राजोवाच
कर्मयोग वदत नः पुरुषो येन संस्कृतः।
विधूयेहाशु कर्माणि नैष्कर्म्यं विन्दते परम॥ २-११-३-४१
राजा निमि ने कहा - योगीश्वरो अब आप कर्मयोग का वर्णन कीजिये जिसके द्वारा मनुष्य
शीघ्रातिशीघ्र परम नैष्कर्म्य अर्थात कर्म,कर्तत्व और कर्मफल की निवृत्ति करनेवाला ज्ञानप्राप्त करता है।
आविर्होत्र उवाच
कर्माकर्मविकर्मेति वेदवादो न लौकिकः।
वेदस्य चेश्वरात्मत्वात् तत्र मुह्यन्ति सूरयः॥२-११-३-४३
राजन कर्म(शास्त्रविहित),अकर्म(शास्त्रद्वारा निषिद्ध) और विकर्म(शास्त्र विहित का उल्लङ्घन) यह तीनों वेद के द्वारा जाने जाते हैं।
इनकी व्यवस्था लौकिक रीति से नहीं होती। वेद अपौरुषेय ईश्वर रूप हैंं उनके तात्पर्य का निश्चय करना बहुत कठिन है इसी कारण बडे-बडे विद्वान भी उनके अभिप्रायका निर्णय करने में भूल कर देते हैं।
परोक्षवादो वेदो अयंं बालानामनुशासनम्।
कर्ममोक्षाय कर्माणि विधत्ते ह्यगदं यथा॥२-११-३-४४
है
वेद परोक्षवादात्मक हैं कर्म की निवृत्ति के लिये कर्म का विधान करते हैं जैसे बालक को मिठाई का लोभ देकर औषध खिलाते हैं वैसे ही यह अनभिज्ञोंं को स्वर्गादि का प्रलोभन देकर श्रेष्ठकर्मोंं में प्रवृत्त करता
नाचरेद यस्तु वेदोक्तं स्वयमज्ञो अजितेन्द्रियः।
विकर्मणा ह्यधर्मेण मृत्योर्मृत्युमुपैति सः॥ २-११-३-४५
जिसका अज्ञान निवृत्त नहीं हुआ है,जिसकी इन्द्रियाँ वशमें नहीं हैं वह यदि मनमाने ढंग से वेदोक्त कर्मोंका त्याग कर देता है
तो वह विहित कर्मोंका आचरण न करनेके कारण विकर्मरूप अधर्म ही करता है। इसलिये वह मृत्यु के पश्चात पुनः मृत्यु को प्राप्त होता है।
वेदोक्तमेव कुर्वाणो निःसङ्गो अर्पितमीश्वरे।
नैष्कर्म्यां लभते सिद्धिं रोचनार्था फलश्रुतिः॥२-११-३-४६
इसलिये फल की अभिलाषा छोडकर और विश्वात्मा भगवान को समर्पित कर जो वेदोक्त कर्मका ही अनुष्ठान करता है, उसे कर्मों की निवृत्ति से प्राप्त होनेवाली ज्ञानरूप सिद्धि मिल जाती है।
जो वेदों में स्वर्गादि रूप फल का वर्णन है उसका तात्पर्य शास्त्रोक्त कर्मों में रुचि उत्पन्न कराने के लिये है।
य आशु हृदयग्रन्थिं निर्जिहीर्षुः परात्मनः।
विधिनोपचरेद् देवं तन्त्रोक्तेन च केशवम्॥२-११-३-४७
जो पुरुष चाहता है कि शीघ्र से शीघ्र मेरे ब्रह्मस्वरूप आत्माकी हृदयग्रन्थि मैं और मेरे की कल्पित गाँठ खुल जाय उसे चाहिये कि वह वैदिक व तान्त्रिक दोनों ही पद्धतियों से भगवान की आराधना करे।
लब्धानुग्रह आचार्यात् तेन सन्दर्शितागमः।
महापुरुषमभ्यर्चेन्मूर्त्याभिमतया आत्मनः॥२-११-३-४८
पहले सेवादि के द्वारा गुरुदेव की दीक्षा ग्रहण करे फिर उनके द्वारा अनुष्ठान की विधि सीखे अपने को भगवान की जो मूर्ति प्रिय लगे उसीके द्वारा पुरुषोत्तम भगवान की पूजा करे।
पहले स्नानादि से शरीर और सन्तोषादि से अन्तःकरण को शुद्ध करे इसके बाद भगवान की मूर्ति के सम्मुख बैठकर प्राणायामादि के द्वारा भूत शुद्धि करे नाडीशोधन करे तत्पश्चात विधिपूर्वक मन्त्र देवता आदि के न्यास से अङ्गरक्षा करके भगवान की पूजा करे।
पहले पुष्पादि पदार्थों के जन्तु आदि निकालकर पृथ्वीको सम्मार्जन आदि से और अव्यग्र होकर और भगवान की मूर्तिको पहले की पूजा के लगे हुये पदार्थों के क्षालन आदिसे पूजा के योग्य बनाकर फिर आसनपर मन्त्रोच्चारणपूर्वक जल छिडककर पाद्य अर्घ्य आदि पात्रोंको स्थापित करे।
तदनन्तर एकाग्रचित्त होकर हृदय में भगवान का ध्यान करके फिर उसे सामनेकी श्रीमूर्ति में चिन्तन करे। तदनन्तर हृदय सिर शिखा इत्यादि मन्त्रो से न्यास करे और अपने इष्टदेव के मूलमन्त्र के द्वारा देश काल आदि के अनुकूल प्राप्त पूजा सामग्री से प्रतिमा आदिमें अथवा हृदय में भगवान की पूजा करे।
अपने उपास्य देव के विग्रह की हृदयादि अङ्ग आयुधादि उपाङ्ग और पार्षदों सहित उनके मूलमन्त्र द्वारा पाद्यअर्घ्य आचमन मधुपर्क स्नान वस्त्र आभूषण गन्धपुष्प दधिअक्षत के तिलक माला धूप दीप और नैवेद्य से विधिवत पूजा और स्तोत्रों द्वारा स्तुति करके सपरिवार भगवान श्रीहरि को नमस्कार करे।
आत्मानं तन्मयं ध्यायन् मूर्तिं सम्पूजयेद्धरेः।
शेषामाधाय शिरसि स्वधाम्न्युद्वास्य सत्कृतम्॥२-११-३-५४
एवमग्नयर्कतोयादावतिथौ हृदये च यः।
यजतीश्वरमात्मानमचिरान्मुच्यते हि सः॥२-११-३-५५
भगवन्मय ध्यान करते हुये ही भगवान की मूर्ति का पूजन करना चाहिये।निर्माल्यको अपने सिरपर रखे और आदरके साथ भगवद्विग्रहको यथास्थान स्थापित कर पूजा समाप्त करनी चाहिये।इस प्रकार जो पुरुष अग्नि सूर्य जल अतिथि और अपने हृदय में आत्मरूप श्रीहरिकी पूजा करता है वह शीघ्र ही मुक्त हो जाता है।
क्षीरोदशायी श्रीविष्णु या वह ब्रह्म कण-कण मे विद्यमान फिर भी जीवात्माओं को और देह को अनेक शुभ-अशुभ गतियों का अपने कर्मानुसार भोगना पड़ता
क्योंकि वह शाश्वत व्यवस्था शास्त्रोचित न्याय को ही धारण करती है।
केवल जो प्रतिक्षण ब्रह्मानुभूति करता वह इनसे परे होता है पर वह भी शास्त्रोचित लोक व्यवहार का त्याग नहीं करता। हर स्थान पर हर प्रकार का विषय नहीं लाना चाहिये।
यहाँ मन्त्रों,धार्मिक चिन्हों से सबंधित शास्त्रोचित लोकव्यवहार का प्रश्न है।
मन्त्र देवता का वर्ण शरीर होता है,चित्र और प्रतीक भी उसी प्रकार हैं। वे संस्कारित हो या ना हो हर अवस्था में उनमें सूक्ष्म रूप से दिव्यता विद्यमान रहती है।
इसी कारण यथोचित व्यवहार वाञ्छनीय होता है।
My initial tweet was with good intention without any iota of personal attack in it still you came up with ridiculing response exposed all the duplicity there and then for me.
It doesn't make a difference to me whether you listen or not as some people have tendency to disregard any sane advice or thought coming to them.
If Pandit ji knowingly or unknowingly didn't object that doesn't make these kind of things write.
There are disciplines even for mentioning such sacred things forget about printing them on clothes.
Going by your argument no one should object to those who print these sacred Dharmik symbols,mantras & images on bikinis,bra,panties,doormats,chappals etc.All should be accepted.
Thinking that his son will become rich & great. Valmiki gets punished for his sin the very moment as his leg becomes deformed in the hospital itself.
As the events unfold and story moves on the प्रारब्ध comes into play.
Bantu(Allu Arjun) with divine play of प्रारब्ध becomes aware about the reality and reaches his original home gets united with his family and in the end receives what is rightfully his according to his प्रारब्ध.
Some important details about Ekadashi from various shastra & puranas.
Description of the origin of Ekadashi.
एकादशी की उत्पत्ति भगवान श्रीविष्णु के देह से बद्रिकाश्रम कि सिंहावती नाम की बारह योजन लम्बी गुफा जहाँ भगवान विष्णु शयन कर रहे थे वहाँ हुई है।
एकादशी की उत्पत्ति मुर नामक दैत्य को समाप्त करने के लिये हुई।
एकादशी को भगवान ने पापनाशिनी,सिद्धि दात्री,तीर्थों से भी अधिक महिमा वाली होने का वर दिया।
एकादशी ने उपवास,नक्त अथवा एकभुक्त होकर व्रत का पालन करने वालों के लिये चतुर्विध पुरुषार्थ सिद्धि का वर भी प्राप्त किया।
#काव्यरश्मि
रचना - व्याल विजय
रचनाकार - रामधारी सिंह दिनकर
झूमें झर चरण के नीचे मैं उमंग में गाऊँ.
तान, तान, फण व्याल! कि तुझ पर मैं बाँसुरी बजाऊँ।
यह बाँसुरी बजी माया के मुकुलित आकुंचन में,
यह बाँसुरी बजी अविनाशी के संदेह गहन में
अस्तित्वों के अनस्तित्व में,महाशांति के तल में,
यह बाँसुरी बजी शून्यासन की समाधि निश्चल में।
कम्पहीन तेरे समुद्र में जीवन-लहर उठाऊँ
तान,तान,फण व्याल! कि तुझ पर मैं बाँसुरी बजाऊँ।
अक्षयवट पर बजी बाँसुरी,गगन मगन लहराया
दल पर विधि को लिए जलधि में नाभि-कमल उग आया
जन्मी नव चेतना, सिहरने लगे तत्व चल-दल से,
स्वर का ले अवलम्ब भूमि निकली प्लावन के जल से।
अपने आर्द्र वसन की वसुधा को फिर याद दिलाऊँ.
तान, तान, फण व्याल! कि तुझ पर मैं बाँसुरी बजाऊँ।