्रमाण मिल गया हो तथा और भी कारण जिसके विरुद्ध हों ऐसे चोर को धन के लोभवश तुम्हारे राज्य में छोड़तो नहीं दिया जाता।
व्यसने कच्चिदाढ्यस्य दुर्बलस्य च राघव।
अर्थं विरागाः पश्यन्ति तवामात्या बहुश्रुताः॥५८॥
रघुकुलभूषण यदि धनी और निर्धन में कोई विवाद हो और वह राज्य के न्यायालय में निर्णय के लिये आये तो तुम्हारे बहुज्ञ मंत्री धन आदि के लोभ को छोड़कर उस विषय पर विचार करते हैं ना।
यानि मिथ्याभिशस्तानां पतन्त्यश्रूणि राघव।
तानि पुत्र पशून् घन्नति प्रीत्यर्थमनुशासतः॥५९॥
रघुनन्दन निरपराध होने पर भी जिन्हे दण्ड दिया जाता है उन मनुष्यों की आँखों से जो अश्रु गिरते हैं वे पक्षपातपूर्ण शासन और न्याय करने वाले राजा के पुत्रों और पशुओं का नाश कर देते हैं।
कच्चिद् वृद्धांश्च बालांश्च वैद्यान् मुख्यांश्च राघव।
दानेन मनसा वाचा त्रिभिरेतैर्बुभूषसे॥६०॥
राघव क्या तुम वृद्ध पुरषों बालकों और प्रधान प्रधान वैद्यों का आन्तरिक अनुराग मधुर वचन और धनदान इन तीनों के द्वारा सम्मान करते हो।
कच्चिद् गुरूंश्च वृद्धांश्च तापसान् देवतातिथीन्।
चैत्यांश्च सर्वान् सिद्धार्थान् ब्राह्मणांश्च नमस्यसि॥६१॥
तुम गुरुजनों वृद्धों तपस्वियों देवताओं अतिथियों चैत्य वृक्षों और समस्त पूर्णकाम ब्राह्मणों को नमस्कार करते हो।
कच्चिदर्थेन वा धर्ममर्थं धर्मेण वा पुनः।
उभौ वा प्रीतिलोभेन कामेन न विबाधसे॥६२॥
तुम अर्थ के द्वारा धर्म और धर्म के द्वारा अर्थ को हानि तो नहीं पहुँचाते अथवा आसक्ति और लोभरूप काम के द्वारा धर्म और अर्थ दोनों के लिये बाधा तो नहीं आने देते।
कच्चिदर्थं च कामं च धर्मं च जयतां वर।
विभज्य काले कालज्ञ सर्वान् वरद सेवसे॥६३॥
विजयी वीरोंमें श्रेष्ठ समयोचित कर्तव्य के ज्ञाता तथा दूसरों को वर देनेमें समर्थ भरत क्या तुम समय का विभाग करके धर्म अर्थ और काम का योग्य समयमें सेवन करते हो।
नास्तिक्यमनृतं क्रोधं प्रमादं दीर्घसूत्रताम्।
अदर्शनं ज्ञानवतामालस्यं पञ्चवृत्तिताम्॥६५॥
नास्तिकता असत्य भाषण क्रोध प्रमाद दीर्घसूत्रता ज्ञानियों का सत्संग ना करना आलस्य नेत्र आदि पाँच इन्द्रियों के वशीभूत होना।
एकचिन्तमर्थानामनर्थज्ञैश्च मन्त्रणम्।
निश्चितानामनारम्भं मन्त्रस्यापरिरक्षणम्॥६६॥
राज्य और शासन के विषय में अकेले विचार करना प्रयोजन को ना समझने वाले विपरीत दर्शी मूर्खों से परामर्श लेना निश्चित किये हुये कार्य को समय पर आरम्भ ना करना गुप्त मंत्रणा को सुरक्षित ना रखना।
मंगलाद्यप्रयोगं च प्रत्युत्थानं च सर्वतः।
कच्चित् त्वं वर्जयस्येतान् राजदोषांश्चतुर्दश॥६७॥
माँगलिक कार्यों का अनुष्ठान ना करना सब शत्रुओं पर एक साथ आक्रमण कर देना ये राजा के चौदह दोष हैं। तुम इन सब दोषों का परित्याग करते हो ना।
दशपञ्चचतुर्वर्गान् सप्तवर्गं च तत्वतः।
अष्टवर्गं त्रिवर्गं च विद्यास्तिस्त्रश्च राघव॥६८॥
इन्द्रियाणां जयं बुद्धवा षाडगुण्यं दैवमानुषम्।
कृत्यं विंशतिवर्गं च तथा प्रकृतिमण्डलम्॥६९॥
यात्रादण्डविधानं च द्वियोनी संधिविग्रहौ।
कच्चिदेतान् महाप्राज्ञ यथावदनुमन्यसे॥७०॥
महाप्राज्ञ भरत दशवर्ग ,पञ्चवर्ग ,चतुरवर्ग, सप्तवर्ग, अष्टवर्ग, त्रिवर्ग ,तीन विद्या ,बुद्धि के द्वारा इन्द्रियों को जीतना, छः गुण, दैवी और मानुषी बाधायें प्रकृतिमंडल यात्रा (शत्रु पर आक्रमण)
दण्डविधान (व्यूहरचना)
तथा दो-दो गुणों की योनिभूत संधि और विग्रह इन सबकी ओर तुम यथार्थ रूपसे ध्यान देते हो ना इनमें से त्यागनेयोग्य दोषोंको त्यागकर ग्रहण करने योग्य गुणोंकों ग्रहण करते हो ना ।६८-७०
मन्त्रिभिस्त्वं यथोद्दिष्टं चतुर्भिस्त्रिभिरेव वा।
कच्चित् समस्तैर्व्यस्तैश्च मन्त्रं मन्त्रयसे बुध॥७१॥
कच्चित् ते सफला वेदाः कच्चित् ते सफलाः क्रियाः।
कच्चित् ते सफला दाराः कच्चित् ते सफलं श्रुतम्॥७२॥
कच्चिदेषैव ते बुद्धिर्यथोक्ता मम राघव।
आयुष्या च यशस्या च धर्मकामार्थसंहिता॥७३
विद्वन क्या तुम नीतिशास्त्र आज्ञा के अनुसार चार या तीन मन्त्रियों के साथ सबको एकत्र करके अथवा अलग-अलग मिलकर परामर्श करते हो।
क्या तुम वेदों कि आज्ञा के अनुसार कार्य कर उन्हे सफल करते हो क्या तुम्हारी क्रियायें सफल हैं
क्या तुम्हारी स्त्रियाँ सफल हैं और क्या तुम्हारा शास्त्रज्ञान भी विनय आदि गुणोंका उत्पादक होकर सफल हुआ है।
जो कुछ मैने कहा है क्या तुम्हारी बुद्धि का भी ऐसा ही निश्चय है ना क्योंकि यह विचार आयु और यशको बढानेवाला है तथा धर्म काम और अर्थ की सिद्धि करने वाला है।७१-७३
यां वृत्तिं वर्तते तातो यां च नः प्रपितामहः।
तां वृत्तिं वर्तसे कच्चिद् या च सत्पथगा शुभा॥७४॥
कच्चित् स्वादुकृतं भोज्यमेको नाश्नासि राघव।
कच्चिदाशंसमानेभ्यो मित्रेभ्यः समप्रयच्छसि॥७५॥
राजा तु धर्मेण हि पालयित्वा महिपतिर्दण्डधरः प्रजानाम्।
अवाप्य कृत्स्नां वसुधां यथावदितश्च्युतः स्वर्गमुपैति विद्वान्॥७६॥
हमारे पिताजी जिस वृत्ति का आश्रय लेते हैं हमारे प्रपितमह ने जिस आचरण का पालन किया है सत्पुरुष जिसका सेवन करते हैं और जो कल्याण का मूल है उसीका तुम पालन करते हो ना।
भरत स्वादिष्ट अन्न तुम अकेले तो नहीं खालेते हो उसकी आशा रखने वाले मित्रों को भी देते हो ना।
इस प्रकार धर्म के अनुसार दण्ड धारण करने वाला विद्वान राजा प्रजाओं का पालन करके समूची पृथ्वी को अपने अधिकार में कर लेता है तथा देहत्याग करने के पश्चात स्वर्गलोक में जाता है।७४-७६ ।।

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