#काव्यरश्मि
रचना - व्याल विजय
रचनाकार - रामधारी सिंह दिनकर
झूमें झर चरण के नीचे मैं उमंग में गाऊँ.
तान, तान, फण व्याल! कि तुझ पर मैं बाँसुरी बजाऊँ।
यह बाँसुरी बजी माया के मुकुलित आकुंचन में,
यह बाँसुरी बजी अविनाशी के संदेह गहन में
अस्तित्वों के अनस्तित्व में,महाशांति के तल में,
यह बाँसुरी बजी शून्यासन की समाधि निश्चल में।
कम्पहीन तेरे समुद्र में जीवन-लहर उठाऊँ
तान,तान,फण व्याल! कि तुझ पर मैं बाँसुरी बजाऊँ।
अक्षयवट पर बजी बाँसुरी,गगन मगन लहराया
दल पर विधि को लिए जलधि में नाभि-कमल उग आया
जन्मी नव चेतना, सिहरने लगे तत्व चल-दल से,
स्वर का ले अवलम्ब भूमि निकली प्लावन के जल से।
अपने आर्द्र वसन की वसुधा को फिर याद दिलाऊँ.
तान, तान, फण व्याल! कि तुझ पर मैं बाँसुरी बजाऊँ।
फूली सृष्टि नाद-बंधन पर, अब तक फूल रही है,
वंशी के स्वर के धागे में धरती झूल रही है।
आदि-छोर पर जो स्वर फूँका,दौड़ा अंत तलक है,
तार-तार में गूँज गीत की,कण-कण-बीच झलक है।
आलापों पर उठा जगत को भर-भर पेंग झूलाऊँ.
तान, तान, फण व्याल! कि तुझ पर मैं बाँसुरी बजाऊँ।
जगमग ओस-बिंदु गुंथ जाते सांसो के तारों में,
गीत बदल जाते अनजाने मोती के हारों में।
जब-जब उठता नाद मेघ,मंडलाकार घिरते हैं,
आस-पास वंशी के गीले इंद्रधनुष तिरते है।
बाँधू मेघ कहाँ सुरधनु पर? सुरधनु कहाँ सजाऊँ?
तान, तान, फण व्याल! कि तुझ पर मैं बाँसुरी बजाऊँ।
उड़े नाद के जो कण ऊपर वे बन गए सितारे,
नीचे जो रह गए, कहीं है फूल, कहीं अंगारे।
भीगे अधर कभी वंशी के शीतल गंगा जल से,
कभी प्राण तक झुलस उठे हैं इसके हालाहल से।
शीतलता पीकर प्रदाह से कैसे ह्रदय चुराऊँ?
तान, तान, फण व्याल! कि तुझ पर मैं बाँसुरी बजाऊँ।
इस वंशी के मधुर तन पर माया डोल चुकी है
पटावरण कर दूर भेद अंतर का खोल चुकी है।
झूम चुकी है प्रकृति चांदनी में मादक गानों पर,
नचा चुका है महानर्तकी को इसकी तानों पर।
विषवर्षी पर अमृतवर्षिणी का जादू आजमाऊँ,
तान,तान,फण व्याल! कि तुझ पर मैं बाँसुरी बजाऊँ।
यह बाँसुरी बजी, मधु के सोते फूटे मधुबन में,
यह बाँसुरी बजी, हरियाली दौड गई कानन में।
यह बाँसुरी बजी, प्रत्यागत हुए विहंग गगन से,
यह बाँसुरी बजी, सरका विधु चरने लगा गगन से।
अमृत सरोवर में धो-धो तेरा भी जहर बहाऊँ।
तान, तान, फण व्याल! कि तुझ पर मैं बाँसुरी बजाऊँ।
यह बाँसुरी बजी, पनघट पर कालिंदी के तट में,
यह बाँसुरी बजी, मुरदों के आसन पर मरघट में।
बजी निशा के बीच आलुलायित केशों के तम में,
बजी सूर्य के साथ यही बाँसुरी रक्त-कर्दम में।
कालिय दह में मिले हुए विष को पीयूष बनाऊँ.
तान,तान,फण व्याल! कि तुझ पर मैं बाँसुरी बजाऊँ।
फूँक-फूँक विष लपट, उगल जितना हों जहर ह्रदय में,
वंशी यह निर्गरल बजेगी सदा शांति की लय में।
पहचाने किस तरह भला तू निज विष का मतवाला?
मैं हूँ साँपों की पीठों पर कुसुम लादने वाला।
विष दह से चल निकल फूल से तेरा अंग सजाऊँ
तान,तान,फण व्याल! कि तुझ पर मैं बाँसुरी बजाऊँ।
ओ शंका के व्याल! देख मत मेरे श्याम वदन को,
चक्षुःश्रवा! श्रवण कर वंशी के भीतर के स्वर को।
जिसने दिया तुझको विष उसने मुझको गान दिया है,
ईर्ष्या तुझे, उसी ने मुझको भी अभिमान दिया है।
इस आशीष के लिए भाग्य पर क्यों न अधिक इतराऊँ?
तान,तान,फण व्याल! कि तुझ पर मैं बाँसुरी बजाऊँ।
विषधारी! मत डोल, कि मेरा आसन बहुत कड़ा है,
कृष्ण आज लघुता में भी साँपों से बहुत बड़ा है।
आया हूँ बाँसुरी-बीच उद्धार लिए जन-गण का,
फन पर तेरे खड़ा हुआ हूँ भार लिए त्रिभुवन का।
बढ़ा, बढ़ा नासिका रंध्र में मुक्ति-सूत्र पहनाऊँ
तान, तान, फण व्याल! कि तुझ पर मैं बाँसुरी बजाऊँ।
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Some important details about Ekadashi from various shastra & puranas.
Description of the origin of Ekadashi.
एकादशी की उत्पत्ति भगवान श्रीविष्णु के देह से बद्रिकाश्रम कि सिंहावती नाम की बारह योजन लम्बी गुफा जहाँ भगवान विष्णु शयन कर रहे थे वहाँ हुई है।
एकादशी की उत्पत्ति मुर नामक दैत्य को समाप्त करने के लिये हुई।
एकादशी को भगवान ने पापनाशिनी,सिद्धि दात्री,तीर्थों से भी अधिक महिमा वाली होने का वर दिया।
एकादशी ने उपवास,नक्त अथवा एकभुक्त होकर व्रत का पालन करने वालों के लिये चतुर्विध पुरुषार्थ सिद्धि का वर भी प्राप्त किया।
Geographical description and importance of BhAratvarsha.
उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
वर्षं तद्भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः।।२-३-१।।
नव योजन साहस्त्रो विस्तारो अस्य महामुने।
कर्मभूमिरियं स्वर्गपवर्गं च गच्छताम्।।२-३-२।।
हे मैत्रेय जो समुद्र के उत्तर तथा हिमालय के दक्षिण में स्थित है वह भारतवर्ष कहलाता है।उसमें भरत की सन्तान बसी हुई हैं।
इसका विस्तार नौ हजार योजन है । यह स्वर्ग और अपवर्ग प्राप्त करनेवालों की कर्मभूमि है।
इक्ष्वाकुवंशी वीर महामना महाराज दशरथ के मन्त्रिजनोचित गुणों से सम्पन्न आठ मन्त्रि थे जो मन्त्र के तत्व को जाननेवाले और बाहरी चेष्टा को देखकर मन के भाव को समझने वाले थे ।वे सदा ही राजा के प्रिय और हितमें लगे रहते थे।इस कारण उनका यश बहुत फैला हुआ था।
Thanks to this South Korean series 'Rich Man' got to know that Christianity is a big thing in South Korea almost 30% identify themselves as Christian.
Christianity is deeply interwoven with modern Korean history and especially with Koreans’ relationship with the United States. foreignpolicy.com/2021/05/09/min….)
The Christian faith was a major conduit through which Koreans negotiated modernity and personally and ideologically connected with the United States.
स कच्चिद् ब्राह्मणो विद्वान् धर्मनित्यो महाद्युतिः।
इक्ष्वाकूणामुपाध्यायो यथावत् तात पूज्यते॥९॥
तात क्या तुम इक्ष्वाकुकुलके पुरोहित ब्रह्मवेत्ता,विद्वान सदैव धर्म में तत्पर रहनेवाले महातेजस्वी ब्रह्मऋषि वशिष्ठ जी का यथावत पूजन तो करते हो ना।
तात कच्चिद् कौसल्या सुमित्रा च प्रजावती ।
सुखिनी कच्चिदार्या च देवी नन्दति कैकयी॥१०॥
भरत क्या माता कौसल्या और सुमित्रा सुख से हैं,और क्या माता आर्या कैकयी आनन्दित हैं ।