एक ऐसा अघोरी जो मरे हुए इंसानों को जीवित कर देता था
डॉ. श्रीमाली ने अपने संस्मरणों में त्रिजटा अघोरी के बारे में लिखा हैं ,मैं उन्हीं के शब्दों में संक्षिप्त परिचय दे रहा हूँ I
" उन दिनों मैं साधना पथ का दीवाना था , मंत्र-तंत्र से संपन्न जो भी मिल जाता था , उसी से सिखने समझने बैठ जाता था I कई बार ऐसा भी हुआ किसी की महीने दो महीने सेवा की और कुछ भी पल्ले नहीं पड़ा ,बाद में ज्ञात हुआ कि उसमे केवल ऊपरी
चमक-दमक ही थी ,ठोस ज्ञान कुछ भी नहीं था I कई बार साधारण साधु से भी बहुत ऊँचे स्तर का मंत्र या साधना मिल गई I
मेरा कोई निश्चित ठौर ठिकाना नहीं था ,जहाँ भूख लगती ,सुपात्र और किसी ब्राम्हण का घर देख कर उसके घर से कच्चा सामान
मांग कर भोजन पका कर खा लेता था ; चलते चलते जहाँ थक जाता था वहीँ पास के गांव में किसी गृहस्थ के घर जा कर सो जाता था ; न तो मेरे पास कोई सामान था ,जो चोरी चला जाता और न ही इसका मुझे डर था I इन दिनों मैं हिमालय के दुर्गम पहाड़ी
प्रदेशो में घूम रहा था I
उन दिनों मैं बीमार था और काफी कमजोर सा हो गया था I अतः गांव के एक वैध का इलाज चल रहा था और उससे काफी कुछ ठीक अनुभव कर रहा था I
मुझे प्रातः भम्रण का प्रारम्भ से शौक रहा हैं ,अतः उस दिन भी प्रातः तारों
की छाव में ही मैं प्रकृति के मुक्त वातावरण में उत्तर दिशा घूमने निकल पड़ा था I उषा का प्रकाश धरती पर बिखरने लगा था ,मुझे गांव वालों ने उस पहाड़ी की तरफ जाने के लिए मना कर दिया था ,और वेध राज ने तो यहाँ तक कह दिया था कि पहाड़ी पर
एक नरभक्षी रहता हैं अतः उस पहाड़ी की तरफ जो भी गया हैं ,आज तक जीवित नहीं लौट पाया I
मुझमे साहस था और मैं मुख स्तम्भन ,शरीर स्तम्भन आदि साधनाये भली प्रकार से सीख गया था ,जिसकी वजह से साहस बढ़ गया था ,इसलिए उस पहाड़ी पर जाने और उस
नरभक्षी को देखने की इच्छा बराबर बलवती हो रही थी उस प्रातः काल पैर अपने आप उस पहाड़ी की तरफ बढ़ गए I
वह पहाड़ी अत्यंत उबड़-खाबड़ थी ,और उसकी सीधी चढ़ाई थी , वास्तव में ही इतनी सीधी चढ़ाई मैंने कहीं नहीं देखी थी ,फिर भी मैं साँस खा कर
पहाड़ी पर चढ़ रहा था ,दुर्गम चढाई होने के कारण हाफ़ भी रहा था ,साथ ही कमजोर होने के कारण चक्कर भी आ रहे थे ,पर मेरी उत्सुकता बराबर मुझे ऊपर जाने के लिए ठेल रही थी I
मैं ऊपर पंहुचा ,तो पूरी तरह से पस्त हो चूका था ,बीच में एक बार चक्कर आने कि
वजह से लुढ़क गया था ,मुझे वैद्य राज जी ने ज्यादा चलने से मन किया था ,पर मैं उनकी आज्ञा का उंलघन कर बैठा था ,ऊपर पहुंचते ही मंदिर के पास चक्कर आया और मैं धड़ाम से गिर पड़ा I
ज्ञात नहीं ,मैं कितनी देर तक बेहोश रहा ,पर कुछ समय बाद जब मेरी आँख खुली ,
तो सामने खड़े व्यक्ति को देख कर मेरे मुँह से जोरों की चीख निकल पड़ी -मेरे सामने खड़ा व्यक्ति था "त्रिजटा अघोरी "
भयंकर गैंडे के समान मोटी चमड़ी ,उस पर लम्बी रोमावली और आबूनसी शरीर ,लम्बा चौड़ा ढीलढाल ,उसकी एक जांघ भी मेरे दोनों बाँहों के घेरे में आ
जाए ,तो आश्चर्य ही था ,सिर पर लम्बे बाल जो कि कमर तक लटके हुए थे ,और बालों को तीन भागों बाटकर स्त्रियों की तरह चोटियां थी ,ललाट पर सिन्दूर का लाल तिलक ,भयानक मोटी -मोटी लाल सुर्ख आँखे ,छोटे-छोटे पर फौलादी हाथ ,पूरे शरीर पर मात्र कमर से बंधा काले मृग का
चर्म ,मोठे पैर और डरावना भयानक व्यक्तित्व ....यह था त्रिजटा अघोरी I
एक क्षण में ही मुझे अपनी स्थिति का भान हो गया ,मन ही मन पछताया भी ,कि मैं नाहक इधर आ गया ,गांव वालों ने वास्तव में ही इधर आने के लिए जो मना किया था ,वह ठीक था ,निश्चय ही यह नरभक्षी
हैं....और आज त्रिजटा का भक्ष्य मेरा शरीर ही हैं ,इसमें कोई दो राय नहीं I
पर दूसरे ही क्षण मैंने अपने आप को संयमित किया और ह्रदय में साहस का संचार किया ,जो भी होगा देख जायेगा I यदि इसका भक्ष्य ही बनना हैं तो इतनी आसानी से नहीं बनूँगा ,चाहे सामने
तूफ़ान हैं ,पर अंतिम क्षण तक टकराऊँगा I
मैं उठा ...... सामने भैरव की विकराल मूर्ती थी ,जिसके आगे कुछ समय पहले कटा हुआ बकरा पड़ा था,और उसका रक्त बहकर मंदिर के प्रांगण से नीचे उतर आया था I मैंने अपना ध्यान त्रिजटा अघोरी की तरफ से पूरी तरह हटा लिया और
पूरी तरह से अपना ध्यान भैरव की मूर्ती पर केंद्रित कर मंदिर के प्रांगण में ही पालथी मार के बैठ गया ,होंठ बुदबुदाने लगे ........
संसृति कूप मनल्प धोनि निदान निदान मज स्त्रंसेशं ....
(यहाँ मैं मंत्र पूरा नहीं लिख रहा हूँ )
-मेरी आँख बंद थी और मुंह से
भैरव स्तुति अजस्र रूप से चल रही थी ,जब स्तुति बंद हुई ,मैंने आँख खोल कर नजरे ऊपर उठाई तो सामने ही विकराल त्रिजटा फुफकारता हुआ खड़ा था ,क्रोध में उसकी आँखे अंगारवत दहक रही थी उसका सारा शरीर क्रोध में थर्रा रहा था ,स्तुति बंद होते ही वह दहाड़ पड़ा ,....
तेरी ये हिम्मत ,......असभ्य ,.....दुष्ट ,.....नारकी कीड़े ,....मलेच्छ ,.....इस गंदे और अपवित्र वस्त्रो में और चोले में भैरव स्तुति ,....भैरव भक्ष्य ....... I
उसकी दहाड़ से पेड़ों पर बैठे पक्षी फड़फड़ाकर उड़ गए ,और उनकी चीखों से वातावरण अजीब प्रकार सा हो गया था ,
,मैं यथा संभव शांत था और अपने क्रोध को दबा कर रखा था ,यह बात नहीं कि मैं डर रहा था ,पर पहली बार डर अवश्य लगा था ,पर बाद में तो भय जाता रहा था I
-क्या कर सकता हैं यह अघोरी ?.... हो सकता हैं यह तांत्रिक हो ,मारण स्तभन प्रयोग जानता हो ,पर निरा मिट्टी का लौंदा
मैं भी नहीं था , तक के जीवन में काफी कुछ जान गया था ,सीख चूका था ,और प्रयोग करके प्रामाणिक भी हो गया था यदि इसके पास मारक स्तभन प्रयोग होगा ,तो प्रयोग करने दो ;तुर्की -ब -तुर्की जवाब दूंगा , इसने गांव वालों का ही भक्ष्य किया होगा ,कोई मिला नहीं हैं इसको…………..
मेरा भक्ष्य करने से पहले सोचना पड़ेगा इसको I
मैं उठ खड़ा हुआ ,उसके मुँह से अजस्त्र धाराप्रवाह गलियां निकल रही थी ! वह मुझे उकसाना चाहता था और मैं अपने आप को शांत बनाये रखने प्रयास कर रहा था ! मैं समझ गया था की वह मुझे उत्तेजित करना चाहता हैं I तांत्रिक सफलता
हेतु प्रतिपक्षी को क्रोधित होना ,उसपे चोट करने की भावना होना जरुरी हैं ,अक्रोध पर तंत्र सफल नहीं हो पाता I
“ यदि किसी दुष्ट तांत्रिक से पाला पड़ जाय और ज्ञान न हो तो उस समय सबसे बड़ी सुरक्षा साधना "अक्रोध " ही होता हैं ,क्रोध रहित व्यक्ति पर तंत्र प्रयोग नहीं के
बराबर सफल होते हैं I “
मैं इसके पूर्व तांत्रिक रहस्यों को जान चूका था ,इसकी मूल भावना को श्मशान साधना और प्रेत साधना जैसी कठोर क्रियायों को सफलता पूर्वक संपन्न कर चूका था ,अतः डर तो नहीं लग रहा था ,पर मैं व्यर्थ में तांत्रिक अवलम्बन लेना नहीं चाहता था इन दिनों मैं
मंत्र साधना के क्षेत्र में साधना कर रहा था अतः इस साधना के बीच में तांत्रिक अवलम्बन लेने से मंत्र साधना का जो प्रयोग कर रहा था ,वह व्यर्थ हो जाता और वापिस नए सिरे से कार्य प्रारम्भ करना पड़ता ,.....इसलिए मैं लगभग शांत सा था .......और वह मेरा इसे समर्पण समझ रहा था I
पर वह चकित था ,आज तक ऐसी स्थिति में भक्ष्य उसके सामने रोया हैं ,गिड़गिड़िया हैं ,भागने का असफल प्रयास किया हैं ,पर इस बार भक्ष्य अर्थात मैं सामने खड़ा था ,आँखों में आंखे डाल कर , दृढ़ता से
अजीब सी स्थिति थी ,मैं लगभग शांत था और वह क्रोध में जल रहा था ,उसके होठ बड़बड़ा रहे
थे ,गलियां दे रहे थे ,पर कुछ ही मिनटों बाद उसके होठो से गलियां निकलनी बंद हो गयी थी और "स्तंभन प्रयोग " चालू हो गया I यह प्रयोग मैं काफी पहले सीख चूका था इस प्रयोग से सामने वाले व्यक्ति को अपाहिज सा गुलाम बना दिया जाता हैं ,न तो उसमे कुछ सोचने समझने की शक्ति रहती हैं ,और
न ही कुछ करने की भावना ,बस एक गुलाम सा बन जाता हैं I मैं समझ गया कि वह मुझे जड़वत बनाने के लिए प्रयोग कर रहा हैं उसका प्रयोग चालू था
क्रां क्रीं क्रौं कलिका कालये सं सं सं सर्व हरिणी
पां पीं प्रों पुतले पुण्ये बं बं बं बन्ध वारिणी
(यहाँ मैं मंत्र पूरा नहीं लिख रहा हूँ )
मैं कुछ क्षणों तक उसकी बेहूदा ,नीच एवं गिरी हुई हरकतों को देखता रहा ,फिर इसका विरोध करने का निश्चय किया ;इसके लिए "शत्रुमुख स्तंभन " प्रयोग चालू किया I
शत्रुमुख स्तम्भन प्रयोग तांत्रिक क्षेत्र में अद्भुद कहा जाता हैं ,मैं औघड़ बाबा से सीख चूका था ,और प्रयोग में भी एक बार ला
चूका था I
इसके प्रयोग से सामने वाले का मुँह खुला का खुला रह जाता हैं ,न तो मंत्र जप कर सकता हैं और न ही खा पी सकता हैं मुंह पूरा का पूरा खुला रहने से दर्द करने लग जाता हैं और मुँह से केवल घों -घों की ध्वनि ही निकल सकती हैं
मेरे इस प्रयोग से त्रिजटा अघोरी चकरा गया ,
आश्चर्य के चिन्ह चेहरे पर स्पष्ट रूप से अंकित हो गए थे ,उसे सपने में भी भान नहीं था , कि यह पिद्दी सा छोकरा इतना ऊँचा प्रयोग भी कर सकता हैं आश्चर्य के साथ ही उसके चेहरे पर चिंता की लकीरें भी खींच गई ....पर था वह शक्तिवान ,उसने तुरंत "स्तंभन प्रयोग "बंद कर मेरे द्वारा किये जा
रहे "शत्रुमुख स्तंभन " को निष्फल लिए "मानस प्रयोग " प्रारम्भ कर दिया और उसने मेरे द्वारा किये गए प्रयोग को निष्फल कर अपने मुख को सामान्य बना लिया I
तह तो मेरा और त्रिजटा अघोरी का प्रारम्भिक परिचय ,.... अपनी अपनी विद्या का प्रमाणीकरण I
एकाएक उसके चेहरे पर चमक आ गई ,प्रसन्नता
के अतिरेक में उसने मुझे कमर से पकड़ कर ऊपर उठा लिया और खिलौने की तरह उठाकर तीन-चार गोल चक्कर काट कर पृथ्वी पर खड़ा कर दिया I
इसके बाद तो मेरी आत्मीयता ,मित्रता और घनिष्ठता हो गई उससे ,मैं इसके बाद लगभग तीन महीने तक उस भैरव मंदिर में ही उसके साथ रहा I
सही शब्दों में कहा जाय तो वह मेरा पथ-प्रदर्शक बना ,तांत्रिक क्षेत्र में वह मेरा गुरु बना और अग्रज की तरह उसने मेरा रास्ता स्पष्ट किया I
"तांत्रिक दृष्टि से आज भी मैं उसको अपना गुरु मानता हूँ , उसने इस क्षेत्र में जो कुछ मुझे दिया हैं उसके सामने तो त्रैलोक्य की सारी सम्पदा भी
तुच्छ हैं I निसंदेह ही त्रिजटा इस युग का अपार शक्ति संपन्न एवं तांत्रिक हैं Iमैं अपने जीवन में हजारो-लाखों लोगो से मिल चूका हूँ पर त्रिजटा का व्यक्तित्व अपने आप में विलक्षण हैं एक तरह जहाँ वह क्रोध का साक्षात् रूद्र हैं वहीँ दूसरी तरफ उसके ह्रदय में करुणा का अथाह सागर लहरा रहा था
डॉ. श्रीमाली जी से जब मैंने त्रिजटा अघोरी के बारे में चर्चा की ,तो उसे स्मरण कर उनकी आँखे भीग आई ,उन्होंने बताया "मैं त्रिजटा अघोरी के साथ लगभग तीन महीने रहा ,इन तीन महीनो में उसने उच्चकोटि का तांत्रिक ज्ञान कराया ;न तो त्रिजटा ने सीखने में कुछ कसर की और न ही मैंने सीखने में
शिथिलता बरती I
प्रथम पच्चीस दिनों तक तो मैंने नींद तक नहीं ली ,त्रिजटा ने "निद्रा स्तंभन " के द्वारा नींद पहले ही उड़ा दी थी ,निद्रा-स्तंभन करने पर न तो नींद आती हैं ,न ही आलस्य और न ही शीतिलथा I
इन तीन महीनो में त्रिजटा ने डॉ. श्रीमाली को कई तांत्रिक क्रियाये सिखाई ,
समझाई और अपने सामने प्रयोग करा कर सिद्ध कराया
वशीकरण तंत्र ,मोह तंत्र ,आकर्षण तंत्र ,उच्चाटन तंत्र ,कलिका चेटक ,भैरव चेटक ,आपत्ती उद्धारक बटुक भैरव तंत्र ,शत्रु स्तंभन ,गति स्तम्भन ,क्षुदा स्तम्भन ,दसवारही वशीकरण प्रयोग ,वार्ताली स्तंभन ,इच्छा प्राप्ति प्रयोग विद्वेषण प्रयोग
आकर्षण प्रयोग ,शांतिकरण प्रयोग ,यक्ष चेटक ,करालिनी चेटक ,कमी चेटक निद्रा स्तम्भन ,बलाबल प्रयोग आदि
क्रमश :
(अमृत बूँद पुस्तक से )
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पापमोचन तीर्थ के पूर्व की ओर लगभग सौ तीरों पर सहस्त्र धारा तीर्थ है जो सभी पापों का नाश करने वाला है।
यहीं पर श्रीराम के आदेश पर लक्ष्मण ने योग के माध्यम से अपना सांसारिक शरीर छोड़ दिया था और शेषनाग के मूल स्वरूप को प्राप्त किया था।
श्रीराम के अयोध्या के सिंहासन पर बैठने के बाद और सभी को बसाने के बाद, एक बार काल देव के साथ बैठकर देवता की चर्चा की।
उन्होंने लक्ष्मण को किसी भी कीमत पर किसी को भी अंदर ना आने का सख्त आदेश दिया यदि उनके निर्देशों का पालन नहीं किया जाता, तो वह उस व्यक्ति का त्याग कर देते।
तो लक्ष्मण दरवाजे की रखवाली करने लगे ताकि कोई कमरे में प्रवेश न करे। कुछ समय बाद ऋषि दुर्वासा वहां आए
सप्त पुरी अयोध्या, मथुरा, माया (हरिद्वार), काशी (वाराणसी), कांची (कांचीपुरम), अवंतिका (उज्जैन) और द्वारवती (द्वारका) हैं।
मथुरा में एक बुद्धिमान और विद्वान ब्राह्मण रहता था जिसका नाम शिवशर्मा था। जैसे-जैसे उसकी उम्र बढ़ती गई वैसे-वैसे उसके तनाव भी बढ़ते गए। वह चिंतित था कि उसने अपना जीवन शास्त्रों को पढ़ने और आजीविका कमाने के लिए बर्बाद कर दिया।
क्व॑ नू॒नं कद्वो॒ अर्थं॒ गंता॑ दि॒वो न पृ॑थि॒व्याः ।
क्व॑ वो॒ गावो॒ न र॑ण्यंति
अनुवाद:
नूनम् - अब।
क्व - कहां पर।
कत् व - कब आप लोग।
अर्थम् - देव यजन प्रदेश से।
दिवः - द्युलोक से।
गन्त - जाना।
पृथिव्याः न - भूलोक से।
वः - आपके।
गाव न - गाय की तरह।
रण्यन्ति - आवाज करना।
भावार्थ:हे मरूदगणों! आप कहां हैं? आप द्युलोक का गमन किस कारण से किया करते हैं। आप पृथ्वी पर क्यों नही घूमते? आपकी गौएँ क्या आपके लिए रंभाती नहीं?अर्थात आप पृथ्वी के समीप ही रहें।
गूढार्थ: यहां भागवतपुराण का संदर्भ दें तो पृथ्वी और गाय को एक जैसा बताया गया है। धर्म के तीन पैर टूटने से पृथ्वी श्रीहीन हो गई है। लोग परमात्मा से विमुख होते जा रहें हैं। अतः परमात्मा से प्रार्थना की गई कि वे हमारा भक्ति मार्ग प्रशस्त करें और हमें अपने आत्म स्वरूप का बोध करायें।
सरयू और घाघरा नदी के संगम पर तीर्थ की संख्या है। यदि कोई वैष्णव मंत्र का जाप करता है और पितृ के साथ तर्पण करता है तो दान के साथ कई गुना लाभ मिलता है
विशेष दिन जैसे अमावस्या, पूर्णिमा आदि पर विष्णु कथा सुनते हैं, संगीत और नृत्य के साथ उनकी स्तुति गाते हैं, पूरी रात जागते रहना चाहिए। सुबह स्नान और अनुष्ठान के बाद, ब्राह्मणों को दान आपको और आपके पूर्वजों को विष्णु धाम ले जाता है
पास में ही गोचरार तीर्थ है। यहीं से प्रभु राम अपनी परम धाम यात्रा पर गए थे।
अपने सभी काम पूरे होने के बाद और पूरी पृथ्वी के अच्छी तरह से बसने के बाद, प्रभु ने एक नश्वर के रूप में अपनी यात्रा समाप्त करने का फैसला किया। सभी वानर और
प्राचीन समय में, कपि तीर्थ की स्थापना वानर के गंधमादन पर्वत पर हुई थी। वे खुशी से उसमें नहाए और राम से इस वरदान को पाने का वरदान मांगा। इसलिए प्रभु ने उन्हें वरदान दिया कि जिसने भी स्नान किया
इस तीर्थ में, न केवल उनके पापों से राहत मिलेगी, बल्कि उनकी गरीबी दूर हो जाएगी और उन्हें प्रयाग और गंगा स्नान का लाभ मिलेगा।
राजा विश्वामित्र का जन्म कौशिक वंश में हुआ था। वह नियमित रूप से लगातार यात्राओं के माध्यम से अपनी सेना की निगरानी कर रहे थे
विश्वामित्र ने वशिष्ठ ऋषि के आश्रम का दौरा किया जाए, जो अपनी आवश्यकताओं की देखभाल करते थे जो कामधेनु गाय द्वारा पूरी की जाती थीं। विश्वामित्र ने वशिष्ठ जी से अनुरोध किया कि वे उन्हें कामधेनु प्रदान करें जिसे वशिष्ठ ने अस्वीकार कर दिया था।
भावार्थ:आप अपने बल से लोगों को विचलित करते हैं। आप पर्वतों को भी विचलित करने में सक्षम हैं।
गूढार्थ: इसमें बताया गया है कि सबका उपकार और दुख निवृति मरूदगण या प्राण द्वारा होती है। प्राण से ही शरीर के सब अवयव चलते हैं। इनमें एक भी निष्प्राण होता है तो वह अवयव काम करना बंद कर
देता है। जीवत्व होने तक ही हम बलवान बनकर उपकृत कर सकते हैं। प्राण परमात्म स्वरूप है अन्यथा हम डाली से निकली टहनी के समान हो जायेंगे। पहाड पर ही नदी और वृक्ष हैं