गांधी ने 1942 में नेहरू को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था और ऐसा शख्स कहा था 'जो मेरे ना रहने पर.. मेरी भाषा बोलेगा'। ऐसा ही हुआ भी।
1948 की जनवरी में जब गोड़से ने गोली चला कर देश के सबसे बड़े अभिभावक को मौत की नींद सुला दिया तब नेहरू ने दुख में डूबकर भी गांधी की ही भाषा बोली।
उन्होंने कहा था- ' हमें याद रखना है कि हम में से किसी को गुस्से में कोई कार्रवाई नहीं करनी है।हमें सशक्त और संकल्पवान लोगों की तरह व्यवहार करना चाहिए।सभी खतरों का सामना करने के संकल्प के साथ,हमारे महान गुरू और महान नेता द्वारा दिए गए आदेश को पूरा करने के संकल्प के साथ और हमेशा यह
ध्यान रखते हुए कि उनकी आत्मा हमें देख रही है, तो उसके लिए इससे अधिक कष्टदायक कुछ नहीं होगा कि हमें क्षुद्र व्यवहार या हिंसा में लिप्त देखें।'
वैसे ऐसा नहीं कि नेहरू किसी कट्टरपंथी की तरह गांधी के वचनों पर चलते रहे हों।परिस्थितियों के हिसाब से उन्होंने लचकदार रवैया भी अपनाया,
लेकिन गांधीवाद से उनकी आस्था कभी डिगी नहीं।यूं भी नहीं कि गांधी इस बात को जानते नहीं थे लेकिन उन्हें विश्वास था कि नए युग की नवीन चुनौतियों के बीच प्रयोग करते नेहरू कभी उन मूल सिद्धातों को तिलांजलि नहीं देंगे जिन पर चलते हुए गांधी ने जान दे दी।
नेहरू पक्के राष्ट्रवादी थे लेकिन
उनके राष्ट्रवादी दर्शन में किसी को गद्दार ठहराने के लिए जगह नहीं थी।दो धुरी में बंटे विश्व के बीच कमज़ोर भारत के मज़बूत नेता ने किसी एक पक्ष का पल्लू पकड़कर खुद को सुरक्षित नहीं कर लिया,बल्कि वो सोवियत से मदद पाकर भी ताल ठोककर अलग खड़े रहने का साहस जुटा सकनेवाले नेता थे। अगर
सनातन धर्म और भारत की उदार परंपरा का कोई सच्चा शिष्य था तो वो भी नेहरू थे।उन्होंने धर्म के मामले में सभी को स्वीकारने और किसी को भी ना नकारने की नीति ना सिर्फ अपनाई बल्कि कई बार अपने दल के नेताओं से इस मुद्दे पर टकराव तक मोल ले लिया।वो ही हो सकते थे जो अपने सूटकेस में हमेशा गीता
की प्रति और संयुक्त राष्ट्र संघ का चार्टर साथ लेकर चलते थे।
नेहरू का चारित्रिक गुण ही था कि माउंटबेटन से दोस्ती के बावजूद उन्होंने भारत को कई हिस्सों में तोड़ने की उनकी रणनीति का मुंहतोड़ जवाब दिया। बाद में 3 जून की योजना नेहरू के दबाव के बाद ही बनी,लेकिन गांधी का सच्चा प्रतिनिधि
जाते हुए अंग्रेज़ों को गांधी की भाषा में दोस्त कहता रहा,और हां वो एडविना की मौत के बाद उन्हें संसद में श्रद्धांजलि देने से नहीं चूका। अहिंसा के सिद्धांत को मानने लेकिन परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र के स्वप्न की तरफ पहला कदम उठानेवाले नेता भी नेहरू ही थे।आज़ादी से पहले हाथ से कपड़े
बुननेवाले नेहरू ने आज़ादी के बाद उन्हीं हाथों से मशीनों और बांधों का उद्घाटन भी किया।
मज़बूत विपक्ष और आज़ाद प्रेस के पक्षधर नेहरू ने नवंबर 1937 में अपने खिलाफ मॉडर्न टाइम्स में लेख लिख दिया।चाणक्य के छद्मनाम से ‘द राष्ट्रपति’ नाम के लेख में उन्होंने पाठकों को नेहरू के तानाशाही
रवैये पर चेताया।उन्होंने लिखा कि नेहरू को इतना मज़बूत ना होने दें कि वो सीज़र जैसा हो जाए।खुद मशहूर कार्टूनिस्ट शंकर याद करते हैं कि कैसे वो अपने पॉलिटिकल कार्टून में नेहरू की खिल्ली नहीं उड़ाते थे लेकिन एक मुलाकात में भारत के पहले प्रधानमंत्री (खुद को प्रधान सेवक कहनेवाले) ने
शंकर से कहा था- मुझे भी मत बख्शना।बाद में शंकर ने ‘डोंट स्पेयर मी, शंकर' नाम से नेहरू पर जमकर तंज कसे।नेहरू हर आवाज़ के सुने जाने को लेकर कितने आग्रही थे इस बात का अनुमान लगाइए कि संघ पर लगे प्रतिबंध को भी उन्होंने हटाया।हां,गोलवलकर को चिट्ठी लिखकर साफ कहा कि उन्हें नहीं लगता कि
उनका संगठन संविधान में निहित सिद्धातों को मान रहा है।ये नेहरू थे जो हमेशा चाहते थे कि लोहिया चुनाव में जीतकर हमेशा संसद में पहुंचें ताकि सरकार के खिलाफ एक सशक्त आलोचना होती रहे।
नेहरू के पास भारत नाम के नए बगीचे को खूबसूरत बनाने का महती कार्य था।उन्हें हर तरह के फूल खिलाने थे।
इसमें उनकी पसंद और नापसंद मायने नहीं रखती थी।एक व्यक्ति जितने प्रयास कर सकता था वो करते रहे।उनके पास कोई बनी -बनाई लीक नहीं थी जिसका अनुसरण करना हो।कहा भी जाता है कि - लीक लीक तीनों चलें कायर, कूत,कपूत, बिना लीक तीनों चलें शायर, सिंह, सपूत। नेहरू सिंह ही साबित हुए।
फिर भी ऐसा
थोड़े है कि वो महामानव थे लेकिन देवता के रूप में स्थापित होने के लालच में की जानेवाली गलतियों से वो सप्रयास दूर रहे।इंदिरा को कांग्रेस नाम के संगठन में स्थापित करने के फेर में उन्होंने कई लोगों की वरिष्ठता को नज़रअंदाज़ किया,लेकिन वहां उनका तर्क युवाओं को आगे बढ़ाना था।फिर भी खोज
होनी चाहिए कि क्या कांग्रेस में उस समय युवाओं का टोटा था?वंशवाद की राजनीति के आरोप से भी नेहरू पूरी तरह बरी नहीं हो पाते।पटेल की बेटी को दो बार कांग्रेस ने टिकट देकर लोकसभा पहुंचाया तो बेटे को तीन बार राज्यसभा में पहुंचने का मौका मिला।हां,बचाव में कहा भी जा सकता है कि ये सभी
आज़ादी के बाद मलाई चखनेवाले नेतापुत्र नहीं थे, बल्कि अंग्रेज़ों के शासन के दौरान इन सभी के पास स्वतंत्रता संघर्ष का अनुभव था।
नेहरू के जीवनीकार एस गोपाल की एक टिप्पणी (भारतीय राष्ट्रवाद- बिपिनचंद्र) उनकी विरासत को समझने के लिए पर्याप्त होगी।उन्होंने कहा था- नेहरू ने कुछ
उद्देश्यों को भारत की सामान्य चेतना का इतना स्वाभाविक हिस्सा बना दिया कि वे आज अपने आप मान लिए जाते हैं,भले ही उन उद्देश्यों की प्राप्ति अब तक नहीं हो पाई है।वे हैं- एकता, लोकतंत्र,धर्मनिरपेक्षता,वैज्ञानिक और अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण तथा समाजवाद की कल्पना को साकार करने की योजना।'
यही बातें नेहरू को महज़ एक नेता से आगे विज़नरी मानने को मजबूर करती हैं।मेरी निजी राय में वो भारत के अकेले स्टेट्समैन हैं।उनके विज़न को भारत सत्तर साल तक खुशी-खुशी मानता रहा और अग्रणी राष्ट्र बना।आज उनके विज़न और उनके चरित्र को चुनौती देनेवाली ताकतें भले हावी हों लेकिन एक सदी की
मेहनत के बावजूद वो खुलकर ना नेहरू के राष्ट्रीय विकास के विज़न को नकार सकते हैं और ना उनके पास उसका कोई परफेक्ट विकल्प है।यही नेहरू का हासिल है। अक्सर मैंने लिखा भी है कि भारत और पाकिस्तान के बीच का फर्क ही नेहरू हैं। #happybdaynehru #इतिइतिहास
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बागपत में एक छोटा सा गांव है सनौली.जो उस ज़िले में रहते हैं वही इस गांव को जानते हैं और बाहर के लोगों के पास कोई वजह भी नहीं थी इसे जानने की पर फिर 2005 आया.किसान अपने खेत में काम कर रहे थे.अचानक ज़मीन से कुछ बर्तन भांडे निकले.उन्होंने सोचा ज़रूर किसी ने अंदर खज़ाना दबा रखा है.
धीरे धीरे खुदाई करने लगे पर बात कहां दबती. खुल गई.शोर मच गया.अखबारों तक में खबर छपी.आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया को अंदाज़ा हो गया कि हो न हो फिर से सिंधु घाटी सभ्यता की एक साइट मिली है.2005 में विद्वानों का एक दल उस खेत में जा पहुंचा. महीनों खोदता रहा. कब्र मिलीं. बर्तन मिले.
सोने और बाकी धातुओं के कुछ आभूषण भी लेकिन ऐसा कुछ खास हुआ नहीं कि इतिहासकार चौंकते.खैर, खुदाई रुक गई.एक बार रुकी तो फिर 2018 तक रुकी ही रही.एक बार फिर एएसआई ने दल भेजा.उन्होंने खोदना शुरू किया लेकिन इस बार ये साधारण नहीं होनेवाला था.पहले तो कुछ ताबूत मिले.इनमें पुरुषों और महिलाओं
Mercy Petition of Savarkar. 14 Nov 1913. To Reginald Craddock, Home member of the Government of India.
Source- Savarkar, Vikram Sampath.
- रिहा हुआ तो संवैधानिक प्रगति और ब्रिटिश सरकार की वफादारी का निष्ठावान पैरोकार बनूंगा.
- मेरे द्वारा संवैधानिक विचार अपनाने पर भारत और उससे
बाहर के बहुत से भटके युवा जो मुझे आदर्श मानते हैं वो भी इसी विचारधारा पर लौट आएंगे.
- सरकार जिस तरह चाहे मैं सेवा को तत्पर हूं.चूंकि मेरा परिवर्तन ईमानदारी से हो रहा है तो मेरे भविष्य के कार्यकलाप भी वैसे ही होंगे.
- शक्तिशाली ही केवल दयालु हो सकता है इसलिए पश्चातापी पुत्र सरकार
के अभिभावक जैसे द्वार के सिवाय कहां लौट सकता है?
जब ये लिखा जा रहा था तब गांधी भारत में नहीं थे. अब तक ऐसा कोई प्रमाण भी नहीं मिला जिससे पता चलता हो कि सावरकर को इस दया याचिका की सलाह गांधी से मिली हो. हालांकि कई याचिकाओं के बावजूद जब सावरकर और उनके भाई को मुक्ति नहीं मिली तो
ता ना ना ना ना ना ना ना s s s s
ता ना ना ना ना ना ना ना ...
अगर ये धुन गाकर सुना दूं तो नब्बे के दशक का हर बच्चा इसे तुरंत पहचान लेगा। कुछ ने तो शायद अंदाज़ा लगा भी लिया होगा। ये धुन हमारे बचपन में यूं पैबस्त है मानो ज़िंदगी में सुखदुख। ब्लैक एंड व्हाइट टीवी पर दूरदर्शन के ज़रिए
गूंजती ये धुन बीन जैसा काम करती थी जिसे सुनकर हम बच्चे सांप की तरह लपककर टीवी के सामने कुंडली मार कर बैठ जाते थे। उसके बाद होश कहां रहता था...
हम पूरी चेतना के साथ मालगुडी कस्बे की दुनिया में प्रवेश करते थे।स्वामी का वो कस्बा मद्रास से कुछ ही दूरी पर बसा था..शायद 1935 के आसपास।
फ्रैरैडरिक लॉयले नाम के अंग्रेज़ ने उसे आबाद किया था।वही लॉयले जिसकी मूर्ति मालगुडी में लगी है।मेंपी के जंगल के पास जहां सरयू नाम की नदी बहती है ठीक उसी के किनारे मालगुडी की दुनिया थी।मैसूर और मद्रास को अलग करनेवाली सीमा पर उसका अस्तित्व था। सरयू के बहुत किस्से मिलते हैं।
एक दौर में जो नायक होता है वही बदले दौर का खलयनाक होता है। भारत में इंदिरा हों या पाकिस्तान में ज़िया.. हर कोई लोकप्रियता के दौर के बाद एक वक्त के लिए नायक से खलनायक में तब्दील हुआ ही है। कुछ ऐसा ही भारत से 13 हज़ार किलोमीटर दूर बसे क्यूबा नाम के देश में हुआ। फुलगेन्शियो बतिस्ता
नाम का नायक सालों के शासन के बाद बतौर खलनायक अपने देश से भाग निकला। भागने से पहले उसने जितनी हो सकता था उतनी दौलत अपने DC-4 विमान में भर ली। उसने डोमिनियन रिपब्लिक में जाकर शरण ली जहां उसका तानाशाह दोस्त सत्ता पर काबिज़ था। वो तारीख 1959 की 1 जनवरी थी। इसके बाद क्यूबा के आसमान पर
जो सूरज चमका उसका नाम फिदेल कास्त्रो था। साल 2008 तक कास्त्रो ही क्यूबाई आसमान पर चमक बिखेरते रहे।
कास्त्रो ने क्यूबाई क्रांति की शुरूआत महज़ 82 साथियों के साथ की थी जिनमें सिर्फ 12 ही सरकारी गोलियों का शिकार होने से बच सके थे। इन 12 लोगों ने 25 महीनों के भीतर ही सारे क्यूबा को
‘’मैंने एक दस साल के लड़के को आते देखा। वो एक छोटे बच्चे को पीठ पर लादे हुए था। उन दिनों जापान में अपने छोटे भाई-बहनों को खिलाने के लिए अक्सर बच्चे ऐसा करते ही थे,लेकिन ये लड़का अलग था।वो लड़का यहां एक अहम वजह से आया था।उसने जूते नहीं पहने थे।चेहरा एकदम सख्त था।उसकी पीठ पर लदे
बच्चे का सिर पीछे की तरफ लुढ़का था मानो गहरी नींद में हो।लड़का उस जगह पर पांच से दस मिनट तक खड़ा रहा।इसके बाद सफेद मास्क पहने कुछ आदमी उसकी तरफ बढ़े और चुपचाप उस रस्सी को खोल दिया जिसके सहारे बच्चा लड़के की पीठ से टिका था।मैंने तभी ध्यान दिया कि बच्चा पहले से ही मरा हुआ था।उन
आदमियों ने निर्जीव शरीर को आग के हवाले कर दिया।लड़का बिना हिले सीधा खड़ा होकर लपटें देखता रहा।वो अपने निचले होंठ को इतनी बुरी तरह काट रहा था कि खून दिखाई देने लगा। लपटें ऐसे धीमी पड़ने लगी जैसे छिपता सूरज मद्धम पड़ने लगता है।लड़का मुड़ा और चुपचाप धीरे धीरे चला गया।‘’
जो तस्वीर
अपने बेटे को बुरी तरह डांटने के बाद गहरी आत्मग्लानि से भरे हुए डबल्यू लिविंगस्टन लारनेड यह पत्र हर पिता को पढ़ना चाहिए-
सुनो बेटे ! मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूं। तुम गहरी नींद में सो रहे हो। तुम्हारा नन्हा सा हाथ तुम्हारे नाजुक गाल के नीचे दबा है और तुम्हारे पसीना-पसीना ललाट
पर घुंघराले बाल बिखरे हुए हैं। मैं तुम्हारे कमरे में चुपके से दाखिल हुआ हूं, अकेला। अभी कुछ मिनट पहले जब मैं लाइब्रेरी में अखबार पढ़ रहा था, तो मुझे बहुत पश्चाताप हुआ। इसीलिए तो आधी रात को मैं तुम्हारे पास खड़ा हूं किसी अपराधी की तरह।
जिन बातों के बारे में मैं सोच रहा था, वे ये
है बेटे ।
मैं आज तुम पर बहुत नाराज हुआ। जब तुम स्कूल जाने के लिए तैयार हो रहे थे, तब मैंने तुम्हें खूब डांटा ...तुमने तौलिये के बजाए पर्दे से हाथ पोंछ लिए थे। तुम्हारे जूते गंदे थे इस बात पर भी मैंने तुम्हें कोसा। तुमने फर्श पर इधर-उधर चीजें फेंक रखी थी.. इस पर मैंने तुम्हें भला