बागपत में एक छोटा सा गांव है सनौली.जो उस ज़िले में रहते हैं वही इस गांव को जानते हैं और बाहर के लोगों के पास कोई वजह भी नहीं थी इसे जानने की पर फिर 2005 आया.किसान अपने खेत में काम कर रहे थे.अचानक ज़मीन से कुछ बर्तन भांडे निकले.उन्होंने सोचा ज़रूर किसी ने अंदर खज़ाना दबा रखा है.
धीरे धीरे खुदाई करने लगे पर बात कहां दबती. खुल गई.शोर मच गया.अखबारों तक में खबर छपी.आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया को अंदाज़ा हो गया कि हो न हो फिर से सिंधु घाटी सभ्यता की एक साइट मिली है.2005 में विद्वानों का एक दल उस खेत में जा पहुंचा. महीनों खोदता रहा. कब्र मिलीं. बर्तन मिले.
सोने और बाकी धातुओं के कुछ आभूषण भी लेकिन ऐसा कुछ खास हुआ नहीं कि इतिहासकार चौंकते.खैर, खुदाई रुक गई.एक बार रुकी तो फिर 2018 तक रुकी ही रही.एक बार फिर एएसआई ने दल भेजा.उन्होंने खोदना शुरू किया लेकिन इस बार ये साधारण नहीं होनेवाला था.पहले तो कुछ ताबूत मिले.इनमें पुरुषों और महिलाओं
के शव थे.इसके बाद ताबूतों के साथ तलवार, ढाल, भाले, बाण मिले.बर्तन वगैरह हाथ आए. इसके बाद जो मिला उसने भारतीय इतिहासकारों के साथ विदेशी इतिहासकारों को भी हैरान कर दिया.तीन रथ निकल आए जो कब्रों के साथ ही मिट्टी में दब गए थे.जांच में पता चला मामला चार हज़ार साल पुराना है.अब तक रथों
का केवल ज़िक्र सुना था या फिर गुफाओं में पेंटिंग देखी थी.पहली बार भारतीय उपमहाद्वीप में वैसे रथ निकल रहे थे जैसे वेद में वर्णित थे.
संजय मंजुल जिनकी अगुवाई में एएसआई इतिहास खोदकर नया इतिहास रच रहा था उन्होंने बताना शुरू किया कि जिन लोगों को दफनाया गया है उनके रिवाज़ देखकर लग रहा
है ये वैदिक सभ्यता के लोग हैं और हड़प्पा के पतन के आसपास यहां सभ्यता फल फूल रही थी. इलाका चूंकि महाभारत क्षेत्र में पड़ता है तो अंदाज़ा लगा लीजिए कि उनसे क्या क्या सवाल पूछे गए होंगे. तो मैंने सोचा कि #PadhakuNitin में उन्हीं को बुला लूं.उनसे बहुत सारे सवाल पूछे. कुछ तो ये थे-
सनौली के रथों का रहस्य क्या है, इन रथों को चलानेवाले लोग कौन थे,क्या सनौली में महाभारत के योद्धा रहा करते थे,ताबूतों में बंद महिलाओं के शवों ने उन्हें किस उलझन में डाल दिया था,सनौली में मिली तलवारों ने किस पुराने सवाल का जवाब दिया है और क्यों दुनिया भर के इतिहासकारों की थ्योरीज़
पर सनौली एक्सकेवेशन ने शक़ पैदा कर दिया है?
तो भाईसाहब अगर आपको भी ऐसे सवाल परेशान करते हैं तो कल नया पॉडकास्ट ज़रूर सुनिएगा. ये मत बताइए कि एक डॉक्यूमेंट्री डिस्कवरी पर पड़ी है क्योंकि इस पॉडकास्ट में जो है वो वहां है ही नहीं. सुनकर बताइएगा कैसा लगा. #इतिइतिहास
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Mercy Petition of Savarkar. 14 Nov 1913. To Reginald Craddock, Home member of the Government of India.
Source- Savarkar, Vikram Sampath.
- रिहा हुआ तो संवैधानिक प्रगति और ब्रिटिश सरकार की वफादारी का निष्ठावान पैरोकार बनूंगा.
- मेरे द्वारा संवैधानिक विचार अपनाने पर भारत और उससे
बाहर के बहुत से भटके युवा जो मुझे आदर्श मानते हैं वो भी इसी विचारधारा पर लौट आएंगे.
- सरकार जिस तरह चाहे मैं सेवा को तत्पर हूं.चूंकि मेरा परिवर्तन ईमानदारी से हो रहा है तो मेरे भविष्य के कार्यकलाप भी वैसे ही होंगे.
- शक्तिशाली ही केवल दयालु हो सकता है इसलिए पश्चातापी पुत्र सरकार
के अभिभावक जैसे द्वार के सिवाय कहां लौट सकता है?
जब ये लिखा जा रहा था तब गांधी भारत में नहीं थे. अब तक ऐसा कोई प्रमाण भी नहीं मिला जिससे पता चलता हो कि सावरकर को इस दया याचिका की सलाह गांधी से मिली हो. हालांकि कई याचिकाओं के बावजूद जब सावरकर और उनके भाई को मुक्ति नहीं मिली तो
ता ना ना ना ना ना ना ना s s s s
ता ना ना ना ना ना ना ना ...
अगर ये धुन गाकर सुना दूं तो नब्बे के दशक का हर बच्चा इसे तुरंत पहचान लेगा। कुछ ने तो शायद अंदाज़ा लगा भी लिया होगा। ये धुन हमारे बचपन में यूं पैबस्त है मानो ज़िंदगी में सुखदुख। ब्लैक एंड व्हाइट टीवी पर दूरदर्शन के ज़रिए
गूंजती ये धुन बीन जैसा काम करती थी जिसे सुनकर हम बच्चे सांप की तरह लपककर टीवी के सामने कुंडली मार कर बैठ जाते थे। उसके बाद होश कहां रहता था...
हम पूरी चेतना के साथ मालगुडी कस्बे की दुनिया में प्रवेश करते थे।स्वामी का वो कस्बा मद्रास से कुछ ही दूरी पर बसा था..शायद 1935 के आसपास।
फ्रैरैडरिक लॉयले नाम के अंग्रेज़ ने उसे आबाद किया था।वही लॉयले जिसकी मूर्ति मालगुडी में लगी है।मेंपी के जंगल के पास जहां सरयू नाम की नदी बहती है ठीक उसी के किनारे मालगुडी की दुनिया थी।मैसूर और मद्रास को अलग करनेवाली सीमा पर उसका अस्तित्व था। सरयू के बहुत किस्से मिलते हैं।
एक दौर में जो नायक होता है वही बदले दौर का खलयनाक होता है। भारत में इंदिरा हों या पाकिस्तान में ज़िया.. हर कोई लोकप्रियता के दौर के बाद एक वक्त के लिए नायक से खलनायक में तब्दील हुआ ही है। कुछ ऐसा ही भारत से 13 हज़ार किलोमीटर दूर बसे क्यूबा नाम के देश में हुआ। फुलगेन्शियो बतिस्ता
नाम का नायक सालों के शासन के बाद बतौर खलनायक अपने देश से भाग निकला। भागने से पहले उसने जितनी हो सकता था उतनी दौलत अपने DC-4 विमान में भर ली। उसने डोमिनियन रिपब्लिक में जाकर शरण ली जहां उसका तानाशाह दोस्त सत्ता पर काबिज़ था। वो तारीख 1959 की 1 जनवरी थी। इसके बाद क्यूबा के आसमान पर
जो सूरज चमका उसका नाम फिदेल कास्त्रो था। साल 2008 तक कास्त्रो ही क्यूबाई आसमान पर चमक बिखेरते रहे।
कास्त्रो ने क्यूबाई क्रांति की शुरूआत महज़ 82 साथियों के साथ की थी जिनमें सिर्फ 12 ही सरकारी गोलियों का शिकार होने से बच सके थे। इन 12 लोगों ने 25 महीनों के भीतर ही सारे क्यूबा को
‘’मैंने एक दस साल के लड़के को आते देखा। वो एक छोटे बच्चे को पीठ पर लादे हुए था। उन दिनों जापान में अपने छोटे भाई-बहनों को खिलाने के लिए अक्सर बच्चे ऐसा करते ही थे,लेकिन ये लड़का अलग था।वो लड़का यहां एक अहम वजह से आया था।उसने जूते नहीं पहने थे।चेहरा एकदम सख्त था।उसकी पीठ पर लदे
बच्चे का सिर पीछे की तरफ लुढ़का था मानो गहरी नींद में हो।लड़का उस जगह पर पांच से दस मिनट तक खड़ा रहा।इसके बाद सफेद मास्क पहने कुछ आदमी उसकी तरफ बढ़े और चुपचाप उस रस्सी को खोल दिया जिसके सहारे बच्चा लड़के की पीठ से टिका था।मैंने तभी ध्यान दिया कि बच्चा पहले से ही मरा हुआ था।उन
आदमियों ने निर्जीव शरीर को आग के हवाले कर दिया।लड़का बिना हिले सीधा खड़ा होकर लपटें देखता रहा।वो अपने निचले होंठ को इतनी बुरी तरह काट रहा था कि खून दिखाई देने लगा। लपटें ऐसे धीमी पड़ने लगी जैसे छिपता सूरज मद्धम पड़ने लगता है।लड़का मुड़ा और चुपचाप धीरे धीरे चला गया।‘’
जो तस्वीर
अपने बेटे को बुरी तरह डांटने के बाद गहरी आत्मग्लानि से भरे हुए डबल्यू लिविंगस्टन लारनेड यह पत्र हर पिता को पढ़ना चाहिए-
सुनो बेटे ! मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूं। तुम गहरी नींद में सो रहे हो। तुम्हारा नन्हा सा हाथ तुम्हारे नाजुक गाल के नीचे दबा है और तुम्हारे पसीना-पसीना ललाट
पर घुंघराले बाल बिखरे हुए हैं। मैं तुम्हारे कमरे में चुपके से दाखिल हुआ हूं, अकेला। अभी कुछ मिनट पहले जब मैं लाइब्रेरी में अखबार पढ़ रहा था, तो मुझे बहुत पश्चाताप हुआ। इसीलिए तो आधी रात को मैं तुम्हारे पास खड़ा हूं किसी अपराधी की तरह।
जिन बातों के बारे में मैं सोच रहा था, वे ये
है बेटे ।
मैं आज तुम पर बहुत नाराज हुआ। जब तुम स्कूल जाने के लिए तैयार हो रहे थे, तब मैंने तुम्हें खूब डांटा ...तुमने तौलिये के बजाए पर्दे से हाथ पोंछ लिए थे। तुम्हारे जूते गंदे थे इस बात पर भी मैंने तुम्हें कोसा। तुमने फर्श पर इधर-उधर चीजें फेंक रखी थी.. इस पर मैंने तुम्हें भला
आज भारतीय राजनीति के दो विपरीत ध्रुवों की उस मुख़्तसर सी मुलाकात पर बात करने का सही मौका है जो 124 साल पहले हुई थी।मुलाकात की जगह उसी मुल्क की राजधानी थी जिसके साम्राज्य में सूरज ना छिपने की कहावत चर्चा पाई थी।
एक था 37 साल का वो वकील जिसे लोग एमके गांधी के नाम से जानते थे।उसने
दक्षिण अफ्रीकी भारतीयों के बीच नेतृत्व जमा लिया था।सरकार से बातें मनवाने का वो तरीका भी खोज लिया था जिसे पूरा भारत महज़ एक दशक बाद अपनाने वाला था।
दूसरा था 23 साल का नौजवान जिसका नाम वीडी सावरकर था। तीन महीने पहले उसने गांधी की ही तरह वकालत के लिए लंदन में दाखिला लिया था। गांधी
के शांतिपूर्ण और दिन के उजाले में संपन्न होने वाले अहिंसक आंदोलनों के ठीक उलट वो गुप्त संगठन और हथियारों के बल पर दमनकारी सत्ता को उखाड़ फेंकने का सपना देखता था।यही वजह थी कि जहां उसके गुरू का नाम बालगंगाधर तिलक था वहीं भविष्य में गांधी ने राजनीतिक गुरू के तौर पर गोपालकृष्ण गोखले