वेदों से एलियंस का क्या कनेक्शन है महत्वपूर्ण धागा
हम सब अक्सर एलियंस के बारे मैं बाते करते रहते है लेकिन किसी को नही पता कि वो सच मैं होते है या नही कुछ लोग उन्हें काल्पनिक कहते है और कुछ सच मानते है आखिर ये एलियंस है कौन और इनका वेदों से क्या कनेक्शन है । चलिए सुरू करते है
वेदों मैं एलियंस को मारुत कहा गया है या कहे कि मारुतो को आधुनिक लोगो ने एलियंस कहा है
ऋग्वेद में इस बात के पक्के प्रमाण हैं कि अंतरिक्ष से पृथ्वी पर लोग आए थे। पार्थिव मुनि जानना चाहते थे कि मारुत कहाँ से आए, कैसे रहते थे आदि। मारुत देव थे-अर्थात् दीप्तिमान।
वे एक जैसे दिखते थे, वे कभी बूढ़े नहीं होते थे, उन्होंने धातु के सूट पहने थे, उनके शरीर पर गोला-बारूद था, उनके जहाजों में तीन पायलट थे। उन्होंने मन की गति से उड़ान भरी..
मारुतो की उतपत्ति के बारे मैं थोड़ा विस्तार से परिचित होते है
ऋषि कश्यप के दो पत्नियां दिति और अदिति थीं | अदिति से उन्होंने देवताओं को जन्म दिया और दिति से असुरों का जन्म हुआ | देवासुर संग्राम में देवताओं की पराजय के बाद समुद्र मंथन हुआ और उसमे प्राप्त अमृत से देवता अमर हो गए.| देवताओं ने फिर असुरों को पराजित करके उन्हें समाप्त कर दिया |
दिति को अपने पुत्रों की मृत्यु से बहुत दुःख और क्रोध हुआ |उन्होंने अपने पति के पास जा कर कहा कि आपके पुत्रों ने मेरे पुत्रों का वध किया है , इस लिए तपस्या करके ऐसे पुत्र को प्राप्त करना चाहती हूँ जो इंद्र का वध कर सके | कश्यप ने कहा कि तुम्हे पहले 1000 वर्षों तक
पवित्रता पूर्वक रहना होगा तब तुम मुझसे इंद्र का वध करने में समर्थ पुत्र प्राप्त कर लोगी |यह कह कर कश्यप ने दिति का स्पर्श किया और दिति भी प्रसन्न हो कर अपने पति के कहे अनुसार तप करने चली गयी | दिति को तप करता देख इंद्र भी उनकी सेवा करने लगे |
जब तप समाप्ति में 1 वर्ष बाक़ी रहा तप दिति ने इंद्र से कहा कि एक वर्ष बाद जब तुम्हारे भाई का जन्म होगा तब वो तुम्हे मारने मे समर्थ होगा पर तुमने मेरी तप मे इतनी सेवा की है कि मैं उसे तुमको मारने के लिए न कहूंगी
तुम दोनों मिलकर राज्य करना |इसके बाद दिति को दिन में झपकी आ गयी और
उनका सर पैरों मे जा लगा जिससे उनका शरीर अपवित्र हो गया और तप भी भंग हो गया | इधर इंद्र को भी दिति के होने वाले पुत्र से पराजय की चिंता हो गयी थी और उन्होंने इस गर्भ को समाप्त करने का निश्चय किया |इंद्र ने इस गर्भ के 7 टुकड़े कर दिए | दिति के जगने पर जब उन्हें गर्भ के सात टुकड़े
होने की बात पता चली तब उन्होंने इंद्र से कहा कि मेरे तप भंग होने के कारण ही मेरे गर्भ के टुकड़े हो गए हैं , इसमे तुम्हारा दोष नही है | दिति ने तब कहा कि टुकड़े होने के बाद भी मेरे गर्भ के ये टुकड़े हमेशा आकाश मे विचरण करेंगे और मरुत नाम से विख्यात होंगे ये सातों मरुत के सात सात
गण होंगे जो सात जगह विचरण कर सकते हैं और इस तरह कुल ४९ मरुत बन जाते हैं |
इन सात मरुतों के नाम हैं -
आवह, प्रवह,संवह ,उद्वह,विवह,परिवह,परावह
इनके सात सात गण निम्न जगह विचरण करते हैं -
ब्रह्मलोक , इन्द्रलोक ,अंतरिक्ष , भूलोक की पूर्व दिशा , भूलोक की पश्चिम दिशा , भूलोक की उत्तर दिशा और भूलोक की दक्षिण दिशा
इस तरह से कुल ४९ मरुत हो जाते हैं जो देव रूप में विचरण करते हैं |
चारों वेदों में मिलकर मरुद्देवता के मंत्र 498 हैं। मरुत् गणश: रहते हैं अत: इनका वर्णन संघश: ही किया जाता है--
1. मरुतों के गणों के लिये हव्य अर्पण करो (मारुताय शर्धाय हव्या भरध्वम, ऋ.वेद 8.20.9)!
2. मरुतों के गणों का वंदन करो (वंदस्व मारुतं गणम्, ऋ वेद 1.38.1)।
3. मरुतों के गणों को नमन करो (मारुतं गणं नमस्य, ऋ.वेद 5.52.13)।
4. मरुत अपने गणों में शोभते हैं (गणश्रिय: मरुत:, ऋ वेद. 1.64.9)।
5. मरुतों का बलवान् गण सरंक्षण करता है। (वृषा गण: अविता ऋ वेद. 1.87.4)।
सब मरुत् समान रहते हैं। सब मरुत् देखने में एक जैसे रहते हैं--
ते अज्येष्ठा अकनिष्ठास उभ्दिदो
अमध्यमासो महसा विवावृधु:। (ऋ. 5.59.6)
वे मरुत् श्रेष्ठ नहीं, कनिष्ठ नहीं और मध्यम भी नहीं होते। वे सब एक जैसे होते हैं और वे अपनी महती शक्ति से बढ़ते रहते हैं। उन मरुतों के सिर पर हिरणमय शिरस्त्रारण होता है। (ऋ. 5.54.77)।
सब मरुतों का गणवेश समान रहता है।
1. इनके गणवेश समान रीति से शोभते हैं।
2. इनकी छाती पर पदक और गले में मालाएँ चमकती हैं।
3. इनके पाँवों में भूषण और छाती पर पदक आभूषण से दीखते हैं--(ऋ. 5.54.11)।
मरुतों के रथ 1. मरुत् अपने रथों में घोड़े जोतते हैं।
2. रथों में धब्बोंवाली हिरनियाँ जोतते हैं।
3. उनके रथ को हिरन खींचता है (ऋ. 2.34, 8.7, 1.39)।
मरुतों का रथ बिना घोड़ों के भी चलनेवाला था। किसी पशु पक्षी के जोतने के बिना वह चलता था।
हे मरुतो! तुम्हारा रथ इसमें घोड़े नहीं जोते जाते, तथापि वह (अजति) चलता है। वह रथ (अ-रथी:) रथी बिना भी चलता है। (अन्-अवस:) रक्षक की जिसको जरूरत नहीं है, (अन् अभीशु:) लगाम भी नहीं है, ऐसा तुम्हारा रथ (रजस्तू:) धूलि उड़ाता हुआ (रोदसी पथ्या) आकाश मार्ग से (साधन् याति) अपना
अभीष्ट सिद्ध करता हुआ जाता है।"
आशय यह कि मरुतों के चार प्रकार के रथ थे--
(1) अश्व रथ,
(2) हरिणियों से चलनेवाला रथ,
(3) अनश्व रथ अर्थात् घोड़े के बिना वेग से चलनेवाला रथ,
(4) आसमान में (रोदसी) उड़नेवाला रथ अर्थात् वायुयान (ऋ. 6.66.7)
हे मरुतो! तुम अंतरिक्ष से हमारे पास आओ। (ऋ. 5.53.8)
शिव बुराई का नाश करने वाली महाशक्ति है जो ब्रह्मांड की रचना, रक्षा और परिवर्तन करते हैं। शिव का उच्चतम रूप निराकार, असीम, पारलौकिक और अपरिवर्तनीय निरपेक्ष ब्रह्म और ब्रह्मांड का आदिम आत्मा (आत्मा, स्व) है। परोपकारी पहलुओं में, शिव को एक सर्वज्ञ योगी के रूप में दर्शाया गया है,
जो कैलाश पर्वत पर एक तपस्वी जीवन जीते हैं, साथ ही पत्नी पार्वती और उनके दो बच्चों, गणेश और कार्तिकेय के साथ एक गृहस्थ भी हैं। अपने उग्र पहलुओं में, उन्हें अक्सर राक्षसों का वध करते हुए दिखाया गया है।
आदियोगी शिव के रूप में जाने वाले, उन्हें योग, ध्यान और कला का संरक्षक माना जाता है। अपने गूढ़ व्यक्तित्व के लिए जाने जाने वाले, शिव वास्तव में अद्वितीय पोशाक के साथ खुद को सजाते हैं; उनके गले में सर्प, सुशोभित अर्धचंद्र, उनके उलझे हुए बालों से बहने वाली पवित्र नदी गंगा,
सिर के ऊपरी भाग को ब्रह्मांड कहा गया है और सामने के भाग को कपाल प्रदेश । कपाल प्रदेश का विस्तार ब्रह्मांड के आधे भाग तक है । दोनों की सीमा पर मुख्य मस्तिष्क की स्थिति समझनी चाहिए । ब्रह्मांड का जो केन्द्रबिन्दु है , उसे ब्रह्मरंध्र कहते हैं ।
ब्रह्मरंध्र में सुई की नोंक के बराबर एक छिद्र है जो अति महत्वपूर्ण है । सारी अनुभूतियां , दैवी जगत् के विचार , ब्रह्मांड में क्रियाशक्ति और अनन्त शक्तियां इसी ब्रह्मरंध्र से प्रविष्ट होती हैं । हिन्दू धर्म में इसी स्थान पर चोटी ( शिखा ) रखने का नियम है ।
ब्रह्मरंध्र से निष्कासित होने वाली ऊर्जा शिखा के माध्यम से प्रवाहित होती है । वास्तव में हमारी शिखा जहां एक ओर ऊर्जा को प्रवाहित करती है , वहीं दूसरी ओर उसे ग्रहण भी करती है । वायुमंडल में बिखरी हुई असंख्य विचार तरंगें और भाव तरंगें शिखा के माध्यम से ही मनुष्य के मस्तिष्क में
आयुर्वेद और मासिक धर्म एक लंबा धागा तो चलिए सुरू करते है
आयुर्वेद एक स्वास्थ्य और चिकित्सा प्रणाली है जो हजारों वर्षों से पूरे भारतमें प्रचलित है यह स्वदेशी चिकित्सा प्रणाली आंतरिक रूप से हिंदू दर्शन धर्म और संस्कृति से जुड़ी हुई है इस प्रकार आयुर्वेद की जड़ें सनातन धर्म में है
आयुर्वेद मासिक धर्म को एक शारीरिक प्रक्रिया के रूप में मान्यता देता है, और दूसरों की तरह, यह भी दोषों के कार्यों द्वारा नियंत्रित होता है।
आयुर्वेद के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति का एक विशेष स्वभाव और संविधान (प्रकृति) होता है, जो शुक्राणु और डिंब के मिलन के दौरान बनता है।
व्यक्ति की प्रकृति इन दोषों के कार्य करने पर निर्भर करती है।
आयुर्वेद लोगों को दोष के आधार पर विभिन्न प्रकृति श्रेणियों में वर्गीकृत करता है, जो एक व्यक्ति में प्रबल होता है। दोष संख्या में तीन हैं: वात (आंदोलन से संबंधित), पित्त (पाचन से संबंधित), और
यह एक दक्षिण राजा सिंह निकाय का अक्कलपुंडी अनुदान है।
शिलालेख का पाठ 5,6,7 कहता है-
तीन जातियाँ, (अर्थात) ब्राह्मण और अगली (क्षत्रिय और वैश्य), भगवान के चेहरे, भुजाओं और जांघों से उत्पन्न हुई थीं; और उनके समर्थन के लिए उनके (यानी, ईश्वर के) चरणों से चौथी जाति का जन्म हुआ।
यह जाति उन (अन्य तीन) की तुलना में अधिक शुद्ध है, यह स्वयं स्पष्ट है क्योंकि यह जाति (नदी) भागीरथी, (यानी गंगा [जो विष्णु के पैर से निकलती है] के साथ पैदा हुई थी, तीनों लोकों को शुद्ध करने वाली थी। .
श्री राम-सीता
सीतारामोशनलं सर्वं सर्वकर्णकारणम्। अनोरेकतातत्वं गुणतोरूपतोपि च ।। द्वियोर्नित्यं द्विधारूपं तत्त्वतो नित्यमेकता। (बृहद-विष्णु पुराण)
"सब कुछ सीताराम द्वारा व्याप्त है। श्री सीताराम सभी कारणों के कारण हैं। वे वास्तव में एक और एक ही इकाई हैं, उनके गुणों में समान होने और उनके दिव्य रूपों के सौंदर्य-लालित्य-आकर्षण के कारण भी।
सिया रघुबीर बिबाहु जे सप्रेम गावहिं. तिनह कहुँ सदा उछा मंगलायतन राम जसु॥ (श्रीरामचरितमानस १.३६१)
"जो प्रेम से सीता और राम के विवाह की कथा गाते या सुनते हैं, वे सदा आनन्दित रहेंगे, क्योंकि श्रीराम की महिमा आनन्द का धाम है।"
भगवान के चरण कमलों की शरण लिए बिना दुख से मुक्त होने की कोई संभावना नहीं है। लोग सोच रहे हैं कि गर्भ में बच्चे को मारकर वे गर्भपात के माध्यम से पीड़ा को दूर कर सकते हैं। इस तरह वे एक के बाद एक पाप करते जा रहे हैं और उलझते जा रहे हैं।
नतीजतन, निरस्त जीव को जन्म लेने के लिए दूसरी मां के गर्भ में प्रवेश करना होगा ताकि वह जन्म लेने के लिए नियत हो सके। फिर, जब वह दूसरी माँ के गर्भ में प्रवेश करता है, तो वह फिर से मारा जा सकता है, और कई वर्षों तक उसे सूर्य का प्रकाश देखने को नही मिलता
इस कलियुग में लोग इतने पापी होते जा रहे हैं कि जब तक कोई परमात्माभावनामृत को नहीं अपनाता तब तक मुक्ति की कोई संभावना नहीं है। सारी मानव सभ्यता माया की आग में गिर रही है। लोग पतंगे की तरह आग में उड़ते हैं।