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क्या शरीर में एक ही आत्मा होती है?

वेद-पुराण,अन्य धाराओं में परमात्मा-जीवात्मा और उसके संबंध पर कई प्रकार की व्याख्या की है.दोनों एक है,आत्मा परमात्मा काअंश है,आत्मा पूर्व जन्म का ही प्रवाह है आदि
लेकिन वही पांच तत्व है,परमात्मा एक ही है,तो अनुभव-संवेदना अलग अलग क्यों ?
क्यों किसी एक ही परिस्तिथि और पदार्थ को हर जीवन अलग गुण में अनुभव करता है?
सामान्यतःएक शरीर और उसमे एक आत्मा की संज्ञा देते है लेकिन ये एक आत्मा क्या पूर्णभूत है या कई अवयवों का संकलन.

इसी विषय पर संक्षिप्त विवेचन
पुराणों के अनुसार वस्तुतः आत्मा एक ही है परन्तु उपाधि और अवस्था
.की विभिन्नता हेतु से प्रथमतः तीन मुख्य भेद है-
क्षेत्रज्ञ, अंतरात्मा ,भूतात्मा

१) क्षेत्रज्ञ-कर्म और प्रेरणा देने वाला अंश(प्रेरित करने वाला )
२)अंतरात्मा-विभिन्न प्रकार के सुख और दुखो को अनुभव करवाने वाला अंश
३)भूतात्मा-आत्मा का अंश जो कर्म करता है
इसके उप प्रकार और उसका आगे का चिंतन-

क्षेत्रज्ञ चार
अंतरात्मा पांच और
भूतात्मा नौ उपप्रकार में संहित होता है

१) क्षेत्रज्ञ-परात्पर, अव्यय,अक्षर,क्षर

१.१) परात्पर- समस्त विश्व का अधिष्ठान स्वरुप अंश - परमात्मा का अंश
१.२) अव्यय- जिसका नाश नहीं होता,जोजन्मजन्मांतर साथ रहता है
१.३) अक्षर-सृष्टि का निमित कारण तत्व और जिस प्रेरणा से सृष्टि उत्पन्न हुई
१.४) क्षर- आत्मा का अंश तत्व जो उत्पति का का कारण होता है (जैसे घड़े के लिए मिटटी)

द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च |
क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ||गीता अ १५ श १६ ||
२) अंतरात्मा के पांच उपप्रकार -
अव्यक्तात्मा, महानात्मा,विज्ञानात्मा, प्रज्ञानात्मा,प्राणात्मा

२.१)अव्यक्तात्मा -जिसे व्यक्त नहीं किया जा सके लेकिन जो जीवित रहने हेतु आवश्यक है. जैसे शरीर के सभी अंग,द्रव्य और मांसपेशिया सिर्फ मिले तो भी जीव नहीं बना सकते।
२.२)महानात्मा-आत्मा का वह अंश जो तीन गुणों (सत्व,रज,ताम)की प्रवृति करवाता है-किसी परिस्थिति अनुसार क्या कर्म करना?

२.३)विज्ञानात्मा-धर्म,ज्ञान, वैराग्य की प्रेरणा देने वाला अंश तत्व

२. ४)प्रज्ञानात्मा-ज्ञानेन्द्रिय/कर्मेन्द्रिय को विषय का अनुभव-जैसे सभी को रसगुल्ला मीठा ही लगना
२.५) प्राणात्मा -शरीर में सक्रियता उत्पन्न करने वाला तत्व। जैसे कई लोग जीवित होकर भी जीवित नहीं हो रहते।

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रिभ्यः परं मनः
मनसस्तु परा बुद्धि बुद्धिरेतात्मा महान परः
महतः परम व्यक्तं अव्यक्तात पुरुषः परः
पुरुषान्न परं किंचित सा काष्ठ सा परा गतिः|कठोपनिषद
३) भूतात्मा-प्रथमत इसके तीन भेद है
शरीरात्मा,हंसात्मा और दिव्यात्मा

३.१) शरीरात्मा-प्राणी स्वरुप शरीर (मनुष्य, पशु आदि) का बोध करवाने वाला अंश

३.२)हंसात्मा-आत्मा का अंश जो सदैव जागृत रहता है और शरीरात्मा की रक्षा करता है

३.३) दिव्यात्मा-मनुष्य, पशु और निर्जीव पदार्थ का भेद
दिव्यात्मा के आगे तीन उपभेद है

३.३.१)वैश्वानर -पत्थर आदि निर्जीव पदार्थ जिनमे अभीतक चेतन नहीं है. उदाहरण अहिल्या का प्रभु श्री राम के चरण स्पर्श से उद्धार या फिर नवीन मंदिर में मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा

३.३.२)तैजस- अंतरसंज्ञा वाले प्राणी जैसे वृक्ष जो व्यक्त नहीं कर सकते है
३.३.३) प्राज्ञ- जो अनुभव कर सकते है और जिनमे बुद्धि का विकास होता है. प्राज्ञ के आगे फिर ३ उप प्रकार होते है जो कर्म और उसके फलो का भोग करते है

३.३.३.१) करमात्मा- आत्मा का अंश जो कर्म का फल और उसका संस्कार छोड़ जाते है- यही एकत्र अंश. जो कर्म आपने किया है चाहे उसका साक्षी अंश.
३.३.३.२) चिदाभास- चैतन्य होने का आभास करवाने वाला अव्यव। आत्मा में प्रविष्ट होकर शरीर, प्राण, ज्ञान,प्रेरणा से ईश्वर में श्रद्धा जगाने वाला अंश. कई उदाहरण है जिसमे व्यक्ति एकदम से ज्ञानी,भक्त बन जाता है.
३.३.३.३) चिदात्मा - ईश्वर का सूक्ष्म भाग जो सभी भूतो में सामान रूप से अपृथक, परपुरुष का अंशस्वरूप विद्यमान.

तो इस प्रकार १८ विभिन्न अंशो से आत्मा की कल्पना की गयी है जिससे ही परिस्तिथिति को, एक ही वस्तु को , एक ही जीवन को व्यक्ती अलग अलग रूप में देखता है,अनुभव करता है,
उसके अनुरूप कार्य करता है और उसकी का भोग करता है. चन्द्रमा की शीतलता एक नवयुगल को सुहावनी लगती है, विरहवेदना में जल रहे को शायद तप्त सूरज लगे. प्रसन्न मन वाले व्यक्ति को किसी भोज में कई व्यंजन मन लुभावन लगे, वही व्यंजन किसी और को बिलकुल नहीं भाते चूँकि उसको उचित स्वागत नहीं मिला.
वस्तुतः यह काफी कठिन विषय है लेकिन आत्मा के भी विभिन्न अंश और अवयव है और जब हम आत्मा-परमात्मा की विवेचना करते है तो सम्यक दर्शन करना आवश्यक है. विश्वास है ये विवेचन आपको ज्ञानवर्धक लगा होगा.

@Sandy49363539 @sambhashan_in @SchoolVedic @Anshulspiritual @Dharma_Yoddhaa
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