"श्मशान वैराग्य"

हर मनुष्य के साथ ऐसा होता है कि जब वो शवयात्रा को देखता है तो कुछ क्षणों के लिए संसार से अरुचि या विरक्ति हो जाती है... जीवन की वास्तविकता का हमे अंदाजा उन कुछ क्षणों के लिए लग जाता है कि जीवन क्षणभंगुर है... लेकिन कुछ ही समय मे हम सब भूलकर सामान्य हो जाते है..
रोज अपने आस पास, सोशल मीडिया पर और समाचारों में इतने लोगो को मरते हुए देख कर मेरे साथ वो श्मशान वैराग्य वाली स्थिति स्थायी जैसी हो गई है... जीवन अब असार सा लगने लगा है... क्या फायदा किसी के साथ लगाव रखने का जब वो आपको किसी भी क्षण छोड़कर जा सकता है...?
"मैं क्या कर रहा हूँ"
"क्यों कर रहा हूँ"
जैसे सवाल बार बार मन मे आते है... जीवन मे कितनी ही सफलता अर्जित करे, मृत्यु एक वास्तविकता है, एक अटल सत्य है...
इसके सामने मेने बहुत गुरुर से भरे लोगो को भी गिड़गिड़ाते हुए देखा है...
कभी मन मे आता है अपनी नकारात्मक vibes अपने मे ही बांधकर सबसे बहुत दूर एकांत में चला जाऊं... फिर लगता है किसी की मदद करके अपनी ये नकारात्मकता अपना ये अकेलापन दूर करूँ... फिर जब प्रयास करने के बाद भी किसी की मदद नही हो पाए तो मन मे एक खीज और उतपन्न होने लगती है, अपनी अक्षमता पर...
मेने इन दिनों कृत्रिम मुस्कुराहट चहेरे पर ओढ़ना सीख लिया है.. मां से वीडियो कॉल पर बाते करते समय मे फेक तरीके से मुस्कुरा लेता हूँ, खुश दिखता हूँ कि उन तक अपनी पीड़ा संचरित न कर दूं... पर मन करता है उनकी गोद मे सिर रख कर फुट फुट कर रोने का...
समाज ने लड़को के लिए रोना कितना taboo बना रखा है... अब समझ आता है कितना अच्छा होता है जब मन करे जी भर के रोना... लॉक डाउन के पहले चरण में भी ऐसी नकारात्मक बाते मन मे आती थी लेकिन लगता है अब ये चिरस्थाई हो गई है...
अब लगने लगा है घर और अपनो से सैंकड़ो किलोमीटर दूर अगर बहुत पैसे भी कमा ले तो भी क्या फायदा... अपनो के साथ बिताया एक एक क्षण कीमती होता है... कभी कभी सोचता हूँ सब कुछ छोड़कर चला जाऊं यंहा से... क्या पता कौन कब कैसे कोरोना से ग्रसित हो जाये...
हर क्षण मन मे आशंकाओं के बादल छाए हुए रहते है... वो चीजे जो बहुत ज्यादा आनन्दित करती थी, अब मायने ही नही रखती... सोचता हूँ थोड़े हंसी मजाक से दूसरे लोगो को ऐसी पीड़ा में जाने से बचा ले, लेकिन इंसान जब तक खुद खुश नही होता, खुशियां कभी भी फैला नही सकता...
मैं क्या लिख रहा हूँ, क्यों लिख रहा हूँ मुझे नही पता... बस अंदर पीड़ा का एक अथाह समंदर हिलोरे ले रहा है.. उन लोगो के चेहरे बार बार आंखों के सामने आते है जिनको खो चुके है... मैं सुबह से शाम तक भी लिखूंगा तो भी अपने मन की सभी भावनाये व्यक्त नही कर पाऊंगा. इसलिए यंही विराम देता हूं

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17 Jan
"सर्दी में चाय निर्माण - एक संघर्ष कथा"

भारत और चीन के रिश्तों में कड़वाहटों के बीच भारत ने चीन के कई app प्रतिबंधित कर दिए... लेकिन चीन से आया हुआ एक ऐसा उत्पाद है जो भारत मे कोई भी प्रतिबंधित नही कर सकता वो है
"चाय"
चाय के शौकीन लोगो के लिए चाय शब्द ही ताजगी से भरने के लिए पर्याप्त है... मसलन ब्रांच में काम करते समय चाय वाले को कप में अपने लिए चाय भरते हुए देखने के वो क्षण इतना आनंद देते है जितना अपनी दुल्हन का पहली बार घूंघट उठाने वाले क्षण भी नही देते होंगे 🤐
चाय वाले को अपने लिए चाय भरते हुए देखना चाय प्रेमियों के लिए दुनिया का सबसे सुंदर दृश्य होता है...
लेकिन सर्दियों में सुबह अपने लिए खुद चाय बनाना उसी अनुपात में पीड़ादायी भी होता है.. मैं आपको समझाता हूँ कैसे...
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27 Oct 20
#justice4Nikita

90% लोग ये खबर पढ़ चुके और पढ़ कर स्क्रोल कर दिया क्योंकि निकिता की जाति उनकी outrage करने की श्रेणी को सूट नही करती...
इसलिए वो चुप रहेंगे...

निकिता को गोली मारने वाले तौफीक का नाम किसी भी समाचार में पढ़ने को नही मिलेगा..

खबर होगी - युवक ने युवती को गोली मारी
एक्त्वम का नारा लगाकर सामाजिक सौहार्द फैलाने का ढोंग करने वाले तनिष्क के समर्थक अब रजाई ओढ़ के सो जाएंगे...

नवरात्रि में देवी पूजा करने वालो की तुलना बलात्कारियों से करने वाली वकील राजावत मेडम का मुंह फेविकॉल के मजबूत जोड़ से चिपक जाएगा...
निकिता का सरनेम कुछ और होता तो आज अभी यही बुद्धिजीवी चूड़ियां तोड़ तोड़ कर रो रहे होते...

प्लेकार्ड लेकर खड़े होने वाली महिलावादी सेलिब्रिटी भी अभी कंही न कंही छुपी हुई नजर आएगी....
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25 Oct 20
Bankers' movement और हम

किसी भी आंदोलन की शुरुआत एक असंतोष से होती है... उस असंतोष को धीरे धीरे बाकी लोगो तक पहुंचाना और फिर एक कारवां बनता जाना आंदोलन के उदय का चरण है...
एक टीम बनने के बाद उस टीम को "बनाये रखना" बहुत ज्यादा चुनोतिपूर्ण होता है
आप जिसके खिलाफ संघर्ष कर रहे है उसके विरुद्ध कार्ययोजना बनाने के साथ साथ ही आपकी अपनी टीम में समन्वय बिठाने की भी जिम्मेदारी होती है...
टीम भी कई तरीके से बनाई जा सकती है...
एक तो जैसेकि झुंड... उसमे किसी भी सदस्य का कोई व्यक्तिगत विचार नही होता... सब सदैव एकमत रहते है
एक होती है भीड़... जिसमे कोई भी जो मर्जी कर रहा है, अनुशासन हीनता और हुड़दंग भीड़ की निशानी है....

लेकिन आंदोलन को सफलता न तो झुंड के साथ मिल सकती है और न ही भीड़ के साथ...
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14 Oct 20
तनिष्क और हमारा समाज

सच कहूं तो तनिष्क का यह विज्ञापन देखने से पहले मैं तनिष्क को नहीं जानता था... क्योंकि मैं एक ऐसे साधारण परिवार से आता हूं जहां घड़ी पहनना भी लग्जरी माना जाता है...
लेकिन जब मैंने यह देखा तो विचारों के कई आयाम खुले और सोचा मुझे इस बारे में लिखना चाहिए...
दरअसल जिस समय मैं यह विज्ञापन देख रहा था, उसके तुरंत बाद मैंने एक खबर पढ़ी जिसमें दिल्ली में रोहित नाम के एक 19 वर्ष के लड़के को सिर्फ इसलिए मार दिया गया क्योंकि वह एक मुस्लिम लड़की से फोन पर बात करता था... यह "महत्वहीन" खबर बहुत कम अखबारों के कोने में छपी...
इसलिए यह खबर बहुत कम लोगों ने पढ़ी होगी लेकिन अगर इसका उल्टा हो जाता तो लोकतंत्र खतरे में आ जाता....
इस खबर और इस विज्ञापन ने मुझे अपने देश की सामाजिक समरसता की कहानी बहुत अच्छे से समझा दी...
दरअसल हमारे देश के विज्ञापनों, धारावाहिकों और फिल्मों में एक प्रोपेगेंडा चल रहा है...
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30 Sep 20
"लोकतंत्र एक छलावा है"

हमारे तथाकथित "लोकतंत्र" में हमारी बेटियां सुरक्षित नही है... अब में कुछ उन देशों की बात बताता हूँ जंहा लोकतंत्र नही है या बहुत अल्प विकसित है लेकिन उनकी बेटियों की तरफ कोई आंख उठा कर भी नही देख सकता....
1- उत्तर कोरिया

इसे हम सभी एक तानाशाह देश के रुप में जानते हैं. लेकिन इस तानाशाह देश की एक खासियत ये है कि यहां रेपिस्टों के लिए रहम की कोई गुंजाइश नहीं है. यहां रेपिस्टों को अधिकारी तुरंत ही सर में गोली मारकर सजा देते हैं.
2- चीन
रेपिस्टों के लिए यहां भी कोई दया की गुंजाइश नहीं होती. अगर अपराध साबित हो गया तो अपराधी के लिए बचने का कोई रास्ता नहीं. इन्हें गर्दन और पीठ के ज्वाइंट पर गोली मारी जाती है. और अगर अपराधियों को इतनी आसान मौत ना देनी हो तो उनका बधिया (Castration) कर दिया जाता है.
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27 Sep 20
"रविवार और कपड़ों की धुलाई"

कपड़ो की धुलाई एक बहुत ही under rated टॉपिक है... आज तक किसी भी राजनीतिक पार्टी ने इसे अपने घोषणा पत्र में जगह नही दी, न ही कभी संसद में इस विषय पर चर्चा की गई... यंहा तक कि संविधान निर्माताओं को 2 वर्ष 11 माह 18 दिन में एक बार भी इसका खयाल नही आया😥
देखा जाए तो ये हर आम आदमी से जुड़ा हुआ मुद्दा है लेकिन अभिनेत्री के शाम के भोजन की एक चपाती तक कि जानकारी रखने वाले समाचार पत्र और क्रांतिकारी मीडिया हाउस भी कभी इस महत्वपूर्ण मुद्दे को कवर नही करते... आज हम इस अति महत्वपूर्ण विषय पर गम्भीर चर्चा करेंगे..
कपड़े धोने का निर्णय लेने के लिए एक अदम्य साहस, कड़ी इच्छाशक्ति और दृढ़ संकल्प की आवश्यकता होती है...
हर सप्ताहांत में छुट्टी का खयाल आते ही हर्ष के बादल उमड़ आते है, लेकिन उन बादलों को आंधी की तरह उड़ा ले जाता है "कपड़े भी धोने पड़ेंगे" ये खयाल... और मन मे एक उदासी छा जाती है..
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