Two gruesome, horrendous, abhorrent incidents happened today. One in Vallabhgadh, another in Munger. Another happened few days ago in Hathras. These are the few which are fortunate enough to become national news.
There are hundreds which happen everyday, cruel enough to shake the conscience of the society, but not even reported. Every such incident, reported or not, create deep divides in the society, on various lines, caste, religion, gender, region, political ideology, language, race.
The society which is already going through transformation, is breaking apart by every such incident. Deep-seated feeling of discrimination is turning into open hatred. Never before, it was on such wide scale, permeating through every strata of the society.
I've talked about India being the only continuous civilization existing in the world. But today, I can see the civilization break happening right before my eyes. The traditional bonds, ingrained in Indian culture, which were keeping Indian civilization intact,
have been overshadowed by the immature democracy. Corporate Media, greedy politicians, spineless bureaucrats are playing the role of catalysts in this social change.
Incidents like #justice4Nikita#MUNGERMASSACRE#HathrasHorror are being used by the politicians to gain vote banks, by bureaucrats to gain political patronage, and by media to gain TRP. Nobody is interested in solving the issues.
I've earlier talked about the upcoming civil war in India. People have been telling me not to talk about such things. But, once again I am saying this, every such incident, is bringing India, one inch closer to the Civil war. And everybody, in his sub-conscious mind, know it.
And I blame only two entities for this. One, politicians and two, Bureaucracy. Because, in India, every bit of the power has been captured by these tho groups. But since, they are busy putting their short-term vested interests above all, the prophecy is set to become true.
Here, I'll not play the role of doomsayer. I'll suggest solution also. 1. Lifestyle of politicians should be like Vedic era Brahmins. Limited wealth, full of knowledge, excessive checks upon public behavior. Their conduct should be pure.
2. Elitist, colonial, overrated, overpowered Civil services should be abolished. In the name of merit, excess power is being given to 22-23 year old inexperienced but overambitious kids, selected by a rote learning based writing speed test.
3. Education system should be overhauled. Graduation shouldn't be a cake walk. Degrees should be used only for academic purpose, not to decide job or posts. Only worthy should be given degrees. Make children learn and not memorize things in their childhood.
Also, experienced should be given preference over education level. Today, starting from a bank clerk to IAS, the basic qualification is graduation. So it is only the study which creates unfillable gap between the two. Why so much importance to study?
There should be a same entry level for all. And then promotion should be based upon in the job performance.
Many of you may think that here I am using these incidents to vent out my frustration against politicians and bureaucrats. Well, I am frustrated. And frightened.
• • •
Missing some Tweet in this thread? You can try to
force a refresh
तो जैसा कि शीर्षक से ही स्पष्ट है, यह थ्रेड बैंकों में उच्च प्रबंधन द्वारा फैलाये गए रायते पर आधारित है। किसी भी बैंक के NPA में अधिकतर भाग कॉर्पोरेट NPA का ही होता है जो कि उच्चाधिकारियों द्वारा ही स्वीकृत किये जाते हैं।
वहीँ दूसरी ओर निचले स्तर पचास हजार के लोन में भी स्टाफ की एकाउंटेबिलिटी बिठा दी जाती है। कैश में 50 रूपये शार्ट होने पर कस्टोडियन की जेब से भरवाने वाले उच्चाधिकारी कैसे हजारों करोड़ का लोन NPA करा के बैठ जाते हैं, ये उसी की कहानी है।
भाग 1: रूचि सोया (Ruchi Soya)
1972-73 में शुरू हुई इस कंपनी ने 2011 तक बहुत अच्छे दिन देखे। दुनिया की टॉप 200 उपभोक्ता उत्पाद कंपनियों में शामिल इस कंपनी का मार्केट वैल्यूएशन लगभग 36,000 करोड़ रूपये तक पहुँच गया था।
आजकल पूंजीवाद का दौर है। यहां हर वस्तु और व्यक्ति का मूल्य होता है। यह मूल्य किसी भी रूप में हो सकता है। अभी कल परसों सौम्या जी ने अपनी कामवाली का जीरो बैलेंस खाता खुलवाया ट्विटर पर पोस्ट किया।
जीरो बैलेंस खाता फ्री में खुलता है मगर आजकल के पूंजीवाद के युग में फ्री का क्या काम। मैडम जी ने तुरंत केक मंगवा कर ट्विटर पे इस नेक काम का ढिंढोरा पीटा और फुटेज कमाई। डेमोक्रेसी राजनीती का पूंजीवाद है।
जैसे पूंजीवादी का एकमात्र उद्देश्य होता है मुनाफा, वैसे ही लोकतंत्र में नेता का एकमात्र उद्देश्य होता है वोट। जैसे पूंजीवाद हर चीज में अपना फायदा ढूंढ लेता है वैसे ही राजनेता भी वोट ढूंढने में माहिर होते हैं। कैसे भी मिले, कहीं से भी मिले, बस वोट मिले।
1. सरकारी स्कीमों को बैंकों पर लाद दिया 2. स्टाफ की भीषण कमी 3. बैंक अफसर की सैलरी केंद्रीय क्लर्क से भी काम, क्लर्क की सैलरी चपरासी से भी कम 4. चपरासी की भर्ती ही ख़तम 5. वेतन संशोधन में देरी
#ScrapIBA 6. बैंकर की समाज में कोई इज्जत नहीं 7. बैंकर से सेफ्टी के लिए कभी आवाज नहीं उठायी 8. फर्जी केसों में फंसे बैंकर्स को कोई कानूनी सहायता नहीं 9. सरकार के किसी तानाशाही कदम का कोई विरोध नहीं 10. बैंकों में भौतिक संसाधनों की कमी #ScrapIBA
#ScrapIBA 11. ग्राहकों की मनमानी के सामने बैंकर असहाय
12.कहीं क्वार्टर की व्यस्था नहीं, बैंकर किराये के मकानों में रहने को मजबूर 13. कोरोना जैसी महामारी में भी बैंकर को न भौतिक, न सामाजिक और न ही आर्थिक सुरक्षा 14. जिलाधीशों के तुग़लकी आदेशों के खिलाफ कोई आवाज तक नहीं #ScrapIBA
बीमा सेक्टर में जब FDI कि शुरुआत हुई तो विदेशी कंपनियों को भारत में बीमा का एक बड़ा मार्केट नजर आने लगा। वो मार्केट जिस पर एक सरकारी कंपनी LIC का लगभग-लगभग एकाधिकार था।
अब न तो विदेशी बीमा कंपनियों के पास इतना समय था और न ही धैर्य कि वे भारत में LIC के जैसा एजेंटों का नेटवर्क बना पाते। उन्होंने शॉर्टकट अपनाया। लगभग उसी समय भारत में सुपरमार्केट बैंकिंग की तर्ज पर Bankassurance नामक घोटाले की शुरुआत हुई।
मतलब अब बैंकों को भी बीमा बेचने एक अधिकार मिल गया (जोकि आजकल जिम्मेदारी बन गयी है)। विदेशी बीमा कंपनियों ने भारतीय बैंकों के साथ मिल के जॉइंट वेंचर्स में काम करना शुरू किया। SBI के साथ BNP Paribas, PNB के साथ Metlife जैसे कंपनियों ने मिलकर बीमा बेचने का काम शुरू किया।
अमेरिका और रूस के बीच लम्बा शीतयुद्ध चला है। लेकिन कभी भी ये युद्ध अमरीका या रूस की भूमि पर नहीं लड़ा गया, ना ही दोनों देशों को कोई भारी नुक्सान हुआ, बल्कि फायदा ही हुआ।
पूंजीवादियों ने अपने समर्थक गुटों को हथियार बेचे और साम्यवादियों ने अपने समर्थक दलों को। लड़ाई का शिकार हुए तुर्की, क्यूबा, वियतनाम, कोरिया, अफ़ग़ानिस्तान, सीरिया जैसे छोटे देश। कुछ देश जैसे उत्तर कोरिया, अफ़ग़ानिस्तान, सीरिया पूरी तरह बर्बाद हो गए।
कुछ देशों ने पूँजीवाद की राह पकड़ ली, जैसे दक्षिण कोरिया, तुर्की। और कुछ देश समाजवाद के रस्ते चल पड़े जैसे वियतनाम और क्यूबा। कुल मिलाकर पूंजीवाद कर साम्यवाद रुपी दो पाटों के बीच में छोटे-छोटे देश अनाज की तरह पिस गए। भारत की एक अलग दास्ताँ है।
2008 की वैश्विक मंदी का भारत पे कोई ख़ास असर नहीं पड़ा। बहुत से लोग इसका श्रेय मनमोहन सिंह जी और UPA सरकार को देते हैं। मुझे इस बात में संदेह है। कारण? पहला ये कि मनमोहन जी भारतीय अर्थव्यस्था में 1970 से ही सक्रिय रहे हैं। और काफी महत्वपूर्ण पदों पर रहे हैं।
इसी दौरान भारत की अर्थव्यस्था ऋणात्मक भी रही, मुद्रा स्फीति दो अंकों में भी पहुंची, कर की दरें 90% से भी अधिक रहीं। इतने भीषण अर्थशास्त्री के होने के बावजूद भारत 1991 में डिफ़ॉल्ट करने की स्थिति में आ गया था। और दूसरा ये कि 1997 में भी आर्थिक मंदी आयी थी। एशियाई देशों में।
उसका भी प्रभाव भारत पर नहीं पड़ा। तो फिर क्या कारण था कि 2008 में जब पूरा विश्व आर्थिक मंदी से जूझ रहा था तब भारत की आर्थिक वृद्धि दर आठ से भी ऊपर थी? कारण है भारतीयों की बचत की आदत। बचत की आदत का मुख्य कारण है मानसून आधारित खेती।