#मगध_और_समकालीन_भारतीय_इतिहास

#मगध 1⃣

मगध के राजवंश

1. महाराजा मगध :-

राजा मगध ने मगध साम्राज्य की स्थापना की।

2. महाराजा सुधन्वा :- कुरु द्वितीय का पुत्र सुधन्वा अपने मामा महाराजा मगध के बाद मगध का राजा बना।
सुधन्वा राजा मगध का भतीजा था।

3. महाराजा सुधनु

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4. महाराजा प्रारब्ध
5. महाराजा सुहोत्र
6. महाराजा च्यवन
7. महाराजा चवाना
8. महाराजा कृत्री
9. महाराजा कृति
10. महाराजा क्रत
11. महाराजा कृतग्य
12. महाराजा कृतवीर्य
13. महाराजा कृतसेन
14. महाराजा कृतक
15. महाराजा प्रतिपदा
16. महाराजा उपरिचर वसु :- बृहद्रथ के पिता

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और राजवंश के अंतिम राजा थे।

बृहद्रथ राजवंश:-

वृहद्रथ वंश➡वृहद्रथ का पुत्र जरासंध एक शक्तिशाली राजा था।

➡जरासंध की पुत्रियों अस्ति और प्राप्ति का विवाह कंस के साथ हुआ था।जरासंध के मरणोपरांत मगध का शासन -- जरासंध के पुत्र सहदेव को भगवान श्रीकृष्ण ने कार्यभार सौंपा।

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सहदेव के बाद➡सोमाधि , श्रुतश्रव , अयुतायु , निरमित्र , सुकृत्त , बृहत्कर्मन् , सेनाजित , विभु , शुचि , क्षेम , सुव्रत , निवृति , त्रिनेत्र , महासेन , सुमति , अचल , सुनेत्र , सत्यजीत , वीरजीत , अरिञ्जय , क्षेमधर्म और क्षेमजीत हुए।

बृहद्रथ वंश का अंतिम शासक - रिपुंजय

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रिपुंजय की हत्या - महामंत्री पुलिक

पुलिक ने किसको शासक बनाया - अपने पुत्र वालक को

वालक की हत्या - भट्टिय नामक सामंत ने

- सामंत का पुत्र बिम्बिसार

हर्यक वंश ➡बिम्बिसार -- अजातशत्रु -- उदयानी -- अनिरूद्ध -- मुंडा -- दर्शानी -- नागदशक


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शिशुनाग वंश ➡शिशुनाग -- काकवर्ण( कालाशोक ) -- क्षेमधर्म -- क्षत्रौजस -- नंदिवर्धन -- महानन्दि

नंद वंश ➡ [{महापद्मानन्द -- धनानंद(Only 22 Years)}]

⬇➡🔴आचार्य चाणक्य का अहम योगदान🔴

मौर्य साम्राज्य ➡चंद्रगुप्त मौर्य -- बिंदुसार -- अशोक -- दशरथ -- सम्प्रति--

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शालिसुक -- देववर्मन -- शतधन्वन -- वृहद्रथ

शुंग वंश ➡पुष्यमित्र शुंग -- अग्निमित्र -- वसुज्येष्ठ -- वसुमित्र -- अन्ध्रक -- पुलिन्दक -- घोष -- वज्रमित्र -- भगभद्र -- देवभूति

कण्व वंश➡वसुदेव – भूमिमित्र–नारायण--सुशर्मा

अंतिम कण्व शासक सुशर्मा की हत्या 30 ईo पूo

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सिमुक ने कर दी और एक नए राजवंश आंध्र सातवाहन वंश की नींव रखी।

➡आंध्र सातवाहन वंश (518 Years) :-

इस वंश का मूल निवास स्थान प्रतिष्ठान/पैठान (महाराष्ट्र) था और इसके शासक दक्षिणाधिपति व इनके द्वारा शासित प्रदेश दक्षिणापथ कहलाया।

इन राजाओं की सबसे लम्बी सूची मत्स्य

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पुराण में मिलती है।

इनकी प्रारंभिक राजधानी – धान्यकटक (अमरावती) थी।

सातवाहन वंश में कुल 46 राजा हुए , जिनमें से कुछ प्रसिद्ध नाम निम्नलिखित हैं :-

1. सिमुक

2. कृष्ण

3. सातकर्णि ➡ सातकर्णि के सिक्कों पर उसके श्वसुर अंगीयकुलीन महारथी त्रणकयिरो का नाम भी अंकित है।

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शिलालेखों में उसे दक्षिणापथ और अप्रतिहतचक्र विशेषणों से संबोधित किया गया है। अपने राज्य का विस्तार कर इस प्रतापी राजा ने राजसूय यज्ञ किया और दो बार अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया था। क्योंकि सातकर्णी का शासनकाल मौर्य वंश के ह्रास काल में था अतः स्वाभाविक रूप से उसने अनेक

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ऐसे प्रदेशों को जीत कर अपने अधीन किया होगा जो कि पहले मौर्य साम्राज्य के अधीन थे।

4. रानी नागनिका ➡ विश्व की प्रथम महिला शासक

5. गौतमी पुत्र सातकर्णि ➡ त्रि-समुंद्र-तोय-पीत-वाहन
माता का नाम गौतमी बालश्री

6. वासिष्ठी पुत्र पुलुमावी ➡ दक्शिनाप्थेश्वर की उपाधि साथ ही

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प्रथम आंध्र सम्राट था।

7. वशिष्ठि पुत्र सातकर्णि

8. शिवस्कंद सातकर्णि

9. यज्ञश्री शातकर्णी

10. विजय

🔴शातकर्णि प्रथम –

शातकर्णि प्रथम की पत्नी नागनिका ही भारत की प्रथम महिला शासिका थी।

पुराणों में इसे कृष्ण का पुत्र कहा गया है।

इसने दो अश्वमेद्य यज्ञ और एक

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राजसूय यज्ञ कराया।

हाॅल ने गाथासप्तशती नामक मुक्तकाव्य की रचना की।

🔴गौतमीपुत्र शातकर्णि (106-130 ईo) --

इसे वर्णव्यवस्था का रक्षक और अद्वितीय ब्राह्मण कहा जाता है। इसने वेणकटक की उपाधि धारण की थी। इसके घोड़े तीन समुद्र का पानी पीते थे।

➡गौतमीपुत्र शातकर्णि ने

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" त्रि - समुद्र - तोय - पीत -वाहन " उपाधि धारण की थी.

जिससे यह पता चलता है कि उनका साम्राज्य पूर्वी , पश्चिमी तथा दक्षिणी सागर अर्थात बंगाल की खाड़ी , अरब सागर एवं हिन्द महासागर तक फैला हुआ था.

गौतमी पुत्र शातकर्णि का शासन ऋशिक (कृष्णा नदी के तट पर स्थित ऋशिक नगर),

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अयमक (प्राचीन हैदराबाद राज्य का हिस्सा), मूलक (गोदावरी के निकट एक प्रदेश जिसकी राजधानी प्रतिष्ठान थी) तथा विदर्भ (आधुनिक बरार क्षेत्र) जैसे प्रदेशों तक फैला हुआ था. उनके प्रत्यक्ष प्रभाव में रहने वाला क्षेत्र उत्तर में मालवा तथा काठियावाड़ से लेकर दक्षिण में कृष्णा नदी

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तक तथा पूर्व में बरार से लेकर पश्चिम में कोंकण तक फैला हुआ था.

इसके विजयों की जानकारी गौतमी बालश्री के नासिक अभिलेख से प्राप्त होती है।

इसने शक शासक नहपान को हराया।

यह इस वंश का 23 वां शासक था।

🔴वशिष्ठीपुत्र पुलवामी-

इसे प्रथम आंध्रसम्राट भी कहा जाता है।

इसने शक

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शासक रुद्रदामन को दो बार हराया।

🔴यज्ञश्री शातकर्णि -

इसके सिक्कों पर जहाज/नाव के चित्र मिलते हैं।

🔴पुलोमा/पुलमावि चतुर्थ -

इसके समय सातवाहन राज्य छिन्न भिन्न हो के 5 गौड़ शाखाओं में विभक्त हो गया –

1. वाकाटक
2. चतु वंश
3. पल्लव
4. इच्छवाकु
5. आभीर

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#मगध 2⃣

#बिम्बिसार
#bimbisara

बिम्बिसार (558-491 ईसा पूर्व) गौतम बुद्ध के सबसे बड़े संरक्षक होने के साथ-साथ प्राचीन भारतीय साम्राज्य में मगध राज्य के प्रारम्भिक राजाओं में से एक था।

उन्होंने अपने राज्य के पूर्वी क्षेत्र को अंगा नामक स्थान तक विस्तृत कर दिया था , जो

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भविष्य में मौर्य साम्राज्य के विशाल विस्तार की नींव साबित हुआ।

बिम्बिसार हर्यक वंश के थे और उन्होंने राजगीर नामक स्थान को अपनी राजधानी बनाया था।

बिम्बिसार 15 वर्ष की उम्र में ही राजा बन गए थे और 52 वर्ष तक सफलतापूर्वक शासन किया।

उनकी पहली पत्नी कौशल राज प्रसेनजित

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की बहन महाकोशला थीं , जिसने काशी को दहेज के रूप लाकर बिम्बिसार को दिया था और उन्होंने अजातशत्रु नाम के एक पुत्र को जन्म दिया।

पुराणों के अनुसार बिम्बिसार को 'श्रेणिक' कहा गया है।

वैशाली के चेटक की पुत्री चेल्‍लना से और मद्र देश (आधुनिक पंजाब) की राजकुमारी क्षेमा से

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वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये और पूर्व में ब्रह्मादत्त को हराकर अंग राज्य को अपने राज्य में मिला लिया था।

महावग्ग के अनुसार बिम्बिसार की 500 रानियाँ थीं।

उसने अवंति के शक्ति्शाली राजा चन्द्र प्रद्योत के साथ दोस्ताना सम्बन्ध बनाया।

सिन्ध के शासक रूद्रायन तथा गांधार

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के मुक्कुस रगति से भी उसका दोस्ताना सम्बन्ध था।

उसने अंग राज्य को जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया था वहाँ अपने पुत्र अजातशत्रु को उपराजा नियुक्त किया था ।

उनके साम्राज्य में कुल 80,000 गाँव थे।

उसके राज्य में चावल की पैदावार के लिए बहुत बड़ी उपजाऊ भूमि , लौह अयस्क

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लौह अयस्क क्षेत्र और जंगलों से मिलने वाले प्राकृतिक संसाधन थे।

पश्चिमी बिहार में गंगा के डेल्टा तक बिम्बिसार ने इस नदी के व्यापार पर भी अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया था।

उसने कुशल प्रशासन और भू-राजस्व प्रणाली की शुरुआत की जिससे उसे एक मजबूत सेना बनाने में मदद मिली।

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उसका प्रशासन बहुत ही उत्तम था, उसके राज्य में प्रजा सुखी थी। वह अपने कर्मचारियों पर कड़ी नजर रखता था।

उसके उच्चाधिकारी  'राजभट्ट' कहलाते थे और उन्हें चार क्ष्रेणियों में रखा गया था -

'सम्बन्थक' सामान्य कार्यों को देखते थे,

'सेनानायक' सेना का कार्य देखते थे,

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'वोहारिक' न्यायिक कार्य व

'महामात्त' उत्पादन कर इकट्ठा करते थे।

कहा जाता है की उसकी नीतियाँ फारसी सम्राट साइरस द्वितीय और डारियस प्रथम (Cyrus II and Darius I) से प्रभावित थीं।

साइरस द्वितीय का साम्राज्य 530 ई. पू. में उसकी मृत्यु से पहले,भूमध्य सागर (Mediterranean)

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से अफगानिस्तान (Afghanistan) तक फैला था।

उसके साम्राज्य को हड़पकर 522 से 486 ई. पू तक शासन करने वाले डारियस प्रथम ने इस साम्राज्य को नील नदी से सिन्धु नदी तक फैला दिया था।

बिम्बिसार इन राज्यों की भव्यता से प्रभावित था।

वैशाली की एक प्रसिद्ध गणिका आम्रपाली / अंबपाली

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के द्वारा भी उन्हें विमल कुन्दन्ना जीवक नाम का एक पुत्र प्राप्त हुआ था।

मगध सम्राट बिंबिसार ने वैशाली पर जब आक्रमण किया तब संयोगवश उसकी पहली मुलाकात आम्रपाली से ही हुई। आम्रपाली के रूप-सौंदर्य पर मुग्ध होकर बिंबसार पहली ही नजर में अपना दिल दे बैठा।आम्रपाली ने बिंबिसार

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से युद्ध रोकने के लिए कहा और बिंबिसार ने आम्रपाली की बात मान ली।

प्रसिद्ध चीनी यात्री फाह्यान और ह्वेनसांग के यात्रा वृतांतों में भी वैशाली गणतंत्र और आम्रपाली पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। दोनों ने लगभग एकमत से आम्रपाली को सौंदर्य की मूर्ति बताया। वैशाली गणतंत्र के

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कानून के अनुसार हजारों सुंदरियों में आम्रपाली का चुनाव कर उसे सर्वश्रेष्ठ सुंदरी घोषित कर जनपद कल्याणी की पदवी दी गई थी।

बिम्बिसार ने जीवक को तक्षशिला में शिक्षा हेतु भेजा।

यही जीवक एक प्रख्यात चिकित्सक एवं राजवैद्य बना।

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राजगृह में ही उन्होंने राजा बिम्बिसार का भयानक भगंदर – रोग ठीक किया , इसके लिए उसे राजा बिम्बिसार की पांच सौ रानियों के आभूषण पुरस्कार के रूप में प्राप्त हुए।

जीवक की अन्य उल्लेखनीय चिकित्साओं में उसकी एक वह शल्य – चिकित्सा थी जो राजगृह के एक सेठ की खोपड़ी पर की थी ,

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और दूसरी बनारस के उस श्रेष्ठी पुत्र की जो अंतड़ियों के भयानक रोग से पीड़ित था।

जीवक को राजा तथा उनकी रानियों का ‘ राज – चिकित्सक’ नियुक्त किया गया लेकिन जीवक की तथागत के प्रति बहुत आसक्ति एवं श्रद्धा थी।

परिणामस्वरूप वह बुद्ध और संघ के भी चिकित्सक बने।

वह तथागत के

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उपासक बन गये।

बुद्ध ने उन्हें भिक्षु नहीं बनाया , क्योंकि वह चाहते थे कि वह स्वतंत्र रहकर चिकित्सा द्वारा रोगियों और आहतों की सेवा करते रहें।

जब महाराजा बिम्बिसार की मृत्यु हो गई तो जीवक उनके पुत्र अजातशत्रु के भी चिकित्सक बने रहे और पितृ हत्या का अपराध करने वाले

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अजातशत्रु को बुद्ध के पास लाने में मुख्य भूमिका उन्हीं की रही।

#सूत्ता_निपट्टा #अथथकथा के #पब्बाजा #सूत्ता में यह कहा गया है कि #बिम्बिसार ने #गौतमबुद्ध को पहली बार अपने महल की खिड़की के माध्यम से पांडव पाब्बाता के नीचे देखा था।

बिम्बिसार ने बुद्धजी को अपने राजदरबार

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में आमंत्रित किया परन्तु उन्होंने आने से इनकार कर दिया क्योंकि वह ज्ञान की खोज में जा रहे थे।

राजा ने बुद्ध के यथेष्ट की कामना की और ज्ञान प्राप्ति के तुरंत बाद राजगीर की यात्रा करने का उनसे अनुरोध किया।

बाद में गौतम बुद्ध ने बिम्बिसार से किए वादे को पूरा करने के

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लिए राजगीर का दौरा किया।वह #बुद्ध के कट्टर शिष्य बन गए और जीवन के बाकी दिनों में बौद्ध धर्म संरक्षित करना जारी रखा।

बिम्बिसार की हत्या महात्मा बुद्ध के विरोधी देवव्राता के उकसाने पर उनके अपने पुत्र अजातशत्रु ने की और शासक बन गया।
#History
#indianhistory
#भारतीय_इतिहास

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⬛ Battle of Hydaspes ( झेलम युद्ध ) 1⃣ :-

#अजातशत्रु

492 ईo पूo कुणिक ने अपने पिता बिम्बिसार की हत्या कर दी और अजातशत्रु के नाम से शासक बना।

इसका काशी और वज्जि संघ से लंबे समय तक संघर्ष चला और अंत में इसने उन्हें अपने अधीन कर लिया।

इसका लिच्छवियों से युद्ध हुआ

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जिसमे इसने #रथमूसल और #महाशिलाकण्टक नामक हथियारों का प्रयोग किया था।

वृजी संघ के साथ युद्ध के वर्णन में #महाशिलाकंटक नाम के हथियार का वर्णन मिलता है जो एक बड़े आकार का यन्त्र था , इसमें बड़े बड़े पत्थरों को उछालकर फेंका जाता था।

#बाहुबली फिल्म में इन हथियारों का

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प्रयोग दिखाया गया है।

इसके अलावा #रथमुशल का भी उपयोग किया जाता था जो बाहुबली फिल्म में भल्लालदेव Use करता है।

इसी के शासन काल के 8 वें वर्ष (7 साल बाद) #महात्मा_बुद्ध को महानिर्वाण की प्राप्ति हुई।

इसी के समय राजगृह की सप्तपर्णी गुफा में प्रथम बौद्ध संगीति हुई थी।

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🔴बौद्ध संगीति का तात्पर्य उस संगोष्ठी/सम्मेलन या महासभा से है जो महात्मा बुद्ध के परिनिर्वाण के अल्प समय के पश्चात् से ही उनके उपदेशों को संग्रहीत करने , पाठ (वाचन) करने आदि के उद्देश्य से सम्बन्धित थी।

इन संगीतियों को प्राय: धम्म संगीति (धर्म संगीति) कहा जाता था।

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🔴इतिहास में चार बौद्ध संगीतियों का उल्लेख हुआ है--

🔸प्रथम बौद्ध संगीति - (483 ई.पू. , राजगृह में)

🔸द्वितीय बौद्ध संगीति - (वैशाली में)

🔸तृतीय बौद्ध संगीति - (249 ई.पू. , पाटलीपुत्र में)

🔸चतुर्थ बौद्ध संगीति - (कश्मीर में)

#उदायिन

उदायिन ने ही पाटलिपुत्र की

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स्थापना कुसुमपुर के नाम से की और उसे अपनी राजधानी बनाया था। यह जैन धर्म का समर्थक था। परंतु भिक्षु वेश धारण करने के कारण एक राजकुमार ने इसकी हत्या कर दी। इसके बाद क्रमशः अनिरुद्ध, मुण्डक, नाग दशक/दर्शक इस वंश के शासक हुए।

#नागदशक / दर्शक –

इसे इसके अमात्य #शिशुनाग ने

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पदच्युत कर गद्दी पर अधिकार कर लिया।

▪शिशुनाग वंश (412 -344 ईo पूo) :-

#शिशुनाग

हर्यक वंश के अंतिम शासक को पदच्युत कर इसने मगध की गद्दी पर अधिकार कर लिया। इस तरह हर्यक वंश की जगह अब मगध पर एक नए राजवंश शिशुनाग वंश की स्थापना की। ये राज्य की राजधानी को पाटलिपुत्र से

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वैशाली ले आया।इसने अवंति और वत्स संघ पर अधिकार कर उसे मगध साम्राज्य में मिला लिया।
#कालाशोक / काकवर्ण–
इसने पाटलिपुत्र को पुनः साम्राज्य की राजधानी बनाया।इसके शासनकाल के 10वें वर्ष(महात्मा बुद्ध के महापरिनिर्वाण के लगभग 100 वर्ष बाद)वैशाली में द्वितीय बौद्ध संगीति हुई।

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पाटलिपुत्र में घूमते समय महापद्मनंद ने चाकू घोंप कर इसकी हत्या कर दी। इसके बाद नन्दिवर्धन/महानन्दिन मगध का शासक बना। यही शिशुनाग वंश का अंतिम शासक था।

▪नंद वंश (344-324/23 ईo पूo) ➡ Only for 22 Years

इस वंश में कुल 9 शासक ही हुए जो सब भाई ही थे।

#महापद्मनंद

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प्रारम्भ में ये डाकुओं के गिरोह का राजा/सरदार था।प्रसिद्ध व्याकरणाचार्य #पाणिनी इसके मित्र व दरबारी थे।

#धनानंद

#यूनानी लेखकों ने इसे #अग्रमीज कहा है।

इसका सेनापति #भद्रसाल था।

इसके मंत्री क्रमशः ➡जैनी -- शकटाल -- स्थूलभद्र & श्रीयक हुए

#धनानंद ने ही #सिकंदर के

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साथ मित्रता का भाव रखा और राजा पुरू के खिलाफ रहा,यहीं से #battle_of_hydaspes ( #झेलम_युद्ध ) की नींव पड़ी।कुछ समय बाद चन्द्रगुप्तमौर्य और महान आचार्य चाणक्य ने अपने अन्य बहुत से गुमनाम सहयोगियों की सहायता से इसका अंत कर दिया और इसके बाद मगध पर मौर्य वंश की स्थापना हुई।

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#Battle_of_the_Hydaspes ( #झेलम_युद्ध ) 2⃣ :-

#Bucephalus (355-326 BC) is among the most famous horses in history and it was said that this he could not be tamed.The young Alexander , of course , tamed him–and went on to ride his beloved equine companion for many years

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and into many battles. Bucephalus finally died after the battle of the Hydaspes.

#बुसिफालस (355-326 ई.पू.) इतिहास के सबसे प्रसिद्ध घोड़ों में से एक है और कहा जाता है कि इसे वश में नहीं किया जा सकता था।

बेशक , युवा #सिकंदर ने उसे पालतू बना लिया - और कई वर्षों तक और कई

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लड़ाइयों में अपने प्रिय घोड़े के साथी की सवारी करता रहा।

#हाइडस्पेस की लड़ाई के बाद #बूसेफालस की मृत्यु हो गई।

सिकंदर मकदूनिया (मेसेडोनिया) का ग्रीक शासक था.विश्व विजेता' सिकंदर के गुरु यूनानी दार्शनिक #अरस्तू ने उसे दुनिया को सोचने का एक नया नजरिया दिया था.
#अरस्तू
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का जन्म #ग्रीस में 384 ई . पू. में हुआ था.अरस्तू को #प्लेटो के सबसे मेधावी शिष्यों में गिना जाता था.

🔴#अरस्तू (Aristotle) को दर्शन , राजनीति, काव्य, आचारशास्त्र, शरीर रचना, दवाइयों, ज्योतिष की बेहतरीन जानकारी थी.

उनके लिखे हुए ग्रन्थों की संख्या 400 तक बताई जाती है.

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1. मनुष्य प्राकृतिक रूप से ज्ञान की इच्छा रखता है.

2. डर बुराई की अपेक्षा से उत्पन्न होने वाले दर्द है.

3. कोई भी उस व्यक्ति से प्रेम नहीं करता जिससे वो डरता है.

4. सभी भुगतान युक्त नौकरियां दिमाग को अवशोषित और अयोग्य बनाती हैं.

5. मनुष्य के सभी कार्य इन 7 में से

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किसी एक या अधिक वजहों से होते हैं :- मौका , प्रकृति , मजबूरी , आदत , कारण , जुनून , इच्छा.

6. बुरे व्यक्ति पश्चाताप से भरे होते हैं.

7. मनुष्य अपनी सबसे अच्छे रूप में सभी जीवों में सबसे उदार होता है, लेकिन यदि कानून और न्याय ना हों तो वो सबसे खराब बन जाता है.

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8. संकोच युवाओं के लिए एक आभूषण है , लेकिन बड़ी उम्र के लोगों के लिए धिक्कार.

9. शिक्षा बुढ़ापे के लिए सबसे अच्छा प्रावधान है. दुनिया के सभी मूर्ख हमारे गुरू हैं और दुनिया में मूर्ख कभी मरते नहीं.

10. चरित्र को हम अपनी बात मनवाने का सबसे प्रभावी माध्यम कह सकते हैं.

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➡विश्व विजेता बनने का ख्याल सिकंदर के दिमाग में प्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तू ने ही डाला था।

सिकंदर ने भारत पर पहला हमला 326 ईसा पूर्व में किया था.

कहते हैं उसने तक्षशिला के राजा अांबी को हराया था और बदले में राजा अंबी ने उसे इतनी दौलत दी कि वह हैरान हो गया.

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उसने सोचा अगर एक छोटे से राज्य के शासक के पास इतनी दौलत है तो भारत के बड़े-बड़े राजाओं के पास कितनी दौलत होगी?

तक्षशिला विश्वविद्यालय के आचार्य चाणक्य से यह हमला नहीं देखा गया और उन्होंने भरपूर कोशिश की कि सभी राजा एकत्रित होकर सिकंदर का सामना करें , लेकिन आपसी

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मतभेदों में फंसे राजाओं ने एकजुट होने से इंकार कर दिया( आज भी स्थिति ऐसी ही है , कुछ ज्यादा नहीं बदला)

अब आते हैं सिकंदर और राजा #पोरस के युद्ध पर , राजा पुरु पुरषोत्तम या जिन्हें पोरस भी कहते हैं सिंध और पंजाब के बड़े भूभाग के राजा थे उनके और सिकंदर के बीच युद्ध झेलम

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नदी के किनारे लड़ा गया.

🔴पोरस का साम्राज्य : - राजा पोरस का समय 340 ईसा पूर्व से 315 ईसा पूर्व तक का माना जाता है।

पुरुवंशी महान सम्राट पोरस का साम्राज्य विशालकाय था।

महाराजा पोरस सिन्ध-पंजाब सहित एक बहुत बड़े भू-भाग के स्वामी थे।

पोरस का साम्राज्य जेहलम (झेलम)

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और चिनाब नदियों के बीच स्थित था।

पोरस के संबंध में #मुद्राराक्षस में उल्लेख मिलता है।

पोरस अपनी बहादुरी के लिए विख्यात था।उसने उन सभी के समर्थन से अपने साम्राज्य का निर्माण किया था जिन्होंने खुखरायनों पर उसके नेतृत्व को स्वीकार कर लिया था।

जब सिकंदर भारत आया और जेहलम

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(झेलम)के समीप पोरस के साथ उसका संघर्ष हुआ तब पोरस को खुखरायनों का भरपूर समर्थन मिला था।इस तरह पोरस जो स्वयं सभरवाल उपजाति का था और खुखरायन जाति समूह का एक हिस्सा था उनका शक्तिशाली नेता बन गया।'

सिकंदर ने राजा पोरस को संदेश भिजवाया था कि वह उनकी अधीनता स्वीकार करे लेकिन

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वीर पोरस ने ऐसा करने से इंकार कर दिया. पोरस की वीरता से युद्ध के पहले दिन ही उसने सिकंदर को जमकर टक्कर दी और उसकी सेना का इतना भयंकर नाश किया जिससे डरकर सिकंदर ने उनके उनके पास शांति प्रस्ताव भेजा जिसे पोरस ने स्वीकार कर लिया.

#History
#HistoryOfTheWorld
#indianhistory

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#Battle_of_the_Hydaspes ( #झेलम_युद्ध ) 3⃣ :-

सिकंदर और पोरस के बीच हुए युद्ध को ग्रीक 'Battle of the Hydaspes' कहते हैं।

यह युद्‍ध मई 326 ईसा पूर्व में लड़ा गया था। सिकंदर की सेना में 50 हजार पैदल सैनिक , 7 हजार घुड़सवार थे तो वहीं पोरस के पास 20 हजार पैदल सैनिक ,

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4 हजार घुड़सवार , 4 हजार रथ और 130 हाथी थे।

सिकंदर अपने चुने हुए 11 हजार आम्भी की सेना भारतीय और सिकंदर की सेना के यूनानी सैनिकों को लेकर झेलम की ओर चला था।

झेलम नदी के इस पार आने के बाद सिकंदर बुरी तरह फंस गया था , क्योंकि नदी पार करने के बाद नदी में बाढ़ आ गई थी।

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➡युद्ध का वर्णन:-

राजा पुरु के शत्रु लालची आम्भी की सेना लेकर सिकंदर ने झेलम पार की।राजा पुरु जिनको यवनी 7 फुट का बताते हैं अपनी शक्तिशाली गजसेना के साथ यवनी सेना पर टूट पड़े।हस्ती सेना ने यूनानियों का जिस भयंकर रूप से संहार किया उससे सिकंदर के सैनिक आतंकित हो उठे थे।

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भारतीयों के पास विदेशी को मार भगाने की हर नागरिक के हठ , शक्तिशाली गजसेना के अलावा कुछ अनदेखे हथियार भी थे जैसे सातफुटा भाला जिससे एक ही सैनिक कई-कई शत्रु सैनिकों और घोड़े सहित घुड़सवार सैनिकों को भी मार गिरा सकता था।

इस युद्ध में पहले दिन ही सिकंदर की सेना को

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जमकर टक्कर मिली। सिकंदर की सेना के कई वीर सैनिक हताहत हुए। यवनी सरदारों के भयाक्रांत होने के बावजूद सिकंदर अपने हठ पर अड़ा रहा और अपनी विशिष्ट अंगरक्षक एवं अंत: प्रतिरक्षा टुकड़ी को लेकर वो बीच युद्ध क्षेत्र में घुस गया।

कोई भी भारतीय सेनापति हाथियों पर होने के कारण

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उन तक कोई खतरा नहीं हो सकता था , राजा की तो बात बहुत दूर है।

राजा पुरु के भाई अमर ने सिकंदर के घोड़े बुकिफाइलस ( #संस्कृत - #भवकपाली ) को अपने भाले से मार डाला और सिकंदर को जमीन पर गिरा दिया।

ऐसा यूनानी सेना ने अपने सारे युद्धकाल में कभी होते हुए नहीं देखा था।

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सिकंदर जमीन पर गिरा तो सामने राजा पुरु तलवार लिए सामने खड़ा था। सिकंदर बस पलभर का मेहमान था कि तभी राजा पुरु ठिठक गया। यह डर नहीं था, बल्कि यह आर्य राजा का क्षात्र धर्म था, कि किसी निहत्थे राजा को यूं न मारा जाए। यह सहिष्णुता पोरस के लिए भारी पड़ गई। पोरस कुछ समझ पाता

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तभी सिकंदर के अंगरक्षक उसे तेजी से वहां से उठाकर भगा ले गए।

सिकंदर की सेना का मनोबल भी इस युद्ध के बाद टूट गया था और उसने नए अभियान के लिए आगे बढ़ने से इंकार कर दिया था।

सेना में विद्रोह की स्थिति पैदा हो रही थी इसलिए सिकंदर ने वापस जाने का फैसला किया।

झेलम के इस

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पार रसद और मदद भी कम होने लगी थी।

मीलों का सफर तय करके आई सिकंदर की सेना अब और लड़ना नहीं चाहती थी।

कई सैनिक और घोड़े मारे गए थे।

ऐसे में सिकंदर व उसकी सेना सिन्धु नदी के मुहाने पर पहुंची तथा घर की ओर जाने के लिए पश्चिम की ओर मुड़ी।

सिकंदर ने सेना को प्रतिरोध से

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बचने के लिए नए रास्ते से वापस भेजा और खुद सिन्धु नदी के रास्ते गया, जो छोटा व सुरक्षित था। भारत में शत्रुओं के उत्तर-पश्चिम से घुसने के दो ही रास्ते रहे हैं जिसमें सिन्धु का रास्ता कम खतरनाक माना जाता था।

उस वक्त सिकंदर सनक में आगे तक घुस गया, जहां उसकी पलटन को भारी

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क्षति उठानी पड़ी।

पहले ही भारी क्षति उठाकर यूनानी सेनापति अब समझ गए थे कि अगर युद्ध और चला तो सारे यवनी यहीं नष्ट कर दिए जाएंगे।

यह निर्णय पाकर सिकंदर वापस भागा पर उस रास्ते से नहीं भाग पाया , जहां से आया था और उसे दूसरे खतरनाक रास्ते से गुजरना पड़ा जिस क्षेत्र

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में प्राचीन क्षात्र या जाट निवास करते थे।
 
उस क्षेत्र को जिसका पूर्वी हिस्सा आज के हरियाणा में स्थित था और जिसे 'जाट प्रदेश' कहते थे, इस प्रदेश में पहुंचते ही सिकंदर का सामना जाट वीरों से (और पंजाबी वीरों से सांगल क्षेत्र में) हो गया और उसकी अधिकतर पलटन का सफाया जाटों

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ने कर दिया।

भागते हुए सिकंदर पर एक जाट सैनिक ने बरछा फेंका जो उसके वक्ष कवच को बींधता हुआ पार हो गया।

यह घटना आज के सोनीपत नगर के पास हुई थी।

इस हमले में सिकंदर तुरंत नहीं मरा बल्कि आगे जाकर जाट प्रदेश की पश्चिमी सीमा गांधार या उसके आगे जाकर उसके प्राण-पखेरू उड़ गए।

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[यवनी इतिहासकारों ने लिखा - सिकंदर बेबीलोन (आधुनिक इराक) में बीमारी से मरा -326 ई.पू.]

➡क्या लिखते हैं इतिहासकार :- #कर्तियास लिखता है कि , 'सिकंदर झेलम के दूसरी ओर पड़ाव डाले हुए था।

सिकंदर की सेना का एक भाग झेलम नदी के एक द्वीप में पहुंच गया , पुरु के सैनिक भी उस

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द्वीप में तैरकर पहुंच गए।

उन्होंने यूनानी सैनिकों के अग्रिम दल पर हमला बोल दिया।

अनेक यूनानी सैनिकों को मार डाला गया।

बचे-खुचे सैनिक नदी में कूद गए और उसी में डूब गए।'

धनानन्द की विशाल सेना से लड़ने का सामर्थ्य ही शेष नहीं बचा तो उसने आगे बढ़ना उचित नहीं समझा।

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आंभी का जीता क्षेत्र अपने सेनापति #सेल्यूकस_निकेटर को सौंपकर वापस लौट गया जहाँ कुछ समय बाद मृत्यु को प्राप्त हो गया।

#History
#HistoryOfTheWorld
#indianhistory
#भारतीय_इतिहास
#ancientindianhistory
#प्राचीनभारत

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🔸#चन्द्रगुप्त_मौर्य :-

🔴 #मौर्य_वंश

#चन्द्रगुप्त_मौर्य (जन्म 345 ई.पू., राज 322-298 ई.पू.) में भारत के सम्राट थे।इनको कभी कभी चन्द्रनन्द नाम से भी संबोधित किया जाता है।इन्होंने मौर्य साम्राज्य की स्थापना की थी और पूरे भारत को एक साम्राज्य के अधीन लाने में सफल रहे।

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सर्वप्रथम भारत का राष्ट्र के रूप में निर्माण और मौर्य गणराज्य की स्थापना चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा ही की गई थी।

चंद्रगुप्त के राज्यारोहण की तिथि साधारणतया 322 ई.पू. निर्धारित की जाती है।उन्होंने लगभग 24 वर्ष तक शासन किया और इस प्रकार उनके शासन का अंत 298 ई.पू. में हुआ।

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#विष्णुपुराण , #महाभारत और भारतीय इतिहासकारों जैसे कि #द्विजेंद्रलाल_राय #मुद्राराक्षस के अनुसार #चन्द्रगुप्त #सर्वार्थसिद्धी मौर्य और #मुरा के पुत्र हैं और इनके पिताजी #पीपलीवन राज्य के राजा थे।

#मेगस्थनीज ने 4 साल तक चन्द्रगुप्त की सभा में एक यूनानी राजदूत के रूप में

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सेवाएँ दी। #ग्रीक और #लैटिन लेखों में , चंद्रगुप्त को क्रमशः #सैंड्रोकोट्स और #एंडोकॉटस के नाम से जाना जाता है।

चंद्रगुप्त मौर्य भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण राजा हैं।चन्द्रगुप्त के सिंहासन संभालने से पहले सिकंदर ने उत्तर पश्चिमी भारतीय उपमहाद्वीप पर आक्रमण किया था

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और 324 ईसा पूर्व में उसकी सेना में विद्रोह की वजह से आगे का प्रचार छोड़ दिया, जिससे भारत-ग्रीक और स्थानीय शासकों द्वारा शासित #भारतीय_उपमहाद्वीप वाले क्षेत्रों की विरासत सीधे तौर पर चन्द्रगुप्त ने संभाली।चंद्रगुप्त ने अपने गुरु #चाणक्य (जिन्हें #कौटिल्य और #विष्णुगुप्त

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के नाम से भी जाना जाता है, जौ चन्द्र गुप्त के प्रधानमंत्री भी थे) के साथ, एक नया साम्राज्य बनाया, राज्यचक्र के सिद्धांतों को लागू किया, एक बड़ी सेना का निर्माण किया ,और अपने साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार करना जारी रखा।

मध्यकालीन अभिलेखों के साक्ष्यानुसार चंद्रगुप्त

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#मौर्य #सूर्यवंशी #मांधाता से उत्पन्न थे।

#बौद्ध साहित्य में चंद्रगुप्त मौर्य क्षत्रिय कहे गए हैं।

#महावंश चंद्रगुप्त मौर्य को #मोरिय (मौर्य) #खत्तियों से पैदा हुआ बताता है।

#दिव्यावदान में #बिंदुसार स्वयं को मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय कहते हैं।

सम्राट अशोक भी स्वयं

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को क्षत्रिय बताते हैं।

परंपरा के अनुसार चंद्रगुप्त बचपन में अत्यंत तीक्ष्ण बुद्धि था एवं समवयस्क बालकों का सम्राट् बनकर उन पर शासन करता था।

ऐसे किसी अवसर पर चाणक्य की दृष्टि उस पर पड़ी , फलत: चंद्रगुप्त #तक्षशिला गए जहाँ उन्हें राजोचित शिक्षा दी गई।

#ग्रीक इतिहासकार

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जस्टिन के अनुसार सेन्ड्रोकोट्स (चंद्रगुप्त) साधारण जन्मा था।सिकंदर के आक्रमण के समय लगभग समस्त उत्तर भारत #धनानंद द्वारा शासित था और अपनी निरंकुशता के कारण जनता में अप्रिय था।

एक बार धनानंद ने चाणक्य को अपने दरबार मे बुला कर उनका घोर अपमान किया था उसी वक्त चाणक्य ने ,

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धनानंद का समूल नाश करने की प्रतिज्ञा ले ली थी।

चाणक्य तथा चंद्रगुप्त ने नंद वंश को उच्छिन्न करने का निश्चय किया अपनी उद्देश्यसिद्धि के निमित्त चाणक्य और चंद्रगुप्त ने एक विशाल विजयवाहिनी का प्रबंध किया , ब्राह्मण ग्रंथों में नंदोन्मूलन का श्रेय चाणक्य को दिया गया है।

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चंद्रगुप्त मौर्य का संभवत: महत्वपूर्ण युद्ध धनानंद के साथ हुआ। #जस्टिन एवं #प्लूटार्क के वृत्तों में स्पष्ट है कि सिकंदर के भारत अभियन के समय चंद्रगुप्त ने उसे नंदों के विरुद्ध युद्ध के लिये भड़काया था , चंद्रगुप्त ने आरंभ में नंदसाम्राज्य के मध्य भाग पर आक्रमण किया ,

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किंतु उन्हें शीघ्र ही अपनी त्रुटि का पता चल गया और नए आक्रमण सीमांत प्रदेशों से आरंभ हुए। अंतत: उन्होंने पाटलिपुत्र घेर लिया और धनानंद को मार डाला।इसके बाद प्रतीत होता है कि चंद्रगुप्त ने अपने साम्राज्य का विस्तार दक्षिण में भी किया।

#मामुलनार नामक प्राचीन तमिल लेखक ने

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तिनेवेल्लि जिले की पोदियिल पहाड़ियों तक हुए मौर्य आक्रमणों का उल्लेख किया है।

इसकी पुष्टि अन्य प्राचीन तमिल लेखकों एवं ग्रंथों से होती है।

आक्रामक सेना में युद्धप्रिय कोशर लोग सम्मिलित थे।

आक्रामक कोंकण से एलिलमलै पहाड़ियों से होते हुए कोंगु (कोयंबटूर) जिले में

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आए और यहाँ से पोदियिल पहाड़ियों तक पहुँचे।

दुर्भाग्यवश उपर्युक्त उल्लेखों में इस मौर्यवाहिनी के नायक का नाम प्राप्त नहीं होता। किंतु #वंब_मोरियर से प्रथम मौर्य सम्राट् चंद्रगुप्त का ही अनुमान अधिक संगत लगता है,मैसूर से उपलब्ध कुछ अभिलेखों से चंद्रगुप्त द्वारा शिकारपुर

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तालुक के अंतर्गत नागरखंड की रक्षा करने का उल्लेख मिलता है।उक्त अभिलेख 14वीं शताब्दी का है किंतु ग्रीक,तमिल लेखकों आदि के सक्ष्य के आधार पर इसकी ऐतिहासिकता एकदम अस्वीकृत नहीं की जा सकती।चंद्रगुप्त ने सौराष्ट्र की विजय भी की थी। महाक्षत्रप रुद्रदामन्‌ के जूनागढ़ अभिलेख से

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प्रमाणित है कि चंद्रगुप्त के राष्ट्रीय वैश्य पुष्यगुप्त यहाँ के राज्यपाल थे।
चद्रंगुप्त का अंतिम युद्ध सिकंदर के पूर्व सेनापति तथा उनके समकालीन सीरिया के ग्रीक सम्राट् सेल्यूकस के साथ हुआ।ग्रीक इतिहासकार जस्टिन के उल्लेखों से प्रमाणित होता है कि सिकंदर की मृत्यु के बाद

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सेल्यूकस को उसके स्वामी के सुविस्तृत साम्राज्य का पूर्वी भाग उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ। सेल्यूकस, सिकंदर की भारतीय विजय पूरी करने के लिये आगे बढ़ा किंतु भारत की राजनीतिक स्थिति अब तक परिवर्तित हो चुकी थी। लगभग सारा क्षेत्र एक शक्तिशाली शासक के नेतृत्व में था। सेल्यूकस

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305 ई.पू. के लगभग सिंधु के किनारे आ उपस्थित हुआ। ग्रीक लेखक इस युद्ध का ब्योरेवार वर्णन नहीं करते।किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि चंद्रगुप्त की शक्ति के संमुख सेल्यूकस को झुकना पड़ा।फलत: सेल्यूकस ने चंद्रगुप्त को विवाह में एक यवनकुमारी तथा एरिया (हिरात), एराकोसिया (कंदहार),

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परोपनिसदाइ (काबुल) और गेद्रोसिय (बलूचिस्तान) के प्रांत देकर संधि क्रय की। इसके बदले चंद्रगुप्त ने सेल्यूकस को 500 हाथी भेंट किए।उपरिलिखित प्रांतों का चंद्रगुप्त मौर्य एवं उसके उततराधिकारियों के शासनांतर्गत होना,कंदहार से प्राप्त अशोक के द्विभाषी लेख से सिद्ध हो गया है।

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इस प्रकार स्थापित हुए मैत्री संबंध को स्थायित्व प्रदान करने की दृष्टि से सेल्यूकस न मेगस्थनीज नाम का एक दूत चंद्रगुप्त के दरबार में भेजा।

यह वृत्तांत इस बात का प्रमाण है कि चंद्रगुप्त का प्राय: संपूर्ण राज्यकाल युद्धों द्वारा साम्राज्य विस्तार करने में बीता होगा।

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⬅➡ #Seleucid#Mauryan_War :-

Seleucid Empire
Βασιλεία τῶν Σελευκιδῶν
Basileía tōn Seleukidōn

#Megasthenes (born c. 350 bc—died c. 290) ancient Greek historian and diplomat, author of an account of India, the Indica, in four books. An Ionian, he was sent by the

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Hellenistic king Seleucus I on embassies to the Mauryan emperor Chandragupta.

मेगस्थनीज (Megasthenes / Μεγασθένης, 304 ईसापूर्व - 299 ईसा पूर्व) यूनान का एक राजदूत था जो चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में आया था।

यूनानी सामंत सिल्यूकस भारत में फिर राज्यविस्तार की इच्छा

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से 305 ई. पू. भारत पर आक्रमण किया था किंतु उसे संधि करने पर विवश होना पड़ा था।

एप्पियानस व प्लूटार्क इसे ऐड्रोकोट्स, और फिलाकेस इसे सेंड्रोकोट्स कहता है ।

#एप्पियानस एक युनानी इतिहासकार थे , एप्पियानस ने लिखा है कि- सेल्यूकस जो सीरिया के राजा था उसने सिंधु नदी पार की

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और भारत के सम्राट चंद्रगुप्त से युद्ध छेड़ा।इस युद्ध में सेल्यूकस हार गया और उसकी पुत्री राजकुमारी हेलना के साथ चंद्रगुप्त का विवाह कर दिया।

उसने चंद्रगुप्त से संधि करके और अपने पूर्वी राज्य को शान्त करके सेल्यूकस एण्टीगोनस से युद्ध करने चला गया। #एप्पियानस के कथन से

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स्पष्ट है कि सेल्यूकस चंद्रगुप्त के विरुद्ध सफलता प्राप्त नहीं कर सका।अपने पूर्वी राज्य की सुरक्षा के लिए सेल्यूकस ने चंद्रगुप्त से संधि करना उचित समझा और उस संधि को उसने वैवाहिक सम्बन्ध से और अधिक पुष्ट कर लिया।321 B.C. सिकंदर के मरने के बाद उसके सेनापतियों में उसके

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राज्य का विभाजन हुआ।उसमें सेल्यूकस को अपने हिस्से में सीरिया, एशिया माइनर और पूर्वीय प्रांत मिले।

विरोधियों के साथ बहुत दिनों तक संघर्ष करने के बाद 312 B.C. पहले वह बेबीलोन का राजा हुआ यानि सेल्यूकस बेबीलोन का शासन था।

इसके बाद सेल्यूकस ने उन देशों पर अधिकार करने का

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इरादा किया जिनको सिकंदर विजयी कर चुका था तथा उसी मृत्यु के बाद विद्रोहियों ने उसे अपने कब्जे में ले लिया था। उसने भारत को पराजित करने के लिए 305 B.C. में सिंधु नदी को पार किया।

पहले तो वह पश्चिम की तरफ अपने साम्राज्य का विस्तार कर रहा था लेकिन बाद में उसने सिकंदर की

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नीति अपनाते हुए भारत की तरफ रुख किया जो कि पूर्व में पड़ता था और पूर्वी राज्यों पर अपनी सत्ता स्थापित करने के उद्देश्य से उसने 305 ईसा पूर्व भारत पर आक्रमण किया उस समय भारत पर मौर्य वंश का शासन था तथा मौर्य वंश के संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य शासन कर रहे थे जिन्होंने

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स्वयं को एक योग्य राजा के रूप में स्थापित किया था साथ ही उन्हें अपने गुरु आचार्य चाणक्य का मार्गदर्शन भी प्राप्त था।सेल्युकस निकेटर ने अपने साथ 3 लाख की एक विशाल सेना लेकर भारत की तरफ कूच किया तथा सिंधु नदी को पार कर भारत में अपना पहला युद्ध लड़ा इधर चंद्रगुप्त मौर्य

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विशाल साम्राज्य की विशाल सेना उसके आगे पहाड़ की तरह खड़ी थी।दोनों सेनाओं के बीच भीषण युद्ध शुरू हो गया यह युद्ध चल ही रहा था तथा चंद्रगुप्त की सेना सेल्यूकस निकेटर की सेना पर भारी पड़ रही थी इसी बीच सेल्युकस निकेटर ने अपनी हार स्वीकार करते हुए एक संधि का प्रस्ताव रखा।

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क्योंकि उसे लगभग अपनी मृत्यु तय लगने लगी थी। इस संधि के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य के गुरु आचार्य चाणक्य ने कुछ शर्तें रखी।

सबसे पहली शर्त थी कि सेल्युकस निकेटर उन सभी भारतीय राज्यों को चंद्रगुप्त को सौंपेगा जिन पर यवनों का शासन है तथा साथ ही अपनी पुत्री #हेलेना का विवाह

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चंद्रगुप्त मौर्य के साथ करेगा लेकिन इसके साथ ही शर्त भी रहेगी कि हेलेना और चंद्रगुप्त का पुत्र(जस्टिन)कभी भी मौर्य साम्राज्य का उत्तराधिकारी नहीं बनेगा।सेल्युकस निकेटर ने संधि की सभी शर्तें मानते हुए काबुल,कंधार,हेरात तथा मकरान राज्य जो कि आज के अफगानिस्तान की सीमा के

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अंतर्गत आते थे चंद्रगुप्त को सौंप दिए और अपनी पुत्री का विवाह चंद्रगुप्त से कर दिया इस प्रकार चन्द्रगुप्त की विजय के साथ इस युद्ध का अंत हुआ।

🔴 "चंद्रगुप्त मौर्य का प्रभावशाली इतिहास" :-

चन्द्रगुप्त मौर्यवंश के प्रतिष्ठापक (Founder) थे।

मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त को

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नंदवंश की समाप्ति तथा पंजाब सिंध में विदेशी शासन का अन्त करने का हीं नही बल्कि पूरे India पर अपना आधिपत्य स्थापित करने का श्रेय भी जाता है।

हम सभी भारतीयों को गर्व होना चाहिये की उस समय राजा चन्द्रगुप्त मौर्य (Chandragupta Maurya) का साम्राज्य बंगाल (Bengal) से

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ले कर अफ़ग़ानिस्तान(Afghanistan)और बलोचिस्तान(Balochistan)तक था।

☸️अखण्ड भारत के निर्माता चक्रवर्ती सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य — एक कुशल सेनानायक,महान विजेता,योग्य शासक एवं प्रजा हितकारक प्रथम ऐतिहासिक सम्राट के रूप में चक्रवर्ती चन्द्रगुप्त मौर्य का उदय हुआ था,यही नहीं

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बल्कि भारत में एक विशाल साम्राज्य की स्थापना करने का श्रेय भी सम्राट चन्द्रगुप्त को ही प्राप्त है। इन परिस्थितियों में उसने उस साम्राज्य की स्थापना की, कि वे उनके गौरव को बढ़ा देती है।
जिस समय चन्द्रगुप्त ने साम्राज्य स्थापित करने की कल्पना की उस समय वह साधनहीन थे,

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ना उनके पास कोई सेना थी, ना ही सेना को संगठित करने के लिए कुछ था।

यही नहीं बल्कि उन्हें अपने प्राणों की रक्षा भी करनी थी।क्योंकि उनके #पिता राजा #चन्द्रवर्द्धन मगध की विस्तारवादी सीमा सम्बन्धी युद्ध करते हुए मारे गए थे।ऐसे समय में जबकि वह बाल्यावस्था की स्थिति से गुजर

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रहे थे, तब उनके पास एक मात्र सहारा उनकी #माँ #धम्ममोरिया थीं।

नंदों की विशाल तथा शक्तिशाली साम्राज्य पर विजय प्राप्त करना कोई साधारण खेल नहीं था।

चन्द्रगुप्त ने इस असाधारण कार्य को न केवल पूर्ण किया वरन एक विशाल साम्राज्य की स्थापना भी की तथा विदेशी यूनानियों को भी

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अपने देश से मार भगाया और देश पर विदेशी शासन नहीं होने दिया।
सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य इतिहास के प्रथम तथा अन्तिम शासक थे जिन्होंने अफगानिस्तान तथा बलूचिस्तान पर भी शासन किया।

उन्होंने भारत की उस वैज्ञानिक सीमा को अधिकृत कर लिया जिसके लिए मुगल तथा ब्रिटिश Rulers

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व्यर्थ प्रयास करते रहे,इसके अलावा उन्होंने दक्षिण भारत के एक बहुत बड़े भाग पर शासन स्थापित किया तथा उत्तरी भारत पर अपना एकछत्र साम्राज्य स्थापित किया।
जिन दिनों भारत में ही नहीं वरन सम्पूर्ण विश्व में यातायात के साधनों का अभाव था उन दिनों में इतने बड़े साम्राज्य पर

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राज्य स्थापित करना एक असम्भव कार्य था लेकिन सम्राटों के सम्राट , चक्रवर्ती चन्द्रगुप्त मौर्य ने उस असम्भव कार्य को भी कर दिखाया।

चन्द्रगुप्त मौर्य की कीर्ति न केवल सामाजिक दृष्टिकोण से ऊपर है वरन प्रशासकीय दृष्टिकोण से भी उनका भारतीय इतिहास में ऊँचा स्थान है।

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#मेगस्थनीज के विवरण के अनुसार मौर्य युग में सुख,शांति तथा समृद्धि व्याप्त थी,जनता पूर्णरूप से आत्मनिर्भर थी।
सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के द्वारा स्थापित किया स्थानीय शासन आज भी ग्रामपंचायतों,नगरपालिकाओं तथा महापालिकाओं के कार्य कर रहा है।

#History
#HistoryOfTheWorld

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#चाणक्य 1⃣

जन्म 350 ईसा पूर्व में #तक्षशिला के #कौटिल नामक एक ब्राह्मण वंश में हुआ था।

उन्हें भारत का #मैक्यावली भी कहा जाता है।

इसलिए कहा जाता है कि कौटिल वंश में जन्म लेने की वजह से उन्हें #कौटिल्य के नाम से जाना गया।

जबकि कुछ विद्धानों की माने तो वे अपने उग्र

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और गूढ़ स्वभाव की वजह से ‘कौटिल्य’ के नाम से जाने गए।

'मुद्राराक्षस‘ के रचयिता के अनुसार उनके पिता को चणक कहा जाता था इसलिए पिता के नाम के आधार पर उन्हें चाणक्य कहा जाने लगा।

चाणक्य की शिक्षा तक्षशिला में हुई थी जो वर्तमान पाकिस्तान में है।

नए राज्यों (वर्तमान में

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बिहार और उत्तर प्रदेश में)ने हिमालय के आधार के साथ वाणिज्य के उत्तरी उच्च मार्ग द्वारा तक्षशिला के साथ संपर्क बनाए रखा और उत्तरी उच्च सड़क (उत्तरापथ) के पूर्वी छोर पर मगध का राज्य था।राजधानी शहर पाटलिपुत्र जिसे अब पटना के नाम से जाना जाता है।

चाणक्य का जीवन पाटलिपुत्र

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और तक्षशिला इन दो शहरों से जुड़ा था।

अपने प्रारंभिक वर्षों में , चाणक्य को वेदों को बड़े पैमाने पर पढ़ाया गया था ; ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने कम उम्र में ही उन्हें पूरी तरह से याद कर लिया था।

उन्हें धर्म के साथ-साथ गणित , भूगोल और विज्ञान भी पढ़ाया जाता था।

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सोलह वर्ष की आयु में उन्होंने तक्षशिला विश्वविद्यालय में प्रवेश किया।

वे ग्रीक और फारसी भी जानते थे।

इसके अलावा उन्हें वेदों और साहित्य का अच्छा ज्ञान था।

अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद वे तक्षशिला में ही राजनीतिक विज्ञान और अर्थशास्त्र के प्रोफेसर बन गए , उस समय भारत

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में अध्ययन की शाखाओं में कानून,चिकित्सा और युद्ध शामिल थे।

उनके 2 प्रसिद्ध छात्र भद्रभट्ट और पुरुषदत्त थे।

🔴भारत पर सिकन्दर के संभावित आक्रमण के कारण छोटे-छोटे राज्यों को एक करने के लिए चाणक्य ने “व्यावहारिक राजनीति” में प्रवेश करने का संकल्प किया जिसके चलते वह भारत

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को एक गौरवशाली और विशाल राष्ट्र बनाना चाहते थे।
🔴चाणक्य ने #अर्थशास्त्र नामक एक ग्रन्थ की रचना की जो तत्कालीन राजनीति, अर्थनीति, इतिहास, आचरण शास्त्र, धर्म आदि पर भली भाँति प्रकाश डालता है।

'अर्थशास्त्र' मौर्य काल के समाज का दर्पण है जिसमें समाज के स्वरूप को सर्वांग

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देखा जा सकता है।

अर्थशास्त्र से धार्मिक जीवन पर भी काफ़ी प्रकाश पड़ता है।

उस समय बहुत से देवताओं तथा देवियों की पूजा होती थी ना केवल बड़े देवता-देवी अपितु यक्ष, गन्धर्व, पर्वत, नदी, वृक्ष, अग्नि, पक्षी, सर्प, गाय आदि की भी पूजा होती थी। महामारी, पशुरोग, भूत, अग्नि,

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बाढ़ , सूखा , अकाल आदि से बचने के लिए भी बहुत से धार्मिक कृत्य किये जाते थे।

अनेक उत्सव , जादू टोने आदि का भी प्रचार था।

#अर्थशास्त्र #राजनीति का उत्कृट ग्रन्थ है जिसने परवर्ती #राजधर्म को प्रभावित किया।

चाणक्य ने अर्थशास्त्र में वार्ता (अर्थशास्त्र) तथा दण्डनीति

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(राज्यशासन) के साथ आन्वीक्षिकी (तर्कशास्त्र) तथा वैदिक ग्रन्थों पर भी काफ़ी बल दिया है।

अर्थशास्त्र के अनुसार यह राज्य का धर्म है कि वह देखे कि #प्रजा #वर्णाश्रम #धर्म का उचित पालन करती है कि नहीं।

🔴अर्थशास्त्र के अलावा चाणक्य की प्रसिद्ध पुस्तक #चाणक्य_नीति को भी

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#चाणक्य_नीति_शास्त्र कहा जाता है जो मुख्य रूप से #एफ़ोरिज्म (#सामान्य_सत्य_और_सिद्धांत) पर आधारित है।

➡अधीत्येदं यथाशास्त्रं नरो जानाति सत्तमः

धर्मोपदेशं विख्यातं कार्याऽकार्य शुभाऽशुभम्

🔴चाणक्यनीति के इस श्लोक में आचार्य चाणक्य ने बताया है कि जो व्यक्ति शास्त्रों

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के नियम का निरंतर अभ्यास करते हुए शिक्षा प्राप्त करता है।

उन्हें जीवन में सही या गलत का ज्ञान हो जाता है।

ऐसे व्यक्ति के पास ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान होता है और ऐसा ही व्यक्ति जीवन में सफलता प्राप्त करता है।

इसलिए एक व्यक्ति को अपने जीवन में कभी भी ज्ञान प्राप्त करने से

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पीछे नहीं हटना चाहिए।

➡आपदर्थे धनं रक्षेद्दारान् रक्षेध्दनैरपि ।

नआत्मानं सततं रक्षेद्दारैरपि धनैरपि ।।

🔴चाणक्य नीति में आचार्य चाणक्य ने बताया है कि व्यक्ति को अपने जीवन काल में सभी सुखों का भोग प्राप्त करना चाहिए।

लेकिन जब त्याग करने का समय आए तो ऐसा करने से

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मुंह भी नहीं फेरना चाहिए।

इसलिए उसे मुश्किलों से बचने के लिए धन की बचत अवश्य करते रहना चाहिए।

लेकिन पत्नी की सुरक्षा के समय धन का त्याग भी करना पड़े तो पीछे नहीं हटना चाहिए।

चाणक्यनीति में आगे बताया गया है कि व्यक्ति को आत्मा की रक्षा के लिए समूची सम्पत्ति का त्याग

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भी त्याग क्यों ना करना पड़े तो उसे ऐसा कर देना चाहिए।

ऐसे ही व्यक्ति जीवन में सुख के भोगी होते हैं।

आचार्य चाणक्य हमारे देश के एक ऐसे महान विद्वान रहे है जिनकी बताई गई बातें आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी उनके समय में थी.

वे चाणक्य ही थे जिन्होंने अपनी कूटनीति के

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द्वारा साधारण चन्द्रगुप्त को मगध का राजा बना दिया था.

🔴आचार्य चाणक्य की बताई गई 10 बातें :-

▪मूर्ख लोगो से कभी विवाद न करें
▪अपनी कमजोरी किसी को न बताएँ
▪आपका एक दोष सभी गुणों को नष्ट कर सकता है
▪धन को सोच समझ कर खर्च करें
▪बदनामी से डरें
▪आलस्य को त्याग दें

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▪जो बात ना सुने उस पर विश्वास न करें
▪अपने से कम या ज्यादा प्रतिष्ठा के लोगो से दोस्ती न करें
▪वर्तमान में जीवन बिताओ
▪खुश रहना है तो लगाव से दूर रहें

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#प्राचीनभारत

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#चाणक्य 2⃣

🔴चाणक्य की शिक्षाएँ :-

▪आदमी को कभी भी सीधा और सरल नहीं होना चाहिए।

▪जंगल में जो पेड़ सीधे, चिकने होते हैं और जिन्हें काटने में कठिनाई नहीं होती उन्हें ही सबसे पहले काटा जाता है।

▪एक महत्वपूर्ण निर्णय लेने से पहले और अपने मुंह से शब्द बाहर निकालने से

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पहले तीन प्रश्न खुद से पूछ लेना।

▪जो व्यक्ति निर्णय लेने से पहले इन 3 प्रश्नों को स्वयं / खुद से पूछता है , उनके जीवन में कभी गलत नहीं हो सकता:-

🔹 मुझे क्या करना चाहिये ?
🔹 इसका आउटकम क्या होगा ?
🔹 इसके लायक क्या होगा ?

▪अध्ययन अर्थात् कोई भी चीज सीखने और

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पढ़ने से ज्ञान मिलता है।

मनुष्य को चाहे कितना ही ज्ञान क्यों ना मिल जाए , वह कभी भी पूरा नहीं होता।

हमेशा सीखते रहने की इच्छा जिस इंसान में होती है वो हर जगह सफल होता है।

▪चाणक्य कहते हैं कि तत्काल सफलता पाने के लिए व्यक्ति को अपनी सफलता के स्रोत के साथ एक संतुलित

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दूरी बनाए रखनी चाहिए👉वह कभी भी इससे बहुत दूर नहीं होना चाहिए और ना ही बहुत करीब होना चाहिए।
जैसे आग के मामले में:- ‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌
आग से दूर रहकर आप कभी भी खाना नहीं बना पाएंगे लेकिन आपको बहुत पास नहीं होना चाहिए क्योंकि यह आपके जीवन के लिए खतरा है।

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धन विश्व को चलाने वाली एकमात्र शक्ति है।

जिनके पास धन है , उन्हीं के मित्र तथा संबंधी होते हैं।

धनी होने के कारण उन्हें ही वास्तविक पुरूष या महिला माना जाता है।

धनी होने से ही उन्हें मूर्ख होने पर भी बुद्धिमान , विद्वान तथा योग्य माना जाता है।

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▪एक कमजोर व्यक्ति के साथ दुश्मनी बिच्छू के डंक से ज्यादा खतरनाक साबित हो सकती है।

कभी भी किसी ऐसे व्यक्ति को मत भूलो या उसे नजरअंदाज करो जो कमजोर है , जबकि आप उच्च सवारी कर रहे हैं ना ही घृणा की भावना को साझा करते हैं क्योंकि उनका बदला लेने का तरीका सभी का मतलब है।

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▪क्रोध मृत्यु को आमंत्रण देता है,लालच दुख को आमंत्रित करता है,विद्या दूध देने वाली गाय के समान है जो मनुष्य की हर जगह रक्षा करती है तथा संतोषी व्यक्ति कहीं भी आसानी से जीवन निर्वाह कर सकता है।

▪एक कुत्ते की पूंछ कभी भी उसके लिए गर्व का विषय नहीं होती ना ही यह उसके

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शरीर से मक्खी , मच्छर उड़ाने के काम आती है।

▪कम जानने वाले मनुष्य की बुद्धि भी इसी तरह व्यर्थ होती है अत: उसे अधिक से अधिक सीखना चाहिए।

▪कुत्ते से सतर्क रहना , कौए से चेष्टा करना , गधे से मेहनत करना और शेर से अपनी पूरी ताकत से कार्य करना इत्यादि सीखना चाहिए।

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चाणक्य पाटलिपुत्र के थे और पाटलिपुत्र , मगध साम्राज्य की राजधानी थी और मगध साम्राज्य पर नन्द वंश के राजा धनानंद का राज था जो स्वभाव से क्रूर था तथा प्रजा हित को छोड़कर आनंदमयी जीवन जी रहा था।

इस स्थिति से क्रुद्ध होकर चाणक्य ने उसे सुझाव भी दिया लेकिन उसने इस सुझाव

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के उलट पूरे राजसभा में चाणक्य को अपमानित किया। चाणक्य ने उसी क्षण धनानंद को चुनौती दिया की ‘तुम्हारा यह विशाल साम्राज्य मैं नष्ट करके रहूँगा’ और उसी दिन से वह इस कार्य हेतु गंभीरता से सोचने लगे।

रास्ते में लौटते वक्त उन्होंने एक बच्चे को #राजकिल्लम (एक प्रकार का खेल)

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खेलते हुए देखा।

इस खेल में बहुत ही सूझबूझ की आवश्यकता होती थी।

चाणक्य ने कुछ देर तक उस बच्चे को गौर से देखा और फिर उन्हें तत्क्षण ही उनका उत्तर प्राप्त हो गया।

और यही से चाणक्य उस साधारण बच्चे को तक्षशिला ले गये , जहाँ चाणक्य तक्षशिला विश्वविद्यालय के प्राध्यापक थे।

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यहीं उन्होंने चंद्रगुप्त को विभिन्न कलाओं में पारंगत किया और भविष्य में इसी चंद्रगुप्त ने अपने गुरु चाणक्य के बातों का अनुसरण करते हुए घनानंद को सत्ताविहीन किया और अपने गुरु की इच्छा को भी पूरा किया।

चाणक्य ने नंद वंश के धनानंद को हराने के लिए बहूत ही शातिर रणनीतियाँ

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बनाई।

इससे पहले चाणक्य के पास युद्ध लड़ने के लिए चन्द्रगुप्त मौर्य के अलावा कोई भी सेना नहीं थी।

▪सबसे पहले उन्होंने उन राज्यों को अपने साथ जोड़ना शुरू किया जो सिकंदर ( Alexander ) के खिलाफ थे या उससे हार चुके थे और उन राज्यों को भी जो मगध के दुश्मन थे।

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▪दूसरा इस बार चाणक्य ने Direct मगध की राजधानी पर हमला नहीं किया क्योंकि एेसा वह पहले भी कर चुके थे और बहुत बुरी तरह हारे थे।

इस बार उन्होंने धीरे-धीरे मगध के सीमावर्ती क्षेत्रों को जीतना शुरू किया।

▪तीसरा उन्होंने सेना को ओर बड़ा करने के लिए एक ऋषि का रूप धारण किया

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और गाँव-गाँव जाकर लोगों को प्रवचन सुनाते और जब लोग उनके साथ जुड़ने लगे तो उन्होंने लोगो को चंद्रगुप्त की सेना में शामिल होने को कहा।

▪चौथी योजना में उन्होंने अन्य तठस्थ राज्यों को भी अपने साथ शामिल किया।

▪पंजाब के राजा पोरस,कश्मीर के राजा प्रवर्तक और कुछ छापामार

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और समुंदरी लुटेरों को सबको एक साथ लाकर एक बहुत बड़ी सेना तैयार कर ली थी।

▪[🔴 सबसे महत्वपूर्ण दूरदर्शी कदम :-{ उन्होंने मगध के राज़ जानने के लिए अपने द्वारा निर्मित जासूसों ( Both Girls and Boys ) को मगध राजमहल की Kitchen , Red Light Area , Taxation Office , धोबीघाट,

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Law Deptt. , Hotels आदि जगहों पर Appoint करवाया , 🔵Specially खजाने और वित्त व्यवस्था वाले Deptt. में Plant किया , Infact यह सब Plant and Appoint करने के काम पर उन्होंने अपने लोगों को Last 10-15 Years से लगा रखा था।}]

▪चाणक्य ने मगध के क्रूर , विलासी , भोगी ,

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अत्याचारी,भ्रष्ट सामंतों और अधिकारियों का अंत करने के लिए एक बहुत ही नायाब तरकीब निकाली क्योंकि मगध के 99% सामंत और अधिकारी इसी Category में आ चुके थे:-

उन्होंने विषकन्याओं की सेना तैयार की➡इसमें वह कन्याओं को हर रोज़ थोडा थोडा ज़हर देते थे➡ इतना की वह मरे भी ना और

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उनके खून में और मुँह में ज़हर का असर भी रहे ➡और 1 महीने बाद उन्हें पूरी तरह विषकन्याओं में बदलने के बाद वह उन कन्याओं को मगध के सामंतों के पास भेजते थे ➡और जब वह उन कन्याओं का आलिंगन करते थे तो उनके मुँह में लगे ज़हर के कारण उनकी मृत्यु हो जाती थी।

और इतनी ही अन्य

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चतुराईयों के साथ जब उन्होंने धनानंद पर हमला किया तो धनानंद को समूल नष्ट कर दिया।

➡यवनों के साथ दुबारा युद्ध:-

सिकंदर की मृत्यु के बाद उसके जनरल सेल्यूकस ने उसकी गद्दी ली और उसने भारत पर दुबारा हमला करने की सोची।

यह बात चन्द्रगुप्त के राजा बनने के 20 वर्ष बाद की थी।

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सेल्यूकस को लगा की भारत पहले जैसे ही टुकडो में बँटा होगा लेकिन चन्द्रगुप्त ने चाणक्य की मदद से भारत को बहुत शक्तिशाली बना दिया था।

जब सेल्यूकस ने भारत पर आक्रमण किया तो चन्द्रगुप्त ने एेसा जवाबी हमला किया कि सेल्यूकस को घुटने टेकने पड़े।

उसने चंद्रगुप्त और चाणक्य के

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सामने हथियार डाल दिए।

🔴चाणक्य की चतुराई :-

उन्होंने सेल्यूकस के सामने 2 शर्ते रखी :-

▪पहली शर्त यह थी की सेल्यूकस गांधार के राज्य ( आज का अफगानिस्तान , पाकिस्तान और काबुल के इलाके ) जो सेल्यूकस के कब्ज़े में थे वह चन्द्रगुप्त को वापस देगा।

▪दूसरा चाणक्य ने कहा

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कि सेल्यूकस को अपनी बेटी हैलेना का विवाह चन्द्रगुप्त से करवाना होगा और उससे हुई संतान चन्द्रगुप्त के बाद राजा नहीं बनेगी।

जब चन्द्रगुप्त ने चाणक्य से विवाह का कारण पूछा तो चाणक्य ने कहा की एेसा करने से फिर कभी भी सेल्यूकस भारत पर हमला नहीं करेगा क्योंकि यहाँ अब उसकी

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बेटी एवं दामाद होंगे और एक राजा कभी भी अपने वैवाहिक सम्बंधियों पर हमले नहीं करता था।

सेल्यूकस को अपनी जान बचाने के लिए यह सभी बातें माननी ही पड़ी और फिर कभी भी भारत पर हमला नहीं किया।

चाणक्य की मृत्यु – चाणक्य जिन्हे भारत ही नहीं पूरी दुनिया के सबसे बड़े राजनीति के

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ज्ञानी, कुशल नीति शास्त्र के ज्ञाता, बुद्धिमान व्यक्ति के रूप में जाना जाता है।

उनके जैसा राजनीतिज्ञ ना तो आजतक कोई हुआ है और ना ही कोई होगा।उनकी समझ और दूरदर्शिता की जितनी तारीफ की जाए वो कम ही है।देश के सबसे बड़े मौर्य शासक जिन्होने भारत को समृध्द औऱ सशक्त बनाने में

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बड़ी भूमिका निभाई , उनके पीछे भी चाणक्य का ही हाथ था।

चाणक्य को सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के गुरू और मौर्य साम्राज्य के तौर पर जाना जाता है।

उनकी नीतियों पर चलकर ही चंद्रगुप्त ने नंद वंश का विनाश कर मौर्य साम्राज्य की नींव रखी और देश को एक कुशल नेतृत्व प्रदान किया।

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चाणक्य की नीतियों का अनुसरण कर ही चंद्रगुप्त ने खुद को एक महान राजा के तौर पर स्थापित किया।

चाणक्य ने राजनीति के अलावा समाज में रहने के बहुत से तरीके बताए जिनका पालन आज भी बुध्दिजीवी वर्ग करता है।

महाराज चंद्रगुप्त की मृत्यु के बाद उनके पुत्र बिंदुसार को राजगद्दी पर

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बैठाया गया तो चाणक्य बिन्दुसार के भी उतने ही करीब थे जितने वो चंद्रगुप्त के थे।

बिन्दुसार के शासनकाल में भी चाणक्य को वही मान-सम्मान और स्थान मिला हुआ था जो चंद्रगुप्त के काल में था और जिसके वो हकदार थे।

लेकिन कुछ लोगों को ये बात नहीं भाती थी और शायद यही वजह थी कि

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उन्होने भिन्न-भिन्न तरीकों से चाणक्य और बिन्दुसार को अलग करने की कोशिश की।

उनका मूल ध्येय यही था कि वो किसी भी प्रकार से राजा को चाणक्य के खिलाफ भड़काकर दोनों को अलग कर पाए और काफी वक्त की कोशिशों के बाद वो ऐसा करने में कामयाब भी हुए और बिन्दुसार, चाणक्य को गलत समझ

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बैठे, ये कहना भी गलत नहीं होगा कि ये बिन्दुसार के जीवन की सबसे बड़ी भूल थी।

उसके बाद चाणक्य ने महल छोड़ दिया और कुछ दिनों बाद बढती उम्र के चलते स्वाभाविक मृत्यु को प्राप्त हो गए।

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#बिंदुसार
#Bindusara

यूनानी लेखों के अनुसार #बिन्दुसार को #अमित्रकेटे भी कहा जाता था।

विद्वानों के अनुसार #अमित्रकेटे का #संस्कृत रूप है #अमित्रघात या #अमित्रखाद (शत्रुओं का नाश करने वाला)माना जाता है।

बिन्दुसार मौर्य 297-98 ईसा पूर्व में शासक बना और उसने 272 ई.पू.

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तक राजकाज किया।

बिन्दुसार ने अपने पिता द्वारा जीते गए क्षेत्रों को पूर्ण रूप से अक्षुण्ण रखा था।

बिन्दुसार #तिब्बती #लामा #तारनाथ तथा #जैन #अनुश्रुति के अनुसार चाणक्य बिन्दुसार के भी मंत्री रहे थे।

कहते हैं कि चाणक्य ने 16 राज्य के राजाओं और सामंतों का पतन करके

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बिन्दुसार को पूर्वी समुद्र से पश्चिमी समुद्र पर्यन्त भू-भाग का अधिपति बना दिया था।

तिब्बती इतिहासकार #तारानाथ  के अनुसार बिंदुसार ने न केवल मौर्य साम्राज्य को अक्षुण्ण रखा अपितु अपने अल्पकालिक जीवन में सम्पूर्ण भारत की एकता कायम रखी।
सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य अंत समय

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में अन्न जल त्यागकर आत्मार्पण की प्रक्रिया अपना रहे थे,उन्होंने जैन भिक्षुओं का सानिध्य भी प्राप्त किया था और इस तरह वो अपने शासनकाल के कुछ वर्षों बाद शांति की खोज में निकल पड़े।

जिसके बाद सत्ता का नेतृत्व तब 22 वर्ष के रहे बिंदुसार को दे दिया गया जिन्होंने विशाल मगध

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साम्राज्य की रक्षा की।

तब भी चाणक्य ही बिंदुसार के प्रधानमंत्री थे।

वह बिंदुसार का ही शासनकाल था जब अरब सागर से लेकर बंगाल की खाड़ी तक मगध साम्राज्य का फैलाव हो चुका था।

Egypt से लेकर ग्रीस तक इस साम्राज्य के प्रगाढ़ संबंध रहे।

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इतिहास में बिन्दुसार को “महान पिता का पुत्र और महान पुत्र का पिता” की उपाधि दी गयी हैं.

क्योंकि वह महान पिता के पुत्र थे और महान पुत्र के पिता.

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🔴#चक्रवर्ती_सम्राट_अशोक 1⃣

#सम्राट_अशोक का जन्म 304 ईसा पूर्व 13 अप्रैल को #पाटलिपुत्र में हुआ था #सम्राट_अशोक #मौर्य_वंश के एक बहुत ही शक्तिशाली एवं सुप्रसिद्ध राजा थे.

सम्राट अशोक का पूरा नाम #देवानांप्रिय अशोक मौर्य था.

मौर्य राजवंश के चक्रवर्ती सम्राट अशोक ने

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अखंड भारत पर राज्य किया है तथा उनका मौर्य साम्राज्य ➡ उत्तर में हिन्दुकुश , अफ़ग़ानिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, भूटान, म्यानमार के अधिकांश भूभाग पर था।

यह विशाल साम्राज्य उस समय तक से आज तक का सबसे बड़ा भारतीय साम्राज्य रहा है।

उन्होंने आधुनिक #असम से ईरान की सीमा तक

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साम्राज्य केवल आठ वर्षों में विस्तृत कर लिया।

आज से मात्र 1260 वर्ष पहले तक अखंड भारत की सीमा में अफगानिस्तान, पाकिस्तान, नेपाल, तिब्बत, भूटान, बांग्लादेश तक सम्मिलित थे।

सम्राट अशोक-कलिंग युद्ध (261 ईसा पूर्व) :-

चंद्रगुप्त मौर्य के काल में फिर से भारतवर्ष एक

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सूत्र में बंधा और इस काल में भारत ने हर क्षेत्र में प्रगति की।

🔴सम्राट अशोक ही भारत के सबसे शक्तिशाली एवं महान सम्राट है।

सम्राट अशोक को 'चक्रवर्ती सम्राट अशोक' कहा जाता है, जिसका अर्थ है - 'सम्राटों का सम्राट' , और यह स्थान भारत में केवल सम्राट अशोक को मिला है।

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चक्रवर्ती सम्राट अशोक का साम्राज्य विस्तार :-

अशोक का ज्येष्ठ भाई सुशीम उस समय तक्षशिला का प्रान्तपाल था।

तक्षशिला में भारतीय-यूनानी मूल के बहुत लोग रहते थे।

इससे वह क्षेत्र विद्रोह के लिए उपयुक्त था।#सुशीम के अकुशल प्रशासन के कारण भी उस क्षेत्र में विद्रोह पनप उठा।

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राजा बिन्दुसार ने सुशीम के कहने पर राजकुमार अशोक को विद्रोह के दमन के लिए वहाँ भेजा।

अशोक के आने की खबर सुनकर ही विद्रोहियों ने उपद्रव खत्म कर दिया और विद्रोह बिना किसी युद्ध के खत्म हो गया।

हालाकि यहाँ पर विद्रोह एक बार फिर अशोक के शासनकाल में हुआ था पर इस बार उसे

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बलपूर्वक कुचल दिया गया।

अशोक की इस प्रसिद्धि से उसके भाई सुशीम को सिंहासन न मिलने का खतरा बढ़ गया।

उसने सम्राट बिंदुसार को कहकर अशोक को निर्वासन में भेज दिया।

युवा अशोक कलिंग चला गया।

वहाँ उसे मत्स्यकुमारी कौर्वुकी से प्यार हो गया , हाल में मिले साक्ष्यों के

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अनुसार बाद में अशोक ने उसे तीसरी रानी बनाया था।

इसी बीच उज्जैन में विद्रोह हो गया।

अशोक को सम्राट बिन्दुसार ने निर्वासन से बुला विद्रोह को दबाने के लिए भेज दिया।

हाँलाकि उसके सेनापतियों ने विद्रोह को दबा दिया पर उसकी पहचान गुप्त ही रखी गई क्योंकि मौर्यों द्वारा

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फैलाए गए गुप्तचर जाल से उसके बारे में पता चलने के बाद उसके भाई सुशीम द्वारा उसे मरवाए जाने का भय था।

वह बौद्ध सन्यासियों के साथ रहा था।

इसी दौरान उसे बौद्ध विधि-विधानों तथा शिक्षाओं का पता चला था।

यहाँ पर एक सुन्दरी जिसका नाम #देवी था , उससे अशोक को प्रेम हो गया।

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विद्रोह से Free होने के बाद अशोक ने उससे विवाह कर लिया।

कुछ वर्षों के बाद सुशीम से तंग आ चुके लोगों ने अशोक को राजसिंहासन हथिया लेने के लिए प्रोत्साहित किया क्योंकि सम्राट बिन्दुसार वृद्ध तथा रुग्ण हो चले थे।

जब वह आश्रम में थे तब उनको खबर मिली की उनकी माँ और भाईयों

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को सुशीम ने मार डाला है।

परन्तु राज्य की नाजुक स्थिति और गृहयुद्ध की आशंका को  देखते हुए स्वयं पर संयम रखकर भेष बदलकर और Identity छुपाकर गुप्त और #छापामार पद्धति से कुछ दिनों बाद #सुशीम का अंत किया।

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कुछ ही दिनों बाद सम्राट बिन्दुसार की मृत्यु के बाद उनका अधर्मी पुत्र सुशीम राजा बनना चाहा परन्तु मंत्री #राधागुप्त की सहायकता से अशोक शासक बने।

सम्राट अशोक का राज्याभिषेक 270 ईसा पूर्व किया गया था और इन्होंने 269 ईसा पूर्व से 232 ईसा पूर्व तक अखंड भारत पर शासन किया.

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सम्राट अशोक के समय मौर्य वंश का साम्राज्य उत्तर में हिंदूकुश के श्रेणी से लेकर दक्षिण में गोदावरी नदी तक तथा पूर्व में बांग्लादेश से लेकर पश्चिम में अफगानिस्तान , ईरान तक फैला हुआ था.

सम्राट अशोक , बिंदुसार तथा #सुभद्रांगी #धर्मा के पुत्र थे।

इसका वर्णन #दिव्यदान

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ग्रंथ में मिलता है.

अशोक की पत्नी का नाम #देवी था जो कि #विदिशा के #श्रेस्ठी की पुत्री थी.

इसकी जानकारी सिंगली परंपरा में मिलती है जहां यह बताया गया है कि देवी सम्राट अशोक की सबसे पहली पत्नी थी.

अशोक और #देवी के 1 पुत्र और 1 पुत्री थे ➡ #महेंद्र और #संघमित्रा.

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लेकिन इसके अलावा अशोक के चार और पुत्र थे चारुमित्रा, कुणाल, जालॉक और टीवर.

लेकिन अधिकांश जगह पर सम्राट अशोक की मात्र तीन ही संतानों का उल्लेख मिलता है :- कुणाल , महेंद्र और संघमित्रा के बारे में.

दिव्यदान ग्रंथ में सम्राट अशोक की एक और पत्नी के बारे में बताया गया है

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जिनका नाम तिष्रश्रिता बताया गया है.

साथ ही कई जगह पर इनके चार पत्नियों के बारे में जिक्र मिलता है जिनका नाम

▪देवी

▪कारुवाकी / कौर्वुकी (कलिंग राजकुमारी)

▪पद्मावती और

▪तिष्यरक्षिता बताया गया है.

सम्राट अशोक की प्रमुख उपाधियाँ :-

इसके उपाधि के बारे में कई

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ग्रंथों और पुराणों में इसका जिक्र मिलता है इसके अभिलेखों से भी उपाधियों के बारे में जानकारी मिलती है.

पहले हम इसके अभिलेखों में दिए गए उपाधि के बारे में जानेंगे.

🔸#देवानाप्रिय -- सम्राट अशोक के अभिलेखों में सबसे ज्यादा इसी नाम के बारे में जिक्र हुआ है.

🔸#भाप्रु

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जो कि राजस्थान में स्थित है इस अभिलेख के अनुसार सम्राट अशोक के दो नाम दिए गए हैं

🔸#प्रियदर्शी और

🔸#प्रियदासी

🔸#मास्की_गुर्जरा अभिलेख में अशोक को #बुद्ध_शाक्य की उपाधि का वर्णन मिलता है।

🔴अशोक के महान सम्राट बनने की कहानी :-

अशोक शब्द का अर्थ होता है शोकरहित

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जो हर तरह के शौक से मुक्त हो जिसके पास शोक की जगह ना हो,साथ ही अशोक को देवनाप्रिये भी कहा जाता था जिसका अर्थ होता है भगवान का प्रिय।

इसके अलावा उन्हें प्रियदर्शी के तौर पर भी जाना जाता है.

इसका मतलब होता है हर एक को बराबर से पसंद करने वाला.

अशोक को भारत के इतिहास के

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साथ-साथ दुनिया भर में 2 वजहों से जाना जाता है.

पहला वजह कलिंग का युद्ध और दूसरा भारत और दुनिया में बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार के लिए.

#कलिंग ( #ORRISA )की लड़ाई :-

सत्ता संभालते ही अशोक ने पूर्व तथा पश्चिम , दोनों दिशा में अपना साम्राज्य फैलाना शुरु किया।

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उसने आधुनिक असम से ईरान की सीमा तक साम्राज्य केवल आठ वर्षों में विस्तृत कर लिया।

चक्रवर्ती सम्राट अशोक ने अपने राज्याभिषेक के 8 वें वर्ष ( 261 ई. पू.) में कलिंग पर आक्रमण किया था।

आन्तरिक अशान्ति से निपटने के बाद 269 ई. पू. में उनका विधिवत्‌ राज्याभिषेक हुआ।

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तेरहवें शिलालेख के अनुसार कलिंग युद्ध में 1,50,000 व्यक्‍ति बन्दी बनाकर निर्वासित कर दिए गये , 1 लाख लोगों की हत्या कर दी गयी।

सम्राट अशोक ने भारी नरसंहार को अपनी आँखों से देखा।

इससे द्रवित होकर सम्राट अशोक ने शान्ति , सामाजिक प्रगति तथा धार्मिक प्रचार किया।

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कलिंग युद्ध ने सम्राट अशोक के हृदय में महान परिवर्तन कर दिया।उनका हृदय मानवता के प्रति दया और करुणा से उद्वेलित हो गया।उन्होंने युद्ध क्रियाओं को सदा के लिए बन्द कर देने की प्रतिज्ञा की।यहाँ से आध्यात्मिक और #धम्मविजय का युग शुरू हुआ

उन्होंने बौद्ध धर्म को न केवल भारत

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में बल्कि विदेशों में भी फैलाया इसके लिए उन्होंने बुद्ध के जीवन से जुड़ी जगहों पर कई #स्तूपों का निर्माण भी करवाया.

इसकी बदौलत उन्हें #धर्म_अशोक की उपाधि भी मिली जिसका मतलब होता है पावन या #पवित्र_अशोक.

पुत्र महेंद्र और बेटी संघमित्रा को #सिलोन भेजा ताकि वहां बौद्ध

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धर्म का प्रचार प्रसार हो सके.अशोक ने बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए हजारों स्तूप और बिहार बनवाए।

सारनाथ में #अशोक_स्तम्भ बनवाया जो बहुत ही लोकप्रिय स्तूप है.आज भी #सारनाथ का अशोक स्तम्भ एक प्राचीनतम और सुंदर इतिहास का गवाह बनता है,यह भारत का #राष्ट्रीय_चिन्ह भी है.

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#सम्राट_अशोक 2⃣

कलिंग युद्ध ने सम्राट अशोक के हृदय में महान परिवर्तन कर दिया।

उनका हृदय मानवता के प्रति दया और करुणा से उद्वेलित हो गया।

उन्होंने युद्धक्रियाओं को सदा के लिए बन्द कर देने की प्रतिज्ञा की।

यहाँ से आध्यात्मिक और #धम्म_विजय का युग शुरू हुआ।

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उन्होंने महान बौद्ध धर्म की नीतियों और शिक्षाओं को अंगीकार और स्वीकार किया।

#सिंहली #अनुश्रुतियों #दीपवंश एवं #महावंश के अनुसार सम्राट अशोक को अपने शासन के चौदहवें वर्ष में #निगोथ नामक भिक्षु द्वारा बौद्ध धर्म की दीक्षा दी गई थी।

तत्पश्‍चात्‌ #मोगाली पुत्र #निस्स के

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प्रभाव से वे पूर्णतः बौद्ध हो गये थे।

#दिव्यादान के अनुसार सम्राट अशोक को बौद्ध धर्म में दीक्षित करने का श्रेय #उपगुप्त नामक बौद्ध भिक्षु को जाता है।

सम्राट अशोक ने अपने शासनकाल के दसवें वर्ष में सर्वप्रथम #बोधगया की यात्रा की थी। तदुपरान्त अपने राज्याभिषेक के 20वें

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वर्ष में लुम्बिनी की यात्रा की थी तथा #लुम्बिनी ग्राम को करमुक्‍त घोषित कर दिया था।

अशोक के धर्म प्रचारकों में सबसे अधिक सफलता उसके पुत्र महेन्द्र को मिली।

#महेन्द्र ने श्रीलंका के राजा #तिस्स को बौद्ध धर्म में दीक्षित किया और तिस्स ने बौद्ध धर्म को अपना राजधर्म बना

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लिया और अशोक से प्रेरित होकर उसने स्वयं को ‘#देवनामप्रिय’ की उपाधि दी।

#दिव्यादान के अनुसार , #उपगुप्त ने अशोक को #बौद्ध_धर्म में दीक्षित किया।

अशोक #महात्मा_बुद्ध के #चरण_चिन्हों से पवित्र हुए स्थानों पर गए तथा उनकी पूजा की।

अशोक की इस यात्रा का क्रम था – #गया ,

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कुशीनगर , लुम्बिनी , कपिलवस्तु , सारनाथ तथ श्रावस्ती।

अशोक का विजय अभियान :-

▪केवल चोल, पाण्ड्य, सत्तिय पुत्त, केरलपुत्त, ताम्रपर्णी (श्रीलंका) को छोड़कर अशोक का साम्राज्य सम्पूर्ण भारत वर्ष में था।

▪अशोक का समकालीन सिंहल नरेश तिस्स था।

▪अशोक के 5 यवन राजाओं के

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साथ मैत्रीपूर्ण संबंध थे -

--एण्टियोकस (सीरया)

--तुरमय (मिश्र)

--एनीकिया (मेसीडोनिया)

--मकमास/मेगारस (#साइरीन)

--अलिक सुन्दर/अलेक्जेण्डर एपाइरस (#एर्पारीज)

▪राज्याभिषेक के 8वें वर्ष अशोक ने कलिंग पर विजय प्राप्त की , कलिंग आक्रमण के समय वहां का राजा नन्दराज था।

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▪अशोक ने कश्मीर में श्रीनगर तथ नेपाल में देवपत्तन नामक नगर बसाए थे।

▪अशोक के राज्य में कश्मीर, नेपाल, अफगानिस्तान, बंगाल, कर्नाटक एवं आंध्रप्रदेश भी शामिल था।

▪राष्ट्र की समस्याओं को हल करने की परिणामी मानसिक पीड़ा अशोक की मृत्यु का कारण बने।

अशोक ने करीब 32 साल

(204/600)
तक शासन किया और उनका निधन 232 B.C. में हुआ।उन्हें भारत में आज भी बौद्ध धर्म की सेवा के लिए जाना जाता है.

➡अशोक के उत्तराधिकारी:-

▪कुणाल

▪अन्य नाम–धर्मविवर्धन,सुयशस,इन्द्रपालित वायुपुराण के अनुसार कुणाल का पुत्र बंधुपालित राजा बना था।

▪मत्स्य पुराण के अनुसार

(205/600)
दशरथ राजा बना था।
▪संप्रति/संपदि,अशोक के उत्तराधिकारियों में यह सबसे अधिक योग्य शासक था।
▪शालिशक/शालिशूक:-इसके समय यवनों ने #एण्टियोकस के नेतृत्व में हमला किया।
▪देववर्मा/बृहद्रथ:- मौर्य वंश का अंतिम शासक था।
#indianhistory
#History
#Ashoka_the_Great
#Historyofindia
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#शुंग_वंश

#पुष्यमित्र_शुंग

➡शुंग राजवंश का इतिहास ( History of Sunga Dynasty ) :--

पुष्यमित्र शुंग ,‌ शुंग वंश का संस्थापक था।

पुष्यमित्र शुंग अंतिम मौर्य सम्राट #बृहद्रथ का प्रधान सेनापति था।

187 ई. पू. इसने अपने शासक बृहद्रथ की अपने सेना के सम्मुख ही हत्या

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कर सिंहासन पर अधिकार कर लिया।

सिहासन प्राप्त करने के बाद पुष्यमित्र को किसी प्रकार से विरोध का सामना नहीं करना पड़ा क्योंकि जनता मौर्य शासन के कुशासन और अत्याचारों से ऊब चुकी थी।

इसके संबंध में आर. सी. मजूमदार लिखते हैं कि :- “ ज्ञात होता है कि राजवंश के परिवर्तन

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को जनता ने स्वीकार किया , क्योंकि उत्तर कालिक मौर्य अत्याचारी हुए तथा यवन आक्रमण के वेग को रोकने में और मगध की सैनिक शक्ति की मर्यादा की रक्षा करने में असमर्थ हुए। ”

➡राजा का पद संभालते ही पुष्यमित्र ने सबसे पहले राज्य प्रबंध में सुधार किया.

पुष्यमित्र शुंग अपंग हो

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चुके साम्राज्य को दोबारा से खड़ा करना चाहते थे.

इसके लिए उन्होंने एक सुगठित सेना का निर्माण शुरू कर दिया.

उन्होंने धीरे-धीरे उन सभी राज्यों को दोबारा से अपने साम्राज्य का हिस्सा बनाया जो बृहद्रथ की कमजोरी के चलते इस साम्राज्य से अलग हो गए थे.

ऐसे सभी राज्यों को फिर

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से मगध के अधीन किया गया और मगध साम्राज्य का पुन: विस्तार किया.

इसके बाद साम्राज्य विस्तारवादी नियती ग्रीक सेना को सिंधु पार तक धकेल दिया.

जिसके बाद वह दोबारा कभी भारत पर आक्रमण करने नहीं आए.

इस तरह राजा पुष्यमित्र ने भारत से ग्रीक सेना का पूरी तरह से सफाया कर दिया.

(211/600)
🔴वैदिक धर्म का विस्तार :-

शत्रुओं से विजय के पश्चात् पुष्यमित्र शुंग ने भारत में शुंग वंश की शुरुआत की और वैदिक सभ्यता का विस्तार प्रारम्भ किया।

जिन लोगों ने पुष्यमित्र के शासन के पहले भय से अन्य कोई धर्म स्वीकार किया था वह वापस वैदिक धर्म की तरफ लौट आए.

भारत में

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वैदिक धर्म के प्रचार और साम्राज्य की सीमा विस्तार के लिए पुष्यमित्र शुंग ने अश्वमेधयज्ञ भी संपन्न किया था जिसको करवाने में #महर्षि_पतंजलि की भूमिका थी यह सबसे पहले योग गुरु थे।

इस तरह भारत के अधिकतर हिस्सों पर से वैदिक धर्म की स्थापना हुई.

संस्कृत को फिर “गौरवपूर्ण“

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स्थान प्राप्त हो गया और महर्षि #पतंजलि के #महाभाष्य तथा #मनुस्मृति इसी काल में लिखे गए।

इस प्रकार पुष्यमित्र ने वैदिक संस्कृति का पुनरुद्धार किया।

पुष्यमित्र के शासनकाल के अधिकांश पारंपरिक वृत्तांत वाद के रहे जिन्हें उन्होंने Successfully Solve किए।

उनका शासन

(214/600)
पाटलिपुत्र , अयोध्या (अवध) , विदिशा के शहरों , जालंधर और शाकाल तक भी फैला हुआ था।

शाही रक्त के राजकुमारों के माध्यम से प्रांतों को प्रशासित करने की मौर्य प्रणाली जारी रही और साम्राज्य के भीतर परमाणु साम्राज्यों की स्थापना के रूप में शाही शक्ति विकेंद्रीकरण करने लगी।

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पुष्यमित्र ने यवनों , इंडो-यूनानियों के खिलाफ कई अभियान चलाए जो इस अवधि में बैक्ट्रिया से उत्तर-पश्चिमी भारत में विस्तार करने की कोशिश कर रहे थे।

➡पुष्यमित्र द्वारा लड़े गए युद्ध (Wars Fought by Pushyamitra) :-

1. विदर्भ युद्ध

#मालविकाग्निमित्र से ज्ञात होता है कि

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पुष्यमित्र के समय में विदर्भ(आधुनिक बरार) का प्रान्त यज्ञसेन के नेतृत्व में स्वतन्त्र हो गया। यज्ञसेन बृहद्रथ के सचिव का साला था।उसे शुंगों का ‘स्वाभाविक शत्रु’(#प्रकृत्यमित्र)बताया गया है।पुष्यमित्र ने बृहद्रथ की हत्या के पश्चात् उसके सचिव को कारागार में डाल दिया था।

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इस नाटक के अनुसार पुष्यमित्र का पुत्र #अग्निमित्र विदिशा का राज्यपाल (उपराजा) था।

उसका मित्र माधवसेन था जो विदर्भ नरेश यज्ञसेन का चचेरा भाई होता था परन्तु दोनों के सम्बन्ध अच्छे नहीं थे।

ऐसा लगता है कि वह विदर्भ की गद्दी के लिये यज्ञसेन का प्रतिद्वन्दी दावेदार था।

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एक बार विदिशा जाते समय उसे यज्ञसेन के अन्तपाल (सीमा प्रान्त के राज्यपाल) ने बन्दी बना लिया।

अग्निमित्र ने यज्ञसेन से अपने मित्र माधवसेन को तत्काल मुक्त करने को कहा।

यज्ञसेन ने यह शर्त रखी कि यदि उसका सम्बन्धी मौर्य नरेश का सचिव जो #पाटलिपुत्र के जेल में बन्द था ,

(219/600)
छोड़ दिया जाय तो वह माधवसेन को मुक्त करा देगा।इस पर अग्निमित्र ने अपने सेनापति वीरसेन को तुरन्त विदर्भ पर आक्रमण करने का आदेश दिया।यज्ञसेन पराजित हुआ और विदर्भ राज्य दो भागों में बाँट दिया गया,वर्धा नदी दोनों राज्यों की सीमा।इस राज्य का एक भाग माधवसेन को प्राप्त हुआ।

(220/600)
दोनों ने पुष्यमित्र को अपना सम्राट मान लिया तथा पुष्यमित्र का प्रभाव-क्षेत्र नर्मदा नदी के दक्षिण तक विस्तृत हो गया।

इस प्रकार नाटक के अनुसार अग्निमित्र ने अल्प समय में विदर्भ की स्वाधीनता को नष्ट कर दिया जबकि उसे अपनी स्थिति सुदृढ़ करने का पूरा समय नहीं मिल पाया था।

(221/600)
वस्तुतः ‘वह नये रोपे गये पौधे की भाँति था जिसकी जड़ें अभी जमने नहीं पाई थीं और जिसे शीध्र उखाड़ा जा सकता था।’

इससे यह भी सूचित होता है कि विदर्भ युद्ध पुष्यमित्र द्वारा मौर्य साम्राज्य पर अधिकार करने के तत्काल वाद ही प्रारम्भ हुआ था और बृहद्रथ का सचिव इस समय तक

(222/600)
तक पुष्यमित्र का प्रबल राजनैतिक प्रतिद्वन्द्वी बना हुआ था।

ऐसा लगता है कि बृहद्रथ के समय में मगध साम्राज्य में दो प्रमुख गुट थे।पहले का नेतृत्व बृहद्रथ का सचिव तथा दूसरे का नेतृत्व सेनापति पुष्यमित्र कर रहा था।सचिव का सम्बन्धी यज्ञसेन विदर्भ का तथा पुष्यमित्र का पुत्र

(223/600)
अग्निमित्र विदिशा का राज्यपाल बनाया गया था।

जब पुष्यमित्र ने पाटलिपुत्र पर अधिकार किया तथा सचिव को बन्दीगृह में डाल दिया तब यज्ञसेन ने अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी क्योंकि सचिव का साला होने के कारण वह शुंगो का स्वाभाविक शत्रु वन गया।

इस प्रकार विदर्भ युद्ध भी

(224/600)
ई. पू. 184 के लगभग ही लड़ा गया था।

2. #यवनों का आक्रमण

पुष्यमित्र के शासन-काल की सर्वप्रमुख घटना यवनों के भारतीय आक्रमण की है।विभिन्न साक्ष्यों से पता चलता है कि यवन आक्रमणकारी बिना किसी अवरोध के #पाटलिपुत्र के निकट आ पहुँचे।इस आक्रमण की चर्चा #पतंजलि के #महाभाष्य,

(225/600)
#गार्गीसंहिता तथा #कालिदास के #मालविकाग्निमित्र नाटक में है।

#पतंजलि पुष्यमित्र के पुरोहित थे।अपने महाभाष्य में उन्होंने #अनद्यतनलंग का प्रयोग समझाते हुए लिखा है-‘यवनों ने साकेत पर आक्रमण किया,यवनों ने #माध्यमिका (चित्तौड़) पर आक्रमण किया।’

गार्गीसंहिता में स्पष्टतः

(226/600)
इस आक्रमण का उल्लेख हुआ है जहाँ बताया गया है कि-‘दुष्ट विक्रान्त यवनों ने साकेत,पञ्चाल तथा मथुरा को जीता और पाटलिपुत्र तक पहुंच गये।प्रशासन में घोर अव्यवस्था उत्पन्न हो गयी तथा प्रजा व्याकुल हो गयी परन्तु उनमें आपस में ही संघर्ष छिड़ गया और वे मध्यदेश में नहीं रुक सके।’
(227/600)
यह निश्चित नहीं कि इस यवन आक्रमण का नेता कौन था?

कुछ विद्वान उसका नेता डेमेट्रियस को तथा कुछ मेनाण्डर को मानते हैं।

नगेन्द्र नाथ घोष के विचार में भारत पर दो यवन आक्रमण हुये थे, प्रथम पुष्यमित्र के शासन के प्रारम्भिक दिनों में हुआ जिसका नेता डेमेट्रियस था तथा द्वितीय

(228/600)
उसके शासन के अन्तिम दिनों में अथवा उसकी मृत्यु के तत्काल बाद हुआ था तथा इसका नेता मेनाण्डर था।

इसके विपरीत टार्न ने एक ही यवन आक्रमण का समर्थन किया है।उनके अनुसार इस आक्रमण का नेता डेमेट्रियस ही था परन्तु अपने साथ अपने भाई एपोलोडोटस तथा सेनापति मेनाण्डर को भी लाया था।
(229/600)
उसने अपनी सेना को दो भागों में विभाजित कर दिया।प्रथम भाग का नेतृत्व उसने स्वयं किया।यह भाग सिन्धु को पार कर चित्तौड़ होता हुआ पाटलिपुत्र पहुँच गया।

दूसरा सैन्य दल मेनाण्डर के नेतृत्व में मथुरा, पञ्चाल एवं साकेत के रास्ते पाटलिपुत्र पहुँचा।

कैलाश चन्द्र ओझा के अनुसार

(230/600)
मगध पर डेमेट्रियस अथवा मेनाण्डर के समय में कोई यवन आक्रमण नहीं हुआ।मध्य गंगा घाटी में यवन इन दोनों में बहुत बाद शकों तथा पह्लवों के दबाव से प्रथम शताब्दी B.C. में आये थे।यदि इस मत को स्वीकार किया जाये तो यह मानना पड़ेगा कि पुष्यमित्र के समय भारत पर कोई आक्रमण नहीं हुआ।

(231/600)
एक अन्य मत के अनुसार प्रथम यवन आक्रमण मौर्य नरेश बृहद्रथ के काल में ही हुआ था तथा सेनापति के रूप में ही पुष्यमित्र ने यवनों को परास्त किया था।

इससे उसकी लोकप्रियता बढ़ गयी होगी और इसी का लाभ उठाते हुए उसने बृहद्रथ की हत्या कर दी।

राजा बनने के बाद पुष्यमित्र को दूसरे

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यवन-आक्रमण का सामना करना पड़ा।ए. के. नरायन का विचार है कि मध्य भारत पर यवनों का एक ही आक्रमण हुआ।यह पुष्यमित्र के शासनकाल के अन्त में हुआ तथा इसका नेता मेनाण्डर था।उनके अनुसार डेमेट्रियस कभी भी काबुल घाटी के आगे नहीं बढ़ सका था।यह सम्पूर्ण प्रश्न इतना अधिक उलझा हुआ है

(233/600)
कि इस विषय में निश्चित रूप से कुछ भी कह सकना दुष्कर है।

वास्तविकता जो भी हो इतना तो निर्विवाद है कि आक्रमणकारी बख्त्री-यवन थे और पुष्यमित्र के हाथों उन्हें परास्त होना पड़ा।

इस प्रकार उनका भारतीय अभियान असफल रहा।

#मालविकाग्निमित्र से ज्ञात होता है कि पुष्यमित्र

(234/600)
के यज्ञ का घोड़ा उसके पौत्र वसुमित्र के नेतृत्व में सिन्धु नदी के दक्षिणी किनारे पर यवनों द्वारा पकड़ लिया गया।

इस पर दोनों सेनाओं में घनघोर युद्ध हुआ , वसुमित्र ने यवनों को पराजित किया तथा घोड़े को पाटलिपुत्र ले आया।

यवनों को परास्त करना निश्चित रूप से पुष्यमित्र

(235/600)
शुंग की एक महान सफलता थी।

➡पुष्यमित्र का साम्राज्य तथा शासन :-

पुष्यमित्र प्राचीन मौर्य साम्राज्य के मध्यवर्ती भाग को सुरक्षित रख सकने में सफल रहा। उसके साम्राज्य में अयोध्या तथा विदिशा निश्चित रूप से सम्मिलित थे।

अयोध्या के लेख में पुष्यमित्र का उल्लेख मिलता है।

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विदिशा में उसका पुत्र #अग्निमित्र शासन करता था।#मालविकाग्निमित्र के अनुसार विदर्भ का राज्य उसके अधीन था।#दिव्यावदान तथा #तारानाथ के विवरण के अनुसार जालन्धर तथा शाकल (स्यालकोट) पर भी उसका अधिकार था।

इस प्रकार उसका साम्राज्य हिमालय से लेकर दक्षिण में बरार तक तथा पंजाब

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से लेकर पूर्व में मगध तक विस्तृत था।

#पाटलिपुत्र अब भी इस साम्राज्य की राजधानी थी।

उसने मौर्य प्रशासन के स्वरूप को ही बनाये रखा।

#मनुस्मृति के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सम्राट अपनी दैवी उत्पत्ति में विश्वास करता था।

के. पी. जायसवाल का विचार है कि मनु ने राजा

(238/600)
की दैवी उत्पत्ति का सिद्धान्त पुष्यमित्र के ब्राह्मण साम्राज्य का समर्थन करने के उद्देश्य में ही प्रतिपादित किया था।

#मनु के अनुसार -- ‘बालक राजा का भी अपमान नहीं करना चाहिये क्योंकि वह मनुष्य रूप में स्थित महान् देवता होता है।’

किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि शासक

(239/600)
निरंकुश होता था।व्यवहार में वह धर्म एवं व्यवहार के अनुसार ही शासन करता था।

मनु ने प्रजापालन एवं प्रजारक्षण को राजा का सर्वश्रेष्ठ धर्म घोषित किया।साम्राज्य के विभिन्न भागों में राजकुमार अथवा राजकुल के सम्बन्धित व्यक्तियों को राज्यपाल नियुक्त करने की परम्परा चलती रही।

(240/600)
वायुपुराण में कहा गया है कि पुष्यमित्र ने अपने पुत्रों को साम्राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में सहशासक नियुक्त कर रखा था।मालविकाग्निमित्र से पता चलता है कि पुत्र अग्निमित्र विदिशा का उपराजा था।अयोध्या-लेख के अनुसार धनदेव कोशल का राज्यपाल था।वसुमित्र के उदाहरण से स्पष्ट है

(241/600)
कि राजकुमार सेना का संचालन भी करते थे। मालविकाग्निमित्र में ‘अमात्य-परिषद’ तथा महाभाष्य में ‘सभा’ का उल्लेख हुआ है,यह मौर्यकालीनमंत्रिपरिषद थी।इससे स्पष्ट है कि शासन में सहायता प्रदान करने के निमित्त एक मन्त्रिपरिषद भी होती थी।कौटिल्य के समान मनु ने भी मन्त्रिपरिषद की

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आवश्यकता पर बल देते हुए लिखा है कि -- ‘सरल कार्य भी एक मनुष्य के लिये कठिन होता है।

विशेषकर महान् फल देने वाला राज्य अकेले राजा के द्वारा कैसे चलाया जा सकता है।’

मनु के अनुसार राजा को सात या आठ मन्त्रियों की नियुक्ति करना चाहिये।

मनुस्मृति से शुंगकाल के सुविकसित

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न्याय तथा स्थानीय प्रशासन की भी जानकारी हो जाती है।इस समय भी ग्राम शासन की सबसे छोटी इकाई होते थे।

ऐसा प्रतीत होता है कि इस समय तक आतेआते मौर्यकालीन केन्दीय नियन्त्रण में शिथिलता आ गयी थी तथा सामन्तीकरण की प्रवृत्ति सक्रिय होने लगी थीं।

शुंग काल में यद्यपि पाटलीपुत्र

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राजधानी थी तथापि ऐसा प्रतीत होता है कि विदिशा का राजनैतिक तथा सांस्कृतिक महत्व बढ़ता जा रहा था।

कालान्तर में इस नगर ने पाटलिपुत्र का स्थान ग्रहण कर लिया ।

अश्वमेध यज्ञ :-

अपनी उपलब्धियों में फलस्वरूप पुष्यमित्र उत्तर भारत का एकच्छत्र सम्राट बन गया। अपनी प्रभुसत्ता

(245/600)
घोषित करने के लिये उसने अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया।

पतंजलि ने महाभाष्य में वर्तमान लट्‌लकार के उदाहरण में बताया है -- ‘इह पुष्यमिंत्र याजयाम:’

अर्थात् यहाँ हम पुष्यमित्र के लिये यज्ञ करते हैं।

अयोध्या अभिलेख में पुष्यमित्र को ‘दो अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान करने

(246/600)
करने वाला ( #द्विरश्वमेधयाजिन ) कहा गया है। दूसरा यज्ञ उसके शासन के अन्त में किया गया।इसी का उल्लेख मालविकाग्निमित्र में हुआ है। #हरिवंश पुराण में कहा गया है कि - ‘कलियुग में एक #औद्‌भिज्ज (#नवोदित) काश्यप गोत्रीय द्विज सेनानी अश्वमेध यज्ञ का पुनरुद्धार करेगा।’

पुराणों
(247/600)
के अनुसार पुष्यमित्र ने 36 वर्षों तक राज्य किया। अत: उसका शासन काल सामान्यतः 184 ईसा पूर्व से 148 ईसा पूर्व तक माना जा सकता है ।

पुष्यमित्र के उत्तराधिकारी (Successor of Pushyamitra) :-

पुष्यमित्र की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र अग्निमित्र , शुंग वंश का राजा हुआ।

(248/600)
अपने पिता के शासन काल में वह विदिशा का उपराजा था , उसने कुल आठ वर्षों तक राज्य किया ।

उसके पश्चात् सुज्येष्ठ अथवा वसुज्येष्ठ

इस वंश का चौथा राजा वसुमित्र था ,इसी के नेतृत्व में शुंग सेना ने यवनों को पराजित किया था।

वह पुष्यमित्र के समय में साम्राज्य की उत्तरी-

(249/600)
पश्चिमी सीमा-प्रान्त का राज्यपाल था।राजा होने के बाद वह अत्यन्त विलासप्रिय हो गया।एक बार नृत्य का आनन्द लेते समय मूजदेव अथवा मित्रदेव नामक व्यक्ति ने उसकी हत्या कर दी,उसने दस वर्षों तक राज्य किया।इसके बाद अन्ध्रक, पुलिन्दक,घोष तथा फिर वज्रमित्र बारी-बारी से राजा हुए।

(250/600)
नवाँ शासक भागवत अथवा भागभद्र

दसवाँ एवं अन्तिम नरेश देवभूति (देवभूमि) था उसने 10 वर्षों तक राज्य किया,वह अत्यन्त विलासी शासक था।उसके अमात्य #वसुदेव_कान्वा ने उसकी हत्या की और #कण्व_वंश की स्थापना की।

#magadh
#History
#HistoryOfTheWorld
#indianhistory
#भारतीय_इतिहास

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कण्व वंश के बाद #सातवाहन वंश

➡प्रमुख राजा :-

1⃣ सिमुक & His Brother कान्हा

2⃣ सातकर्णि प्रथम
              ⬇
              ⬇Wife(First Lady Ruler of the World)
              ⬇
🔴महारानी नाग्निका / नयनिका सातकर्णी

3⃣ गौतमीपुत्र सातकर्णि ➡🔴 माता गौतमी बालाश्री

(252/600)
#गुप्त_वंश 1⃣
#Gupt_Dynasty
श्रीगुप्त
घटोत्कच
चन्द्रगुप्त प्रथम
समुद्रगुप्त
रामगुप्त
चन्द्रगुप्त द्वितीय
कुमारगुप्त प्रथम
स्कन्दगुप्त
पुरुगुप्त
कुमारगुप्त द्वितीय
बुधगुप्त
नरसिंहगुप्त बालादित्य
कुमारगुप्त तृतीय

🔴गुप्त वंश की स्थापना :-

गुप्त साम्राज्य का उदय तीसरी

(253/600)
सदी के अंत में प्रयाग के निकट कौशाम्बी में हुआ।

श्री गुप्त कुषाणों के सामंत थे।

मौर्य वंश के पतन के बाद दीर्घकाल तक भारत में राजनीतिक एकता स्थापित नहीं रही।

कुषाण एवं सातवाहनों ने राजनीतिक एकता लाने का प्रयास किया पर वह सफल नहीं हो सके।

मौर्योत्तर काल के उपरांत

(254/600)
उपरान्त तीसरी शताब्दी ई. में तीन राजवंशो का उदय हुआ जिसमें मध्य भारत में नाग शक्ति, दक्षिण में बाकाटक तथा पूर्वी में गुप्त वंश प्रमुख हैं।मौर्य वंश के पतन के पश्चात नष्ट हुई राजनीतिक एकता को पुनस्थापित करने का श्रेय गुप्त वंश को है।गुप्त साम्राज्य की नींव तीसरी शताब्दी

(255/600)
के चौथे दशक में तथा उत्थान चौथी शताब्दी की शुरुआत में हुआ।गुप्त वंश का प्रारम्भिक राज्य आधुनिक उत्तर प्रदेश और बिहार में था।गुप्त वंश की स्थापना महाराजा श्रीगुप्त ने लगभग 240 ई.में की थी।

घटोत्कच (280 ई. से 319 ई. तक)

घटोत्कच श्रीगुप्त का पुत्र था , 280 ई. से 319 ई.

(256/600)
तक गुप्त साम्राज्य का शासक रहा।इसने भी महाराजा की उपाधि धारण की।प्रभावती गुप्त के पूना एवं रिद्धपुर ताम्रपत्र अभिलेखों में घटोत्कच को गुप्त वंश का प्रथम राजा बताया गया है।

🔴चन्द्रगुप्त प्रथम (319 ई. से 335 ई.) :-

यह घटोत्कच का उत्तराधिकारी था जो 319 ई. में शासक बना।

(257/600)
चन्द्रगुप्त गुप्त वंशावली में सबसे पहला शासक था जो प्रथम स्वतन्त्र शासक है।यह विदशी को विद्रोह द्वारा हटाकर शासक बना।

इसने नवीन सम्वत (गुप्त सम्वत) की स्थापना की,लिच्छवि वंश की राजकुमारी कुमार देवी से विवाहसम्बन्ध स्थापित किया।

चन्द्रगुप्त प्रथम के शासनकाल को भारतीय

(258/600)
इतिहास का स्वर्ण युग कहा जाता है।

इसने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की थी बाद में लिच्छवि को अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया।

इसका शासन काल (320 ई. से 335 ई. तक) था।

पुराणों तथा प्रयाग प्रशस्ति से चन्द्रगुप्त प्रथम के राज्य के विस्तार के विषय में जानकारी मिलती है।

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🔴चन्द्रगुप्त प्रथम तथा लिच्छवि सम्बन्ध :-

चन्द्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवि के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किया,वह एक दूरदर्शी सम्राट था।

चन्द्रगुप्त ने लिच्छवियों के सहयोग और समर्थन पाने के लिए उनकी राजकुमारी कुमार देवी के साथ विवाह किया।

स्मिथ के अनुसार इस वैवाहिक

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सम्बन्ध से चन्द्रगुप्त ने लिच्छवियों का राज्य प्राप्त कर लिया तथा मगध उसके सीमावर्ती क्षेत्र में आ गया।

कुमार देवी के साथ विवाह-सम्बन्ध करके चन्द्रगुप्त प्रथम ने वैशाली राज्य प्राप्त किया , लिच्छवियों के दूसरे राज्य नेपाल के राज्य को उसके पुत्र समुद्रगुप्त ने मिलाया।

(261/600)
इस प्रकार लिच्छवियों के साथ सम्बन्ध स्थापित करके चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपने राज्य को राजनैतिक तथा आर्थिक दृष्टि से समृद्ध बना दिया।

कौशाम्बी तथा कौशल जीतकर अपने राज्य में मिलाया तथा साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र में स्थापित की और द्वितीय मगध साम्राज्य की स्थापना की।

(262/600)
#गुप्त_वंश 2⃣

#समुद्रगुप्त (335 ई. - 375 ई.)

चन्द्रगुप्त प्रथम के बाद 335 ई. में उसका पुत्र समुद्रगुप्त राजसिंहासन पर बैठा।

समुद्रगुप्त का जन्म लिच्छवि राजकुमारी कुमार देवी के गर्भ से हुआ था।

सम्पूर्ण प्राचीन भारतीय इतिहास में महानतम शासकों के रूप में वह नामित है।

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इन्हें परक्रमांक कहा गया है।समुद्रगुप्त का शासनकाल राजनैतिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से गुप्त साम्राज्य के उत्कर्ष का काल माना जाता है।इस साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी।

भारतीय इतिहास में सबसे बड़े और सफल सेनानायकों में से एक माने जाते है।समुद्रगुप्त, गुप्त राजवंश के

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तृतीय शासक थे और उनका शासनकाल भारत के लिये स्वर्णयुग की शुरूआत कही जाती है।समुद्रगुप्त को गुप्त राजवंश का महानतम राजा माना जाता है।वे एक उदार शासक,वीर योद्धा और कला के संरक्षक थे।उनका नाम जावा पाठ में #तनत्रीकमन्दका के नाम से प्रकट है।उनका नाम समुद्र की चर्चा करते हुए

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अपने विजय अभियान द्वारा अधिग्रहीत एक शीर्षक होना करने के लिए लिया जाता है जिसका अर्थ है महासागर।हरिषेण समुद्रगुप्त का मन्त्री एवं दरबारी कवि था।हरिषेण द्वारा रचित प्रयाग प्रशस्ति से समुद्रगुप्त के राज्यारोहण,विजय,साम्राज्य विस्तार के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त होती है।
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• समुद्रगुप्त ने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की।

• विन्सेट स्मिथ ने इन्हें नेपोलियन की उपधि दी।

समुद्रगुप्त एक असाधारण सैनिक योग्यता वाला महान विजित सम्राट था।

यह उच्चकोटि का विद्वान तथा विद्या का उदार संरक्षक था।

उसे कविराज भी कहा गया है।

वह महान संगीतज्ञ तथा

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वीणा वादन का शौकीन था।

इसने प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान वसुबन्धु को अपना मन्त्री नियुक्त किया था।

काव्यालंकार सूत्र में समुद्रगुप्त का नाम चन्द्रप्रकाश मिलता है।

उसने उदार, दानशील , असहायी तथा अनाथों को अपना आश्रय दिया।

समुद्रगुप्त एक धर्मनिष्ठ भी था लेकिन वह हिन्दू

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धर्म मत का पालन करता था।वैदिक धर्म के अनुसार इन्हें धर्म व #प्राचीरबन्ध यानी धर्म की प्राचीर कहा गया है।
🔴समुद्रगुप्त का साम्राज्य:-
समुद्रगुप्त ने एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया जो उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विन्ध्य पर्वत तक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी

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से पश्चिम में पूर्वी मालवा तक विस्तृत था।कश्मीर,पश्चिमी पंजाब,पश्चिमी राजपूताना,सिन्ध तथा गुजरात को छोड़कर समस्त उत्तर भारत इसमें सम्मिलित थे।दक्षिणापथ के शासक तथा पश्चिमोत्तर भारत की विदेशी शक्तियाँ उसकी अधीनता स्वीकार करती थीं।समुद्रगुप्त के काल में सदियों के राजनीतिक
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विकेन्द्रीकरण तथा विदेशी शक्तिरयों के आधिपत्य के बाद आर्यावर्त पुनः नैतिक,बौद्धिक तथा भौतिक उन्‍नति की चोटी पर जा पहुँचा था।समुद्रगुप्त के कई अग्रज भाई थे,फिर भी उनके पिता ने समुद्रगुप्त की प्रतिभा के देख कर उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।

चंद्रगुप्त ने मगध राजा
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की एक लच्छवी राजकुमारी कुमारीदेवी से विवाह किया,जिससे उत्तर भारतीय वाणिज्य के मुख्य स्रोत गंगा नदी पर कब्ज़ा करने के लिए उन्हें सक्षम बनाया।उन्होंने भारत के उत्तर-मध्य में लगभग दस वर्षों तक शासन किया।

उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्र,समुद्रगुप्त ने राज्य पर शासन करना शुरू
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किया और जब तक पूरे भारत को जीत नहीं लिया तब तक उन्होंने आराम नहीं किया।उनके शासनकाल को एक विशाल सैन्य अभियान के रूप में वर्णित किया जाता है।शुरूआत में उन्होंने शिच्छत्र (रोहिलखंड) और पद्मावती (मध्य भारत) के पड़ोसी राज्यों पर हमला किया।उन्होंने विभाजन के बाद पूरे पश्चिम
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बंगाल पर कब्जा कर लिया,नेपाल के कुछ राज्यों और असम में उनका स्वागत किया गया।उन्होंने कुछ आदिवासी राज्यों जैसे मलवास,यौधेयस,अर्जुनायन्स,अभ्रस और मदुरस को जीत लिया बाद में कुशना और सैक ने उनका स्वागत किया।दक्षिण की ओरबंगाल की खाड़ी के किनारे उन्होंने महान शक्ति के साथ आगे
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बढ़कर पीठापुरम के महेंद्रगिरि,कांची के विष्णुगुप्त,कुरला के मंत्रराज,खोसला के महेंद्र से और अधिक आगे गए,जब तक वह कृष्णा नदी तक नहीं पहुँचे।समुद्रगुप्त ने अपने राज्य को पश्चिम में खानदेश और पलाघाट तक फैलाया।हालांकि उन्होंने मध्य भारत में वातकाटा के साथ मैत्रीपूर्ण रिश्ता
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बनाए रखने का आश्वासन दिया।उन्होंने बड़ा युद्ध जीतने के बाद हर वार आश्वस्त यज्ञ(घोड़े का बलिदान)का आयोजन किया।समुद्रगुप्त का राज्य उत्तर में हिमालय तक,दक्षिण में नर्मदा नदी तक,पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी तक और पश्चिम में यमुना नदी तक फैला हुआ हैं।उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि को

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भारत या आर्यावर्त के अधिकतर राजनीतिक एकीकरण में एक भयंकर शक्ति के रूप में वर्णित किया जाता है।महाराजाधिराज(राजाओं का राजा)की उपाधि से सम्मानित किया गया।
#magadh
#History
#historyofindia
#historyoftheworld
#indianhistory
#भारतीय_इतिहास
#ancientindianhistory
#प्राचीनभारत

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#चक्रवर्ती_सम्राट_विक्रमादित्य 1⃣

🔴चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य (101 B.C. - 15 A.D.) :-

#भविष्यपुराण के अनुसार सम्राट #नाबोवाहन के पुत्र राजा #गंधर्वसेन अपने समय के महान और चक्रवर्ती सम्राट थे।

सम्राट गंधर्वसेन के दो पुत्र थे जिनमें से पहले पुत्र का नाम #भर्तृहरी

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और दूसरे का नाम #विक्रमादित्य था,विक्रमादित्य के पहले भर्तृहरि ही राजा थे। अपनी सबसे प्रिय तीसरी पत्नी #पिंगला के धोखे से भर्तृहरि के मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया और वे अपना संपूर्ण राज्य विक्रमादित्य को सौंपकर उज्जैन की एक गुफा में तपस्या करने चले गए।
कहा जाता है कि

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भर्तृहरि ने 12 वर्षों तक इस गुफा में तपस्या की।
भर्तृहरि एक महान संस्कृत कवि थे।संस्कृत साहित्य के इतिहास में भर्तृहरि एक नीतिकार के रूप में प्रसिद्ध हैं।इनके शतकत्रय (नीतिशतक,शृंगारशतक,वैराग्यशतक) की उपदेशात्मक कहानियाँ भारतीय जनमानस को विशेष रूप से प्रभावित करती हैं।

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प्रत्येक शतक में सौ-सौ श्लोक हैं।

बाद में इन्होंने गुरु #गोरखनाथ के शिष्य बनकर वैराग्य धारण कर लिया था इसलिये इनका एक लोक प्रचलित नाम बाबा #भरथरी भी है।

#विक्रम_संवत के अनुसार विक्रमादित्य आज से 2294 वर्ष पूर्व हुए थे।

विक्रमादित्य का नाम विक्रम सेन था।

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#कलि_काल के 3000 वर्ष बीत जाने पर 101 ईसा पूर्व सम्राट विक्रमादित्य का जन्म हुआ।

उन्होंने 100 वर्ष से अधिक अवधि तक शासन किया।

भारत का अत्यंत गौरवशाली इतिहास रहा है तथा अनेकों ऐसे राजा हुए हैं जो अपने शौर्य , पराक्रम,दानवीरता, ज्ञान और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे।

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उन्हीं में से एक राजा ऐसे थे जो अपनी न्याय व्यवस्था के लिए जाने जाते थे। उनकी न्याय व्यवस्था के चर्चे संपूर्ण विश्व में फैले हुए थे। यही नहीं देवता भी उनसे न्याय करवाने आते थे।

विक्रमादित्य 5 साल की उम्र में ही तपस्या के लिए जंगल में चले गए थे, जहां उन्होंने 12 साल

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तक तपस्या की थी। तपस्या से वापस आने के बाद जब उनके बड़े भाई राजा भर्तृहरि राजपाट छोड़कर योगी बन गये तो उनके राजपाट का भार विक्रमादित्य ने संभाल लिया और फिर उन्होंने मात्र उज्जैनी ही नहीं बल्कि संपूर्ण जगत में अपने पराक्रम से देश का नाम रोशन किया है।

राजा विक्रमादित्य

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भारतीय इतिहास ही नहीं बल्कि विश्व इतिहास के सबसे ज्ञानी और सबसे महान राजा माने जाते थे बल्कि यह कहा जा सकता है कि विक्रमादित्य के नाम पर एक युग है।अपने शासन काल में उन्होंने समय की गणना के लिए विक्रम संवत आरंभ किया था,जिसे आज भी काल की गणना के लिए प्रयोग किया जाता है।

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विक्रमादित्य देवी हरसिद्धि के परम भक्त थे।

🔴महाराज विक्रमादित्य चक्रवर्ती सम्राट थे अर्थात उनके राज में कभी भी सूर्यास्त नहीं होता था।रामायण और महाभारत जैसे ग्रन्थों के अलावा हमारे अन्य ग्रन्थ भी लगभग खोने के कगार पर आ गए थे।ऐसे में महाराज विक्रमदित्य ने ही उनकी खोज

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करवा कर स्थापित और सुरक्षित किए थे।विष्णुजी और शिव जी के मंदिर बनवाये और सनातन धर्म को बचाया।

विक्रमादित्य के 9 रत्नों में से एक #कालिदास ने #अभिज्ञान_शाकुन्तलम् लिखा , जिसमें संपूर्ण भारत का इतिहास है।

यदि राजा विक्रमादित्य न होते तो संभवतः आज हम भारत के इतिहास को

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तो खो ही चुके होते साथ ही साथ भगवान श्रीकृष्ण और भगवान श्रीराम को भी भूल चुके होते।हिन्दू कैलंडर भी विक्रमदित्य का स्थापित किया हुआ है आज जो भी ज्योतिष गणना है जैसे हिन्दी संवत,वार,तिथियाँ,राशि,नक्षत्र,गोचर आदि विक्रमादित्य काल की ही देन हैं।
अंग्रजी कैलेंडर से 57 वर्ष

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आगे विक्रम संवत है।

राजा विक्रमादित्य के शासनकाल में सबसे बड़े खगोल शास्त्री #वराहमिहिर थे , जिनकी सहायता से संवत के प्रसार में मदद मिली.

भर्तृहरि के शासन काल में #शको का आक्रमण बढ़ गया था।

भर्तृहरि ने वैराग्य धारण कर जब राज्य त्याग दिया तो विक्रम सेन ने शासन

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संभाला और 57 B.C. में शको को खदेड़ा,इसी याद में उन्होंने विक्रम संवत की शुरुआत कर अपने राज्य का विस्तार आरंभ किया।इसकी पुष्टि #ज्योतिर्विदाभरण ग्रंथ से होती है जो कि 3068 कलि अर्थात 34 B.C. में लिखा गया।इसके अनुसार विक्रमादित्य ने 3044 कलि➡ 57 B.C. विक्रम संवत चलाया।

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#चक्रवर्ती_सम्राट_विक्रमादित्य 2⃣

विक्रमादित्य ने भारत की भूमि को विदेशी शासकों से मुक्ति कराने के लिए एक वृहत्तर अभियान चलाया।

उन्होंने अपनी सेना का फिर से गठन किया।

उनकी सेना विश्व की सबसे शक्तिशाली सेना बन गई थी, जिसने भारत की सभी दिशाओं में एक अभियान चलाकर भारत

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को विदेशियों और अत्याचारी राजाओं से मुक्ति कर एक छत्र शासन को कायम किया।महाकवि #कालिदास की पुस्तक #ज्योतिर्विदभरण के अनुसार उनके पास 30 मिलियन सैनिकों,100 मिलियन विभिन्न वाहनों,25000 हाथी और 4 हजार समुद्री जहाजों की एक सेना थी,उन्होंने ही विश्‍व में सर्वप्रथम 1700 मील

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की विश्व की सबसे लंबी सड़क बनवाई थी जिसके चलते विश्व व्यापार सुगम हो चला था।

🔴ऐतिहासिक व्यक्ति :- #कल्हण की '#राजतरंगिणी' के अनुसार 14 ई. के आसपास कश्मीर में अांध्र युधिष्ठिर वंश के राजा हिरण्य के नि:संतान मर जाने पर अराजकता फैल गई थी। जिसको देखकर वहां के मंत्रियों

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की सलाह से उज्जैन के राजा विक्रमादित्य ने मातृगुप्त को कश्मीर का राज्य संभालने के लिए भेजा था। नेपाली राजवंशावली अनुसार नेपाल के राजा अंशुवर्मन के समय ( ईसा पूर्व पहली शताब्दी ) में उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के नेपाल आने का उल्लेख मिलता है।
 
राजा विक्रम का भारत की

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संस्कृत, प्राकृत, अर्द्धमागधी, हिन्दी, गुजराती, मराठी,बंगला आदि भाषाओं के ग्रंथों में विवरण मिलता है।

उनकी वीरता,उदारता,दया,क्षमा आदि गुणों की अनेक गाथाएं भारतीय साहित्य में भरी पड़ी हैं।

🔴अरब तक फैला था विक्रमादित्य का शासन:-

महाराजा विक्रमादित्य का सविस्तार वर्णन

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भविष्य पुराण और स्कंद पुराण में मिलता है। विक्रमादित्य के बारे में प्राचीन अरब साहित्य में वर्णन मिलता है।उस वक्त उनका शासन अरब और मिस्र तक फैला था और संपूर्ण धरती के लोग उनके नाम से परिचित थे।इतिहासकारों के अनुसार विक्रमादित्य का राज्य भारतीय उपमहाद्वीप के अलावा ईरान,

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इराक और अरब में भी था।

विक्रमादित्य की अरब विजय का वर्णन अरबी कवि #जरहाम_किनतोई ने अपनी पुस्तक 'सायर-उल-ओकुल' में किया है।

पुराणों और अन्य इतिहास ग्रंथों के अनुसार यह पता चलता है कि अरब और मिस्र भी विक्रमादित्य के अधीन थे।

महाराज विक्रमादित्य ने केवल धर्म ही नहीं

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बचाया उन्होंने देश को आर्थिक तौर पर सोने की चिड़िया भी बनाया।

उनके राज को ही भारत का स्वर्णिम राज कहा जाता है।

विक्रमदित्य के काल में भारत का कपडा, विदेशी व्यपारी सोने के वजन से खरीदते थे।

भारत में इतना सोना आ गया था कि विक्रमादित्य काल में सोने की सिक्के चलते थे।

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महाराज विक्रमादित्य(Maharaj Vikramaditya)के राज में ही भारत सोने की चिड़िया बना था।

राजा विक्रमादित्य भारत के महान शासकों में एक थे.उन्हें एक आदर्श राजा रूप में देखा जाता है.अपनी बुद्धि,अपने पराक्रम,अपने जूनून से इन्होने आर्यावर्त के इतिहास में अपना नाम अमर किया है.

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सम्राट विक्रमादित्य की बहन का नाम मैनावती था।

महाराज विक्रमादित्य की 5 पत्नियां थी जिनके नाम मलावती,मदनलेखा,पद्मिनी,चेल्ल और चिलमहादेवी

2 पुत्र विक्रमचरित और विनयपाल थे तथा उनकी दो पुत्रियां विधोत्तमा(प्रियंगमंजरी)तथा वसुंधरा थी।

एक भांजा था जिसका नाम गोपीचंद था तथा

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उनके प्रमुख मित्रों में भट्टमात्र का नाम आता है।महाराज विक्रमादित्य के राज में राजपुरोहित त्रिविक्रम तथा वसुमित्र थे तथा उनके सेनापति विक्रमशक्ति तथा चंद्र थे।

नौ रत्नों की शुरुआत भी महाराज विक्रमादित्य द्वारा ही की गई।

भारतीय परंपरा के अनुसार उनके नवरत्न धनवंतरि,

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घटपर्कर , अमर सिंह , शंकु , कालिदास , वेतालभट्ट (बेतालभट्ट) , वररुचि , और वराहमिहिर थे।

महाराज विक्रमादित्य के #नवरत्नों में से एक #कालिदास प्रसिद्ध #संस्कृत #राजकवि थे।

1⃣ #धन्वन्तरि - महाराज विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक धन्वंतरि #वैद्य तथा #औषध_विज्ञानी थे।

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उनके लिखे 9 ग्रंथ पाए जाते हैं जो सभी #आयुर्वेदिक #शास्त्र से संबंधित थे।

आज भी किसी वैद्य की प्रशंसा करनी हो तो उसकी धनवंतरी से उपमा दी जाती है।

2⃣ #क्षणपक - सम्राट विक्रम सभा के द्वितीय के नवरत्न क्षणपक को कहा गया है यह #बौद्ध सन्यासी थे।

उन्होंने कुछ ग्रंथ लिखे

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जिनमें #भिक्षाट्टन तथा #नानार्थकोष ही उपलब्ध बताए जाते हैं।

3⃣ #अमर_सिंह - इनको #शब्दकोष ( #डिक्शनरी ) का जनक माना जाता है। इन्होंने शब्दकोश के साथ ही #शब्दध्वनि पर भी कार्य किया।

यह प्रकाण्ड विद्वान थे,बोधगया में एक मंदिर से प्राप्त शिलालेख के आधार पर पता चलता है कि

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इस मंदिर का निर्माण इन्होंने ही करवाया था।इनके अनेक ग्रंथों में से अमरकोश के आधार पर इनका यश अखंड है।

संस्कृत विद्वानों के अनुसार अष्टाध्यायी पंडितों की माता तथा अमरकोश पंडितों का पिता कहा गया है।

यदि कोई इन दोनों ग्रंथों को आत्मसात कर ले तो वह महान पंडित बन जाता है।

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4⃣ #शंकु - #नीतिशास्त्र का #ज्ञान रखते थे अर्थात यह #नीतिशास्त्री तथा #रसाचार्य थे। उनका पूरा नाम #शड्कुक है।

इनका एक काव्य ग्रंथ #भुवनाभ्युदयम बहुत प्रसिद्ध रहा है लेकिन वह आज #पुरातत्व का विषय बन गया है।

5⃣ #वैतालभट्ट – वेतालभट्ट एक धर्माचार्य थे और यह माना जाता है

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कि उन्होंने ही विक्रमादित्य को #सोलह_छन्दों ( #नीति_प्रदीप ) #आचरण का श्रेय दिया था। यह युद्ध कौशल में भी महारथी थे।

ये हमेशा सम्राट के साथ ही रहे तथा सीमावर्ती सुरक्षा के कारण इन्हें #द्वारपाल भी कहा गया।

#विक्रम तथा #बेताल की कहानियों की लोकप्रियता जगत प्रसिद्ध है।

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#वेताल #पंचविशंति के रचियता यही हैं , इनका नाम अब सुनने को नहीं मिलता।

6⃣ #घटकर्पर – जितने भी लोग संस्कृत जानते हैं वह सब जानते हैं कि घटकर्पर किसी व्यक्ति का नाम नहीं हो सकता , उनका वास्तविक नाम यह नहीं है।

इनकी प्रतिज्ञा थी कि जो भी विद्वान इनको #अनुप्रास तथा #यमक

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में पराजित कर देगा यह उनके घर फूटे घड़े से पानी भरेंगे , बस तभी से इनका नाम #घटकर्पर प्रसिद्ध हो गया किंतु इनका वास्तविक नाम अभी तक लुप्त है।

इनकी रचना का नाम भी #घटकर्परकाव्यम ही है।

उनका एक अन्य ग्रंथ #नीतिसार के नाम से भी प्रसिद्ध है।

7⃣ #कालिदास - महाराज

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के नवरत्नों में से एक #कालिदास प्रसिद्ध #संस्कृत #राजकवि थे।

कालिदासजी , महाराज के प्राण प्रिय कवि थे। इनकी कहानी अत्यंत रोचक है कहा जाता है कि इनको विद्या मां #काली की कृपा से प्राप्त हुई तब से इनका नाम कालिदास पड़ गया,व्याकरण की दृष्टि से यह कालीदास होना चाहिए था।

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परंतु इनकी प्रतिभा को देखकर अपवाद रूप में कालिदास ही रखा गया जैसे विश्वामित्र को उसी रूप में रखा गया है।कालिदासजी के 4 काव्य तथा 3 नाटक प्रसिद्ध हैं।

कालिदास संस्कृत भाषा के महान कवि और नाटककार थे।उन्होंने भारत की पौराणिक कथाओं और दर्शन को आधार बनाकर रचनाएं रचित की और
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उनकी रचनाओं में भारतीय जीवन और दर्शन के विविध रूप और मूल तत्व निरूपित हैं।कालिदास अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण राष्ट्र की समग्र राष्ट्रीय चेतना को स्वर देने वाले कवि माने जाते हैं और कुछ विद्वान उन्हें राष्ट्रीय कवि का स्थान तक देते हैं।

#अभिज्ञानशाकुंतलम् कालिदास की
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प्रसिद्ध रचना है।

यह नाटक कुछ उन भारतीय साहित्यिक कृतियों में से है जिनका सबसे पहले यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद हुआ था।

यह पूरे विश्व साहित्य में अग्रगण्य रचना मानी जाती है।

#मेघदूतम् कालिदास की सर्वश्रेष्ठ रचना है जिसमें #कल्पनाशक्ति और #अभिव्यंजनावाद #भावाभिव्यन्जना

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शक्ति अपने सर्वोत्कृष्ट स्तर पर है और प्रकृति के मानवीकरण का अद्भुत रखंडकाव्ये से खंडकाव्य में दिखता है।

कालिदास #वैदर्भी रीति के कवि हैं और तदनुरूप वे अपनी #अलंकार युक्त किन्तु सरल और मधुर भाषा के लिये विशेष रूप से जाने जाते हैं।

उनके प्रकृति वर्णन अद्वितीय हैं और

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विशेष रूप से अपनी उपमाओं के लिये जाने जाते हैं।साहित्य में #औदार्य गुण के प्रति विशेष प्रेम है और अपने #शृंगाररस प्रधान साहित्य में भी आदर्शवादी परंपरा और नैतिक मूल्यों का समुचित ध्यान रखा है।

इनके परवर्ती कवि #बाणभट्ट ने उनकी सूक्तियों की विशेष रूप से प्रशंसा की है।

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Dec 15, 2023
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चीरहरण और द्यूत की बेईमानी की घटनाओं से द्रौपदी आगबबूला हो गई और समस्त कुरूकुल को श्राप देने के लिए उद्यत हुई।

परन्तु गांधारी और धृतराष्ट्र ने द्रौपदी को शांत करते हुए कहा - “ बहू ! तुम मेरी पुत्रवधूओं में सबसे श्रेष्ठ हो।

तुम्हारी जो इच्छा हो वह मुझसे वर माँग लो। ” Image
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धृतराष्ट्र ने कहा- “ऐसा ही होगा।”

तब महाराज युधिष्ठिर हाथ जोड़े हुए महाराज धृतराष्ट्र के पास गये और विनम्र शब्दों में उनसे कहा- “महाराज ! आप हमारे स्वामी हैं। आज्ञा दीजिए कि Image
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धृतराष्ट्र ने कहा- “पुत्र ! तुम्हारा कल्याण हो। तुम मेरी आज्ञा से हारे हुए धन के साथ बिना किसी विघ्न बाधा के कुशलपूर्वक अपनी राजधानी को जाओ और अपने राज्य का शासन करो। यहाँ जो कुछ हुआ, उसे भूल जाओ। साधु पुरुष दूसरों के Image
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Dec 5, 2023
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#द्रौपदी_स्वयंवर

द्रौपदी के जीवन में कुछ भी सामान्य नहीं था तो विवाह कैसे सामान्य हो सकता था।

महाराज द्रुपद अपनी बेटी का विवाह अर्जुन से करना चाहते थे। लेकिन द्रौपदी के स्वयंवर से पहले ही लाक्षागृह की घटना हो चुकी थी और सभी को लगता था कि 5 पांडव और कुंती उस लाक्षागृह Image
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जबकि पांचों पांडव सकुशल उस गृह से बाहर निकलकर ब्राह्मण वेष में उन्हें के राज्य की एकचक्रा नगरी में रहने लगे थे।

स्वयंवर घोषणा के बाद श्रीकृष्ण और वेदव्यास जी एकचक्रा नगरी में पांडवों के पास पहँचे और वेदव्यास जी ने कहा:-

अपने आप को दुनिया से छुपाने Image
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🔴श्रीकृष्ण ने कहा कि जो व्यक्ति अपने पुरूषार्थ का उचित समय पर प्रदर्शन ना करे वह धरती पर भार है।

" वह कन्या तुम लोगों के सर्वथा योग्य है , वह देवी स्वरूपा कन्या सब भाँति से Image
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Nov 16, 2023
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🔴 ऋषि दुर्वासा द्वारा कुंती को वशीकरण मंत्र का आशीर्वाद दिया गया :-

जब कुंती 14 वर्ष की कन्या थी , तो उसे दुर्वासा ऋषि और उनकी पत्नी कंदली की सहायता करने के लिए नियुक्त किया गया था - दुर्वासा एक महान ऋषि थे जो भगवान की कृपा प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या करते थे , Image
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कुन्ती ने कुन्तिभोज के राज्य में प्रवास के 3 वर्षों के दौरान ऋषि दुर्वासा की सेवा की और Image
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वह उसकी प्रतिबद्धता, कर्तव्यपरायणता और समर्पण से प्रसन्न थे।

ऋषि दुर्वासा ने कुंती से कोई वरदान मांगने Image
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Aug 20, 2023
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ये छः गोस्वामी थे -

1⃣ रूप गोस्वामी
2⃣ सनातन गोस्वामी
3⃣ रघुनाथ भट्ट गोस्वामी
4⃣ जीव गोस्वामी
5⃣ गोपाल भट्ट गोस्वामी
6⃣ रघुनाथ दास गोस्वामी

🔴 रूप गोस्वामी :-

श्री रूप गोस्वामी
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May 23, 2023
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#रामायण में #श्रीराम के साथ इनका प्रसंग आता है।

ऋषि जाबालि का #जबलपुर से बहुत गहरा नाता रहा है।

#कुलगुरु_वशिष्ठ जी की अनुशंसा पर #महाराजा_दशरथ द्वारा जबलपुर के ऋषि जाबालि को अयोध्या में #मुख्य_याजक ( #यज्ञ_प्रमुख ) नियुक्त किया गया था। Image
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Jan 22, 2023
🔴 #हल्दीघाटी का युद्ध :- 18 June 1576

🔸युद्ध के बाद अगले एक साल तक #महाराणा_प्रताप ने #हल्दीघाटी के आस-पास के गांवों के भूमि के पट्टों को #ताम्रपत्र जारी किए थे जिससे यह साबित होता है कि किसी भी आक्रान्ता का महाराण प्रताप के किसी भी विशाल भू-भाग पर कोई नियंत्रण नहीं हुआ था।
🔸इन ताम्रपत्रों पर #एकलिंगनाथ जी के दीवान महाराणा प्रताप के हस्ताक्षर थे.

उस समय भूमि पट्टे जारी करने का अधिकार केवल Particular Area के राजा के पास ही होता था.

🔸युद्ध के परिणाम से खिन्न अकबर ने मानसिंह और आसफ खाँ की 6 माह के लिये इयोड़ी बंद कर दी थी अर्थात् उनको दरबार में
सम्मिलित होने से वंचित कर दिया था।

🔸हल्दीघाटी का युद्ध 18 जून,1576 को महाराणा प्रताप और अकबर की सेना के बीच हुआ था।

यह युद्ध पहाड़ी दर्रे से लेकर बनास नदी के तट तक चला था।

युद्ध में महाराणा प्रताप की जीत हुई थी। यह युद्ध 4 घंटे तक ही चला था मगर इसमें दोनों ओर से सैंकडों सैनिक
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