ग़रीबी को तो पटक दिया लेकिन ओलंपिक्स मेडल की रेस जीत पाएगा 'योगी का चेला'?
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ग़रीबी. तंगहाली या गुरबत. वो शय जिसकी चपेट में आने वाला परेशान ही रहता है. लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इस शय को ऐसा पटकते हैं, कि फिर ये लौटकर उनके पास नहीं जा पाती.
दी लल्लनटॉप की Tokyo2020 स्पेशल सीरीज ‘उम्मीद’ के तीसरे एपिसोड में आज बात ऐसे ही एक एथलीट की, जिसने ग़रीबी को अपने रास्ते में नहीं आने दिया. और ऐसा दांव चला कि आज पूरी दुनिया उसकी फैन है.
# कौन हैं Bajrang Punia?
बजरंग पूनिया.
रेसलिंग के लगभग हर बड़े इवेंट में मेडल जीतने वाले भारतीय रेसलर. हरियाणा के झज्जर जिले से आते हैं. बजरंग जब छोटे थे तो उनके परिवार के पास खेल-कूद का सामान खरीदने के पैसे नहीं थे. लेकिन बजरंग का मन तो खेल-कूद में ही लगता था. ऐसे में उन्होंने अपनी समस्या का सटीक जुगाड़ निकाला.
बजरंग कुश्ती यानी रेसलिंग और कबड्डी जैसे खेल खेलने लगे. इन खेलों के लिए कुछ खास चाहिए नहीं था, ऐसे में घरवालों ने भी इनकार नहीं दिया.
बजरंग के पिता भी रेसलर थे और उन्होंने अपने बेटे को झट से अखाड़े को सौंप दिया. जल्दी ही बजरंग ने रेसलिंग के लिए स्कूल से गोला मारना शुरू कर दिया.
फिर आया साल 2013. बजरंग ने अपने आने का ऐलान कर दिया. उन्होंने इस साल एशियन और वर्ल्ड रेसलिंग चैंपियनशिप में ब्रॉन्ज़ मेडल्स जीत लिए. फिर साल 2014 में बजरंग ने अपने मेडल्स का रंग बदला. इस बार कॉमनवेल्थ गेम्स, एशियन गेम्स और एशियन रेसलिंग चैंपियनशिप, तीनों में सिल्वर मेडल जीत लिए.
बजरंग को लगातार मिलती सफलता देख उनके परिवार ने एक और बड़ा कदम उठाया. झज्जर का खुदान गांव छोड़ वो सोनीपत आ गए, जिससे बजरंग SAI के रीजनल सेंटर में ट्रेनिंग कर पाएं.
# खास क्यों हैं Bajrang Punia?
बजरंग लंबे वक्त से ओलंपिक मेडलिस्ट योगेश्वर दत्त के अंडर ट्रेनिंग कर रहे हैं.
बजरंग से पहले 65kg कैटेगरी में योगी ही भारत के लिए खेलते थे. लेकिन बजरंग का खेल देख योगी ने बजरंग को ट्रेन करने का फैसला किया. इस बारे में उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस के साथ बातचीत के दौरान कहा था,
‘मेरा करियर अच्छा था. मैंने चार ओलंपिक्स खेले.
हमारी दूसरी पंक्ति के रेसलर्स में बजरंग अच्छा कर रहा है और वह अभी और बेहतर कर सकता है. इसलिए उसे चांस और सपोर्ट देना महत्वपूर्ण है. अगर बजरंग की बात ना होती तो मैं रेसलिंग नहीं छोड़ता. मैं अभी और खेलता.
लेकिन मैंने सोचा कि यही सही वक्त है. उम्र बजरंग के साथ है.
जूनियर्स के दौरान ही उसने स्पार्क दिखाया था. मैं चाहता हूं कि भारत के लोग अब बजरंग में योगेश्वर को देखें. मेरे पास लंबा करियर था और मैं नहीं चाहता कि मेरे चलते बजरंग पर असर हो.’
योगी की छत्रछाया में आने के बाद बजरंग ने पीछे मुड़कर नहीं देखा.
उन्होंने 2017 की एशियन रेसलिंग चैंपियनशिप में गोल्ड मेडल जीता. और फिर 2018 कॉमनवेल्थ गेम्स और एशियन गेम्स में भी गोल्ड मेडल्स जीते. इसी साल हुई वर्ल्ड रेसलिंग चैंपियनशिप में उन्होंने सिल्वर मेडल जीता. जबकि अगले साल की वर्ल्ड चैंपियनशिप में उनके नाम ब्रॉन्ज़ मेडल रहा.
इनके अलावा भी तमाम इंटरनेशनल मेडल्स जीत चुके बजरंग मौजूदा वक्त में वर्ल्ड नंबर वन रेसलर हैं.
# इनसे ‘उम्मीद’ क्यों?
सितंबर 2019 में ओलंपिक्स के लिए क्वॉलिफाई करने वाले बजरंग ने इसी साल मार्च में हुए मैटेओ पेल्लिकोन रैंकिंग सीरीज टूर्नामेंट में मंगोलिया के तुल्गा तुमुर ओचिर
को हराकर 65kg की वर्ल्ड रैंकिंग में टॉप स्पॉट हासिल किया था. टोक्यो 2020 के लिए बजरंग को दूसरी रैंकिंग मिली है. बजरंग बड़े स्टेज पर हर बार अपना बेस्ट देते हैं. उन्होंने पिछले तीन साल में हर बड़े टूर्नामेंट में मेडल जीता है.
इसमें 2018 एशियन गेम्स, कॉमनवेल्थ गेम्स और 2018-2019 की वर्ल्ड चैंपियनशिप के सिल्वर और ब्रॉन्ज़ मेडल्स शामिल हैं.
वह वर्ल्ड चैंपियनशिप में तीन मेडल्स जीतने वाले इकलौते भारतीय हैं. बजरंग ने अभी तक जिस भी बड़े इवेंट में भाग लिया है, हर बार मेडल जीता ही है.
योगेश्वर दत्त की मानें तो मैट पर उनके स्टेमिना की बराबरी करने लायक पहलवान मिलना बेहद मुश्किल है. इस रिकॉर्ड और फॉर्म को देखते हुए हर भारतीय बजरंग से मेडल की उम्मीद कर रहा है.
हालांकि एक बात और है, बजरंग की कैटेगरी कुश्ती की सबसे कठिन कैटेगरी मानी जाती है.
पहली बार ओलंपिक्स खेलने जा रहे बजरंग को मेडल जीतने के लिए विश्व चैंपियन गदजिमुराद रशीदोव, 2018 के विश्व चैंपियन जापानी ताकुतो ओटोगुरो, कजाकिस्तान के दौलत नियाजबेकोव और रियो 2016 के ब्रॉन्ज़ मेडलिस्ट अजरबजान के हाजी अलीयेव जैसे दिग्गजों की चुनौती से पार पाना होगा.
जाहिर है कि इतने सारे दिग्गजों से निपटना आसान नहीं होगा. लेकिन अगर नाम बजरंग @BajrangPunia और काम ताकत का हो तो सबकुछ आसान लगता है.
अब ओलंपिक्स मेडल लेकर आएगी बचपन में लकड़ी बीनने वाली लड़की?
क़रीब 14 साल पहले की बात है. मणिपुर की राजधानी इम्फाल से लगभग 20 किलोमीटर दूर पड़ने वाले एक गांव की पहाड़ियों पर दो बच्चे पसीने से तरबतर खड़े थे.
जलावन की लकड़ियां लेने घर से निकले 16 साल के सनातोम्बा मीटी और उनकी 12 साल की बहन की समझ नहीं आ रहा था, कि अब करें क्या. आसपास कोई मदद करने वाला भी नहीं था और सनातोम्बा से लकड़ियों का गट्ठर उठे ही ना. तभी उनकी बहन ने कहा,
‘मैं उठाऊं क्या?’
पहले तो सनातोम्बा समझ नहीं पाए कि उसे क्या जवाब दें. जो गट्ठर उनसे नहीं उठ रहा, वो पूरे चार साल छोटी बहन कैसे उठाएगी? लेकिन कोई और चारा ना देख सनातोम्बा ने हां कर दी. और फिर जो हुआ उसने उस 12 साल की लड़की को ओलंपिक तक पहुंचा दिया.
इस बार ओलंपिक्स मेडल जीत पाएंगी 'पुनर्जन्म' लेकर लौटी विनेश फोगाट?
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बचपन में जब हमें खेलते-खेलते चोट लगती थी तो घर के बड़े-बुजुर्ग हमें चुप कराने के लिए कहते थे- चोट खेल का हिस्सा हैं. बड़े हुए तो समझ आया कि बात सही तो थी लेकिन इतनी सीधी नहीं.
चोट खेल का हिस्सा तो है लेकिन इसे खेल में कोई चाहता नहीं, ये जबरदस्ती घुसपैठ करती है. कई बार तो प्लेयर्स इससे उबरकर वापसी कर लेते हैं, लेकिन कई दफा ये चोट करियर भी खत्म कर जाती है.
उम्मीद के हमारे चौथे एपिसोड में आज बात ऐसी ही एक प्लेयर की, जिसे चोट ने और बेहतर बना दिया.
जिसकी चोट इतनी खतरनाक थी कि लोगों को लगा अब करियर खत्म! लेकिन हरयाणे की इस छोरी ने दंगल जारी रखा. चोट को परास्त कर वापसी की और एक बार फिर से तैयार है… दुनिया पर छा जाने के लिए. विनेश फोगाट नाम की ये पहलवान Tokyo2020 Olympics में मेडल की हमारी सबसे बड़ी उम्मीदों में से एक है.