(1/5)80 के दशक में रामायण धारावाहिक को घर-घर तक पहुंचाने वाले रामानंद सागर का जन्म 29 दिसंबर 1917 को ब्रिटिश इंडिया के पंजाब में हुआ था। अब यह जगह पाकिस्तान के लाहौर में है। रामानंद सागर के बचपन का नाम चंद्रमौली चोपड़ा था। रामानंद को उनकी नानी ने पाला और
(2/5)उन्होंने उनका नया नाम रामानंद सागर रखा। परिवार की आर्थिक हालत ठीक नहीं थी, इसलिए रामानंद को कम उम्र से ही काम करना शुरू करना पड़ा। उन्होंने उन दिनों ट्रक क्लीनर और चपरासी की नौकरी भी की है।
1940 में रामानंद सागर पृथ्वीराज कपूर के पृथ्वी थियेटर में असिस्टेंट स्टेज
(3/5)मैनेजर के तौर पर काम करने लगे। यहीं से उन्हें राज कपूर के साथ काम करने का मौका भी मिला। साल 1950 में उन्होंने प्रोडक्शन कंपनी सागर आर्ट कॉरपोरेशन बनाई। रामानंद सागर के कई सीरियल और फिल्में पॉपुलर हुईं लेकिन 'रामायण' की सबसे ज्यादा चर्चा रही।
(4/5)रामानंद सागर के बेटे प्रेम सागर कहते हैं, '1949 में पापाजी की सबसे पहली फिल्म 'बरसात' थी। किसी ने नहीं सोचा था कि एक आदमी जिसने चपरासी का काम किया, सड़क पर साबुन बेचें, जर्नलिस्ट बने और मुनीम का काम किया, वह आदमी एक दिन रामायण बना सकता है।'
(1/17)पति पत्नी के बीच का प्रेम क्या होता है,कोई विजेंद्र सिंह राठौड़ से सीखे!
यह तस्वीर अजमेर के रहनेवाले विजेंद्र सिंह राठौड़ और उनकी धर्मपत्नी लीला की है।साल 2013 मे लीला ने विजेंद्र से आग्रह किया कि वह चार धाम की यात्रा करना चाहती हैं।विजेंद्र एक ट्रैवल एजेंसी में कार्यरत थे
(2/17)और उसी दौरान ट्रैवेल एजेंसी का एक टूर केदारनाथ यात्रा पर जाने के लिए निश्चित हुआ। बस फिर क्या था, इन दोनों पति-पत्नी ने भी अपना बोरिया-बिस्तर बांधा और केदारनाथ जा पहुंचे।
वहां, विजेंद्र और लीला एक लॉज में रुके थे। लीला को लॉज में छोड़, विजेंद्र कुछ दूर ही गए थे
(3/17)कि चारों ओर हाहाकार मच गया। उत्तराखंड में आई भीषण बाढ़ का उफनता पानी केदारनाथ आ पहुंचा था। विजेंद्र ने बमुश्किल अपनी जान बचाई।
मौत का तांडव और उफनते हुए पानी का वेग शांत हुआ, तो विजेंद्र बदहवास होकर उस लॉज की ओर दौड़े जहाँ वह लीला को छोड़कर आए थे।
(1/6)28 दिसंबर 1937 में जन्में रतन टाटा आज बिज़नेस क्षेत्र में एक बड़ा नाम है, लेकिन वो कहते है न, बुलंदियों पर पहुँचने वाला हर इंसान कभी न कभी असफलता से गुजरता है।
यह बात है साल 1998 की, जब टाटा मोटर ने अपनी पहली पैसेंजर कार, Tata Indica बाजार में उतारी थी।
(2/6)दरअसल, यह रतन टाटा का ड्रीम प्रोजेक्ट था और इसके लिए उन्होंने जी-तोड़ मेहनत भी की। लेकिन इस कार को बाजार से उतना अच्छा रेस्पोंस नहीं मिल पाया, जितना उन्होंने सोचा था। इस वजह से टाटा मोटर्स घाटे में जाने लगी। कंपनी से जुड़े लोगों ने घाटे को देखते हुए,
(3/6)रतन टाटा को इसे बेचने का सुझाव दिया और न चाहते हुए भी, रतन टाटा को इस फैसले को स्वीकार करना पड़ा। इसके बाद, वह अपनी कंपनी बेचने के लिए अमेरिका की कंपनी Ford के पास गए।
रतन टाटा और फोर्ड कंपनी के मालिक बिल फोर्ड की बैठक कई घंटों तक चली।
(1/4)कहते हैं माँ के हाथों में जादू होता है! कभी सोचा है, कौन सा जादू, किस चीज़ का जादू...माँ कभी आँख बंद करते ही सामानों को गायब तो नहीं करती और ना ही रुमाल में से कबूतर निकालती हैं, फिर कैसा जादू! @chefritudalmia@ChefKunalKapur @manishmehrotra
(2/4)वह जादू होता है परम्पराओं को संजोकर रखने का, वह जादू होता है एक ही निवाले में पेट भर खिलाने का। नानी घर की ढेरों कहानियां हमें याद होती हैं और साथ ही, याद होती है उनके लज़ीज़ खाने का स्वाद। आजकल के नए-नए व्यंजन हमें कितना भी आकर्षित कर लें, लेकिन जब घर से दूर हों,
(3/4)तो याद सबसे पहले घर के खाने की ही आती है।
ओडिशा, समुन्द्र के किनारे बसा एक राज्य। यहाँ के लोकप्रिय पेय पदार्थों में से एक है घोला दही। यह बिलकुल छाछ जैसा ही होता है, पर स्वाद और ताजगी के लिए पुदीना, मिर्च और अन्य स्थानीय मसालों को इसमें डाला जाता है,
(1/7)वह दिल्ली के लोधी कॉलोनी में एक मध्यम वर्गीय परिवार में पले-बढ़ें।
उनके पिता एक सरकारी सेवक थे और उनका निवास स्थान भी सरकारी था।
वह दयाल सिंह कॉलेज गए और पढ़ाई पूरी होने के बाद, अपना खुद का व्यवसाय शुरू किया। एक समय ऐसा भी था, जब वह 'रसना' ब्रांड के इकलौते वितरक थे।
(2/7)उनका लाजपत नगर में एक बड़ा गोदाम भी था, जिसमें 7-8 ऑटो थे, पूरे दिल्ली में रसना की डिलीवरी करते। उनका नाम, हर बाजार में लोग जानते थे। ज़िन्दगी खुशनुमा थी।
फिर वक्त ने करवट बदली और 1984 के दंगे हुए। उन्होंने अपना गोदाम, 8 ऑटो और यहां तक कि डीलरशिप भी खो दी।
(3/7)कई खाद्य कंपनियों के साथ काम करने की कोशिश की, लेकिन बात नहीं बनी। इसलिए उन्होंने एक टैक्सी खरीदी,, और उसे चलाकर जीवन फिर से शुरू किया।
छह-सात साल बाद मसूरी से लौटते समय उनका एक भयानक एक्सीडेंट हो गया।
13 दिन से कोमा में थे। देहरादून के एक अस्पताल में होश आया,
(1/7)भारत के पर्व-त्योहार, परंपराओं और रीति-रिवाजों ने देश की अपरंपार विविधताओं को बचाने में सबसे बड़ा योगदान दिया है।
अब नोनी की ही बात कर ली जाए, अगर जितिया (जीवित पुत्रिका व्रत) जैसा कोई व्रत नहीं होता, तो इस बेहद गुणकारी भोज्य पदार्थों का अस्तित्व रहता?
(2/7)आज जितिया व्रत का शुभारंभ नहाय-खाय के साथ हुआ है। इस व्रत में नोनी का साग, मरुआ के आटे की रोटी, झिंगनी (तोरी) इत्यादि चीज़े खाई जाती हैं और इसी बहाने इन सब चीज़ों का नई पीढ़ी से नाता जुड़ पाता है।
ग्लोबलाइजेशन के दौर में, हम सब ने अपने आपको बेहद समेट लिया है।
(3/7)अब अपने आप को खोलने की जरूरत है। अपने खानपान में मडुआ, नोनी जैसे सैकड़ों स्वास्थ्यवर्धक वस्तुओं को शामिल करने की जरूरत हैं।आइये इस पोस्ट में इन दोनों गुणकारी चीजों से जुड़ी कुछ बातें जानते हैं।
नोनी दो प्रकार की होती हैं। एक छोटी नोनी जो जिउतिया पर्व में खाया जाता है,
"मुझे आज भी याद है कि एक सैनिक ने कहा था, 'बहनजी मुझे जल्द से जल्द ठीक करो ताकि मैं देश के लिए फिर से बलिदान दे सकूं,'" यह कहना है 94 वर्षीय रमा खंडेलवाल का। 1/13
आज़ादी की लड़ाई में रमा, आज़ाद हिन्द फ़ौज का हिस्सा थीं और अपनी काबिलियत के बल पर उन्होंने सेना में सेकंड लेफ्टिनेंट होने का सम्मान प्राप्त किया था। एक समृद्ध परिवार से आने वाली रमा ने अपने देश के लिए सभी सुख-सुविधाओं को त्याग दिया था। 2/13
देशभक्ति की यह भावना उन्हें अपने दादाजी और माँ से मिली, जिन्होंने देश की स्वतंत्रता के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया था।
रमा बतातीं हैं कि फ़ौज के सभी सैनिकों को ज़मीन पर सोना होता था और वो फीका खाना खाते थे। फिर पूरा दिन ट्रेनिंग करते, वह भी बिना आराम किए। 3/13