भगत सिंह सिर्फ गंभीर निबंध लिखनेवाले और ओज से भरे भाषण देनेवाले क्रांतिकारी ही नहीं थे, बल्कि ऐसे लड़के भी थे जो दूसरों की खूब मौज लेता था और मामला बिगड़ने पर हालात संभालने में भी गजब का हुनरमंद था.
एक बार किसी ने भगवानदास माहौर उर्फ कैलाश बाबू को बता दिया कि जाड़े में जॉन एक्शा
नंबर वन का रोज़ एक तौला पिया जाए तो बदन बड़ा चुस्त-दुरुस्त मज़बूत हो जाता है.अब ये तो थी ब्रांडी यानि विशुद्ध शराब लेकिन भगवानदास कहते हैं कि उनको तब ये बात समझ में आई नहीं. बस फिर क्या था. चंद्रशेखर आज़ाद जो दल के प्रमुख थे भागे भागे भगवान दास उनके पास पहुंचे और शक्तिवर्धक दवा
लाने के लिए चार रुपये मांगे.दे भी दिए गए. आज़ाद अपने क्रांतिकारी साथियों की वाजिब ज़रूरतों का ख्याल रखते थे तो हुआ ये कि बोतल आ गई.रोज़ एक एक तोला नापकर पिया जाने लगा.फिर कुछ दिन बाद वो अपने घर चले गए. एक रोज़ उन्हें क्रांतिकारियों के ठिकाने आगरा फिर से बुलाया गया. भगवानदास अपनी
बोतल बैग में रखकर पहुंच गए.सारे साथी वहीं जमे थे. यकुछ एक कमरे में रहते थे और कुछेक दूसरे कमरे में जो थोड़ी दूर अलग मौहल्ले में था वहां रहा करते थे. जब भगवानदास जी के बैग की तलाशी ली गई जो नियम था तो बोतल निकल आई.किसी ने पूछा ये क्या है तो भोलेपन में वही बोले जो समझ रहे थे.कहा कि
ताकत की दवा है और पंडितजी से पूछकर उनके दिए पैसों से ही लाए हैं.सब मान गए.बात खत्म हो गई लेकिन बोतल पर लिखा ब्रांडी शब्द भगवानदास को अखर रहा था.साथियों की शक भरी निगाह ने भी अपना काम किया.एक हुआ करते थे क्रांतिकारी डॉ गयाप्रसाद.उन्होंने सुझाव दिया कि हमें भी पिलाओ,हम भी देखें कि
कैसी है.गयाप्रसाद एक तोला पी गए.सदाशिवराव थे वो भी पी गए.राजगुरू ने भी पी लेकिन जब बटुकेश्वर दत्त का नंबर आया तो उन्होंने अपना प्याला आधा छोड़ा और खड़े हो गए.डॉ गयाप्रसाद ने वो भी गले से नीचे उतार लिया.इतने में पता चला कि विजय कुमार सिन्हा चले आए.भगत सिंह के पक्के साथी थे.
भगवानदास ने तब तक बोतल पर ढक्कन फिट किया और बोले अब किसी को नहीं देंगे.सिन्हा ने बोतल देख ली थी.बड़े गुस्साए. बोले- अभी जाकर पंडितजी से कहता हूं ,ये सुसंस्कृत चरित्रवान क्रांतिकारियों का अड्डा है या शराबखोरों का.कहीं अभी तलाशी हो जाए और हम लोग पकड़े जाएं तो देशभर में कितनी बदनामी
होगी. भगवानदास ने बात को लोड नहीं लिया.
विजय कुमार दूसरे मकान में पहुंचे.वहां भगत सिंह और आज़ाद बैठे थे.सारा क़िस्सा सुना दिया.कुछ तो भगत सिंह को वाकई सैद्धांतिक तौर पर बुरा लगा क्योंकि ये दल के नियम के खिलाफ था कि शराब पी जाए मगर कुछ पंडित जी को चिढ़ाने के लिए मौज करने लगे.
भगवानदास,सदाशिव वगैरह को पंडितजी का खास आदमी माना जाता था.विजय ने शिकायत कर दी कि पंडितजी कैलाश शराब पीकर रात भर लंगोट बांधकर नाचता रहा,ना खुद सोया ना किसी को सोने दिया.कैलाश नाम भगवानदास का ही छद्म नाम था.भगत सिंह ने इसमें खूब नमक मिर्च लगाया और क्रांतिकारियों के शराब पीने की
भयंकरता पर खूब भाषण दिया.बस पंडितजी और भगत सिंह सीधे वही पहुंचे जहां शराब पी गई थी. आते ही चंद्रशेखर आज़ाद यानि पंडितजी खूब बरसे.भगवानदास को दल से निष्कासित करने की घोषणा कर दी.अब बेचारे भगवानदास भी घबराए. बोले- पंडितजी ये वही जॉन एक्शा नंबर वन है जिसके लिए आपने चार रुपये दिए थे.
बस फिर क्या था..भगत सिंह के हाथ एक और मौका लग गया. बोले- वाह पंडितजी,आप खुद ही तो रुपए देते हैं और फिर नाराज़ होते हैं.पंडितजी रुआंसे हो गए.बोले- तो मैंने क्या कहा कि शराब ले आओ.भगवानदास भी हैरान परेशान.अब भगत सिंह ने समझा कि स्थिति ज़रा गंभीर है.बस फिर क्या था.तुरंत भगवानदास को
साइड ले गए.बोले- देखो इसमें मज़ाक नहीं है. तुम्हारा शराब ले आना अच्छा नहीं हुआ.पंडितजी को इतना ताव तो मैंने ही नमक मिर्च लगाकर दिया है.अभी शांत हुए जाते हैं लेकिन हम लोगों को ध्यान रखना होगा कि हमारे ज़रा ज़रा से काम की कड़ी से कड़ी आलोचना होगी.हम सब यहां मरने के लिए इकट्ठा हुए
हैं..इस आशा से नहीं कि कल हम ही अपने हाथों से ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकेंगे.अपने जैसे ना जाने कितने उसके पहले मर खप जाएंगे.हमें ध्यान रखना चाहिए कि हमारा कोई काम ऐसा ना हो जिससे लोग हमें बदनाम कर सकें.अपनी निजी बदनामी की बात होती तो कोई बात नहीं थी लेकिन ये क्रांतिकारियों की
बदनामी होगी, क्रांति प्रयास की बदनामी होगी.
इसके बाद मामला ठंडा पड़ा तो वो बोतल बक्स से निकाली गई.पंडित जी ने पटक कर तोड़ने की आज्ञा दी.डॉ गयाप्रसाद के हाथ में बोतल थी. आज़ाद गुस्से में तो थे ही लेकिन तभी भगत सिंह ने टोका.बोले- पंडित जी चीज़ बुरा नहीं है,इसका उपयोग बुरा होता है.
हम लोग एक्शन पर चल रहे हैं.ऐसी किसी उत्तेजक चीज़ को भी रखना चाहिए.ना मालूम हम में से कौन कब घायल हो जाए,इसके प्रभाव से मुर्दा भी दो चार मील चल सकता है. इसे फेंकिए मत, रख लीजिए.पंडितजी को भी बात समझ में आई और फाइनली बोतल डॉ गयाप्रसाद के पास चली गई जो बम बनाने का सामान रखने का काम
संभालते थे.
(क़िस्सा शिव वर्मा की संस्मृतियों से मिला था)
बांग्लादेश को पाकिस्तान से अलग एक आज़ाद मुल्क बनाने में शेख मुजीबुर्रहमान के अलावा किसी और नेता का हाथ रहा तो वो इंदिरा गांधी थीं। इंदिरा ने दुनिया के सामने बांग्लादेश की समस्या रखने की ठानी थी। उन्होंने इस मसले पर दुनिया को अपने पक्ष में करने के लिए विशेष दूतों को थाइलैंड,
सिंगापुर, मलेशिया, हांगकांग, जापान और ऑस्ट्रेलिया तक दौड़ाया।खुद वो सोवियत संघ, ब्रिटेन, फ्रांस, पश्चिमी जर्मनी, ऑस्ट्रिया गई। इन सबमें अमेरिकी दौरा सबसे ज़्यादा कड़वा था जहां राष्ट्रपति निक्सन भारत की इस मामले में भूमिका को नापसंद करते थे।वो चाहते थे कि इंदिरा गांधी
पाकिस्तान से सुलह करके बांग्लादेश का मुद्दा भूल जाएं लेकिन इंदिरा गांधी मानने को तैयार नहीं थीं। उन्होंने निक्सन से समर्थन ना मिलने के बावजूद वॉशिंगटन प्रेस क्लब में भाषण दिया।ये इंदिरा थीं जब उन्होंने माना कि अपनी आत्मरक्षा में उन्होंने प्रेस की आलोचना करने से परहेज नहीं किया,
सुभाषचंद्र बोस के साथ महात्मा गांधी के मतभेदों को गांधी विरोधियों ने खूब उछाला है। 1939 में कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए नेताजी के सामने गांधी ने पट्टाभिसीतारमैया को उतारा था। उनके पास कई कांग्रेसी सुभाष के खिलाफ शिकायत लेकर आए थे। चुनाव हुए और गांधी के समर्थन के बावजूद सीतारमैया
हार गए सुभाष को 1580 वोट मिले थे जबकि सीतारमैया को महज़ 1377 वोट मिल सके। गांधी जी ने इसके बाद एक बड़ी गलती की। अपनी हताशा नहीं छिपा सके और इस हार को अपनी हार बताते हुए कह दिया कि जो भी कार्यकारिणी छोड़ना चाहें वो छोड़ सकते हैं। 14 में से 12 सदस्यों ने तुरंत इस्तीफा दे दिया
जिसके बाद सुभाष ने भी इस्तीफा सौंप कर कांग्रेस से हमेशा के लिए किनारा कर लिया।
अब सुनाता हूं गांधी से जुड़ी दूसरी कहानी जो कम ही बताई जाती है। इस घटना के करीब तीन साल बाद 1942 के अगस्त महीने में AICC के 13 वामपंथी सदस्यों ने भारत छोड़ो आंदोलन प्रस्ताव के खिलाफ वोट दिया। ऐसा करने
एडोल्फ हिटलर के पगलाए राष्ट्रवाद में सारा जर्मनी कूद पड़ा था।जब जर्मन सैनिक एक एक करके मरने लगे और हिटलर का मायाजाल टूटने लगा तो जर्मन सेना ने छोटे-छोटे बच्चों के लिए भी भर्ती खोल दी।आखिरी सांस ले रही नाज़ी सरकार को शर्म नहीं आई और उसने राष्ट्र के नाम पर बच्चों तक को हथियार थमाकर
युद्ध में भेज दिया।ये तस्वीर 16 साल के हैन्स जॉर्ज हेंक की है जिसे हथियार देकर लड़ने को कहा गया।वो अपने देश के ही हेसन में जंग करता हुआ पकड़ लिया गया था।जब पकड़ा गया तो ज़ार ज़ार रोने लगा।बच्चा ही तो था,रोना बनता भी था। तभी ये तस्वीर ले ली गई।बेचारे के पिता 1938 में मर गए थे।
मां भी 1944 में चल बसी।गुज़ारे के लिए कुछ करना था तो उसने 15 साल की उम्र में जर्मनी की वायु सेना में एंटी एयर स्क्वैड ज्वाइन कर लिया। साल भर लड़ा और फिर जर्मनी युद्ध हार गया। सोवियत सेना ने जर्मनी में घुसकर सबको घेर लिया था,वो उन्हीं में से एक था।फोटो अमेरिकी फोटोग्राफर जॉन
इंटरनेट की गलियों से गुज़रते हुए एक बहुत प्यारी तस्वीर से सामना हुआ।तस्वीर आपके सामने पेश कर रहा हूं।दूसरे विश्व युद्ध का ज़माना था। सिपाही अपनी प्रेमिकाओं और पत्नियों को अलविदा कहकर ऐसे सफर पर निकल रहे थे जिससे लौट आने का कोई भी वादा झूठा साबित होना था।जंग से पहले विदाई की इस
तस्वीर के साथ साहिर लुधियानवी साहब की मशहूर कविता 'खून फिर खून है' की चंद पंक्तियां साझा कर रहा हूं।युद्ध की हुंकार भरते दिमागों में कोई बात बैठाना यूं तो मुश्किल है,लेकिन इंसान का जीवन बदलावों की किताब है सो कोशिश अपनी मुसलसल जारी है।उम्मीद है कि तस्वीर और कविता आपको ठंडक
पहुंचाएगी।
बम घरों पर गिरें या सरहद पर
रूहे–तामीर ज़ख्म खाती है
खेत अपने जले कि औरों के
ज़ीस्त फ़ाकों से तिलमिलाती है..
जंग तो खुद ही एक मअसला है
जंग क्या मअसलों का हल देगी
आग और खून आज बख्शेगी
भूख और अहतयाज कल देगी..
इश्क में ताज़ा नाकाम हुए मेरे प्रिय दोस्त,
मुझे यकीन है कि तुम मेरा ये खत ज़रूर पढ़ोगे। ताज़ा ब्रेक अप से उबरने की कोशिश कर रहे तुम जैसे लोग मन बहलाने के लिए इन दिनों में वो सब करते हैं जो गर्लफ्रेंड के रहते नहीं करते। उन दिनों तुम मेरे फोन नहीं उठाते थे और अक्सर मैसेज पढ़ना भी
भूल जाते थे।देख रहा हूं कि आजकल क्विक रिस्पॉन्स करने की तुम्हारी क्षमता फिर लौट आई है। देखो ये अच्छा ही है। अब उन बातों पर ध्यान दो जिन पर पहले दे नहीं पाए थे। वैसे आज कल पुरानी फिल्मों और पुराने गानों को भी तुम ठीकठाक वक्त दे रहे होंगे। मेरी सलाह है कि इमोशनल फिल्म और गानों से
कुछ दिन दूर रहो। ग़म हलका करने की बजाय ये उसे गहरा कर देते हैं। मेरी मानो तो कहीं घूम फिर आओ।होता-वोता कुछ है नहीं मगर आदमी खुद को किसी ट्रैजिडी फिल्म का हीरो सा फील करने लगता है और हीरो कौन नहीं होना चाहता!!
एक बात और लिखनी थी। देखो यार, उस लड़की का नंबर डिलीट कर दो। ये तो मैं
गांधी ने 1942 में नेहरू को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था और ऐसा शख्स कहा था 'जो मेरे ना रहने पर.. मेरी भाषा बोलेगा'। ऐसा ही हुआ भी।
1948 की जनवरी में जब गोड़से ने गोली चला कर देश के सबसे बड़े अभिभावक को मौत की नींद सुला दिया तब नेहरू ने दुख में डूबकर भी गांधी की ही भाषा बोली।
उन्होंने कहा था- ' हमें याद रखना है कि हम में से किसी को गुस्से में कोई कार्रवाई नहीं करनी है।हमें सशक्त और संकल्पवान लोगों की तरह व्यवहार करना चाहिए।सभी खतरों का सामना करने के संकल्प के साथ,हमारे महान गुरू और महान नेता द्वारा दिए गए आदेश को पूरा करने के संकल्प के साथ और हमेशा यह
ध्यान रखते हुए कि उनकी आत्मा हमें देख रही है, तो उसके लिए इससे अधिक कष्टदायक कुछ नहीं होगा कि हमें क्षुद्र व्यवहार या हिंसा में लिप्त देखें।'
वैसे ऐसा नहीं कि नेहरू किसी कट्टरपंथी की तरह गांधी के वचनों पर चलते रहे हों।परिस्थितियों के हिसाब से उन्होंने लचकदार रवैया भी अपनाया,