श्रीसूक्त: अर्थ एवं महत्व रंजू नारंग धन की अधिष्ठात्री देवी मां लक्ष्मी जी की कृपा प्राप्ति के लिए ऋग्वेद में वर्णित श्री सूक्त का पाठ एक ऐसी साधना है जो कभी निष्फल नहीं होती। मां लक्ष्मी के आह्वान एवं कृपा प्राप्ति के लिए श्री सूक्त पाठ की विधि द्वारा आप बिना किसी ।
विशेष व्यय के भक्ति एवं श्रद्ध ापूर्वक मां लक्ष्मी की आराधना करके आत्मिक शांति एवं समृद्धि को स्वयं अनुभव कर सकते हैं। यदि संस्कृत में मंत्र पाठ संभव न हो तो हिंदी में ही पाठ करें।
दीपावली पर्व पांच पर्वों का महोत्सव है। कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी (धनतेरस) से प्रारंभ होकर कार्तिक शुक्ल द्वितीया (भैयादूज) तक पांच दिन चलने वाला दीपावली पर्व धन एवं समृद्धि प्राप्ति,
व्यापार वृद्धि ऋण मुक्ति आदि उद्देश्यों की पूर्ति के लिए मनाया जाता है। श्री सूक्त का पाठ धन त्रयोदशी से भैयादूज तक पांच दिन संध्या समय किया जाए तो अति उत्तम है। धन त्रयोदशी के दिन गोधूलि वेला में साधक स्वच्छ होकर
पूर्वाभिमुख होकर सफेद आसन पर बैठें। अपने सामने लकड़ी की पटरी पर लाल अथवा सफेद कपड़ा बिछाएं। उस पर एक थाली में अष्टगंध अथवा कुमकुम (रोली) से स्वस्तिक चिह्न बनाएं। गुलाब के पुष्प की पत्तियों से थाली
सजाएं, संभव हो तो कमल का पुष्प भी रखें। उस गुलाब की पत्तियों से भरी थाली में मां लक्ष्मी एवं विष्णु भगवान का चित्र अथवा मूर्ति रखें। साथ ही थाली में श्रीयंत्र, दक्षिणावर्ती शंख अथवा शालिग्राम में से जो भी वस्तु आपके पास उपलब्ध हो, रखंे। सुगंधित धूप अथवा गुलाब की
अगरबत्ती जलाएं। थाली में शुद्ध घी का एक दीपक भी जलाएं। खीर अथवा मिश्री का नैवेद्य रखें। तत्पश्चात् निम्नलिखित विधि से श्री सूक्त की ऋचाओं का पाठ करें। ऋग्वेद में लिखा गया है कि यदि इन ऋचाओं का पाठ करते हुए शुद्ध घी से हवन भी किया जाए तो इसका फल
द्विगुणित होता है। सर्वप्रथम दाएं हाथ में जल लेकर निम्न मंत्र से पूजन सामग्री एवं स्वयं पर छिड़कें। मंत्र- ¬ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यान्तरः शुचिः।। अर्थ- पवित्र हो या अपवित्र अथवा किसी भी अवस्था में हा,े जो विष्णु
भगवान का स्मरण करता है वह अंदर और बाहर से पवित्र हो जाता है। उसके बाद निम्न मंत्रों से तीन बार आचमन करें- श्री महालक्ष्म्यै नमः ऐं आत्मा तत्वं
शोधयामि नमः स्वाहा। अर्थ- श्री महालक्ष्मी को मेरा
नमन। मैं आत्मा तत्व को शुद्ध करता हूं। श्री महालक्ष्म्यै नमः ह्रीं विद्या तत्वं शोधयामि नमः स्वाहा अर्थ- श्री महालक्ष्मी को मेरा नमन। मैं विद्या तत्व को शुद्ध करता हूं। श्री महालक्ष्म्यै नमः क्लीं षिव तत्वं शोधयामि नमः
स्वाहा अर्थ-श्री महालक्ष्मी को मेरा नमन। मैं शिव तत्व को शुद्ध करता हूं। (तत्पश्चात् दाएं हाथ में चावल लेकर संकल्प करें।) हे मां लक्ष्मी, मैं समस्त कामनाओं की पूर्ति के लिए श्रीसूक्त लक्ष्मी जी की जो साधना कर रहा हूं,
आपकी कृपा के बिना कहां संभव है। हे माता श्री लक्ष्मी, मुझ पर प्रसन्न होकर साधना के सफल होने का आशीर्वाद दें। (हाथ के चावल भूमि पर चढ़ा दें।) विनियोग करें (दाएं हाथ में जल लें।) मंत्रा: ¬ हिरण्यवर्णामिति पंषदषर्चस्य
महालक्ष्मी प्रसाद सिद्धयर्थे जपे विनियोगः। (जल भूमि पर छोड़ दें।) अर्थ- इस पंद्रह ऋचाओं वाले श्री सूक्त के कर्दम और चिक्लीत ऋषि हैं अर्थात् प्रथम तंत्र की इंदिरा ऋषि है, आनंद कर्दम और चिक्लीत इंदिरा पंुज है और शेष चैदह मंत्रों के द्रष्टा हैं। प्रथम तीन ऋचाओं का
अनुष्टुप, चतुर्थ ऋचा का वहती, पंचम व षष्ठ ऋचा का त्रिष्टुप एवं सातवीं से चैदहवीं ऋचा का अनुष्टुप् छंद है। पंद्रह व सोलहवीं ऋचा का प्रसार भक्ति छंद है। श्री और अग्नि देवता हैं। ’
’हिरण्यवर्णा’ प्रथम ऋचा बीज और ’कां सोस्मितां’ चतुर्थ ऋचा शक्ति है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्ति के लिए विनियोग है। (हाथ जोड़ कर लक्ष्मी जी एवं विष्णु जी का ध्यान करें।) गुलाबी कमल दल पर
बैठी हुई, पराग राशि के समान पीतवर्णा, हाथों में कमल पुष्प धारण किए हुए, मणियों युक्त अलंकारों को धारण किए हुए, समस्त लोकों की जननी श्री महालक्ष्मी की हम वंदना करते हैं। श्री सूक्त का पाठ ¬ हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवण्र् ारजतस्रजाम्। चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं जातवेदो
म आ वह।। अर्थ- जो स्वर्ण सी कांतिमयी है, जो मन की दरिद्रता हरती है, जो स्वर्ण रजत की मालाओं से सुशोभित है, चंद्रमा के सदृश प्रकाशमान तथा प्रसन्न करने वाली है, हे जातवेदा अग्निदेव ऐसी देवी लक्ष्मी को मेरे घर बुलाएं। महत्व- स्वर्ण रजत की प्राप्ति होती है। तां म आ वह
जातवेदो लक्ष्मी मनपगामिनीम्। यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामष्वं पुरुषानहम्।। अर्थ- हे जातवेदा अग्निदेव। आप उन जगत् प्रसिद्ध लक्ष्मी जी को मेरे लिए बुलाएं जिनका आवाहन करने पर मैं स्वर्ण, गौ, अश्व और भाई, बांधव, पुत्र, पौत्र आदि को प्राप्त करूं। महत्त्व- गौ, अश्व आदि
की प्राप्ति होती है। अष्वपूर्वां रथमध्यां हस्तिनाद प्रमोदिनीम्। श्रियं देवीमुप ह्वये श्रीर्मा देवी जुषताम्।। अर्थ-जिस देवी के आगे घोड़े और मध्य में रथ है
अथवा जिसके सम्मुख घोड़े रथ में जुते हुए हैं, ऐसे रथ में बैठी हुई हाथियों के निनाद से विश्व को प्रफुल्लित करने वाली देदीप्यमान एवं समस्त जनों को आश्रय देने वाली लक्ष्मी
मंद-मंद मुस्काता है, आपका स्वरूप अवर्णनीय है, आप चारों ओर से स्वर्ण से ओत प्रोत हैं और दया से आर्द्र हृदया अथवा समुद्र से उत्पन्न आर्द्र
शरीर से युक्त देदीप्यमान हैं। भक्तों के नाना प्रकार के मनोरथों को पूर्ण करने वाली, कमल के ऊपर विराजमान, कमल सदृश गृह में निवास करने वाली प्रसिद्ध लक्ष्मी को मैं अपने पास
बुलाता हूं। महत्व- मां लक्ष्मी की दया एवं संपत्ति की प्राप्ति होती है। चन्द्रां प्रभासां यषसां ज्वलन्तीं श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम्। तां पद्मिनीमीं शरणं प्रपद्येअलक्ष्मीर्में नष्यतां त्वां वृणे।।
अर्थ- चंद्रमा के समान प्रभा वाली, अपनी कीर्ति से देदीप्यमान, स्वर्गलोक में इंद्रादि देवों से पूजित अत्यंत उदार कमल के मध्य रहने वाली,
आश्रयदात्री आपकी मंै शरण में आता हूं। आपकी कृपा से मेरी दरिद्रता नष्ट हो। महत्व- दरिद्रता का नाश होता है। आदित्यवर्णे तपसोधि जातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथबिल्वः। तस्य फलानि तपसा नुदन्तु या अन्तरा याष्च बाह्या
अलक्ष्मीः।। अर्थ- हे सूर्य के समान कांति वाली, आपके तेज से ये वन पादप प्रकट हैं। आपके तेज से यह बिना पुष्प के फल देने वाला बिल्व वृक्ष उत्पन्न हुआ। उसी प्रकार आप अपने तेज से मेरी बाहृय और आभ्यंतर की
कीर्ति मुझे प्राप्त हो (मतांतर से - मण्णिभद्र (कुबेर के मित्र) के साथ कीर्ति अर्थात् यश मुझे प्राप्त हो) मैं इस विश्व में उत्पन्न हुआ हूं इसमें मुझे कीर्ति- समृद्धि प्रदान कर गौरवान्वित करें। महत्व- श्री सूक्त का पाठ करने से
यश और कीर्ति प्राप्त होती है। क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाषयाम्यहम्। अभूतिमसमृद्धिं च सर्वां निर्णुद मे गृहात्।। अर्थ- भूख और प्यास रूपी मैल को घारण करने वाली ज्येष्ठ भगिनी अलक्ष्मी को मंै नष्ट
करता हूं। हे लक्ष्मी। आप मेरे घर से अनैश्वर्य, वैभवहीनता तथा धन वृद्धि के प्रतिबंधक विघ्नों को दूर करें। महत्व- श्री सूक्त का पाठ करने से परिवार की दरिद्रता दूर होती है। गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिण् ाीम् ईष्वरीं
सर्वभूतानां तामिहोप ह्वये श्रियम्।। अर्थ- सुगंधित पुष्प के समर्पण से प्राप्त करने योग्य, किसी से भी न दबने योग्य धन धान्य से सर्वदा पूर्ण कर समृद्धि देने, वाली, समस्त प्राणियों की स्वामिनी तथा संसार प्रसिद्ध लक्ष्मी को मैं
अपने घर में सादर बुलाता हूं। महत्व- श्री सूक्त का पाठ करने मात्र से लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं और विपुल धन प्राप्त होता है। मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमषीमहि। पषूनां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः।। अर्थ-हे मां लक्ष्मी।
आपके दिव्य प्रभाव से मैं मानसिक इच्छा एवं संकल्प, वाणी की सत्यता, गौ आदि पशुओं के रूप (अर्थात् दुग्ध-दध्यादि) एवं अन्नों के रूप (अर्थात भक्ष्य, भोज्य, चोस्य, लेह्य-चारों प्रकार के भोज्य पदार्थ) इन सभी को प्राप्त करूं। संपत्ति और यश मुझमें आश्रय लें अर्थात मैं
लक्ष्मीवान् और कीर्तिवान बनूं। महत्व- श्री सूक्त का पाठ करने से मानसिक स्थिरता, वाणी की दृढ़ता, अन्न, धन, यश, मान की प्राप्ति हो परिवार में कलह तथा दरिद्रता दूर होती है।
कर्दमेन प्रजा भूता मयि संभव कर्दम। श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम्।। अर्थ- ’कर्दम’ नामक ऋषि पुत्र से लक्ष्मी प्रकृष्ट पुत्र वाली हुई हैं। हे कर्दम, तुम
मुझमें निवास करो तथा कमल की माला धारण करने वाली माता लक्ष्मी को मेरे कुल में निवास कराओ। महत्व- श्री सूक्त का पाठ करने से
संपूर्ण संपत्ति की प्राप्ति होती है। आपः सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वस मे गृहे। नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले।। अर्थ- जल के देवता वरुण स्निग्ध अर्थात मनोहर पदार्थों को उत्पन्न करें
लक्ष्मी के आनंद, कर्दम, चिक्लीत और श्रीत ये चार पुत्र हैं। इनमें से चिक्लीत से प्रार्थना की गई है कि हे चिक्लीत नामक लक्ष्मी पुत्र। तुम मेरे गृह में निवास करो। दिव्य गुणयुक्ता सर्वाश्रयमुता अपनी माता लक्ष्मी को भी मेरे घर में निवास कराओ। महत्व- श्री सूक्त का पाठ करने से धन
धान्य आदि की प्राप्ति होती है। आद्र्रां पुष्करिणीं पुष्टिं पिड्गलां पद्ममालिनीम्। चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आ वह।। (13) अर्थ- हे अग्निदेव। तुम मेरे घर में पुष्करिणी अर्थात् दिग्गजों (हाथियों) के शुण्डाग्र से
अभिशिच्यमाना (आर्द्र शरीर वाली), पुष्टि देने वाली, पीतवण्र् ा वाली, कमल की माला धारण करने वाली, जगत को प्रकाशित करने वाली प्रकाश स्वरूपा लक्ष्मी को बुलाओ। महत्व- श्री सूक्त का पाठ करने से पशु, पुत्र एवं बंधु बांधवों की स्मृद्धि होती है। आद्र्रां यः करिणीं यष्टिं
सुवर्णां हेममालिनीम्। सूर्यां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आ वह।। अर्थ- हे अग्निदेव। तुम मेरे घर में भक्तों पर सदा दर्यार्द्रचित्त अथवा समस्त भुवन जिसकी याचना करते हैं, दुष्टों को दंड देने वाली अथवा यष्टिवत् अवलंबनीया (जिस प्रकार असमर्थ पुरुष को लकड़ी का सहारा चाहिए
उसी प्रकार लक्ष्मी जी के सहारे से अशक्त व्यक्ति भी संपन्न हो जाता है), सुंदर वर्ण वाली एवं स्वर्ण की माला वाली सूर्यरूपा, ऐसी प्रकाश स्वरूपा लक्ष्मी को बुलाओ। महत्व- श्री सूक्त का पाठ करने से स्वर्ण, संपत्ति एवं वंश की वृद्धि होती है। तां म आ वह जातवेदो लक्ष्मी मन
पगामिनीम्, यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् बिन्देयं पुषानहम्।।। अर्थ- हे अग्निदेव। तुम मेरे यहां उन विश्वविख्यात लक्ष्मी को, जो मुझे छोड़कर अन्यत्र न जाने वाली हों, बुलाओ। जिन लक्ष्मी के द्वारा मैं स्वर्ण, उत्तम
ऐश्वर्य, गौ, घोड़े और पुत्र पौत्रादि को प्राप्त करूं। महत्व- श्री सूक्त का पाठ करने से देष, ग्राम, भूमि अर्थात-अचल संपत्ति की प्राप्ति होती है। य: श् ा ु िच प ्र य त ा े भ् ा ू त् व ा जुहुयादाज्यमन्वहम्। सूक्तं पंचदषर्चं च श्री कामः सततं जपेत्।।
अर्थ- जो मनुष्य लक्ष्मी की कामना करता हो वह पवित्र और सावधान होकर अग्नि में गोघृत का हवन और साथ ही श्री सूक्त की पंद्रह ऋचाओं का प्रतिदिन पाठ करे।
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ध्यान देने योग्य (मृत्यु के संकेत या चिन्ह) पर ध्यान देने योग्य संकेत
स्कंद पुराण के अनुसार, कार्तिकेय ने मुनि अगस्त्य को आने वाली मृत्यु के संकेतों के बारे में सुनाया था। यह इस प्राचीन ग्रंथ के अनुसार है।
यदि कोई लगातार सही नथुने से निकलने वाली हवा का अनुभव करता है, तो यह देखा जाता है कि व्यक्ति तीन साल के भीतर मर जाता है। यदि श्वास दोनों नासिका छिद्रों से ऊपर की ओर निरंतर हो, तो व्यक्ति दो तीन दिनों के भीतर मर सकता है।
यदि श्वास नासिका के बजाय मुंह से होती है तो व्यक्ति केवल दो दिनों तक जीवित रह सकता है। व्यक्ति को किसी भी आकस्मिक मृत्यु के पश्चाताप के इन संकेतों को सह-अस्तित्व में लेना चाहिए।
भावार्थ:यहां ऋषियों से कहा जा रहा है कि कि वे बलशाली, शत्रु विनाशक और देदीप्यमान कीर्तिवाले मरूतों की देवताओ से अनुग्रह प्राप्त हवि के उद्देश्य से स्तुति करें।
गूढार्थ:इसमें कहा गया है कि प्राण तो शुद्व होता है, उसमें अशुद्धि आती है वासना से और वासना का स्थान चित्त है, मन है, बुद्धि है। प्राण तो सदैव क्रियाशील होता है। जब शरीर सोता है तब प्राण नहीं सोता बल्कि मन और चित्त सो जाते हैं।
चूंकि ऋषि दुर्वासा के श्राप के कारण देवता को तपस्या का सामना करना पड़ रहा था, जब इंद्र ने इसे पहनने के बजाय हाथियों के सिर पर पारिजात (इंद्र के आशीर्वाद के रूप में दिया गया)
फूल रखा, लक्ष्मी माता ने देवता के निवास में प्रवेश करने से इनकार कर दिया। तो देवता सलाह के लिए ब्रह्मा जी के पास गए। ब्रह्मा ने उन्हें नारायण कवच दिया और भक्तों को प्रार्थना करने और क्षीर सागर में लक्ष्मी को संतुष्ट करने के लिए कहा।
उनकी समर्पित विनती और प्रार्थना से लक्ष्मी प्रसन्नतापूर्वक उनके सामने प्रकट हुईं।
पृषतिभीः - बिन्दु चिन्ह संयुक्त मृगीरूप वाहन के साथ।
स्वभानवः - स्वयं की दीप्ति से प्रकाश।
वाशीभिः - जोरदार गर्जन।
ऋष्टिभिः - अायुध।
अञ्जिभिः - विभिन्न अलंकार युक्त।
साकम् - सभी।
अजायन्त - जन्म लेना।
भावार्थ:ये मरूदगण स्वतः की दीप्ति से प्रकाशित धब्बों वाले मृगी के वाहन सहित तथा विभिन्न आभूषणों से युक्त होकर घोर गर्जना करते हुए प्रगट हुए ।
गूढार्थ: यहां गर्जना करते हुए का तात्पर्य है कि मरूदगण अर्थात उनका प्राण में प्रवेश हुअा(दस तरह के प्राण और उप प्राण हैं- प्राण, अपान, उदान,व्यान, समान, देवदत्त, धनंजय, क्रिकल, नाग और कूर्म )।अर्थात बल प्राप्त हुआ।इस बल से हमे परम वस्तु को प्राप्त करना है वह भी इसी उपाधि या शरीर
यह भाव कल्प पर आधारित है और इसमें बारह हजार श्लोक हैं। इसके चार चरण हैं। उन्हें प्राकृतपाद, अनुषंगपाद, उपगोदपाद और उपसम्हारपाद के नाम से जाना जाता है। पहले भाग में दो खंड हैं जिन्हें पूर्वाभाग के नाम से जाना जाता है।
स्पष्ट रूप से तीसरे भाग को मध्यम के रूप में जाना जाता है और अंतिम निर्णायक भाग उपसमहार है।
पहले भाग में कर्तव्यों पर एक शिक्षा, नैमिष की कहानी, हिरण्यगर्भ की उत्पत्ति आदि शामिल हैं।
दूसरे अनुष्टपद में कल्प और मन्वंतर का वर्णन है, जनरल ज्ञान, मानुषी की श्रृष्टि,
रूद्र श्रुति, महादेव विभूति, ऋषि सर्ग, अग्नि विज्, काल का वर्णन सद्भाव, प्रियव्रत वंश, पृथ्वी की लंबाई और चौड़ाई, भारत के साथ-साथ अन्य वर्ण, जम्बू और सात द्विप, पटाल, ऊपरी लोकों, गधों की गति, आदित्य व्रत, आदि। देव गर कीर्तन,
धान यानी चावल की फसल के अविष्कारक भी भगवान परशुराम ही थे भगवान ने ना सिर्फ पापियों को समूल विनास किया लाखो सामाजिक कार्य किए
पापियों के विनास के बाद भगवान परशुराम ने समाज सुधार व कृषि के कार्य हाथ में लिए। केरल, कोंकण मलबार और कच्छ क्षेत्र में समुद्र में डूबी ऐसी भूमि को
बाहर निकाला जो खेती योग्य थी। इस समय कश्यप ऋषि और इन्द्र समुद्री पानी को बाहर निकालने की तकनीक में निपुण थे।
अगस्त्य को समुद्र का पानी पी जाने वाले ऋषि और इन्द्र का जल-देवता इसीलिए माना जाता है। परशुराम ने इसी क्षेत्र में परशु का उपयोग रचनात्मक काम के लिए किया। शूद्र माने जाने
वाले लोगों को उन्होंने वन काटने में लगाया और उपजाउ भूमि तैयार करके धान की पैदावार शुरु कराईं। इन्हीं शूद्रों को परशुराम ने शिक्षित व दीक्षित करके ब्राहम्ण बनाया।
इन्हें जनेउ धारण कराए। और अक्षय तृतीया के दिन एक साथ हजारों युवक-युवतियों को परिणय सूत्र में बांधा। परशुराम द्वारा