महाभारत से एक बड़ी सीख ये मिलती है कि घर के मुद्दे अगर घर में ही निपटा लिए जाएँ तो बेहतर हैं। नहीं तो बाहर वाले उन मुद्दों कि आड़ में अपना उल्लू सीधा करने में लग जाते हैं।
शकुनि को भीष्म और हस्तिनापुर से बदला लेना था इसलिए उसने दुर्योधन को भड़काया। द्रोणाचार्य और द्रुपद ने आपस का हिसाब सेटल करने के लिए कौरव और पांडवों का साथ दिया। कर्ण और एकलव्य दोनों को अर्जुन से पर्सनल खुन्नस निकालनी थी।
यदुवंशी भी अपने अपने स्वार्थ के हिसाब से अपने अपने पसंदीदा पक्षों में बंट गए। ऐसा ही एक महाभारत बैंकों के वेज सेटलमेंट में भी होता है। यहां भी पारिवारिक लड़ाई में बाहर के लोग घुसे हुए हैं। यहां दो पक्ष हैं, बैंकर और मैनेजमेंट।
सेटलमेंट बैंकरों की सैलरी का होना है पर डिस्कशन वे लोग कर रहे हैं जो 10 साल पहले ही रिटायर हो चुके हैं। जो असली बैंकर है उससे तो कोई पूछ ही नहीं रहा।
गिने चुने लोगों ने आपस में ही मुद्दे डिसाइड कर लिए हैं और उन्हीं मुद्दों को लेकर बिना मतलब का रस्सा कशी का खेल दिखाया जा रहा है ताकि ये लेवी मांगते ते टाइम ये कह सकें कि बहुत मेहनत से सेटलमेंट कराया है। उनके लिए आजकल के बैंकरों की समस्याओं से कोई मतलब ही नहीं।
मतलब होगा भी कहाँ से? उनके समय में बैंकर की नौकरी के मायने अलग थे। उनको क्या पता आजकल ब्रांच कैसे चलती है? NPS, स्टाफ शॉर्टेज, वर्क लाइफ बैलेंस, बैंकर प्रोटेक्शन, क्रॉस सेलिंग, CCL, जैसी तुच्छ चीजों से उनको क्या ही लेना देना? उनकी महत्वाकांक्षाएं राजनीतिक हैं।
आप जानते हैं न कि जो यूनियन आपके वेज सेटलमेंट में हिस्सा लेते हैं वो किसी न किसी राजनीतिक पार्टी के हाथों की कठपुतलियां हैं। उनके अपने ही अलग मुद्दे हैं। वो बड़े मंच के अभिनेता हैं। उनकी डोर बड़े लोगों के हाथों में है।
तभी तो बैंकर्स के सेटलमेंट की आड़ में वे लोग अपना राजनीतिक एजेंडा घुसाए रहते हैं। आप मानें न मानें लेकिन असली मुद्दे हमेशा ही राजनीतिक होते हैं। अगर आपको लगता है कि हड़ताल के नाम पर अपनी सैलरी कटा कर आपका कोई भला होने वाला है तो आप भुलावे में हैं।
आपको लगता होगा कि आपने कभी किसी राजनीतिक पार्टी को चंदा नहीं दिया, लेकिन असलियत ये है कि जो फीस और लेवी आप अपनी यूनियन को देते हैं वो वास्तव में राजनीतिक पार्टियों की फंडिंग के लिए जाता है।
मतलब आपकी खून पसीने की कमाई उन राजनेताओं और पार्टियों को जा रही है जो आपको फूटी आँख भी नहीं सुहाते। जिस पार्टी के विरोध के चक्कर में आप अपने पुराने दोस्तों तक से मन मुटाव कर लेते हैं उसी पार्टी को आप अपनी सैलरी का एक हिस्सा दे रहे हैं।
UFBU के नौ घटक हैं। यहां सबके राजनीतिक आकाओं की लिस्ट दी हुई है:
AIBEA : CPI
NOBW : BJP
BEFI : CPI(M)
NCBE : No political Affiliation
INBEF : Congress
AIBOC : No political Affiliation
AIBOA : CPI
NOBO : BJP
INBOC : Congress
मैनेजमेंट और सरकार के अत्याचारों से दुखी बैंकर बेचारा यूनियन के पास जाता है। यूनियन उससे फीस और लेवी वसूलती है। वो फीस और लेवी अपने राजनीतिक आकाओं तक पहुंचाती है। फिर उस पैसे से राजनेता आपस में बैठ कर बंदरबांट करते हैं।
बैंकरों की शक्ति और पैसे का इस्तेमाल करके अपने अपने स्वार्थ सिद्ध किये जाते हैं। बैंकर और मैनेजमेंट की लड़ाई में फायदा राजनेताओं का हो रहा है। बेचारे बैंकर की सैलरी सरकारी चपरासी से भी कम हो गयी है और काम दुनियाभर का लाद रखा है।
यूनियन बैंकरों के लिए लड़ने का ढोंग कर रहे हैं और यहां बैंकर पिट रहा है, कोरोना से मर रहा है, जेब से कैश शॉर्टेज भर रहा है, कभी न वापिस आने वाले लोन बाँट रहा है, सरकार के वोट बैंक को खुश कर रहा है।
हम भारतीय भी महान हैं। जिस महाभारत को पढ़ कर सबको सीख लेनी चाहिए उसी महाभारत को घर में रखना मना है। कहते हैं कि घर में महाभारत रखने से घर में लड़ाई हो जाती है।
डिस्क्लेमर: मैं किसी यूनियन का विरोधी या समर्थक नहीं हूँ। यहां मेरा उद्देश्य केवल जानकारी उपलब्ध कराना है।
चूंकि ICICI बड़ा बैंक है इसलिए इसकी कहानी भी काफी बड़ी है। इसे एक भाग में समेटना मुश्किल हो गया था। इसलिए इसे दो भागों में पेश कर रहा हूँ।
ICICI की गिनती देश के सबसे बड़े बैंकों में होती है। इस बैंक की सफलता को एक आदर्श के रूप में भी प्रस्तुत किया जाता रहा है। 1994 में स्थापित हुए इस बैंक को 2001 के बाद लगभग हर साल ही भारत के बेस्ट रिटेल बैंक का अवार्ड मिलता आ रहा है।
देश में 1998 में ही इंटरनेट बैंकिंग लाने वाले इस बैंक को टेक्नोलॉजी से लेकर कस्टमर सर्विस में कई अवार्ड मिले हैं। विशेषकर जब चंदा कोचर इसकी CEO थीं तब तो ICICI महिला सशक्तिकरण का प्रतीक बन चुका था।
भारतीय संस्कृति में अंधभक्ति वर्जित है। हमारे सभी धर्मशास्त्र, उपनिषद, वेद पुराण, स्मृतियों में ज्यादातर व्याख्या प्रश्नोत्तर रूप में ही की गयी है। लक्ष्मीजी ने विष्णुजी से, पार्वती ने शिव से, अर्जुन ने कृष्ण से हजारों सवाल पूछे। नचिकेता ने तो यमराज तक से सवाल पूछे थे।
उपनिषद का मतलब ही होता है कि गुरु के पास बैठना। अब पास बैठोगे तो सवाल भी पूछोगे ही। परन्तु आजकल जो वर्क कल्चर चल रहा है उसमें सवाल पूछना वर्जित है। आपको आँख बंद करके ऊपर वालों का हर आदेश मानना है। यही हाल यूनियन के साथ भी है।
हर महीने फीस काट ली जाती है मगर ये कभी नहीं पता चलता कि वो पैसा गया कहाँ? हमें ये भी नहीं पता कि यूनियन वाले करते क्या हैं। वेज सेटलमेंट हो गया लेकिन अभी तक किसी ने ये नहीं बताया कि हमारी प्रमुख मांगें क्यों नहीं मानी गयी।
आज आते हैं कॉर्पोरेट्स के प्यारे, सरकार की आँखों के तारे, इन्वेस्टर्स के दुलारे यस बैंक पर। एक समय था जब यस बैंक सेविंग पर 7% ब्याज देता था (और SBI सिर्फ 4%) और डिपॉजिटर्स ख़ुशी ख़ुशी लाइन में लग कर अपना पैसा यस बैंक में जमा कराते थे।
पिछले दिनों उसी यस बैंक से पैसा निकालने के लिए वैश्विक महामारी के दौरान, भरी दोपहरी में लोगों की लम्बी लम्बी कतारें लगी थी। तो आइये जानते हैं यस बैंक की पूरी कहानी।
1999 में ABN Amro Bank के पूर्व कंट्री हेड श्री अशोक कपूर और Deutsche Bank के पूर्व कंट्री हेड श्री हरक्रीत सिंह ने एक नए बैंक की नींव रखने की योजना बनायीं। अशोक कपूर साहब के कहने पर ANZ Grindlays bank के पूर्व कॉर्पोरेट फाइनेंस हेड श्री राणा कपूर को भी इस योजना में शामिल किया।
भाग 3: Housing Development and Infrastructure Limited (HDIL) और Punjab & Maharashtra Co-operative Bank Limited (PMC)
महाराष्ट्र में झुग्गी बस्तियों यानि स्लम की समस्या काफी बड़ी है।
और असली समस्या इन झुग्गियों की नहीं है, असली समस्या ये है कि ये झुग्गी बस्तियां जिस जमीन पर बनी हुई हैं वो जमीन मुंबई की काफी प्राइम लोकेशन पे है जिस पर सरकार और पूंजीपतियों की नजर शुरू से रही है।
दोनों का ही मानना है कि ये झुग्गियां मुंबई की खूबसूरती पर धब्बा हैं इसलिए इनको हटा कर वहां आलीशान बंगले और मॉल बनने चाहिए। इसी उद्देश्य से 1995 में महाराष्ट्र सरकार ने नया कानून बनाया और "Slum Rehabilitation Authority" की स्थापना की।
मुंशी प्रेमचंद ने 'रंगभूमि' में लिखा है कि बच्चे बहुत जिज्ञासु होते हैं मगर केवल संख्यात्मक रूप से। उनको हजार और लाख से संतुष्टि नहीं होती। उनको करोड़ बताओगे तो वे करोड़ के बाद वाली संख्या के बारे में पूछेंगे। और ये जिज्ञासा कभी ख़तम नहीं होती।
उनको अरब-खरब के बाद क्या आता है ये भी जानना है। अगर आपको नहीं पता तो किसी और से पूछेंगे। और तब तक पूछेंगे जब तक कि कोई उनको सच्ची झूठी खरब से बड़ी कोई नयी संख्या बता नहीं देता। उनको हर चीज को संख्या के पैमाने पर मापना होता है।
बाद में इस जानकारी के बारे में अपने दोस्तों के सामने डींगें भी हांकेंगे। जैसे कि कोई अगर बोलेगा कि उसके पापा के पास एक लाख रूपये हैं तो अगला तुरंत बोलेगा कि उसके पापा के पास तो एक करोड़ रूपये हैं। अगले के पापा के पास एक अरब निकलेंगे और उससे अगले के पास एक खरब।
DHFL का फ्रॉड अकेला नहीं है। इसके साथ PMC, HDIL के फ्रॉड भी जुड़े हैं (इनके बारे में कभी और बात करेंगे)। DHFL का केस समझने के लिए पहले हमें वाधवान फैमिली को समझना होगा।
मैं ज्यादा डिटेल में नहीं जाऊंगा। आप ये फोटो देखिये।
DHFL एक डिपॉजिट टेकिंग NBFC है। 1984 में शुरू हुई इस कंपनी का मुख्य उद्देश्य था लोअर और मिडिल क्लास हाउसिंग लोन देना। DHFL एक ज़माने में देश की सबसे बड़ी हाउसिंग फाइनेंस कंपनी हुआ करती थी।