थ्रेड : Corona Warriors

बहुत पढ़ लिखकर आते हैं। दस लाख लोगों में से 180 लोग ही IAS बनते हैं। पूरा ठोक बजा के चेक किये जाते हैं। फिर तो बहुत दिमाग होना चाहिए इनके पास। नवंबर 2019 में कोरोना का पहला केस आ गया था और जनवरी 2020 के अंत तक ये पूरे विश्व में फैलना शुरू हो गया था।
फरवरी में भारत में भी केस आने शुरू हो गए थे। मार्च तक ये निश्चित हो गया कि ये रुकने वाला नहीं। क्या किया इन देश के चुने हुए होनहारों ने? अंतर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट पर चेकिंग फरवरी मध्य में शुरू की गई वो भी ढुल-मुल तरीके से। चेकिंग के लिए थर्मल गन्स तक नहीं थी इनके पास।
आनन-फानन में चीन से दोयम दर्जे के चेकिंग उपकरण, टेस्टिंग किट, PPE किट मंगवाई गई। ऐसा नहीं है कि महामारियां पहले नहीं थी। इससे पहले भी स्वाइन फ्लू, बर्ड फ्लू, MERS, SARS, Nipah, Ebola, सब समय समय पर ऐसी व्यापक महामारी की संभावनाएं दर्शा ही रहे थे।
मगर इनको तो घर में आग लगने के बाद कुआँ खोदने की याद आती है न। कोरोना आया तो ये हक्के बक्के रह गए। हाय राम!! ऐसा कैसे हो सकता है? इसकी तो उम्मीद ही नहीं थी। अब क्या करें?
बहुत ढूंढने पर सौ साल से भी पुराना Epidemic Diseases Act (EDA), 1897 निकाला जिसमें केंद्र और राज्य सरकारों को ऐसी परिस्थितियों से निपटने के लिए कुछ विशेषाधिकार दिए गए थे। लेकिन वहाँ लॉकडाउन जैसी किसी चीज का उल्लेख नहीं है।
वहाँ लिखा है कि ऐसी परिस्थिति में जो जरूरी कदम हों वो उठाये जाएँ। कौनसे कदम उठाने हैं ये नहीं लिखा। शायद जिन अंग्रेजों ने कानून बनाया उनका मानना था कि भविष्य के प्रशासकों में इतनी बुद्धि तो होगी ही।
मगर इन महा पढ़े लिखे, खुद को आदमी और भगवान् के बीच की चीज और जनता का मसीहा मानने वाले, UPSC के इंटरव्यू में एक से बढ़कर एक डींगें हांकने वाले, लाल बत्ती के नशेड़ी और सत्तामद में आकंठ डूबे गए इन महानुभावों को समझ ही नहीं आया कि महामारी के टाइम पर क्या किया जाना चाहिए।
लेकिन कुछ तो करना पड़ेगा! क्या किया? एक नोटिस देकर लोगों को घर में बंद कर दिया, धंधा पानी बंद कर दिया। लोगों को घर जाने तक का मौका नहीं दिया। जो जहां था वहीँ बंद कर दिया गया। लड़के वाले लड़की देखने दूसरे शहर गए और तीन महीने उनके जबरदस्ती के मेहमान बन गए।
नेताजी ने आपदा में अवसर ढूँढा और ताली-थाली बजवा अपने मंदबुद्धि वोटबैंक का मनोरंजन करने लगे। पुलिस वालों के पौ-बारह हो गए। हाथ में पकड़ा हुआ डंडा जो अब तक कभी कभार ही चलता था अब खुले आम आतंक मचाने लगा।
पुलिस वाले पहले पीटते हैं फिर बात करते हैं वाली कहावत यहाँ साक्षात् चरितार्थ होती देखी गयी। कई बैंक वाले होंगे जिन्होनें ड्यूटी पर जाते हुए, गले में I-Card लटके होने के बावजूद पुलिस से सेवा करवाई है। कुछ समझदार लोगों ने सरकार पूछा कि भई ये लॉकडाउन क्या होता है? कहाँ लिखा है?
एक बार को तो ये आधुनिक सामंत भी सकते में आ गए, कि अब क्या करें? जनता सवाल भी पूछ सकती है ये तो हमने सोचा ही नहीं था। पहले तो नया-नया Disaster Management Act, 2005 उठाया कि कहीं उसमें कुछ लिखा हो। मगर उसमें महामारी के कुछ लिखा ही नहीं था।
वो तो भूकंप या सुनामी जैसी आपदाओं के लिए बनाया गया था। आनन-फानन में कोरोना को "नोटिफ़िएड डिजास्टर" घोषित किया गया ताकि पुलिस को बिना किसी guilt के आम जनता को कूटने की छूट दी जा सके। लोग घरों में बंद हो गए। बस, रेल, हवाई जहाज सब बंद हो गए। सड़कें सूनी हो गयीं।
कुछ एक दो समझदार लोग जो गलती से नौकरशाह बन गए थे उन्होंने सुझाव दिया कि ऐसी परिस्थिति में देश की मरम्मत की जा सकती है। सुझाव हाथों हाथ लिया गया और तुरंत रेलवे ने ट्रैक, बोगी, स्टेशन वगैरह के मरम्मत की घोषणा कर दी। आपदा में अवसर वाला नारा भी यहीं से आया था।
सरकार अगर चाहती तो इस दौर में नयी सड़कें बनवा सकती थी, सरकारी दफ्तरों, स्कूलों की हालत सुधरवा सकती थी, पेड़-पौधे लगवा सकती थी। और इसके जरिये जो प्रवासी मजदूर रोजगार न होने की वजह से सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर घर जा रहे थे उनको रोजगार दिया जा सकता था।
लोग भी भखे नहीं मरते और अर्थव्यस्था का बेडा भी गर्क नहीं होता। ये ऐसा मौका था जिसमें अगर ये चाहते तो देश की कायापलट कर सकते थे। लेकिन अगर घोषणाओं से देश चलता तो आज ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स में भारत 131 नंबर पर नहीं होता। खैर घोषणा तो हो गयी मगर काम कौन करे?
जो मजा गरीबों पर हुकुम चलाने और बेगुनाहों पर लाठी भांजने में है वो काम करने में कहाँ! उनको तो लग रहा था कि केवल जनता से जुर्माना वसूल करके ही देश की अर्थव्यस्था को चीन से आगे ले जाएंगे। कोरोना रुके न रुके पुलिस की जेबें गर्म रहनी चाहिए।
यथा नेता तथा नौकरशाह की तर्ज पर सुझावों के नाम पर जो किया गया उसे मूर्खता के अतिरिक्त क्या ही कहा जाए। ताली-थाली बजाओ, दिए जलाओ। जरूरत के सामानों के लिए दिन में एक-दो घंटे के लिए दुकानें खुलवा दो ताकि जम कर भीड़ पड़े और खूब बीमारी फैले।
इससे भी काम नहीं बने तो लोगों को 500 -500 रूपये बाँट दो ताकि बैंको में लोग टूट पड़ें। कोरोना फैले उनकी बला से। वे तो अपने आइवरी टावर्स में सुरक्षित हैं। उनके लिए तो मेदांता में बेड पहले से ही रिज़र्व है। ये कैसे कोरोना वारियर हैं जो कोरोना की तरफ से लड़ रहे हैं?
पब्लिक शौचालय-मूत्रालय पर जड़े ताले आज तक नहीं खुले हैं। रेलवे आज भी कोरोना स्पेशल मोड में चल रहा है। और जिस रेलवे ने खूब ढोल पीट कर कोरोना काल को "Once in a lifetime opportunity" बताया था उसकी पोल भी खुल गई है जब आधी खाली चल रही ट्रेनों में मोबाइल चार्ज करने से आग लग जा रही है।
सच्चाई ये है कि बैंकों को छोड़ कर सरकार का हर एक विभाग (जो कि देश के सबसे ज्यादा क्वालिफाइड आईएएसों द्वारा चलाया जाता है) बिलकुल निकम्मा-नाकारा साबित हुआ है। पिछले एक साल में इन्होने कोई सबक नहीं लिया ।
इस साल जब दोबारा कोरोना मेहमान बनकर आया है तब भी इनके पास वही पुराने असफल तरीकों को छोड़कर कोई दूसरा उपाय नहीं है। शनिवार रविवार को कर्फ्यू लगा दो। क्यों भई? कोरोना क्या रामानंद सागर का धारावाहिक है जो केवल छुट्टी के दिन ही आता है?
और ये नाईट कर्फ्यू का क्या लॉजिक है? रात को कौनसी भीड़ जमा होती है जो कोरोना का खतरा है? मेरी इन आधुनिक सामंतों, मठाधीशों, सरकारी भगवानों से दरख्वास्त है कि एक बार अपने इन रहस्यमयी नियमों को जनता को समझाने का कष्ट करें।
हो सकता है कि इसके पीछे कोई बहुत गूढ़ रहस्य हो जो हम तुच्छ आम लोग न समझ पाएं मगर कोशिश करने में क्या हर्ज है?

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11 Apr
थ्रेड: #क्रॉस_सेलिंग_एक_कैंसर - #WellsFargo

आइये आज आपको क्रॉससेलिंग से जुडी हुई एक कहानी सुनाते हैं। अमेरिका की चार बड़ी बैंकों को बिग फोर कहा जाता है। ये चार बैंक हैं मॉर्गन चेस, बैंक ऑफ़ अमेरिका, सिटी बैंक और वेल्स फारगो।
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9 Apr
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अरे नहीं, पब्लिक की चिंता थोड़े ही है। पब्लिक तो भरी पड़ी है। डेढ़ सौ साल में 14 करोड़ से 140 करोड़ हो गए हैं। जितने मरेंगे उससे ज्यादा पैदा हो जाएंगे। वैसे भी भारत की जनसँख्या जरूरत से कुछ ज्यादा ही है। चिंता तो कुर्सी की है। कुर्सी सलामत रहनी चाहिए।
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आजकल ईमानदारी से काम करने का चलन नहीं है। पेशे के साथ ईमानदारी पुराने जमाने की बात हो चली है। हमारे तंत्र में हर व्यक्ति के लिया काम निर्धारित रहता है और उस काम के बदले तयशुदा मेहनताना भी दिया ही जाता है। लेकिन व्यक्ति उससे संतुष्ट नहीं होता।
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17 Mar
भांग खा के एडिटोरियल लिखते हैं क्या दैनिक जागरण वाले?

Point by Point rebuttal:

1 .अगर सरकार का काम बैंकों को चलना नहीं है तो बैंकों का राष्ट्रीयकरण क्यों किया गया था? क्यों आज तक बैंकों को चला रहे थे?

@JagranNews
2 .अगर सरकार का काम बैंकों का नियमन करना है तो क्यों PMC जैसे बैंक डूब गए? 1994 में 10 बैंकों को लाइसेंस दिया था उनमें से 4 ही बचे हैं? बाकी कहाँ गए? Yes bank को बचाने के लिए SBI का पैसा क्यों लगवाया गया?
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15 Mar
थ्रेड: #हमारे_नीति_निर्धारक

पिछले कुछ सालों से एक चीज बहुत स्पष्ट रूप से देखने में आ रही है और वो ये की सरकार के सलाहकार मंडल में केवल एक विशेष मानसिकता वाले लोगों की ही भर्ती हो रही है। शुरू से शुरू करते हैं :
V K Saraswat : नीति आयोग में वैज्ञानिक सलाहकार हैं। वैसे तो ये पद्म भूषन और पद्म श्री जैसे पुरस्कारों से नवाज़े गए हैं मगर साधारण विकिपीडिया सर्च इनके कच्चे चिट्ठे खोलने के लिए काफी है।

en.wikipedia.org/wiki/V._K._Sar…
पहले ये DRDO में महानिदेशक रहे। इनके DRDO के कार्यकाल के किस्से यहां पढ़ने को मिलेंगे। नीति आयोग में इनके नाम कोई बड़ा कारनामा नहीं है।

newindianexpress.com/magazine/2012/…
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14 Mar
मुंबई एक ज़माने में सात द्वीपों का समूह हुआ करता था जो कि आधिकारिक रूप से सुल्तान बहादुर शाह के पास था। उधर हुमायूँ की बढ़ती शक्ति को देख कर सुल्तान ने पुर्तगालियों की मदद लेने की योजना बनाई।

#StrikeToSaveIndia
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#StrikeToSaveIndia
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#StrikeToSaveIndia
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