पहले इन्होंने हमारे देश को लूटा फिर कांग्रेसी सरकारों ने करोड़ों रुपए का मेकअप लगा कर इन्हीं के मकबरों को चकाचक चमकाया। वाह वाह करने वाले रेस्टोरेशन से पहले मकबरे की तस्वीर भी नहीं पहचान पाएंगे। »»
किसी स्वर्ण-काल में यह पाषाण खण्ड भी भव्य देवालय के शिखरों पर सुशोभित रहे होंगे। इसकी कहानी फिर कभी… 🙏
जब आप मराठी में सोच कर हिंदी में लिखने का प्रयास करते हैं तब ऐसी गलतियां होती हैं। मराठी में ‘थोरले पेशवा’ का हिंदी अनुवाद बड़े पेशवा होता है और मैंने प्रथम पेशवा लिख दिया। 😷
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शस्त्रों की शक्ति बहुत बड़ी होती है। कंबोडिया में कम्यूनिस्टों ने सरहद पार से अवैध शस्त्र किसानों के हाथों में थमा दिए और सशस्त्र संघर्ष से स्वयं सत्ता प्राप्त कर उन्हीं किसानों का शोषण किया। आज भी कंबोडियाई तानाशाह पोल-पोट द्वारा किए गए नरसंहार के प्रमाण ज़मीन में से निकलते हैं।
पोलपोट के कम्यूनिस्ट दिवास्वप्न के अनुसार देश के सभी लोग किसान थे। बंदूक की नोंक पर शहरों को खाली कराया गया और शिक्षित प्रजाजनों को भी खेतों में मजदूरी करने गांवों में भेज दिया गया। इनमें डॉक्टर और प्राध्यापक जैसे लोग भी शामिल थे। विरोध का परिणाम सीने में बुलेट से मिलता था।
जानकारों के मुताबिक अंदाजन दो मिलियन नागरिकों का कत्लेआम किया गया था। बौद्धिकता का मुखौटा पहना मार्क्सवाद जब अनावृत्त होता है तब रक्तपात का नंगा नाच करता है।
कुछ काम से शहर से बाहर जाना पड़ा, घर पहुंचने में देरी हुई। रात के साढ़े ग्यारह बज रहे थे और सूनसान रास्ते पर बाइक बंद हो गई। सोचा कि किसी सेफ जगह पर बाइक पार्क कर पैदल घर चला जाऊंगा। तब तक बाईक खींचने के अलावा कोई चारा नहीं था। फ़रवरी महिने में ठंड कम हो रही थी और…
…और बाईक खींचने के कारण पसीना भी छूट रहा था। इयरफोन में मोहम्मद रफी का गाना चल रहा था तभी पीछे से आवाज आई “बाईक बंद हो गई है क्या?” पीछे मुड़कर देखा तो एक करीबन चालीस साल का आदमी बीड़ी फूंकते हुए बेफिक्र सा आ रहा था। सोचा कि यह भी सही है, बातें करते हुए रास्ता कट जाएगा। लेकिन…
वह कुछ ज्यादा ही बातूनी प्रतीत हो रहा था। उसने कहा कि दो किलोमीटर आगे सरकारी अस्पताल के पास ही रहता है और वहां रात में बाइक पार्क किया जा सकता है। मैं बाईक खींच रहा था और वह थोड़ा पीछे चल रहा था। सामने पुराने सरकारी अस्पताल की इमारत दिख रही थी…
सन 1930 में 384 किलोमीटर की पैदलयात्रा कर गांधीजी दांडी पहुंचे और नमक सत्याग्रह किया यह बात हमें बढ़ा-चढ़ाकर बताई जाती है लेकिन दांडी यात्रा की फलश्रुति क्या है पता है?
अंग्रेजों ने नमक-टैक्स कभी खत्म नहीं किया। 1946 में नेहरू की अंतरिम सरकार बनने तक भारतीय यह टैक्स चुकाते रहे।
खण्डित मंदिरों और मुर्तियों की पूजा नहीं की जाती। हिन्दू धर्म में पवित्रता का महत्व म्लेच्छ जानते थे इसीलिए वे मन्दिरों का विध्वंस करने के बाद गर्भगृह में गौ-वध और ब्रह्महत्या आदि कृत्य करते ताकि फिर से वह मन्दिर पूजा-योग्य ना रहे।
सिर्फ शिवलिंग ही है जिसे खण्डित होने के बावजूद पूजा जाता है। इसका भी कारण है, कभी फुर्सत में चर्चा करेंगे।
अपवित्र किए गए मन्दिर का जिर्णोद्धार नहीं कर सकते। वैसे भी अब यह सभी प्राचीन मन्दिर हमारे लिए कला स्थापत्य की विरासतें बन चुके हैं इसलिए बेहतर होगा अक्षरधाम जैसे नये भव्य मन्दिरों का निर्माण किया जाए।
ऋग्वेद के ऐतरेय ब्राह्मण में शुन:शेपाख्यान में हरीशचंद्र के पुत्रप्राप्ति का प्रसंग है। निःसंतान हरीशचंद्र ने संतानप्राप्ति के मोह में वरुण देव का आह्वान किया, वरुण देव ने सशर्त संतानप्राप्ति का वरदान दिया और रोहित का जन्म हुआ लेकिन…
लेकिन वरुण की शर्त के अनुसार पुत्र का चेहरा देखने का मोह पूरा कर रोहित को वापस वरुण को सौंप देना आवश्यक था। हरीशचंद्र यह नहीं कर पाए, क्रोधित वरुण ने राजा को उदर-रोग का श्राप दिया। अब रोहित एक पुख्त पुरुष बन चुका था, उसने लोभी अजीर्गत से सौ गायों के बदले पुत्र शुनःशेप मांग लिया।
विप्रों ने रोहित के बदले शुनःशेप की नरबलि देने से मना कर दिया पर लोभांध अजीर्गत पुत्र वध करने के लिए भी तैयार था। स्थितप्रज्ञ शुनःशेप ने बलिवेदी से उषा-प्रार्थना कर देवताओं को प्रसन्न किया और अपनी प्राण रक्षा के साथ राजा हरिश्चंद्र का उदर-रोग का श्राप भी निर्मूल किया! »»
काले कानून के विरोध में गांधीजी ने सत्याग्रह का आह्वान किया। हिंदू, मुस्लिम, सिख सभी समुदायों ने इसमें हिस्सा लिया। गांधीजी का दावा था कि "एक ही वर्ष में देश को स्वतंत्र करा देंगे।" लोग खुशी से झूम उठे और देशभर के बड़े शहरों में आंदोलन शुरू हुआ। »»
बाल गंगाधर तिलक, बिपिन चंद्र पाल और एन्नी बेसेंट ने गांधी की योजना को सिरे से नकार दिया लेकिन गांधीजी बिना आंदोलन किए थोड़े ही मानने वाले थे। कुछ जगहों पर पुलिस और आंदोलनकारियों के बीच झड़पें हुईं और 13 अप्रैल को जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड हुआ। »»
आंदोलन की बागडोर संभालने के लिए गांधीजी रेलगाड़ी से दिल्ली/अमृतसर जा रहे थे तब पलवल स्टेशन पर उन्हें उतार दिया गया और इस महापुरुष ने रेलवे स्टेशन की कस्टडी में एक रात बिताई और बैंच पर सोने की 'यातनाएं' भुगतीं। सुबह तड़के उन्हें मुंबई जा रही 'मालगाड़ी' में बिठा दिया गया। »»