अगर झटके में सोचने बैठें तो पाएंगे पूरे विश्व में रुस द्वारा दिए गए कम्युनिज्म से भी दसियों गुना ज्यादा लोकप्रिय और दिल खोलकर आजमाई गई चीज AK 47 ही है. इसको दुनिया के कोने कोने के लोगों ने बगैर किसी नैतिक दुविधा के खुले दिल से अपनाया और ये
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उनकी आशाओं पर उम्मीद से ज्यादा खरी उतरी.
लेनिन, दोस्तोवस्की और चेखव से ज्यादा संसार मेंAK 47को जानने और चाहने वाले लोग हैं.
एक अनुमान के अनुसार एक करोड़ से ज्यादा AK 47अभी तक बन कर प्रचलन में आ चुकी है अगर एक एके 47 अपने लगभग पचास साल के पूरे जीवन काल में दस से बारह हाथों में
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भी गई हो तो मान लीजिए भारत की लगभग पूरी आबादी के बराबर लोग इसे अपने हाथों में थाम चुके हैं.
अनुमान है कि धरती पर हर सत्तर व्यक्ति पर एक एके 47 राइफल विद्यमान है और हर साल लगभग ढाई लाख लोग धरती पर इसका शिकार होते हैं.
एके 47 का संतुलन और इसकी शक्ति इसे धरती का सबसे आकर्षक और
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घातक हथियार बना देती है.
एक मिनट में600फायर और साढ़े तीन सौ मीटर तक की अचूक मारक रेंज इसकी असाधारणता है.बालू,मिट्टी,पानी या बर्फ किसी भी माहौल में ये मक्खन की माफिक काम करतीहै,कहा जाता है कि इसे दस साल भी कहीं दबा कर रख दो फिर भी निकाले जाते ही आपकी ऊँगलियों की जुँबिश पर मनचाहा
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फायर करती है.
रखरखाव के मामलेमें इससे आसान हथियार मुश्किलहै.लगभग आठ पुर्जोंको मिला कर बनने वाली इस गैस ऑपरेटेड राइफल को जानने वाले एक मिनट में असेंबल कर लेते हैं.मात्र साढ़े चार किलोके आसपास वजन वाली यह राइफल ऑटोमेटिक मोड पर बर्स्ट फायर और सेमीऑटोमेटिक मोड पर सिंगल फायर करती है
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और इसकी मैगजीन लोड करने में ढ़ाई सेकेंड भर का समय ही लगता है.
साथ ही फायर के दौरान गैस प्रेसर से खाली खोखे बैरल से निकल रही सफेद गैस की धुंध में सधे हुए कवि की छंद के माफिक लय में बगल से उड़ते हुए इसे बला की खूबसूरती बख्शते हैं.
एके 47की अजेयता का ये आलम है किM 14 राइफल से लैस
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अमेरिकी सैनिकोंको वियतनाममें रुसियों द्वारा दिए गए एके47के दम पर वियतकाँग के सैनिकों ने पानी पिला दियाथा.हताशामें अमेरिकी सैनिक अपने हथियार फेंककर मरे हुए वियतनामी सैनिकों की एके47थाम लेतेथे.भविष्य में भी अपनी सारी तकनीकी श्रेष्ठताके बावजूद अमेरिका एके47की काट नहीं ढूँढ़ पाया.
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पिछले पचहत्तर अस्सी सालों में पूरे विश्व की कितनी क्रांतियाँ और देशों के भाग्य एके 47 की नोक से लिखे गए. पश्चिमी अधिनायकत्व के खिलाफ इराक, अफगानिस्तान, लीबिया, सीरिया से लेकर दक्षिणी अमेरिका तक एके 47 ही सहारा बनी.
मोजाम्बिक ने तो एके 47 को गजब का सम्मान बख्शते हुए इसे अपने
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राष्ट्रीय झंडे पर ही उकेर दिया.
गजब की आयरनी ये रही कि एके 47 ने अपने जन्मदाता रुस के लिए भी मुसीबत खड़ी कर दी.1979 में शुरु हुए सोवियत-अफगान युद्ध के दौरान अमेरिका ने सारी दुनिया से एके 47 इकठ्ठी कर अफगानों में बँटवाई जिन्होंने इस पर ग्रेनेड लांचर फिट करके रुसी सैनिकों को तो
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छोड़िए उनके हेलिकॉप्टर तक को गिराना शुरु कर दिया फिर अपने ही बच्चे के सामने बिसूरते हुए रुस की रेड आर्मी को वापस होना पड़ा.
रुस की वापसी के दसेक साल बाद अफगानों ने अमेरिका के द्वारा एके 47 के रुप में दिए गए जहर को उनकी ही नसों में उतारना शुरु किया जिसकी बिलबिलाहट आज तक अमेरिका
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जबतब महसूस करता है.
आजतक ऐसा असंभव सा हथियार दूसरा नहीं बन पाया चीन द्वारा निर्मित 56, इजरायल के IMI Galil से लेकर भारत के INSAS तक इसके न जाने कितने प्रतिरुप बने पर कोई एके 47 की बराबरी नहीं कर पाया.
धरती पर सबसे ज्यादा लोग एके 47 से ही मारे गए और पूरे विश्व में इससे ज्यादा
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किसी भी हथियार की तस्करी नहीं हुई.
Mikhail Timofeyevich Kalashnikovने 1947के नवंबर में इसका फाइनल पीस बना कर रुसी सेना को सौंपा था.इससे पहले वो इसके चार प्रोटोटाइप बना चुके थे जिसके परफेक्शन में कुछ न कुछ कमी रह ही जाती थी.
छोटी सी कदकाठी के कलाश्निकोव रुसी सेनाके टैंक डिवीजन
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में थे और दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान 1940 में घायल हुए थे.
अपने युद्ध के अनुभव और अस्पताल में बाकी रुसी सैनिकों द्वारा जर्मन राइफल्स के सामने रुसी राइफल के घटियेपन को उकेरने ने उनके अंदर जो टीस जगाई उसी का परिणाम उनकी सात सालों की मेहनत के बाद AK 47 के रुप में सामने आया.
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जिसे उन्होंने अपने देश रुस को समर्पित कर दिया कहते हैं इसके बदले में2013में हुई अपनी मौत तक उन्होंने एक पैसेकी भी रॉयल्टी नहीं ली.
ये जरुर है कि एके47द्वारा संसार भर में मचे संहार पर अफसोस व्यक्त करते हुए शायद उन्होंने कहा था कि काश मैंने इसके बदले घास काटने की मशीन बनाई होती.
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मजे की बात यह है कि क्लाशनिकोव छुटपन से ही कविता लिखने का शौक भी रखते थे जो थोड़ी बहुत इंटेंसिटी के साथ हमेशा चलता रहा हलांकि उनकी कविता शायद छपने के मुकाम तक कभी नहीं पँहुची थी.
मतलब धरती का सबसे विनाशक हथियार एक असफल कवि की रचना है. सच में असफल कवि से ज्यादा जानलेवा शै
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झण्डे ही झंडे हैं।
सारे चीन के है।
चीन के भीतर चीन के हैं।
एक ठो मेन झंडा है, जिसे आप पहचानते है।
पांच औऱ झण्डे है
उसके बाद दो झण्डे और हैं..
किसके???
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चीन में 5 ऑटोनॉमस क्षेत्र हैं। उनके नाम खोजना आपका काम है। ऑटोनॉमस क्षेत्र का
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मतलब जहां का लोकल प्रशाशन, वहां के लोकल कस्टम्स, लोकल बॉडी के द्वारा चलाया जाता है। मुख्य चीन के बहुत से कानून यहां लागू नही होते।
ये पांच क्षेत्र, प्राचीन काल से स्थानीय ट्राइब के द्वारा रूल किये जाते रहे हैं, लेकिन वो बीजिंग वाले राजा को सुप्रीम मानते थे। यानी बीजिंग राजा के
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कुछ बेसिक नियम के अलावे बाकी में स्वत्रंत।
अपना झंडा,अपना कानून,अपना शासन।इस व्यवस्था को माओ ने पहले खारिज किया।लेकिन असन्तोष देखा तो वापस लागू किया। चीनी पासपोर्ट,बॉर्डर्स पर चीनी सेना,संचार व्यवस्था चीन के कंट्रोल में।बाकी अपने क्षेत्र में सरपंची करते रहो।
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जंगल का सबसे ताकतवर, विशालकाय, इंटेलिजेंट, सामाजिक, शाकाहारी जीव, जिसे ऐसे गगनभेदी नारों से मूर्ख बनाकर सवारी गांठी जाती है।
हाथी सिकंदर के दौर से, मालिकों की लड़ाइयां लड़ता रहा है, उनका हौदा पीठ पर ढोता रहा है। शीश का दान कर, वह
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पूजनीय बन सकता है,मगर राजा नही।
नो पॉलिटिक्स- ऑनली वाइल्डलाइफ सीरीज में गिरगिट, शेर,गैंडे,जंगली गधे, मगरमच्छ, उल्लू, गिद्ध पर बात हो चुकी है, मगर हाथी यहां हमसे भी उपेक्षित रह गया था।
तो आज बात हमारी, याने हाथी की..
साहबान, कदरदान, मितरों,मूर्खो।
आप जानते हैं कि धरती पर
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चलने वाला सबसे विशालकाय मेमल, हाथी है। संस्कृत के हस्ति शब्द से इसका प्रादुर्भाव है। जहां सारे हाथी पकड़कर सेवा में लाये जायें, वह माइथोलॉजिकल शहर हस्तिनापुर कहलाया।
अंग्रेजी में एलिफेंट कहते है, जो ग्रीक शब्द एलिफ़ास से बनता है।एलिफ़ास का मतलब है आइवरी, याने वो दांत, जो बड़े
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राजस्थान और छत्तीसगढ़ के इन शानदार स्कूलों के लिए धन्यवाद अरविंद केजरीवाल..
जी नही। ये स्कूल तो छत्तीसगढ़ और राजस्थान के कांग्रेसी सरकारें ही बना रही हैं। मगर इसका श्रेय कहीं न कहीं दिल्ली सरकार, मनीष सिसोदिया और केजरीवाल को जाता है।
इसलिए, कि सरकारे एक दूसरे से सीखती है।
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दिल्ली की सरकार ने स्कूलों को लेकर जो सिरियस एप्रोच शुरू की,उसकी चुनावी सफलता ने दूसरी सरकारों को प्रेरणा दी है।
राजस्थान की ओल्ड पेंशन लागू कराने को भी भूपेश बघेल ने कॉपी किया है।पिछले हफ्ते सरकारी कार्यालयों में समय पूर्व होली खेली गई, जश्न हुआ।
अजीत जोगी की "मितानिन योजना"
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को केंद्र ने देश भर में "आशा वर्कर" योजना के रूप में लागू किया था। राजस्थान की RTI और रोजगार गारंटी स्कीम को देश की आरटीआई और मनरेगा में ढाला गया।अम्मा कैंटीन को छत्तीसगढ़ में दाल भात केंद्र के रूप में शुरू किया गया था,जो असफल रही। पर उसकी जगह अभी "गढ़ कलेवा" चल रहा है, सफल है।
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बहुत जोर शोर से कश्मीर पर किसी प्रोपेगेंडा फिल्म का जिक्र चल रहा है,क्योंकि हमे समयाभाव के कारण फिल्मे देखनेका अवसर नहीं मिलता तो हमने देखी भी नहीं( लास्ट फिल्म फना देखी थी,आमिर खान की वो भी कश्मीर के बैकग्राउंड पर बनी थी )
लेकिन कथित कश्मीर फाइल्स की चर्चा और जिक्र सुनकर यकीन
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हो गया है कि भारतमें अन्दर तक घुसपैठ हो चुकी है।
शीत युद्ध के समय की हॉलीवुड फिल्मे देखे तो उनमें अकेला रैंबो सोवियत मिलेट्री अड्डों में घुसकर सबको नेस्तनाबूत कर देता है।
फिर चीन की फिल्म देखे तो उसमे चिंग पिंग अपने मार्शल आर्ट्स से ही गोरोंको बर्बाद करके निकल लेताहै।एक फिल्म
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में तो काफी मारा पीटी के बाद हीरो बचकर निकलता है और चीन का पासपोर्ट दिखाता है इसी के साथ द एंड का बैनर लग जाता है( इस प्रकार की चाइनीज फिल्मे दो तीन साल से आ रही है )
जब हम तेजी से विश्व शक्ति बनने की ओर बढ़ रहे थे तो पड़ोसी का मनोबल तोड़ने के लिए हमारे यहांभी Hero,The spyजैसी
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महाभारत कथामें अंकित रहस्यमयी व्यूहरचना,जो युद्ध के तेरहवें दिन रची गयी थी। सात परतों में अपने कमजोर और मजबूत सैनिकों का ऐसा संयोजन की हर दीवार को बगल की दीवार का सहयोग मिले,और दुश्मन कुचल दिया जाये।
देखने मे लगता है कि यह डिफेंसिव है।पर व्यूह के सैनिक स्थिर नही
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वे घूम रहे हैं,आगे चल रहे हैं।लेकिन इसके साथ पूरा व्यूह भी दुश्मन की तरफ बढ़ रहा है।इस व्यूह को रचना और चलाना आसान काम नही। पर बना लिया,तो इसे तोड़ना औऱ कठिन।
चक्रव्यूह की सात परतें हैं।हर परत के बारे में बताता हूँ।
पहली परत, प्रोपगंडा है।टीवी, रेडियों, अखबार,और सोशल मीडिया
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पर महारथी इसकी कमान सम्हालते हैं।फेक तस्वीरें,फेक डेटा,फेक उपलब्धियां,ओपिनियन पोल, एग्जिट पोल..हाथ का भाला है। तो नकली इतिहास, आइडिओलिजी, क्रिया प्रतिक्रिया की थ्योरी इनकी ढाल है।
दूसरी परत पैसा है। इसमे कानून काम आता है। पैसे लेन देंन की अनुमत प्रक्रिया ऐसी, की व्यूहकर्ता का
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चुनाव, व्यवस्था से असन्तोष का सेफ पैसेज है।ठीक वैसे ही, जैसे प्रेशर कुकर में सीटी होती है। जो इतनी भारी होती है कि भाप को रोक सके, लेकिन इतनी हल्की होती है, कि कुकर फटने से पहले उठकर भाप निकाल दे।
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"अच्छे दिन आएंगे" से "खेला होबे" और "
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"खदेड़ा होबे' तक, नारों के टोन में अंतर महसूस कीजिए। पहला एस्पिरेशन, दूसरा खीज, और तीसरा गुस्सा है।पहला नारा भाजपा के लिए और बाकी दो उसके खिलाफ है।
व्यवस्था जैसी भी हो, नागरिक को एक समय के बाद थकावट और ऊब होने लगती है।सब अच्छा हो, तो और अच्छा चाहिए।सब बुरा हो, तो जल्द से जल्द
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बदलकर पुरानी वाली अवस्था मे लौटने का मन होता है।
यहीं पर आरएसएस-भाजपा और कांग्रेस समेत दूसरी पार्टियों का अंतर है।कांग्रेस,और दूसरी पार्टियां जानती हैं कि सत्ता आज जा रही है, तो कल फिर आ जायेगी।नो बिग डील..