थ्रेड: सरकारी फिल्में #CorporatePuppetGOVT
लोगों को ये शिकायत अक्सर रहती है कि सरकारी संस्थानों और उपक्रमों में क्वालिटी की कमी रहती है। मेरा मानना है कि ये सिर्फ पूंजीवादी मुनाफाखोर कॉर्पोरेट द्वारा फैलाई हुई अफवाह है।
IIT-IIM तो हैं ही, आज आपको NFDC (नेशनल फिल्म डेवलपमेंट कारपोरेशन) के बारे में बताता हूँ। ये 1975 में बनाया हुआ एक सरकारी संस्थान है जिसका उद्देश्य अच्छी फिल्मों को प्रोत्साहन देना है। इस संस्थान ने लगभग 300 फिल्में प्रोडूस की हैं।
उदाहरण, लंचबॉक्स (2013), मांझी दी माउंटेन मैन (2015) से लेकर आक्रोश (1980), जाने भी दो यारों (1983), मिर्च मसाला (1986), सलाम बॉम्बे (1988) जैसी फिल्में NFDC ने दी हैं। गाँधी (1982), जिसको आठ ऑस्कर मिले थे, उसके प्रोडक्शन में भी NFDC का हाथ था।
सलाम बॉम्बे भी ऑस्कर के लिए नामांकित हुई थी। NDFC की अधिकतर फिल्में भारतीय समाज का यथार्थ दिखाती हैं, मानवता का सन्देश देती हैं, सामाजिक समीकरणों पर बात करती हैं। एक सबसे बड़ा काम जो NDFC ने किया है वो है भारतीय सिनेमा में टैलेंट को बढ़ावा देना।
गोविन्द निहलानी, केतन मेहता, श्याम बेनेगल, मीरा नायर जैसे निर्देशकों को NDFC ने अपनी कला दिखने के लिए राष्ट्रीय स्तर का मंच दिया। अगर NDFC न होता तो शायद देश से सामाजिक सिनेमा गायब हो चुका होता। #CorporatePuppetGOVT
देश के सिनेमा पर कुछ चंद परिवारों का और बेहूदा स्क्रिप्ट वाली फिल्मों का पूर्णाधिकार हो चुका होता। आज भी "Cinema of India" नाम की सीरीज के जरिये आप NDFC की फिल्में मुफ्त में देख सकते हैं।
ये इसलिए संभव हुआ क्यूंकि NDFC मुनाफे के लिए नहीं सिनेमा के उत्थान के लिए काम करता है। PSUs का मकसद देश की सेवा होता है मुनाफा नहीं। जैसे जरूरी नहीं कि हर फिल्म में जबरदस्ती कि लव स्टोरी घुसाई जाए वैसे ही सरकारी संस्थानों को मुनाफे के तराजू में नहीं तौलना चाहिए।
मसाला कमर्शियल फिल्में कुछ देर के लिया आपका मनोरंजन जरूर कर सकती हैं मगर सिनेमा की पहचान कला-प्रधान फिल्मों से ही होती है।
देश को निजी हाथों में देकर हो सकता है सरकार कुछ सालों के लिए देश की विकास दर को कृत्रिम रूप से बढ़ा हुआ दिखा दे (वैसे तो इसकी सम्भावना भी कम ही है) मगर इससे देश का विकास नहीं होगा। देश के संसाधनों पर एक खास तबके का एकाधिकार हो जाएगा।
आजकल आये दिन कभी अख़बारों में तो कभी न्यूज़ चैनल्स पर रोज कोई न कोई कॉर्पोरेट का पालतू तोता पत्रकार या एक्सपर्ट के भेष में आकर PSU बेचने की वकालत करता नजर आता है। तो आज बात करते हैं कि क्यों कॉर्पोरेट PSU खरीदने पर आमादा हैं।
1. पका-पकाया हलवा: नयी कंपनी खड़ी करने से कहीं ज्यादा आसान है पुरानी कंपनी खरीदना। आजकल बिज़नेस ग्रुप का जमाना है। मतलब आप केवल एक ही क्षेत्र की कंपनी रह कर ज्यादा पैसा नहीं कमा सकते। ग्रुप ऑफ़ कम्पनीज कहलाने का अपना अलग ही रुतबा है।
सबको टाटा अम्बानी बनना है।अम्बानी तेल-गैस, कम्युनिकेशन, रिटेल से लेकर, एग्री बिज़नेस तक में है।उसकी देखा-देख बाकियों को भी मल्टी-टास्किंग करनी है।लेकिन नए सेक्टर में घुसना आसान तो है नहीं।पूरा नया इन्वेस्टमेंट, नए लाइसेंस, जेस्टेशन पीरियड, नया सेट-अप। और वो भी बिना एक्सपीरियंस।
औद्योगिक क्षेत्र को छोड़ दें तो डायमंड आम आदमी के लिए एक गैर जरूरी चीज मानी जाती है। लेकिन फिर भी डायमंड की कीमतें आसमान को छूती हैं। बड़ा और दुर्लभ डायमंड खरीदना और पहनना एक स्टेटस सिंबल माना जाता है।
कुछ कुछ डायमंड तो इतने महंगे होते हैं कि पूरा देश बिक जाए तो भी उसकी कीमत नहीं लगा सकते। डायमंड की एक सच्चाई ये भी है कि जितना दुर्लभ डायमंड माना जाता है उतना दुर्लभ ये होता नहीं है। धरती पर हीरा बहुतायत में उपलब्ध है।
आपने कभी सोचा है कि बैंक वाले जब सोना रखते हैं तो हीरे का वजन क्यों निकाल देते हैं? या जब आप हीरा ज्वेलरी वाले को बेचने जाते हैं तो वो हीरे की कोई कीमत क्यों नहीं देता? तनिष्क वाला सिर्फ अपने बेचे हुए हीरे की ही कीमत वापिस करता है और वो भी आधी?
बैंकर किसान नहीं है। वे चार महीने तक सड़क जाम करके नहीं बैठ सकते। आप दस लाख बैंकरों को महीने भर तक हड़ताल पे नहीं रख सकते। न ही उनकी संख्या किसानो जितनी हैं। बैंकर इस्टैब्लिशमेंट के पार्ट हैं, एंटी-एस्टाब्लिशमेंट तरीके नहीं अपना सकते। बैंकर बनने के लिए बहुत लोग कतार में बैठे हैं।
SBI PO की 2000 सीटों के लिए बीस लाख लोग फॉर्म भरते हैं। हमारा रिप्लेसमेंट बहुत आसान है। किसान बनने के लिए कितने लोग लाइन में हैं? आप पचास करोड़ किसानों को रिप्लेस नहीं कर सकते। बैंकर एकजुट होकर वोट दें तो भी एक आदमी को MP नहीं बना सकते। किसान पूरे देश के चुनाव का रुख तय करते हैं।
बैंकरों की असली लड़ाई सरकार से नहीं है। हमारी असली लड़ाई अपने यूनियनों से है। राष्ट्रीय स्तर पर लड़ने का काम यूनियन ही कर सकती है। उनके पास कानूनी ताकत है। सोशल मीडिया पर हम बाकी बैंकर और जनता को अपनी समस्यों से अवगत करते हैं।
सरकार देश के संसाधनों का निजीकरण करने पर तुली हुई है। और देश की जनता बिगबॉस देखने में बिजी है। आइये आपको निजीकरण के फायदे समझाते हैं।
हवा: आपको खुली हवा में सांस लेने की आजादी नहीं है, क्यूंकि हवा किसी कंपनी ने सरकार से बोली लगाकर खरीद ली है। अब उस कंपनी को
अपने हिसाब से हवा में प्रदूषण फ़ैलाने का हक़ है।
आप चाह कर भी सांस नहीं ले सकते। हवा गन्दी ही इतनी हो गयी है। हाँ अगर सांस लेनी है तो प्राइवेट कंपनी का बनाया हुआ पॉलूशन फ़िल्टर मास्क या फिर ऑक्सीजन सिलिंडर खरीदना पड़ेगा।
अपनी गलतियों का ठीकरा दूसरों के सर फोड़ने का तरीका कोई कृष्णमूर्ति सुब्रह्मनीयन साहब से सीखे। ये न केवल नालायक हैं बल्कि झूठे और मक्कार भी हैं। पॉइंट बाई पॉइंट थ्रेड :
1. इन्होने ने बैंकों की हालत के लिए रघुराम राजन के कार्यकाल को जिम्मेदार ठहराया है। चलो मान लिया कि उनकी गलती थी। आपने क्या किया उसके बाद? जिस रिस्ट्रक्चरिंग को गालियाँ दे रहे हैं वो बंद हो गयी क्या?
2. एक तरफ आप बैंक और कॉर्पोरेट के कोलैबोरेशन को गरिया रहे हैं। दूसरी तरफ आप कॉर्पोरेट को बैंकिंग में एंट्री देने की वकालत कर रहे हैं।
3. आप कह रहे हैं कि कॉर्पोरेट वाले बैंकों पर दबाव बनाते हैं लोन रिस्ट्रक्चरिंग के लिए।
आइये आज आपको निजीकरण की क्रोनोलॉजी समझाते हैं। कॉर्पोरेट बहुत तगड़ी प्लानिंग के साथ काम करते हैं। ये बरसों तक तैयारी करते हैं। सबसे पहले विदेशी यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर्स को प्रोजेक्ट फंडिंग दी जायेगी।
साथ ही उनको कंपनी एडवाइजरी बोर्ड में पार्ट टाइम आनरेरी पोजीशन के साथ मोटी सैलरी भी दी जायेगी। फिर अवार्ड्स की फंडिंग करके, और नामी अख़बारों और पत्रिकाओं में लेख छपवाकर उन प्रोफेसर्स को नामचीन बनाया जाएगा।
फिर कॉर्पोरेट के एहसानों के बोझ तले दबे इन शिक्षाविदों को सरकारें सलाहकार नियुक्त करेंगी। अगर सरकार नहीं मानी तो दुनिया भर में पैसे देकर खड़ी की गयी रेटिंग एजेंसियों, NGOs, अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के जरिये कभी असहिष्णुता तो कभी व्यापार,