नीति आयोग और अमिताभ कांत जी को रिफॉर्म्स की इतनी जल्दी है कि वो बेसिक होमवर्क करना ही भूल जाते हैं। रिफॉर्म्स के लिए पहला जरूरी कदम होता है आधारभूत ढांचा बनाना। उदाहरण के लिए डिजिटाइजेशन को लेते हैं।
बायोमेट्रिक डिवाइस और सॉफ्टवेयर डिजिटाइजेशन के लिए मूलभूत जरूरत है। इसलिए सरकार को चाहिए था कि देश में बायोमेट्रिक डिवाइस के निर्माण को प्राथमिकता देती। लेकिन सरकार तो जल्दी में थी। डिजिटाइजेशन डंडे के जोर पर लागू करवा दिया।
बायोमेट्रिक डिवाइस चीन से मंगवानी पड़ी। आज भी ज्यादातर बायोमेट्रिक डिवाइस चीन से आती हैं। दूसरा कदम था कि लोगों को कैशलेस लेन-देन के लिए बढ़िया माध्यम उपलब्ध कराना। बिना किसी साइबर सिक्योरिटी सिस्टम के आनन फानन में UPI लागू कर दिया।
फिर जरूरत थी लोगों को इन नए लेन-देन के माध्यम से परिचित कराने की। लेकिन लोगों को तरीके से समझने की बजाय कैशबैक का लॉलीपॉप पकड़ा दिया। आज की तारीख में सबसे ज्यादा फ्रॉड UPI से ही होते हैं। अगला कदम होता है लोगों को नकद लेन-देन के नुकसान समझाना।
लेकिन इतनी मेहनत कौन करे? सरकार ने तुरंत बैंकों पर डंडा चलते हुए कैश ट्रांजेक्शन पर अंट-शंट चार्ज लगा दिए। फिर जरूरी होता है कि जिस कारण से कैश में ज्यादा लेनदेन होता है वो ढूंढ कर उनका समाधान करना। और इसमें पहला नंबर आता है जमीन के लेन-देन का।
जमीन के लेन-देन में लोग रजिस्ट्री स्टाम्प फी बचाने के लिए कागजों में जमीन की कीमत कई गुना कम दिखाते हैं। सरकार को चाहिए था कि स्टाम्प फी को नियमित करे, और जमीन की कीमत का राष्ट्रीय स्तर पर कम्प्यूटराइजेशन करे। सरकार ने क्या किया? नोटबंदी। वो भी हाबड़-धूबड़ तरीके से।
अमिताभ कांत जी को तो डिजिटाइजेशन की इतनी जल्दी थी कि उन्होंने 2017 में ही घोषणा कर दी थी कि तीन साल में पूरी बैंकिंग ब्रांचलेस हो जायेगी। इस चक्कर में बैंकों में स्टाफ खत्म कर दिया और बैंकिंग का ही बंटाधार कर दिया। GST का भी यही हश्र हुआ।
कोरोना में बिना सोचे समझे लॉकडाउन लगा दिया। पहले बोला 7 दिन, फिर खींचते खींचते 7 महीने कर दिया। उससे जो अर्थव्यस्था का बेडागर्क हुआ उसे सुधारने के लिए बैंकों को अंधों की तरह लोन बाँटने का आदेश दे दिया। इसका फल भी जल्द ही देखने मिलेगा।
आजकल कृषि बिल का मुद्दा गरमाया हुआ है। और जिस तरह से सरकार ने इसे लागू किया है आश्चर्य की बात नहीं होगी अगर इसके पीछे भी अमिताभ कांत साहब का ही दिमाग हो। कौनसा रिफार्म अच्छा था कौनसा बुरा इस पर चर्चा नहीं करेंगे।
अगर कान्त साहब और नीति आयोग का ट्रैक रिकॉर्ड देखा जाए तो एक रिफार्म ढंग से लागू नहीं कर पाए। डिजिटाइजेशन और नोटबंदी की असफलता का ठीकरा बैंकों के सर फोड़ दिया। GST की खामियों के लिए व्यापारियों को ही जिम्मेदार ठहरा दिया।
अब कह रहे हैं कि देश में "Too Much democracy" है इसलिए ये अपने मन की नहीं कर पा रहे हैं। डेमोक्रेसी मूंग के हलवे की तरह होती है। इसको बहुत देर पकाना पड़ता है, बहुत मेहनत लगती है, ढेर सारी चीजें लगती है, तब कहीं जाकर स्वाद बढ़िया आता है। साहब को शायद पिज़्ज़ा-बर्गर की आदत है।
फ़ोन पे आर्डर देने के बाद तीस मिनट में होम डिलीवरी। साहब शायद भूल गए की ये हिंदुस्तान है, यहां आज भी लोग मूंग का हलवा ज्यादा पसंद करते हैं।
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एक बार अकबर ने एक सपना देखा। सपने में उसने देखा कि बादलों में एक बड़ा ही सुन्दर महल बना हुआ है। राजा उस महल की सैर कर ही रहा था कि सपना टूट गया। दरबार में बादशाह ने अपना सपना दरबारियों को सुनाया।
अब दरबारी ठहरे एक से बढ़ कर एक चापलूस।
"हुज़ूर, ऐसा महल तो आपके पास ही होना चाहिए।"
"अगर ऐसा महल हमारे राज्य में होगा तो हुज़ूर की शान में चार चाँद लग जाएंगे।"
"उस महल को देखने इतने पर्यटक आएंगे कि मुल्क मालामाल हो जाएगा।"
"आप कहें तो दुनिया के एक से बढ़कर एक कारीगर आपके लिए हाज़िर कर दें।"
बादशाह को भी बादलों में महल बनवाने की बात जाँच गयी। बादशाह ने अपने सबसे खास दरबारी बीरबल को बुलाया।
"बीरबल, क्या तुम हमारे लिए ऐसा महल बनवा सकते हो?"
बीरबल बड़ा चालाक और मौकापरस्त व्यक्ति था।
शाहरुख़ खान बॉलीवुड एक्टर्स द्वारा चलाये जा रहे सोशल एक्टिविज्म के बारे में कहते हैं कि "हम लोग 'भांड' लोग हैं। हमें केवल भांडगिरी ही करनी चाहिए।"
भांड एक आम भाषा का शब्द है जिसके दो मतलब हैं। पहला मतलब है नाच गा कर लोगों का मनोरंजन करने वाला। इस में एक कला स्वांग या बहरूपिया भी होती है। बहरूपिये का काम होता है भिन्न भिन्न रूप धर के लोगों का मनोरंजन करना।
और एक बहरूपिये की कला-दक्षता का निर्णय इससे होता है कि वो जो भी रूप धरे उसमें पूरी तरह रम जाए। जो भी करे अपने स्वांग के हिसाब से ही करे। अब चाहे स्वांग रानी लक्ष्मीबाई का हो या चाहे किसी वेश्या का। भांड अपने स्वांग (अंग्रेजी में 'रोल') के साथ बेईमानी नहीं कर सकता।
Politicians are bound to be vote oriented. It is the duty of the permanent executive (bureaucrats) to advise rightly to the government and do not compromise with the larger national interest. But these days bureaucrats have forgotten the foundational characteristic of bureaucracy
That is, work in anonymity. Neither Macaulay (father of modern education system), nor Sardar Patel wanted Civil services to be a celebrity job. Macaulay said that a civil servant should have "ordinary prudence".
Sardar Patel said that let the politicians be face of the government, civil servants should be at its core. But these days bureaucrats are busy in becoming "Singham" and "firebrand". They do live raids on YouTube, indulge in spat on Twitter and what not.
एक बार जब हस्तिनापुर की राज्यसभा में युधिष्ठिर और दुर्योधन में से भावी युवराज के चयन का प्रश्न चल रहा था तब विदुर ने दोनों की न्यायिक क्षमता जांचने का सुझाव दिया। राज्यसभा में चार अपराधी बुलाये गए जिन पर कि हत्या का आरोप सिद्ध हो चुका था।
बारी थी सजा निर्धारित करने की। पहला नंबर दुर्योधन का आया। दुर्योधन ने तुरंत चारों को मृत्युदंड सुना दिया। फिर युधिष्ठिर का नंबर आया। युधिष्ठिर ने पहले चारों का वर्ण पूछा। फिर वर्ण के हिसाब से शूद्र को 4 साल, वैश्य को 8 साल, क्षत्रिय को 16 साल की सजा दी।
और ब्राह्मण को अपनी सजा स्वयं निर्धारित करने के लिए कहा। लोकतंत्र में इस कहानी का काफी महत्व है।
जब मैं UPSC की कोचिंग कर रहा था तो इंटरव्यू गाइडेंस के लिए UPSC के एक रिटायर्ड मेंबर लेक्चर के लिए आये थे।
ये कौनसा देश है जो आगे बढ़ रहा है? कहीं अपनावाला देश तो नहीं? पर हमको तो नहीं दिखाई देता। लेकिन नेता लोग तो कह रहे हैं कि आगे बढ़ रहा है। और लोकतन्त्र कहता है नेता बहुत समझदार होते हैं। फिर तो सही ही बोल रहे होंगे। मतलब देश तो आगे बढ़ रहा है।
बस हमको पता नहीं चल रहा।कहीं ऐसा तो नहीं तो देश चुपचाप आगे बढ़ रहा हो, किसी को बिना बताये। हो सकता हैकि जब रात को हम सो रहे हों तब देश चुपके से आगे बढ़ जाता हो और सुबह हम लोगों के मजे लेनेके लिए रुक जाता हो।नेताओं को पता लग ही जाता होगा। क्यूंकि वे तो बेचारे रात दिन काम करते हैं।
पब्लिक ही है जो आलसियों की तरह रात को सो जाती है। पब्लिक सोती है तभी तो देश आगे बढ़ता है। मतलब पब्लिक ही देश के आगे बढ़ने में बाधक है। या फिर ये भी हो सकता है कि देश हमको बिना साथ लिए ही आगे बढ़ रहा है। नेता भी आगे बढ़ रहे हैं, इसीलिए उनको पता है।
सारे मंत्री भ्रष्ट थे, और आपस में लड़ रहे थे। जनता लुट रही थी। भ्रष्टाचार के कारण राज्य के व्यापारी भी दुखी थे। राजकीय घाटे को पूरा करने के लिए राजा ने व्यापारियों पर दुगुने-चौगुने कर लगा रखे थे। ऊपर से मंत्री भी बेचारे व्यापारियों के पास रंगदारी वसूलने पहुँच जाते।
व्यापारी बेचारे क्या करते, वे अपना घाटा जनता से पूरा करते। जनता भी त्रस्त थी। व्यापारियों के ऊपर जनता का विश्वास टूटने लगा। यहां राजा और मंत्रियों की पैसे की भूख खत्म ही नहीं हो रही थी।