(1/17)30 दिसंबर, 1930 को डॉ. भीमराव आंबेडकर ने लंदन से रमाबाई को एक पत्र लिखा था, उसी पत्र का सम्पादित संपादित अंश।
रमा! कैसी हो रमा तुम?
तुम्हारी और यशवंत की आज मुझे बहुत याद आई। तुम्हारी यादों से मन बहुत ही उदास हो गया है। मेरी बौद्धिक ताकत बहुत ही प्रबल बन गई है।
(2/17)शायद मन में बहुत सारी बातें उमड़ रही हैं। हृदय बहुत ही भाव प्रवण हो गया है। मन बहुत ही विचलित हो गया है और घर की, तुम सबकी बहुत यादआ रही है। तुम्हारी यादआ रही है। यशवंत की याद आ रही है। मुझे तुम जहाज पर छोड़ने आयी थी। मैं मना कर रहा था। फिर भी तुम्हारा मन नही माना।
(3/17)तुम मुझे पहुंचाने आई थी। मैं राउंड टेबल कांफ्रेंस के लिए जा रहा था। हर तरफ मेरी जय-जयकार गूंज रही थी और ये सब तुम देख रही थी। तुम्हारा मन भर आया था, कृतार्थता से तुम उमड़ गयी थी।तुम्हारे मुंह से शब्द नही निकल रहे थे।परंतु, तुम्हारी आंखें,जो शब्दों से बयां नहीं हो पा रहा था,
(4/17)सब बोल रही थीं। तुम्हारा मौन शब्दों से भी कई ज्यादा मुखर बन गया था। तुम्हारे गले से निकली आवाज तुम्हारे होठों तक आकर टकरा रही थी।
और अब यहां लंदन में इस सुबह ये बातें मन में उठ रही हैं। दिल कोमल हो गया है। जी में घबराहट सी हो रही है। कैसी हो रमा तुम? हमारा यशवंत कैसा है?
(5/17)मुझे याद करता है वह? उसकी संधिवात [जोड़ों] की बीमारी कैसी है? उसको संभालो रमा! हमारे चार बच्चे हमें छोड़कर जा चुके हैं। अब है तो सिर्फ यशवंत ही बचा है। वही तुम्हारे मातृत्व का आधार है। उसे हमें संभालना होगा। यशवंत का खयाल रखना रमा। यशवंत को खूब पढ़ाना।
(6/17)उसे रात को पढ़ने उठाती रहना। मेरे बाबा मुझे रात को पढ़ने के लिए उठाया करते थे। तब तक वह जगते रहते थे। मुझे यह अनुशासन उन्होंने ही सिखाया। मैं उठकर पढ़ने बैठ जाऊं, तब वह सोते थे। पहले-पहले मुझे पढ़ाई के लिए रात को उठने पर बहुत ही आलस आता था।
(7/17)तब पढ़ाई से भी ज्यादा नींद अच्छी लगती थी। आगे चलकर तो जिंदगीभर के लिए नींद से अधिक पढ़ाई ही अहम लगने लगी।
रमा, यशवंत को भी ऐसी ही पढ़ाई की लगन लगनी चाहिए। किताबों के लिए उसके मन में उत्कट इच्छा जगानी होगी।
रमा, अमीरी-ऐश्वर्य, ये चीजें किसी काम की नहीं।
(8/17)तुम अपने इर्द-गिर्द देखती ही हो। लोग ऐसी ही चीजों के पीछे हमेशा से लगे हुए रहते हैं। उनकी जिन्दगियां जहां से शुरू होती है, वहीं पर ठहर जाती है। इन लोगों की जिंदगी, जगह बदल नहीं पाती। हमारा काम ऐसी जिंदगी जीने से नही चलेगा रमा। हमारे पास सिवाय दुख के कुछ भी नहीं है।
(9/17)दरिद्रता, गरीबी के सिवाय हमारा कोई साथी नहीं। मुश्किलें और दिक्कतें हमें छोड़ती नहीं हैं। अपमान, छलावा, अवहेलना यही चीजें हमारे साथ छांव जैसी बनी हुई हैं।
सिर्फ अंधेरा ही है। दुख का समंदर ही है। हमारा सूर्योदय हमको ही होना होगा रमा। हमें ही अपना मार्ग बनना है।
(10/17)उस मार्ग पर दीयों की माला भी हमें ही बनानी है। उस रास्ते पर जीत का सफर भी हमें ही तय करना है। हमारी कोई दुनिया नहीं है। अपनी दुनिया हमें ही बनानी होगी।
हम ऐसे ही हैं रमा। इसलिए कहता हूं कि यशवंत को खूब पढ़ाना। उसके कपड़ों के बारे में फिक्रमंद रहना। उसको समझाना-बुझाना।
(11/17)यशवंत के मन में ललक पैदा करना। मुझे तुम्हारी बहुत याद आती है। यशवंत की याद आती है। मैं समझता नहीं हूं, ऐसा नहीं है रमा, मैं समझता हूं कि तुम इस आग में जल रही हो। पत्ते टूटकर गिर रहे हैं और जान सूखती जाए ऐसी ही तू होने लगी है। पर रमा, मैं क्या करूं?
(12/17)एक तरफ से पीठ पीछे पड़ी दरिद्रता और दूसरी तरफ मेरी जिद और लिया हुआ दृढ संकल्प। संकल्प ज्ञान का!
सच कहूं रमा, मैं निर्दयी नहीं। परंतु, जिद के पंख पसारकर आकाश में उड़ रहा हूं। किसी ने पुकारा तो भी यातनाएं होती हैं। मेरे मन पर खरोंच पड़ती है और मेरा गुस्सा भड़कता है।
(13/17)मेरे पास भी हृदय है रमा! मैं तड़पता हूं। पर,मैं बंध चुका हूं क्रांति से! इसलिए मुझे खुद की भावनाएं चिता पर चढ़ानी पड़ती हैं। उसकी आंच तुम्हारे और यशवंत तक भी कभी-कभी पहुंचती है। यह सच है। पर, इस बार रमा मैं बाएं हाथ से लिख रहा हूं और दाएं हाथ से उमड़ आए आंसू पोंछ रहा हूं।
(14/17)रमा, तुम मेरी जिंदगी में न आती तो?
तुम मन-साथी के रूप में न मिली होती तो? तो क्या होता? मात्र संसार सुख को ध्येय समझने वाली स्त्री मुझे छोड़ के चली गई होती। आधे पेट रहना, उपला (गोइठा) चुनने जाना या गोबर ढूंढकर उसका उपला थापना या उपला थापने के काम पर जाना किसे पसंद होगा?
(15/17)चूल्हे के लिए ईंधन जुटाकर लाना, मुम्बई में कौन पसंद करेगा? घर के चिथडे़ हुए कपड़ों को सीते रहना। इतना ही नहीं, 'एक माचिस में पूरा माह निकालना है, इतने ही तेल में और अनाज, नमक से महीने भर का काम चलाना चाहिए', मेरा ऐसा कहना। गरीबी के ये आदेश तुम्हें मीठे नहीं लगते तो?
(16/17)तो मेरा मन टुकड़े-टुकड़े हो गया होता। मेरी जिद में दरारें पड़ गई होतीं। मुझे ज्वार आ जाता और उसी समय तुरन्त भाटा भी आ जाता। मेरे सपनों का खेल पूरी तरह से तहस-नहस हो जाता।
रमा, मेरे जीवन के सब सुर ही बेसुरे बन जाते। सब कुछ तोड़-मरोड़ कर रह जाता। सब दुखमय हो जाता।
(17/17)मैं शायद बौना पौधा ही बना रहता।
संभालना खुद को, जैसे संभालती हो मुझे। जल्द ही आने के लिए निकलूंगा। फिक्र नहीं करना।
सब को कुशल कहना।
तुम्हारा,
भीमराव
लंदन
30 दिसंबर, 1930
साभार : मराठी पुस्तक ‘रमाई’, लेखक – प्रो. यशवंत मनोहर
(1/10) जैसे-जैसे हम बड़े होते है, हममें से अधिकांश लोगों को माध्यमिक बोर्ड परीक्षाओं के महत्व के बारे में बताया जाता है। क्या आप जानते हैं, हमारे एजुकेशनल जर्नी का सबसे निर्णायक समय तब होता है, जब हमें यह डिसाइड करना होता है कि हमें अपने जीवन में क्या बनना है... @manav_rachna
(2/10) या फिर करियर के रूप में कौनसा पेशा चुनना है। भले ही यह कदम कितना ही महत्वपूर्ण क्यों न हो, फिर भी हमारे देश में बच्चे अपनी रुचि को ध्यान में रखकर करियर नहीं चुनते, बल्कि वे वही करते हैं, जो उनके परिवारवाले या दोस्त उनसे करने को कहते हैं।
(3/10) हर इंसान के अंदर एक अलग रचनात्मकता, प्रतिभा या जूनूनहोता है, जिसे वह समाज की अपेक्षाओं के सामने अंदर ही दबा देने को मजबूर हो जाता है। यह ना सिर्फ उनके अंदर छिपी प्रतिभा को दबा देता है, बल्कि उनके पूरे करियर ग्रोथ को भी सीमित कर देता है।
(1/6)गुरबक्श सिंह ढिल्लों का जन्म 18 मार्च 1914 को पंजाब के एक गाँव में हुआ। ढिल्लों बचपन से ही दिमाग से तेज थे, पढ़ने-लिखने में उन्हें काफी रूचि थी। शुरुआत में वह स्पष्ट नहीं थे कि उन्हें आगे क्या करना है। उनका पूरा ध्यान बस ज्यादा से ज्यादा पढ़ने पर था।
(2/6)इसी बीच, एक दिन किसी ने उन्हें सेना में भर्ती होने की सलाह दी! फिर क्या था, उनके दिल में यह बात घर कर गयी और उनके जीवन का लक्ष्य सेना में भर्ती होना बन गया।
साल 1936 के आसपास भारतीय सेना से उन्हें बुलावा आया। वह 14वीं पंजाब रेजिमेंट की प्रथम बटालियन का हिस्सा बनाए गए।
(3/6)उन्होंने अपनी कार्यशैली से सीनियर्स को काफी प्रभावित किया। आगे चलकर उन्हें द्वितीय विश्वयुद्ध में हिस्सा लेने का मौका मिला, इस जंग में उन्होंने विरोधियों को मुंहतोड़ जवाब दिया था।
हालांकि, अंत में वह जापान द्वारा युद्धबन्दी बना लिये गये थे।
(1/5)80 के दशक में रामायण धारावाहिक को घर-घर तक पहुंचाने वाले रामानंद सागर का जन्म 29 दिसंबर 1917 को ब्रिटिश इंडिया के पंजाब में हुआ था। अब यह जगह पाकिस्तान के लाहौर में है। रामानंद सागर के बचपन का नाम चंद्रमौली चोपड़ा था। रामानंद को उनकी नानी ने पाला और
(2/5)उन्होंने उनका नया नाम रामानंद सागर रखा। परिवार की आर्थिक हालत ठीक नहीं थी, इसलिए रामानंद को कम उम्र से ही काम करना शुरू करना पड़ा। उन्होंने उन दिनों ट्रक क्लीनर और चपरासी की नौकरी भी की है।
1940 में रामानंद सागर पृथ्वीराज कपूर के पृथ्वी थियेटर में असिस्टेंट स्टेज
(3/5)मैनेजर के तौर पर काम करने लगे। यहीं से उन्हें राज कपूर के साथ काम करने का मौका भी मिला। साल 1950 में उन्होंने प्रोडक्शन कंपनी सागर आर्ट कॉरपोरेशन बनाई। रामानंद सागर के कई सीरियल और फिल्में पॉपुलर हुईं लेकिन 'रामायण' की सबसे ज्यादा चर्चा रही।
(1/17)पति पत्नी के बीच का प्रेम क्या होता है,कोई विजेंद्र सिंह राठौड़ से सीखे!
यह तस्वीर अजमेर के रहनेवाले विजेंद्र सिंह राठौड़ और उनकी धर्मपत्नी लीला की है।साल 2013 मे लीला ने विजेंद्र से आग्रह किया कि वह चार धाम की यात्रा करना चाहती हैं।विजेंद्र एक ट्रैवल एजेंसी में कार्यरत थे
(2/17)और उसी दौरान ट्रैवेल एजेंसी का एक टूर केदारनाथ यात्रा पर जाने के लिए निश्चित हुआ। बस फिर क्या था, इन दोनों पति-पत्नी ने भी अपना बोरिया-बिस्तर बांधा और केदारनाथ जा पहुंचे।
वहां, विजेंद्र और लीला एक लॉज में रुके थे। लीला को लॉज में छोड़, विजेंद्र कुछ दूर ही गए थे
(3/17)कि चारों ओर हाहाकार मच गया। उत्तराखंड में आई भीषण बाढ़ का उफनता पानी केदारनाथ आ पहुंचा था। विजेंद्र ने बमुश्किल अपनी जान बचाई।
मौत का तांडव और उफनते हुए पानी का वेग शांत हुआ, तो विजेंद्र बदहवास होकर उस लॉज की ओर दौड़े जहाँ वह लीला को छोड़कर आए थे।
(1/6)28 दिसंबर 1937 में जन्में रतन टाटा आज बिज़नेस क्षेत्र में एक बड़ा नाम है, लेकिन वो कहते है न, बुलंदियों पर पहुँचने वाला हर इंसान कभी न कभी असफलता से गुजरता है।
यह बात है साल 1998 की, जब टाटा मोटर ने अपनी पहली पैसेंजर कार, Tata Indica बाजार में उतारी थी।
(2/6)दरअसल, यह रतन टाटा का ड्रीम प्रोजेक्ट था और इसके लिए उन्होंने जी-तोड़ मेहनत भी की। लेकिन इस कार को बाजार से उतना अच्छा रेस्पोंस नहीं मिल पाया, जितना उन्होंने सोचा था। इस वजह से टाटा मोटर्स घाटे में जाने लगी। कंपनी से जुड़े लोगों ने घाटे को देखते हुए,
(3/6)रतन टाटा को इसे बेचने का सुझाव दिया और न चाहते हुए भी, रतन टाटा को इस फैसले को स्वीकार करना पड़ा। इसके बाद, वह अपनी कंपनी बेचने के लिए अमेरिका की कंपनी Ford के पास गए।
रतन टाटा और फोर्ड कंपनी के मालिक बिल फोर्ड की बैठक कई घंटों तक चली।
(1/4)कहते हैं माँ के हाथों में जादू होता है! कभी सोचा है, कौन सा जादू, किस चीज़ का जादू...माँ कभी आँख बंद करते ही सामानों को गायब तो नहीं करती और ना ही रुमाल में से कबूतर निकालती हैं, फिर कैसा जादू! @chefritudalmia@ChefKunalKapur @manishmehrotra
(2/4)वह जादू होता है परम्पराओं को संजोकर रखने का, वह जादू होता है एक ही निवाले में पेट भर खिलाने का। नानी घर की ढेरों कहानियां हमें याद होती हैं और साथ ही, याद होती है उनके लज़ीज़ खाने का स्वाद। आजकल के नए-नए व्यंजन हमें कितना भी आकर्षित कर लें, लेकिन जब घर से दूर हों,
(3/4)तो याद सबसे पहले घर के खाने की ही आती है।
ओडिशा, समुन्द्र के किनारे बसा एक राज्य। यहाँ के लोकप्रिय पेय पदार्थों में से एक है घोला दही। यह बिलकुल छाछ जैसा ही होता है, पर स्वाद और ताजगी के लिए पुदीना, मिर्च और अन्य स्थानीय मसालों को इसमें डाला जाता है,