In other words, it appears like Sanskrit but it's not Sanskrit.
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@MisraNityanand
भजामि ते पदांबुजं। अकामिनां स्वधामदं॥
(हे भक्त वत्सल! हे कृपालु! हे कोमल स्वभाव वाले! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। निष्काम पुरुषों को अपना परमधाम देने वाले आपके चरण कमलों को मैं भजता हूँ॥)
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प्रफुल्ल कंज लोचनं। मदादि दोष मोचनं॥
(आप नितान्त सुंदर श्याम, संसार (आवागमन) रूपी समुद्र को मथने के लिए मंदराचल रूप, फूले हुए कमल के समान नेत्रों वाले और मद आदि दोषों से छुड़ाने वाले हैं॥)
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निषंग चाप सायकं। धरं त्रिलोक नायकं॥
(हे प्रभो! आपकी लंबी भुजाओं का पराक्रम और आपका ऐश्वर्य अप्रमेय (बुद्धि के परे अथवा असीम) है। आप तरकस और धनुष-बाण धारण करने वाले तीनों लोकों के स्वामी,॥)
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मुनींद्र संत रंजनं। सुरारि वृंद भंजनं॥
( सूर्यवंश के भूषण, महादेवजी के धनुष को तोड़ने वाले, मुनिराजों और संतों को आनंद देने वाले तथा देवताओं के शत्रु असुरों के समूह का नाश करने वाले हैं॥)
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विशुद्ध बोध विग्रहं। समस्त दूषणापहं॥
(आप कामदेव के शत्रु महादेवजी के द्वारा वंदित, ब्रह्मा आदि देवताओं से सेवित, विशुद्ध ज्ञानमय विग्रह और समस्त दोषों को नष्ट करने वाले हैं॥)
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भजे सशक्ति सानुजं। शची पति प्रियानुजं॥
(हे लक्ष्मीपते! हे सुखों की खान और सत्पुरुषों की एकमात्र गति!मैं आपको नमस्कार करता हूँ!हे शचीपति के प्रिय छोटे भाई (वामनजी)! स्वरूपा-शक्ति श्री सीताजी और छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित आपको मैं भजता हूँ॥) 7/13
पतंति नो भवार्णवे। वितर्क वीचि संकुले॥
(जो मनुष्य मत्सर (डाह) रहित होकर आपके चरण कमलों का सेवन करते हैं, वे तर्क-वितर्क (अनेक प्रकार के संदेह) रूपी तरंगों से पूर्ण संसार रूपी समुद्र में नहीं गिरते (आवागमन के चक्कर में नहीं पड़ते)॥)
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निरस्य इंद्रियादिकं। प्रयांतिते गतिं स्वकं॥
(जो एकान्तवासी पुरुष मुक्ति के लिए, इन्द्रियादि का निग्रह करके (उन्हें विषयों से हटाकर) प्रसन्नतापूर्वक आपको भजते हैं, वे स्वकीय गति को (अपने स्वरूप को) प्राप्त होते हैं॥)
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जगद्गुरुं च शाश्वतं। तुरीयमेव केवलं॥
(आप को जो एक (अद्वितीय), अद्भुत (मायिक जगत से विलक्षण), प्रभु, इच्छारहित, ईश्वर, व्यापक, जगद्गुरु, सनातन (नित्य), तुरीय (तीनों गुणों से सर्वथा परे) और केवल (अपने स्वरूप में स्थित) हैं॥)
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स्वभक्त कल्प पादपं। समं सुसेव्यमन्वहं॥
((तथा) जो भावप्रिय, कुयोगियों के लिए अत्यन्त दुर्लभ, अपने भक्तों के लिए कल्पवृक्ष, सम (पक्षपातरहित) और सदा सुखपूर्वक सेवन करने योग्य हैं, मैं निरंतर भजता हूँ॥)
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प्रसीद मे नमामि ते। पदाब्ज भक्ति देहि मे॥
(हे अनुपम सुंदर! हे पृथ्वीपति! हे जानकीनाथ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। मुझ पर प्रसन्न होइए, मैं आपको नमस्कार करता हूँ। मुझे अपने चरण कमलों की भक्ति दीजिए॥)
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व्रजंति नात्र संशयं। त्वदीय भक्ति संयुताः॥
(जो मनुष्य इस स्तुति को आदरपूर्वक पढ़ते हैं, वे आपकी भक्ति से युक्त होकर आपके परम पद को प्राप्त होते हैं, इसमें संदेह नहीं॥)
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