“मुझे नहीं लगता इसे नहलाते होंगे”, छोटी बच्ची ने अपने मेमने को पास समेटते हुए आशंका जताई। उसने सुबह ही मेमने पर पूरा एक घड़ा पानी डाला था और फिर इस तरह पानी बर्बाद करने के लिए माता से प्रसाद भी पा चुकी थी।
उससे बड़े भाइयों में इस बात पर बहस छिड़ी थी कि धोने से बकरी का रंग, उसकी चमक फीकी पड़ती है या नहीं। छोटी लड़की और उसे 10-12 वर्ष के भाइयों के ही हमउम्र दो और भाई बहन भी वहीँ मौजूद थे। प्रयागराज तब आज जितना बड़ा तो नहीं था।
फिर भी तीर्थ से जुड़ा क्षेत्र होने के कारण पास के आस-क्षेत्र की प्रसिद्धि तो थी ही। हाँ एक बड़े नेता जिनके पिता भी कांग्रेसी थे, उनकी वजह से शहर को राजनैतिक प्रसिद्धि भी मिली हुई थी। फिर भले ही किसी और नाम से मिली हो।
नेता जी से मिलने अक्सर बड़े नेता आते रहते थे और उस वक्त भी शहर में ऐसी ही हलचल थी। बच्चों को न किसी नेता जी से मतलब था, न इससे कि कौन खुद को “दुर्घटनावश हिन्दू” बताता है। उनके लिए तो बकरी रोचक विषय थी। होती भी क्यों नहीं? ये बकरी उनकी बकरी जैसी चितकबरी सी नहीं थी, सफ़ेद थी।
ऊपर से तांगे पर सवार! जो बकरी तांगे पर सवार न होती, तो बच्चों के कौतुहल का विषय भी न बनती। अपनी बकरी से कुछ मोटी लग रही है, इसे संभवतः अमरुद खाने को मिल जाते होंगे। बच्चे आपस में बात कर रहे थे। जिस आर्थिक स्थिति के थे, फलों के नाम पर उन्हें अमरूदों का ही पता था।
सेब तब उतने चलन में नहीं थे, फिर शहर अपने अमरूदों के अन्दर से “लाल” होने के लिए ख्यात भी था। पीछे से पैदल चले आ रहे व्यक्ति और युवती का ध्यान अभी बच्चों के कौतुहल पर नहीं गया था।
युवक कविता रचने में जुटा था –
नव गति, नव लय, ताल-छंद नव
नवल कंठ, नव जलद-मन्द्ररव;
नव नभ के नव विहग-वृंद को
नव पर, नव स्वर दे!
वर दे, वीणावादिनि वर दे।
युवती की नजर तांगे पर सवार बकरी पर पड़ी।
अबतक तांगे वाले ने सामान सड़क किनारे की दुकान से तांगे पर रखवा लिया था। हट्ट-टट्ट की आवाज के साथ उसने दुआली हांकी और तांगा सरपट स्वराज भवन की ओर बढ़ चला। बच्चों के लिए खेल ख़त्म हो गया था। पीछे से आ रहे युवक-युवती से करीब करीब टकराते हुए बच्चे किसी नए मनोरंजन की तलाश में भाग चले।
“देख लो भैया”, युवती बोली, “हिंदी का साहित्यकार पैदल जा रहा है, और बकरी तांगे पर!” युवक कवी था, व्यंग भरे स्वर में बोला, “जरूर गाँधी जी की बकरी होगी”! और दोनों लोग ठठाकर हंस पड़े।
तांगे पर बकरी को स्वराज भवन जाते देख, तब के इलाहाबाद में महादेवी वर्मा से सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने कहा था, जरूर गाँधी जी की बकरी होगी! सरस्वती वन्दना वाली कविता ‘निराला’ की ही है। वसंत पंचमी की शुभकामनाएं!
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एक बार राजा भोज के साले अपनी बहन से मिलने आये। दोनों भाई-बहन राजा के अन्त:पुर में बैठे आपस में बातें कर रहे थे। उसी समय राजा भोज वहां आ गये तो रानी ने उनको कहा, "पधारिये मूर्खराज!"
राजा भोज ने प्रत्युत्तर में कहा तो कुछ नहीं पर उल्टे पैर आवेश में आकर दरबार में जा बैठे।
अब दरबार में जो भी आता था उससे राजा भोज कहते थे, "पधारिये मूर्खराज!" राजा के इस सम्बोधन से स्तब्ध दरबारी कुछ कह या कर सकने की स्थिति में तो नहीं थे इसलिए शान्तभाव से अपने आसन पर बैठ जाते थे। थोड़ी देर में आये कालिदास और उनसे भी राजा ने कहा, "पधारिये मूर्खराज!"
कालिदास ने पूछा -
खादन्न गच्छामि हसन्न जल्पे (जल्पामि)
गतं न शोचामि कृतं न मन्ये।
द्वाभ्यां तृतीयो न भवामि राजन्!
किं कारणं भोज भवामि मूर्ख:।।
आपके हिसाब से ये एक नदी के किनारे की तस्वीर है, जो शायद इसलिए ली गयी होगी क्योंकि दृश्य सुन्दर था। हमारे हिसाब से अब ये तस्वीर उल्टी है। जब हमने इसे लिया था तब हमारे हिसाब से ये बेतवा नदी का सुन्दर दृश्य ही था।
इससे पहले कि इस बात पर आयें कि ये तस्वीर उल्टी क्यों लग रही है हम चलें कटरा केशवदेव, यानि जिसे हमलोग आमतौर पर मथुरा के कृष्ण जन्मस्थान मंदिर के नाम से जानते हैं। पाहली बार इसे 1071 में महमूद गजनवी का हमला झेलना पड़ा था।
उसके बाद से इस्लामिक हमलावरों के आक्रमणों में इसे तोड़ा जाता रहा और फिर से बनाया जाता रहा। सत्रहवीं शताब्दी में इसे वीर सिंह देव बुंदेला ने फिर से बना दिया था। इसके बाद ही औरंगज़ेब ने 1670 में इसे तुड़वाया। कहते हैं जन्मभूमि स्थल पर ईदगाह तभी पहली बार बनी।
जिसे पहला स्वतंत्रता संग्राम कहते हैं, वो 1857 का बताया जाता है, फिर हम अपनी बात उससे सौ साल पहले से क्यों शुरू कर रहे हैं? क्योंकि इस दौर में बाबा तिलकामांझी ने फिरंगियों के शोषण के खिलाफ़ हथियार उठा लिए थे। ऐसा माना जाता है कि बाबा तिलका मांझी का जन्म 11 फ़रवरी 1750 को हुआ था।
इस हिसाब से 1784 के दौर में वो करीब 35 वर्ष के होंगे। विश्व इतिहास में ऐसा एक ही बार हुआ है कि कोई निजी कंपनी - ईस्ट इंडिया कंपनी, इतनी बड़ी आबादी को नियंत्रित करे। इस कंपनी के बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स ने विलियम पिट (यंगर) के प्रभाव में ज़मींदारी का लगान वसूलने की व्यवस्था बदली।
ये 1770 के अकाल का दौर था और तब के बिहार के लिए और शोषण झेल पाना नामुमकिन हो गया। बचपन से ही फिरंगियों का जुल्म देखते आ रहे तिलका मांझी ने आखिर फिरंगियों का और लगान भरने और जुल्म सहने के बदले हथियार उठा लिए। हथियार भी कैसे? फिरंगी तोपों-बंदूकों के खिलाफ तिलका मांझी के गुलेल-धनुष!
अप्रैल 1669 में औरंगज़ेब ने दारुल-हरब यानि हिन्दुस्तान को दारुल-इस्लाम बनाने के लिए फ़रमान जारी किया। जिन मंदिरों की वजह से बुतपरस्ती होती थी, उन्हें तोड़ा जाना था। इस आदेश पर इलाके की हिन्दू जनता भड़क उठी और विद्रोह हो गया। #OurTrueHistory @ShefVaidya
जाट बहुल इलाकों के इस विद्रोह में स्थानीय मीना, मेव, अहीर, गुज्जर, नरुका, पंवार सभी शामिल हो गए। मंदिरों को तोड़ने आई सेनाओं का सशस्त्र विरोध होने लगा। मथुरा के इलाके का फौजदार, अब्दुन नबी खान, विद्रोह को कुचल कर मंदिरों को तोड़ने आगे आया।
गोकुल जाट के नेतृत्व में हुई लड़ाई में शाहजहाँ के काल में बने शादाबाद के फौज़ी ठिकाने को जनता ने ध्वस्त कर दिया और 12 मई 1669 को हुई लड़ाई में गोकुल जाट और उसके साथियों ने किसानों के औजारों से ही मुग़ल सैनिकों को हराकर, अब्दुन नबी खान को मार गिराया।
यदि आप पति हो और किसी सुबह 5:30 में ही आपकी नींद खुल जाये तो आपको दो यक्ष प्रश्नों का सामना करना पड़ सकता है -
पहला -
चाय खुद बनाऊं या अर्धांगिनी को जगाने का दुःसाहस करूँ ?
परिणाम: आप कुछ भी करो आपको "चार बातें" सुननी ही हैl आप यदि खुद चाय बना लो तो ब्रह्म मुहूर्त में, अर्थात आठ बजे जब भार्या जागेगी तो आपको सुनना है -"क्या ज़रूरत थी खुद बनाने की , मुझे जगा देते, पूरा बर्तन जला दिया, वो दूध का बर्तन था, चाय वाली नीचे रखी है दाल भरकरl"
विश्लेषण: चाय खुद बनाने से पत्नी दुखी हुई या शर्मिंदा हुई या अपने अधिकार क्षेत्र में घुसपैठ से भयाक्रांत हुई या कुछ और... आप कभी समझ नहीं पाएंगेl दूध के बर्तन में चाय बनाना गुनाह है लेकिन चाय के बर्तन में दाल भरकर रखी जा सकती हैl
धर्म परिवर्तन के खिलाफ़ आपके जो कानून हैं वो उल्टे हैं। बात हज़म करने में दिक्कत होगी, लेकिन जो ज़मीनी स्तर पर ऐसे मामले देख चुके हैं, उन्हें ये स्वीकार करने में दिक्कत नहीं होगी। धोखे से, लालच देकर, या गलत तरीके से धर्म परिवर्तन करते/करवाते पकड़े जाने पर क्या होता है?
अगर पीड़ित अथवा पीड़िता (जिसका धर्म परिवर्तन करवाया गया हो) किसी अनुसूचित जाति-जनजाति से आता/आती है, तो अधिक सज़ा होगी, और अगर वो सामान्य वर्ग से आता/आती हो तो कम सज़ा होगी। क्या धोखे से धर्म परिवर्तन करवाने वाले भी ऐसा ही सोचते हैं?
नहीं! वो बिलकुल इसका उल्टा करते हैं। चाहे लव जिहाद कहलाने वाले मामलों की तथाकथित "रेट लिस्ट" देखिये, या अन्य तरीकों के मामले में देखिये, तथाकथित सेंट फ्रांसिस ज़ेवियर के काल से इस बात के लिखित प्रमाण हैं कि निशाना पहले ब्राह्मण, फिर क्षत्रिय, वैश्य और अंत में दूसरी जातियां होंगी।