सच कहूं तो तनिष्क का यह विज्ञापन देखने से पहले मैं तनिष्क को नहीं जानता था... क्योंकि मैं एक ऐसे साधारण परिवार से आता हूं जहां घड़ी पहनना भी लग्जरी माना जाता है...
लेकिन जब मैंने यह देखा तो विचारों के कई आयाम खुले और सोचा मुझे इस बारे में लिखना चाहिए...
दरअसल जिस समय मैं यह विज्ञापन देख रहा था, उसके तुरंत बाद मैंने एक खबर पढ़ी जिसमें दिल्ली में रोहित नाम के एक 19 वर्ष के लड़के को सिर्फ इसलिए मार दिया गया क्योंकि वह एक मुस्लिम लड़की से फोन पर बात करता था... यह "महत्वहीन" खबर बहुत कम अखबारों के कोने में छपी...
इसलिए यह खबर बहुत कम लोगों ने पढ़ी होगी लेकिन अगर इसका उल्टा हो जाता तो लोकतंत्र खतरे में आ जाता....
इस खबर और इस विज्ञापन ने मुझे अपने देश की सामाजिक समरसता की कहानी बहुत अच्छे से समझा दी...
दरअसल हमारे देश के विज्ञापनों, धारावाहिकों और फिल्मों में एक प्रोपेगेंडा चल रहा है...
इसमें मुस्लिम व्यक्ति को बहुत ही ज्यादा सहिष्णु और सेकुलर दिखाया जाता है और हिंदू को उससे नफरत करने वाला और बहुत कट्टर दिखाया जाता है...
जो कि समाज की सच्चाई से बिल्कुल उलट है... लेकिन यह सब चीजें बौद्धिक विकास कर रहे हैं एक किशोर के मन में बहुत गहरा असर डालती है...
बार-बार वह ऐसी चीजें देखता है तो उसके मन मे यह समझ विकसित हो जाती है कि हिंदू धर्म बुरा है और यही चीज यह विज्ञापन कंपनियां फैलाना चाहती है....
मगर सच्चाई ठीक इसके उलट है अगर इस देश का 1% हिंदू भी कट्टर होता तो इस देश में सभी धर्मों के लोग इतनी शांति से नहीं रह रहे होते...
मुझे याद है संसद में एक बार जब "जय श्री राम" का नारा लगाया गया था तो सारे सेकुलर लोगों ने इसका कड़ा विरोध करते हुए इसे लोकतंत्र की हत्या तक बता दिया था...
लेकिन जब सीएए के प्रोटेस्ट में जहां सभी धर्मों के लोग शामिल थे "ला इलाहा इल्लल्लाह" का नारा लगाया गया
तो इन्होंने इसका बचाव करते हुए इस को एक सेकुलर नारा करार दिया जबकि इसका अर्थ यह होता है कि "अल्लाह के सिवाय और कोई पूजनीय नहीं है" इस नारे में उन्हें कोई कट्टरता नहीं मिली...
सड़को पर ये नारा गूंज रहा था
"तेरा मेरा रिश्ता क्या...
ला इलाहा इल्लल्लाह"
हिंदू लड़की अगर मुस्लिम लड़के से विवाह करें तो वह इनको सामाजिक समरसता लगती हैं लेकिन कभी भी यह मुस्लिम लड़की को हिंदू लड़के से शादी करते हुए नहीं दिखाते...
मेने तो ऐसा कोई भी विज्ञापन या ऐसी कोई भी फ़िल्म नही देखी... रांझणा में भी हिन्दू लड़का मुस्लिम लड़की से शादी नही कर पाया...
तनिष्क अपने विज्ञापन में एक मुस्लिम लड़की की हिंदू परिवार में गोद भराई दिखा सकता था... जिसमें वह हिंदुओं के रस्मो रिवाज को निभाती हुई दिख रही है लेकिन तनिष्क ने ऐसा नहीं किया क्योंकि "चार्ली हेब्डो" सबको याद है...
उन्हें पता है कि ऐसा किया तो विज्ञापन बनाने वाला मृत पाया जाएगा...
मुझे लगता है कि इस तरह विज्ञापन कंपनियों ने हिंदुओं को उकसाना बंद नहीं किया तो इससे समाज में समरसता तो नहीं फैलेगी इससे हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच की खाई बढ़ेगी और देश में विद्वेष ही फैलेगा...
मैं स्वंय "सर्व धर्म सद्भावना" में विश्वास करने वाला व्यक्ति हूँ...
आप सभी जानते है कि मैं कभी भी धार्मिक कट्टरता वाली बाते नही लिखता लेकिन ये विज्ञपनों द्वारा फैलाई जा रही तथाकथित "सामाजिक समरसता" के नाम पर बार बार हिन्दुत्व पर हमला किये जाने के कारण में ये सब लिखने को विवश हो रहा हूँ...
ईश्वर इनको सद्बुद्धि दे 🙏
हमारे तथाकथित "लोकतंत्र" में हमारी बेटियां सुरक्षित नही है... अब में कुछ उन देशों की बात बताता हूँ जंहा लोकतंत्र नही है या बहुत अल्प विकसित है लेकिन उनकी बेटियों की तरफ कोई आंख उठा कर भी नही देख सकता....
1- उत्तर कोरिया
इसे हम सभी एक तानाशाह देश के रुप में जानते हैं. लेकिन इस तानाशाह देश की एक खासियत ये है कि यहां रेपिस्टों के लिए रहम की कोई गुंजाइश नहीं है. यहां रेपिस्टों को अधिकारी तुरंत ही सर में गोली मारकर सजा देते हैं.
2- चीन
रेपिस्टों के लिए यहां भी कोई दया की गुंजाइश नहीं होती. अगर अपराध साबित हो गया तो अपराधी के लिए बचने का कोई रास्ता नहीं. इन्हें गर्दन और पीठ के ज्वाइंट पर गोली मारी जाती है. और अगर अपराधियों को इतनी आसान मौत ना देनी हो तो उनका बधिया (Castration) कर दिया जाता है.
कपड़ो की धुलाई एक बहुत ही under rated टॉपिक है... आज तक किसी भी राजनीतिक पार्टी ने इसे अपने घोषणा पत्र में जगह नही दी, न ही कभी संसद में इस विषय पर चर्चा की गई... यंहा तक कि संविधान निर्माताओं को 2 वर्ष 11 माह 18 दिन में एक बार भी इसका खयाल नही आया😥
देखा जाए तो ये हर आम आदमी से जुड़ा हुआ मुद्दा है लेकिन अभिनेत्री के शाम के भोजन की एक चपाती तक कि जानकारी रखने वाले समाचार पत्र और क्रांतिकारी मीडिया हाउस भी कभी इस महत्वपूर्ण मुद्दे को कवर नही करते... आज हम इस अति महत्वपूर्ण विषय पर गम्भीर चर्चा करेंगे..
कपड़े धोने का निर्णय लेने के लिए एक अदम्य साहस, कड़ी इच्छाशक्ति और दृढ़ संकल्प की आवश्यकता होती है...
हर सप्ताहांत में छुट्टी का खयाल आते ही हर्ष के बादल उमड़ आते है, लेकिन उन बादलों को आंधी की तरह उड़ा ले जाता है "कपड़े भी धोने पड़ेंगे" ये खयाल... और मन मे एक उदासी छा जाती है..
ये बिहार का एक वीडियो देखिये...
यंहा सरकार का विरोध करने वालो पर समर्थन करने वाले डंडे बरसा रहे है (पोलिस की मौजूदगी में)
हमारा देश इस समय दुबारा अधिनायकवाद के दौर से गुजर रहा है. ठीक ऐसा ही इंदिरा गांधी के समय हुआ था जब समर्थकों ने Indira Is India का नारा लगाया था...
वैसे देखा जाए तो जिस-जिस देश में जब निराशा, अव्यवस्था, असंतोष तथा अभाव होने लगता है वहीं अधिनायकतंत्र का उदय होता है... अधिनायकतंत्र में शासन कुशलता होती है साथ ही यह राष्टींयता की भावना जाग्रत करने में भी सहायक है। लेकिन इसके दोष देखे जाए तो ये गुण दब जाते है..
अधिनायक वाद में क्रियाशीलता तथा स्वतंत्रता की भावना का पूर्णतः लोप हो जाता है, क्योंकि उन्हें बोलने अथवा विचारने आदि की किसी प्रकार की स्वतंत्रता नहीं रहती है... यह व्यवस्था मनुष्य को मनुष्य नहीं बनाती तथा उसे मनुष्य के रूप में रहने भी नहीं देती है..
सोशल मीडया पर ये शब्द बहुत बार सुनने को मिल रहा है और लोग इसको तरह तरह के तथ्यों के साथ पेश कर रहे है... मीडिया चूंकि व्हाट्सएप चैट पढ़ने में व्यस्त है तो सच्चाई कई रूपों में सामने आ रही है...
मुझे जितना कुछ समझ आया है वो में बताने का प्रयास कर रहा हूँ
दरअसल केंद्र सरकार द्वारा कृषि उपज वाणिज्य एवं व्यापार (संवर्द्धन एवं सुविधा) विधेयक, 2020, ‘मूल्य आश्वासन पर किसान (बंदोबस्ती और सुरक्षा) समझौता और कृषि सेवा विधेयक, 2020 और आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक, 2020 ये तीन विधेयक पारित किए गए है..
केंद्र सरकार के अनुसार ये विधेयक किसानों को अपनी फसल कृषि उत्पाद विपणन समिति (APMC) या यूं कहें कृषि मंडी से बाहर बेचने की सुगमता के लिए है... लेकिन इन विधेयकों से किसानों को ये आशंका है कि इससे बड़े व्यापारी उन पर हावी हो जाएंगे और न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) खत्म कर दिया जाएगा
एक समय था जब सूचनाओं के प्रसारण का एकमात्र माध्यम समाचार पत्र हुआ करते थे. पत्रकारों पर एक नैतिक जिम्मेदारी होती थी अपने पाठकों तक सिर्फ सच पहुंचाने की...
लेकिन अब दौर बदल चुका है, लोगो के पास सूचनाओं की प्राप्ति के अनंत माध्यम हो चुके है
अब पत्रकार भी सच्चाई के बजाय रोचकता खोजते है... तथ्यों को घुमा-फिरा, मोड़-तोड़ के इस तरह की शक्ल दी जाती है कि पढ़ने-सुनने वाले को चटपटा लगे...
इस मिर्च मसाले के चक्कर में देश का कितना नुकसान हो रहा है कोई अंदाजा भी नही लगा सकता...
इन खबरों से हमारे मन मे नफरत भरी जा रही है
मसलन किसी चोर को किसी ने पीट दिया ये तो आम खबर हो गई... इसको कोई नही पढ़ेगा...
लेकिन अगर हम चोर का धर्म/जाति और पीटने वाले का धर्म/जाति लिख दे और चोरी वाली बात को गायब कर दे, सिर्फ पीटने वाली बात पर फोकस करे तो बन गई मसालेदार खबर...
जल्द ही ये एक राजनीतिक मुद्दा बन जायेगा
कुछ दिनों पूर्व एक सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश की मृत्यु हुई... उसके विपरीत विचारधारा रखने वालों ने उसका पुरजोर जश्न मनाया...
ऐसे ही जश्न का प्रदर्शन प्रसिद्ध शायर राहत इंदौरी की मृत्यु के बाद किया गया था..
गृह मंत्री अमित शाह एम्स में भर्ती हुए तो गिद्ध विचारधारा वाले ऐसे ही लोगो ने उनकी मृत्यु की कामना के memes बनाने शुरू कर दिए...
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को तो मारने तक कि बाते लोगो को करते हुए देखा जा सकता है..
मुझे समझ नही आता कि क्या हम इतने संवेदनाहींन होते जा रहे है?
हम सब लोग आतंकवादियो से नफरत करने का पाखण्ड करते है, लेकिन क्या हमारी और आतंकवादियो की विचारधारा एक जैसी नही है?
वो भी तो अपने से अलग विचार रखने वालों की मौत पर खुशियां मनाते है, और मौत के घाट उतार देते है..!!
फिर क्या फर्क हुआ उनमे और हम में?