सोशल-मीडिया आजकल बंदर के हाथ में उस्तरे की तरह हो गया है। यही हालत कई चोरों की हो रही है जो कि कॉपी, पेस्ट व एडिटिंग से अपना इतिहास बनाने की चेष्टा कर रहे है।
लेकिन जगजाहिर हैं कि इतिहास सिर कटवाकर पूर्वजों ने रक्त से लिखा है....1
हमारे देश में नकल करने की जन्मजात प्रवृत्ति रही है।
यही हालात हमारे क्षत्रिय समाज में खांप (सरनेमों और गोत्रों) की कॉपी-पेस्ट से जुड़ी हैं।
राज परिवारों से अपने_आप को जोड़ने की चेष्टा के चलते प्राचीन काल से राजा-महाराजाओं के गोत्र अन्य समाज के लोग लगाते आये हैं.....2
सबसे बड़ा उदाहरण जब #वीर_दुर्गादास_राठौड़ जी को मारवाड़ से देश निकाला दिया गया था तब उनके साथ मारवाड़ से हजारों की संख्या में लोग भी उनके साथ चले गये थे....
जिनके वंशज आज बहुत बड़ी संख्या में उज्जैन, ग्वालियर व आगरा के आसपास के क्षेत्रों में विराजते है।.....3
वे सभी राठौड़ सरनेम लगाते हैं लेकिन यह ऐतिहासिक तथ्य है कि वे राठौड़ क्षत्रिय नहीं है।
हमारे देश में एक ही प्रकार के खांप या सरनेम कई समाजों में दृष्टिगोचर होते है इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि वे सभी रक्त_संबंधी और स्वजातीय ही हों। ....4
भाटी क्षत्रिय होते हैं तो भाटी गुज्जर और मुसलमानों में भी होते हैं।
तोमर क्षत्रिय होते हैं तो तोमर जाट और गुजरों में भी होते हैं।
गौड़ क्षत्रिय होते हैं तो गौड़ ब्राह्मणों में भी होते हैं।
अर्थात् ऐसे हजारों उदाहरण हैं जो हमारे समाजो में परस्पर देखने को मिलते हैं।....5
बात आती है गुर्जरों की तो गुर्जर मुसलमान भी होते हैं
और बड़गूजर क्षत्रिय भी होते हैं जिन लोगों को इतिहास की जानकारी नहीं है उन लोगों को बता दूं कि बड़गुजर सूर्यवंशी क्षत्रिय होते हैं जो कि चौहानों के रक्त_संबंधी हैं।
संभवतया चौहान शासकों ने बड़गुजरों को पराजित किया था......6
इसलिए उन्होंने अपने आपको गुर्जराधिश या गुर्जराधिपति लिखा।
यहां विचारणीय बात यह हैं है कि यदि गुजरात का नाम गुजरों के नाम पर पड़ा होता तो वहां पर जनसंख्या के एक बड़े अनुपात में आज गुजर जाति जरूर होती जो कि वहां पर नगण्य अवस्था में हैं....7
इतिहास कपोल कल्पनाओं से नहीं बनता बल्कि
बही-भाटों, चारणों, समकालीन लेखकों, इतिहासकारों, सिक्कों, ताम्रपत्रों, दानपत्रों किंवदंतियों, कथाओं, कहानियों, रीति-रिवाजों और परंपराओं के गहन विवेचन के पश्चात ही ऐतिहासिक तथ्यों का निर्धारण होता है....8
सस्ते इंटरनेट की देन से सोशल मीडिया पर कॉपी, पेस्ट से किसी भी इतिहासिक तथ्य को स्थापित नहीं किया जा सकता, न ही झुठलाया जा सकता है।
यह ऐतिहासिक व स्थापित वास्तविकता है कि अपने नाम के आगे सरनेम या खांप के परिवर्तन से रक्त परिवर्तित नहीं होता तथा ना हीं वंश_परंपराएं बदलती है....9
सम्राट पृथ्वीराज चौहान, सम्राट अनंगपाल तोमर व सम्राट मिहिरभोज प्रतिहार निश्चित तौर पर क्षत्रिय थे।
कहानी उस शासक की जिनके नाम के गीत आज भी राजस्थान के हर घर में गाए जाते हैं।
यह उस समय की बात है जब हिंदुस्तान पर अफ़ग़ान लुटेरों और सुल्तानों के हमले हो रहे थे। यह वो क्रुर लोग थे जो धन सम्पत्ति के साथ-२ हिंदू महिलाओं ख़ासकर सुहासनियों को ....1
अगवा करना और उन्हें हरम की दासियां बनाना अपना जीत का आधार मानते थे।
हिंदू लड़कियों को आक्रांताओं द्वारा अगवा करने की घटनायें उन दिनों होती रहती थी... एक ऐसी ही घटना घटित हुई मौजूदा नागौर ज़िले के पीपाड़ क्षेत्र के पास जब सन् 1492 के मार्च महीने में गणगौर के दिन गांव की.....2
महिलाएं एवं बच्चियां तीज पूजने गांव के तालाब के पास इकट्ठी हुई थी।
इसकी सूचना मिलते ही अजमेर का शाही सूबेदार "मीर घुड़ले खान" वहां पहुंच गया और उसने 140 सुहासनियों(कुंवारी कन्याओं) को अपने क़ब्ज़े में लेकर उन्हें अपने हरम की दासियां बनाने के उद्देश्य से रवाना हो गया।....3
खंडेला के प्रथम शेखावत राजा रायसल दरबारी के 12 पुत्रों को जागीर में अलग-२ ठिकाने मिलें जिनसे आगे जाकर शेखावतों की विभिन्न शाखाएं चली। इन्हीं के पुत्रों में से एक ठाकुर भोजराज जी को उदयपुरवाटी जागीर के रूप में मिली....१
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इन्हीं के वंशज 'भोजराज जी के शेखावत' कहलाते हैं। भोजराज जी के पश्चात उनके पुत्र टोडरमल उदयपुरवाटी(शेखावाटी) के स्वामी बनें। टोडरमल जी दानशीलता के लिए इतिहास में विख्यात है। टोडरमलजी के पुत्रों में से एक झुंझारसिंह थे, झुंझारसिंह सबसे वीर, परम-प्रतापी, निडर व कुशल योद्धा थे....२
तत्कालीन समय "केड़" नामक गांव पर नवाब का शासन था.... नवाब की बढ़ती ताकत से टोडरमल जी चिंतित हुए परन्तु वो काफी वृद्ध हो चुके थें इसलिए केड़ गांव पर चाहकर भी अधिकार नहीं कर पा रहे थे।
कहते हैं कि टोडरमलजी जब मृत्यु शय्या पर थें तब उनको मन-ही-मन एक बैचेनी उन्हें हर समय खटकती थी...३
छाछरो हवेली के राणा तथा पाकिस्तान के पूर्व रेलमंत्री जिनका दिल सदैव हिंदुस्तान राष्ट्र के लिए धड़कता था जिस कारण 1969 में दोनों देशों के बीच टकराव की स्थिति को चलते उनपर पाकिस्तान सरकार द्वारा जासूसी का आरोप लगाया गया....1
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ऐसे माहौल के बीच सोढ़ा ठाकुर साहब छाछरो की हुकूमत छोड़ ऊंट पर सामान बांधकर हिंदुस्तान आ गये तब वहां की 'मांगणियार महिलाओं' ने विदाई गीत गाएं... "बोल्या चाल्या माफ़ करज्यो, म्हारा राणा रायचंद रे"
अब छाछरो ठाकुर साहब हिंदुस्तान आकर खेती-बाड़ी करने लगे। .....2
दूसरी तरफ़ 71 की जंग छिड़ चुकी थी और कमान जयपुर महाराजा ब्रिगेडियर भवानीसिंह जी के हाथों में थी। छाछरो के मुख्य मौर्चे पर "20राजपूत इन्फैंट्री" व "दरबार की ब्रिगेड" थी।
कहते हैं छाछरो पर अटैक करने से पहले जयपुर दरबार बिग्रेडियर साहब और सोढ़ा ठाकुर साहब की बात हों चुकी थी.....3
द्वितीय-विश्वयुद्ध में जोधपुर एयरबेस से 1000 जंगी जहाजों ने उड़ान भरी थी.... इस एयरपोर्ट का निर्माण मारवाड़(जोधपुर) के तत्कालीन महाराजा उम्मेदसिंह जी राठौड़ ने करवाया था....1
राजस्थान की सबसे बड़ी हॉस्पिटल सवाई मानसिंह अस्पताल जयपुर हैं.... इस अस्पताल का निर्माण महाराजा साहेब सवाई मानसिंह जी कच्छवाह (द्वितीय) ने करवाया था.... दिल्ली एम्स के बाद यह उत्तर-भारत की दूसरी/तीसरी सबसे बड़ी अस्पताल हैं.... सरकारी अस्पताल हैं.... मुफ्त अस्पताल हैं.... 2
राजस्थान के पूर्व व वर्तमान राज्यपालों/मुख्यमंत्रियों/मंत्रियों/सांसदों/विधायकों से ले के प्रदेश की अंतिम पंक्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति का इलाज इसी अस्पताल में होता हैं.... शानदार इलाज होता हैं.... आधुनिक उपकरणों मशीनों से इलाज होता हैं.... 3
मुगलों की ताकत मिलने के बाद महादजी सिंधिया ने राजपूताना की रियासतों में तोप व तलवार के बल पर अवैध वसूली और लूटपाट करनी चाही।
कहते हैं कि महादजी सिंधिया ने जयपुर महाराजा प्रतापसिंह जी से 60 लाख रुपए मांगे थे लेकिन जयपुर महाराजा ने....1
60लाख रुपए देने से इंकार कर दिया तब यहादजी सिंधिया ने फ्रांसिसी डिबॉयन को कमांडर बनाकर जयपुर पर चढ़ाई कर दी। अतः परिणामस्वरूप तुंगा नामक स्थान पर भीषण युद्ध हुआ।
तुंगा का युद्ध 28 जुलाई 1787 को जयपुर नरेश सवाई प्रतापसिंह कछवाह तथा मराठा सेनापति महादजी सिंधिया के बीच शुरू हुआ...2
इस युद्ध में जयपुर राज्य की ओर से कछवाहों राजवंश की शेखावत, राजावत, धिरावत, खंगारोत, बलभद्रोत तथा नाथावत शाखाओं ने भाग लिया साथ ही जोधपुर (मारवाड़) के राठौड़ सैनिकों ने भी जयपुर राजघराने का सहयोग किया जबकि मराठों की सेना का नेतृत्व अपने समय के सबसे बड़े सेनानायक....3
#मांडण_का_युद्ध
यह युद्ध 1822 वि.स. (6 जून 1775) में लड़ा गया था, जिसकी स्मृति प्रत्येक शेखावत घराने में आज भी ताजा बनी हुई है विशेष रूप से झुंझुनू और उदयपुरवाटी परगनों का प्रत्येक शेखावत परिवार इस बात का दावा करता है कि उसका कोई एक पुरखा माण्डण के युद्ध में अवश्य लड़ा था...1
अधिकांश कुटुम्बों के योद्धाओं ने माण्डण के समरांगण में प्राणों की आहुतियाँ देकर अपने वंशजों को ऊँचा मस्तक रखने का गौरव प्रदान किया था। कहा जाता है- माण्डण के उस रक्तरंजित युद्ध में सैकड़ों ऐसे नवयुवा वीरों ने अपना रक्त बहाया था, जो उसी समय विवाह करके अपनी नव वधुओं के साथ....2
घरों को लौटे थे और जिनके मंगल सूचक कांकड़-डोरड़े (विवाह के समय हाथ की कलाई पर बांधा जाने वाला रक्षा सूत्र) विधिवत खोले ही नहीं जा सके थे।
यह युद्ध उस वक्त लड़ा गया जिस युग के षड्यंत्रों से दूषित राजनीतिक वातावरण में पले उन शेखावत योद्धाओं ने किस प्रकार एक दिल-दिमाग होकर....3