आजकल आये दिन कभी अख़बारों में तो कभी न्यूज़ चैनल्स पर रोज कोई न कोई कॉर्पोरेट का पालतू तोता पत्रकार या एक्सपर्ट के भेष में आकर PSU बेचने की वकालत करता नजर आता है। तो आज बात करते हैं कि क्यों कॉर्पोरेट PSU खरीदने पर आमादा हैं।
1. पका-पकाया हलवा: नयी कंपनी खड़ी करने से कहीं ज्यादा आसान है पुरानी कंपनी खरीदना। आजकल बिज़नेस ग्रुप का जमाना है। मतलब आप केवल एक ही क्षेत्र की कंपनी रह कर ज्यादा पैसा नहीं कमा सकते। ग्रुप ऑफ़ कम्पनीज कहलाने का अपना अलग ही रुतबा है।
सबको टाटा अम्बानी बनना है।अम्बानी तेल-गैस, कम्युनिकेशन, रिटेल से लेकर, एग्री बिज़नेस तक में है।उसकी देखा-देख बाकियों को भी मल्टी-टास्किंग करनी है।लेकिन नए सेक्टर में घुसना आसान तो है नहीं।पूरा नया इन्वेस्टमेंट, नए लाइसेंस, जेस्टेशन पीरियड, नया सेट-अप। और वो भी बिना एक्सपीरियंस।
काम रिस्की हो जाता है। अब वीडियोकॉन को ही ले लीजिये। बढ़िया होम-एप्लायंसेज का बिज़नेस था। लेकिन नहीं, इनको तो कॉर्पोरेट ग्रुप बनने के चनूने काट रहे हैं। घुस गए आयल एंड गैस के बिज़नेस में। दिवालिया होकर ही माने। इससे तो अच्छा है न कि पके-पकाये हलवे पर ही डाका डाला जाए।
2. कॉम्पिटिटर से छुटकारा: आजकल कॉम्पीटीशन का जमाना है। हर कोई बाकी कॉम्पिटिटर्स से आगे निकलना चाहता है। इसका सबसे अच्छा तरीका है कॉम्पिटिटर को ही खरीद लिया जाए। PSUs की जड़ें देश में काफी गहरे तक जमी हुई होती हैं। तो कॉम्पीटीशन भी PSUs से काफी तगड़ा मिलता है।
अब जब तक IOCL, HPCL, BPCL के पेट्रोल पंप हर दस किलोमीटर पर मौजूद हैं तो रिलायंस के पट्रोल पंप के लिए स्कोप ही कहाँ बचता है। हाँ अगर रिलायंस BPCL खरीद ले तो एक कॉम्पिटिटर कम हो जाता है।
3. विशाल कस्टमर बेस: PSUs कई दशकों से देश की सेवा कर रहे हैं। कई तो उस समय से जब प्राइवेट को घुसने तक की परमिशन नहीं थी। ऐस में PSUs का कस्टमर बेस बहुत बड़ा होना स्वाभाविक है। SBI के 45 करोड़ कस्टमर हैं। नए कस्टमर ढूंढने से तो अच्छा है न कि पुराना कस्टमर बेस ही हथिया लिया जाए।
4. पब्लिक का ट्रस्ट: PSUs सिर्फ कंपनियां नहीं है। ये देश की जनता का विश्वास हैं। जनता जानती है कि चाहे लाख घोटाले हो जाएँ लेकिन जब तक उसका पैसा सरकारी बैंक में है तब तक सुरक्षित है। इतना गहरा विश्वास आसानी से नहीं बनता।
HMT भले ही 2016 में बंद कर दी गयी हो मगर आज भी हर घर में कम से कम एक पुरानी घडी HMT जरूर मिल जायेगी। टाटा को छोड़ कर शायद ही कोई ऐसा कॉर्पोरेट ग्रुप हो जिस पर लोग PSU जितना विश्वास करते हों। ऐसे में कौन कॉर्पोरेट PSU नहीं खरीदना चाहेगा?
5. भोकाल: PSU खरीदना सबके बस की बात नहीं होती। कॉर्पोरेट्स के लिए PSU खरीदना एक स्टेटस सिंबल होता है। BALCO और HZL खरीदने से पहले अनिल अग्रवाल को गिने चुने लोग ही जानते थे। दोनों PSU खरीदने के बाद उनका अलग ही भोकाल बना।
6. फिक्स्ड एसेट्स: सरकार चाहे PSUs को गरीब मानती हो, अर्थशास्त्री PSUs को देश पर लायबिलिटी मानते हों, मगर सच्चाई ये है PSUs अपार संपत्ति के मालिक हैं। इनके पास बेशुमार ज़मीन है, राजधानी में प्राइम लोकेशन पर बड़े बड़े ऑफिस हैं, गेस्ट हाउसेस हैं, बिल्डिंगें हैं।
इनके पास स्क्रैप ही इतना है कि उससे दो-चार कोटक खरीदे जा सकते हैं। सरकार को इसकी कोई कदर न हो लेकिन कॉर्पोरेट को है। मार्केट वैल्यूएशन गिरा के, मिनिस्टर्स, पत्रकार, सरकारी सलाहकार और नौकरशाहों को पैसे खिला के औने-पौने दामों में ये खालिस सोना खरीदना चाहते हैं।
7. टैलेंट: PSUs में देश का सबसे बेहतरीन मानव संसाधन काम करता है। नौकरशाही के बाद देश में PSUs कि नौकरी कि ही सबसे ज्यादा डिमांड होती है। जो लोग IES में कुछ नम्बरों से चूक जाते हैं वे SAIL, BHEL, GAIL, ONGC, IOCL जैसी कंपनियों में जाते हैं।
SBI PO की 2000 सीटों के लिए 20 लाख लोग फॉर्म भरते हैं। जिस IDBI को सरकार प्राइवेट करने जा रही है एक ज़माने में वो IBPS में बहुत ऊपर भरा जाता था। प्राइवेट वाले कितनी ही सैलरी क्यों न दे दें, इतना बढ़िया टैलेंट नहीं ला सकते।
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औद्योगिक क्षेत्र को छोड़ दें तो डायमंड आम आदमी के लिए एक गैर जरूरी चीज मानी जाती है। लेकिन फिर भी डायमंड की कीमतें आसमान को छूती हैं। बड़ा और दुर्लभ डायमंड खरीदना और पहनना एक स्टेटस सिंबल माना जाता है।
कुछ कुछ डायमंड तो इतने महंगे होते हैं कि पूरा देश बिक जाए तो भी उसकी कीमत नहीं लगा सकते। डायमंड की एक सच्चाई ये भी है कि जितना दुर्लभ डायमंड माना जाता है उतना दुर्लभ ये होता नहीं है। धरती पर हीरा बहुतायत में उपलब्ध है।
आपने कभी सोचा है कि बैंक वाले जब सोना रखते हैं तो हीरे का वजन क्यों निकाल देते हैं? या जब आप हीरा ज्वेलरी वाले को बेचने जाते हैं तो वो हीरे की कोई कीमत क्यों नहीं देता? तनिष्क वाला सिर्फ अपने बेचे हुए हीरे की ही कीमत वापिस करता है और वो भी आधी?
बैंकर किसान नहीं है। वे चार महीने तक सड़क जाम करके नहीं बैठ सकते। आप दस लाख बैंकरों को महीने भर तक हड़ताल पे नहीं रख सकते। न ही उनकी संख्या किसानो जितनी हैं। बैंकर इस्टैब्लिशमेंट के पार्ट हैं, एंटी-एस्टाब्लिशमेंट तरीके नहीं अपना सकते। बैंकर बनने के लिए बहुत लोग कतार में बैठे हैं।
SBI PO की 2000 सीटों के लिए बीस लाख लोग फॉर्म भरते हैं। हमारा रिप्लेसमेंट बहुत आसान है। किसान बनने के लिए कितने लोग लाइन में हैं? आप पचास करोड़ किसानों को रिप्लेस नहीं कर सकते। बैंकर एकजुट होकर वोट दें तो भी एक आदमी को MP नहीं बना सकते। किसान पूरे देश के चुनाव का रुख तय करते हैं।
बैंकरों की असली लड़ाई सरकार से नहीं है। हमारी असली लड़ाई अपने यूनियनों से है। राष्ट्रीय स्तर पर लड़ने का काम यूनियन ही कर सकती है। उनके पास कानूनी ताकत है। सोशल मीडिया पर हम बाकी बैंकर और जनता को अपनी समस्यों से अवगत करते हैं।
थ्रेड: सरकारी फिल्में #CorporatePuppetGOVT
लोगों को ये शिकायत अक्सर रहती है कि सरकारी संस्थानों और उपक्रमों में क्वालिटी की कमी रहती है। मेरा मानना है कि ये सिर्फ पूंजीवादी मुनाफाखोर कॉर्पोरेट द्वारा फैलाई हुई अफवाह है।
IIT-IIM तो हैं ही, आज आपको NFDC (नेशनल फिल्म डेवलपमेंट कारपोरेशन) के बारे में बताता हूँ। ये 1975 में बनाया हुआ एक सरकारी संस्थान है जिसका उद्देश्य अच्छी फिल्मों को प्रोत्साहन देना है। इस संस्थान ने लगभग 300 फिल्में प्रोडूस की हैं।
उदाहरण, लंचबॉक्स (2013), मांझी दी माउंटेन मैन (2015) से लेकर आक्रोश (1980), जाने भी दो यारों (1983), मिर्च मसाला (1986), सलाम बॉम्बे (1988) जैसी फिल्में NFDC ने दी हैं। गाँधी (1982), जिसको आठ ऑस्कर मिले थे, उसके प्रोडक्शन में भी NFDC का हाथ था।
सरकार देश के संसाधनों का निजीकरण करने पर तुली हुई है। और देश की जनता बिगबॉस देखने में बिजी है। आइये आपको निजीकरण के फायदे समझाते हैं।
हवा: आपको खुली हवा में सांस लेने की आजादी नहीं है, क्यूंकि हवा किसी कंपनी ने सरकार से बोली लगाकर खरीद ली है। अब उस कंपनी को
अपने हिसाब से हवा में प्रदूषण फ़ैलाने का हक़ है।
आप चाह कर भी सांस नहीं ले सकते। हवा गन्दी ही इतनी हो गयी है। हाँ अगर सांस लेनी है तो प्राइवेट कंपनी का बनाया हुआ पॉलूशन फ़िल्टर मास्क या फिर ऑक्सीजन सिलिंडर खरीदना पड़ेगा।
अपनी गलतियों का ठीकरा दूसरों के सर फोड़ने का तरीका कोई कृष्णमूर्ति सुब्रह्मनीयन साहब से सीखे। ये न केवल नालायक हैं बल्कि झूठे और मक्कार भी हैं। पॉइंट बाई पॉइंट थ्रेड :
1. इन्होने ने बैंकों की हालत के लिए रघुराम राजन के कार्यकाल को जिम्मेदार ठहराया है। चलो मान लिया कि उनकी गलती थी। आपने क्या किया उसके बाद? जिस रिस्ट्रक्चरिंग को गालियाँ दे रहे हैं वो बंद हो गयी क्या?
2. एक तरफ आप बैंक और कॉर्पोरेट के कोलैबोरेशन को गरिया रहे हैं। दूसरी तरफ आप कॉर्पोरेट को बैंकिंग में एंट्री देने की वकालत कर रहे हैं।
3. आप कह रहे हैं कि कॉर्पोरेट वाले बैंकों पर दबाव बनाते हैं लोन रिस्ट्रक्चरिंग के लिए।
आइये आज आपको निजीकरण की क्रोनोलॉजी समझाते हैं। कॉर्पोरेट बहुत तगड़ी प्लानिंग के साथ काम करते हैं। ये बरसों तक तैयारी करते हैं। सबसे पहले विदेशी यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर्स को प्रोजेक्ट फंडिंग दी जायेगी।
साथ ही उनको कंपनी एडवाइजरी बोर्ड में पार्ट टाइम आनरेरी पोजीशन के साथ मोटी सैलरी भी दी जायेगी। फिर अवार्ड्स की फंडिंग करके, और नामी अख़बारों और पत्रिकाओं में लेख छपवाकर उन प्रोफेसर्स को नामचीन बनाया जाएगा।
फिर कॉर्पोरेट के एहसानों के बोझ तले दबे इन शिक्षाविदों को सरकारें सलाहकार नियुक्त करेंगी। अगर सरकार नहीं मानी तो दुनिया भर में पैसे देकर खड़ी की गयी रेटिंग एजेंसियों, NGOs, अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के जरिये कभी असहिष्णुता तो कभी व्यापार,