चौंकिए मत! इस तरह के पेड़ उत्तराखंड में अक्सर दिखाई पड़ते है। च्यूर नाम का यह पेड़ देवभूमि वासियों को वर्षों से घी उपलब्ध करा रहा है। इसी खासियत के कारण इसे 'इंडियन बटर ट्री' कहा जाता है।
(2/8)जीबी पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्व विद्यालय के डॉ. वीपी डिमरी बताते हैं कि दूध की तरह मीठा और स्वादिष्ट होने के कारण च्यूर के फलों को चाव से खाया जाता है। दुनिया में तेल वाले पेड़ों की सैकड़ों प्रजातियां हैं, लेकिन कुछ ही ऐसी हैं, जिनसे खाद्य तेल प्राप्त किया जा सकता है।
(3/8)डॉ. डिमरी कहते हैं कि यदि च्यूर के व्यावसायिक उत्पादन को बढ़ावा दिया जाए, तो यह राज्य की आर्थिक स्थिति को बदल सकता है।
च्यूर संरक्षित प्रजाति का पेड़ है और इसे काटने की अनुमति नहीं है। इसके बावजूद च्यूरा के पेड़ों की संख्या लगातार घट रही है।
(4/8)यह पेड़ तीन से पांच हजार फीट की ऊंचाई में होता है। च्यूरा के वृक्ष नेपाल के वनों में बहुतायत से पाए जाते हैं। सिक्किम और भूटान में भी च्यूरा के पेड़ काफी मिलते हैं।
उत्तराखंड में अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ और चंपावत जिलों के घाटी वाले क्षेत्रों में भी च्यूरा के पेड़ काफी हैं।
(5/8)नैनीताल जिले के कुछ इलाकों में भी इसके इक्का-दुक्का पेड़ हैं।
च्यूरा को घी वृक्ष के रूप में जाना जाता है। च्यूरा के बीजों से वनस्पति घी निकाला जाता है, जो काफी पौष्टिक होता है। यह दूध से बने घी की तरह ही दिखाई देता है और स्वाद में भी लगभग इसी तरह होता है।
(6/8)इसका फल भी काफी जायकेदार होता है। घी निकालने के बाद बीज का प्रयोग खाद की तरह भी किया जा सकता है।
इसकी लकड़ी मजबूत और हल्की होने के कारण फर्नीचर और खासकर नाव आदि बनाने में भी प्रयोग में लाई जाती है।
च्यूरा का घी औषधि के काम भी आता है।
(7/8)च्यूरा के फूलों व बीजों से शहद, घी, तेल, साबुन, धूप, अगरबत्ती, कीटनाशक दवाआदि बनाये जाते हैं। च्यूरा के फूलों से शहद बनता है। इसके फूलों में दोनों तरफ पराग होता है, जिस कारण इससे बनने वाले शहद की मात्रा काफी अधिक रहती है।
(8/8)च्यूरा के फल बेहद मीठे और रसीले होते हैं, जिन्हें पराठों आदि में प्रयोग किया जाता है।
इसकी खली जानवरों के लिए सबसे अधिक पौष्टिक मानी जाती है।
(1/9)#BirthAnniversary
25 दिसंबर 1861 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में एक पंडित परिवार में मदन मोहन मालवीय का जन्म हुआ। उन्होंने अपना उपनाम ‘चतुर्वेदी’ से बदलकर ‘मालवीय’ रख लिया, क्योंकि उनके पूर्वज मालवा से इलाहाबाद आए थे।
(2/9)मालवीय ने भारत में शिक्षा के स्तर को ऊँचा उठाने और समाज में सुधार लाने की दिशा में अनेकों काम किए। क्योंकि कहीं न कहीं उन्हें पता था कि जब तक भारतीय, शिक्षित नहीं होंगे और उन्हें समझ नहीं होगी कि स्वतंत्रता के असल मायने क्या हैं?
(3/9)तब तक भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को वह गति नहीं मिलेगी, जो मिलनी चाहिए। इसके अलावा, उनकी सोच यह भी थी कि उन्हें युवाओं को स्वतंत्र भारत के लिए तैयार करना है, ताकि उन्हें पता हो कि उन्हें कैसे अपने देश के सर्वांगीण विकास में साथ देना है।
(1/7)कई बार ऑफिस आते-जाते या सड़क पर चलते हुए आपकी नज़र ऐसे किसी इंसान पर पड़ी होगी जिनके पास इस कड़कड़ाती ठंड में तन ढकने के लिए एक कंबल भी नहीं है। वे छोटे-छोटे बच्चे जो बिना स्वेटर, टोपी और गर्म कपड़े के ही दिन-रात काटने को मजबूर हैं।
(2/7)इनकी मदद करने का ख़्याल तो आपको भी आया होगा!तो अब बिना सोचे हमारे ज़रिए आप इन तक पहुंचा सकते हैं गर्म कपड़े और कंबल जैसी ज़रूरी चीज़ें।
द बेटर इंडिया के #DonateWarmth कैंपेन से जुड़कर हमारा साथ दीजिए।क्योंकि साथ मिलकर कोशिश करने से ही हम इनकी ज़िंदगी थोड़ी आसान बना सकते हैं।
(3/7)नए साल की इससे अच्छी शुरुआत और क्या होगी?
आपको क्या करना है?
जो कपड़े अब आप नहीं पहनते या आपके लिए बेकार हैं, उन्हें हमारे कैंपेन पार्टनर Uddeshhya के इन पतों पर #DonateWarmth के ज़रिए दान कर सकते हैं या कोरियर के माध्यम से पहुंचा सकते हैं-
(1/4)अगर जीवन में कुछ कर गुज़रने का जुनून हो, तो कोई भी मुश्किल काम आसान हो जाता है। ऐसा ही कुछ कमाल कर दिखाया है उत्तर प्रदेश के मिर्ज़ापुर जिले के छोटे से गांव की रहनेवाली सानिया मिर्ज़ा ने।
(2/4)सानिया ने एनडीए की परीक्षा में 149वीं रैंक के साथ फ्लाइंग विंग में दूसरा स्थान हासिल किया है।
सानिया की इस सफलता से उनका परिवार बहुत खुश है। सानिया के पिता शाहिद अली मिर्ज़ापुर में एक टीवी मैकेनिक हैं। ot
(3/4)उन्होंने बताया, "सानिया मिर्ज़ा, देश की पहली फाइटर पायलट अवनी चतुर्वेदी को अपना आदर्श मानती है। वह शुरू से ही उनके जैसा बनना चाहती थी। सानिया देश की दूसरी ऐसी लड़की है, जिसे फाइटर पायलट के तौर पर चुना गया है।"
कई बार ऑफिस आते-जाते या सड़क पर चलते हुए आपकी नज़र ऐसे किसी इंसान पर पड़ी होगी जिनके पास इस कड़कड़ाती ठंड में तन ढकने के लिए एक कंबल भी नहीं है। वे छोटे-छोटे बच्चे जो बिना स्वेटर, टोपी और गर्म कपड़े के ही दिन-रात काटने को मजबूर हैं।
इनकी मदद करने का ख़्याल तो आपको भी आया होगा! तो अब बिना सोचे हमारे ज़रिए आप इन तक पहुंचा सकते हैं गर्म कपड़े और कंबल जैसी ज़रूरी चीज़ें।
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नए साल की इससे अच्छी शुरुआत और क्या होगी?
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(1/4)आज के आधुनिकता की चकाचौंध में हमारे बहुत से ऐसे परंपरागत तरीके खो से गये हैं, जिनमें विज्ञान की झलक मिलती है। ऐसी ही एक पोस्ट हमारे साथ साझा की है अंजनी कुमार पांडे ने।
"पहले तसला, भगौना, पतीला (खुला बर्तन) में दाल-भात बनता था, अदहन जब अनाज के साथ उबलता था,
(2/4)तो बार-बार एक मोटे झाग की परत जमा हो जाती थी, जिसे माई रह-रह के निकाल के फेंक दिया करती थी। पूछने पर कहती थी, "ई से तबियत खराब होत है"....
बाद में बड़े होने पर पता चला कि वह झाग शरीर मे यूरिक एसिड बढ़ाता है और माई इसीलिए उस झाग को फेंक दिया करती थी।
(3/4)माई ज्यादा पढ़ी-लिखी तो नहीं थी, पर ये चीज़ें उन्होंने नानी से और नानी ने अपनी माँ से सीखी थीं। अब कूकर में दाल-भात बनता है, पता नहीं झाग कहां जाता होगा, ज्यादा दाल खाने से पेट भी
(1/5)#gardening
गुना (मध्य प्रदेश) के रुठिआई गांव के 44 वर्षीय केदार सैनी एक गरीब किसान परिवार से आते हैं। लेकिन पर्यावरण के प्रति उनका जो लगाव है, वह उन्हें काफी खास बना देता है। वह पेड़-पौधों और देसी बीज के विषय में बेहद अच्छी जानकारी रखते हैं और
(2/5)इसका इस्तेमाल करके वह शहर में हरियाली भी फैला रहे हैं। साल 2019 से वह गेल इंडिया और प्रधानमंत्री आवास योजना जैसे प्रोजेक्ट्स पर पौधे लगाने का काम कर रहे हैं।
अपने पौधों के प्रति लगाव के कारण ही वह दुर्लभ सब्जियों, फलों और जड़ी-बूटियों आदि के बीज इकट्ठा
(3/5)करने का काम भी करते हैं। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि वह इन बीजों को साल 2013 से न सिर्फ जमा कर रहे हैं, बल्कि जरूरमंद किसानों को मुफ्त में बाँट भी रहे हैं।
केदार ने द बेटर इंडिया से बात करते हुए बताया, “मैंने अब तक देश के 17 राज्यों में अलग-अलग किसानों को डाक के