इश्क में ताज़ा नाकाम हुए मेरे प्रिय दोस्त,
मुझे यकीन है कि तुम मेरा ये खत ज़रूर पढ़ोगे। ताज़ा ब्रेक अप से उबरने की कोशिश कर रहे तुम जैसे लोग मन बहलाने के लिए इन दिनों में वो सब करते हैं जो गर्लफ्रेंड के रहते नहीं करते। उन दिनों तुम मेरे फोन नहीं उठाते थे और अक्सर मैसेज पढ़ना भी
भूल जाते थे।देख रहा हूं कि आजकल क्विक रिस्पॉन्स करने की तुम्हारी क्षमता फिर लौट आई है। देखो ये अच्छा ही है। अब उन बातों पर ध्यान दो जिन पर पहले दे नहीं पाए थे। वैसे आज कल पुरानी फिल्मों और पुराने गानों को भी तुम ठीकठाक वक्त दे रहे होंगे। मेरी सलाह है कि इमोशनल फिल्म और गानों से
कुछ दिन दूर रहो। ग़म हलका करने की बजाय ये उसे गहरा कर देते हैं। मेरी मानो तो कहीं घूम फिर आओ।होता-वोता कुछ है नहीं मगर आदमी खुद को किसी ट्रैजिडी फिल्म का हीरो सा फील करने लगता है और हीरो कौन नहीं होना चाहता!!
एक बात और लिखनी थी। देखो यार, उस लड़की का नंबर डिलीट कर दो। ये तो मैं
भी जानता हूं कि तुम्हें वो मुंहज़ुबानी याद नहीं होगा। आजकल हर चीज़ सेव हो जाती है तो नंबर रटने का फालतू काम कौन करे। नंबर डिलीट कर दोगे तो उसके दो फायदे होंगे।एक तो तुम्हारा मन जब-जब उसे कॉल करने का होगा तो तुम कॉन्टेक्ट लिस्ट में जाकर ठिठकोगे नहीं। दूसरा ये कि वॉट्सएप पर उसे
ऑनलाइन देखकर अंदाजा़ लगाने से बच जाओगे कि वो किस से चैट कर रही है।फेसबुक से तो उसने ही तुम्हें ब्लॉक कर दिया है तो उधर की अब फिक्र ही मत करना। बीच-बीच में वो अनब्लॉक कर तुम्हें देखेगी और इससे पहले कि तुम्हारा ध्यान उसकी प्रोफाइल पर जाए तुम फिर ब्लॉक कर दिए जाओगे।वैसे भी आजकल पहले
ब्लॉक करना ईगो का इश्यू बन गया है। मुहब्बत में भी घमंड बचा लेते हैं लोग।अच्छा वो सारे फोटो भी एक साथ सेलेक्ट करके मिटा देना। इनसे अब खुशी नहीं मिलेगी बल्कि पुराना टाइम ही ज़्यादा आएगा। उसे भूलने की कोशिश करनी है तो पुराना टाइम याद करने से बचना पड़ेगा।मुश्किल है पर कर लोगे।
शराब
कम ही पीना। हम पहले उसकी कसम खिलाकर तुम्हें पिला देते थे पर अब उसकी कसम खिलाकर रोक भी नहीं सकते।ऑफिस जाते रहो। 8-10 घंटे सब नॉर्मल होने की एक्टिंग करोगे तो भी ठीकठाक टाइमपास हो जाता है। चाहो तो उस लड़की से बात करके देख लो जिसने तुम्हें ढाई महीने पहले प्रोपोज़ किया था। क्या मालूम
अभी उसकी कश्ती किनारे ना ही लगी हो। ना-ना ये नहीं कह रहा कि फिर रिलेशनशिप में पड़ो। बस ये चाहता हूं कि ब्रेकअप के बाद जैसे लड़के अचानक सब लड़कियों से नफरत करने लगते हैं ऐसा मत करना। लड़कियों से बातचीत करते रहो।तुम पाओगे कि ज़ख्म लगाने और मरहम करने दोनों में ही वो सबसे अच्छी हैं।
ऐसे तो यार तुमने भी हमेशा उससे अच्छा व्यवहार ही किया हो ये मैं नहीं लिखूंगा। कैसे लिखूं.. तुम्हें गुस्से में उसे गालियां देते,झूठ बोलते और फॉर ग्रान्टेड लेते देखा है मगर दोस्त के कुछ फर्ज़ होते हैं।अभी मेरा फर्ज़ तु्म्हारे घाव पर फाहा रखने का है, ना कि लापरवाही से चोट खाने पर
डांटने और नसीहत करने का।लड़की वो बुरी नहीं थी।लड़के तुम भी बुरे नहीं हो।बस अधिकतर रिलेशनशिप ऐसे ही होते हैं।चलो, छोड़ो।दर्शन शास्त्र में तुम्हारी कभी रुचि नहीं रही और ना पढ़ने में..इसलिए ना ज्ञान दूंगा और ना लैटर और लंबा करूंगा।कभी मन करे तो मेरे पास चले आना। साथ में फिल्म-विल्म
देख आएंगे। गर्लफ्रेंड के चक्कर में हमने तुमने काफी मिस किया। अगली मिलने तक दोनों भाई इंजॉय कर लेंगे।
तुम्हारा..
तजुर्बेकार दोस्त!!
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गांधी ने 1942 में नेहरू को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था और ऐसा शख्स कहा था 'जो मेरे ना रहने पर.. मेरी भाषा बोलेगा'। ऐसा ही हुआ भी।
1948 की जनवरी में जब गोड़से ने गोली चला कर देश के सबसे बड़े अभिभावक को मौत की नींद सुला दिया तब नेहरू ने दुख में डूबकर भी गांधी की ही भाषा बोली।
उन्होंने कहा था- ' हमें याद रखना है कि हम में से किसी को गुस्से में कोई कार्रवाई नहीं करनी है।हमें सशक्त और संकल्पवान लोगों की तरह व्यवहार करना चाहिए।सभी खतरों का सामना करने के संकल्प के साथ,हमारे महान गुरू और महान नेता द्वारा दिए गए आदेश को पूरा करने के संकल्प के साथ और हमेशा यह
ध्यान रखते हुए कि उनकी आत्मा हमें देख रही है, तो उसके लिए इससे अधिक कष्टदायक कुछ नहीं होगा कि हमें क्षुद्र व्यवहार या हिंसा में लिप्त देखें।'
वैसे ऐसा नहीं कि नेहरू किसी कट्टरपंथी की तरह गांधी के वचनों पर चलते रहे हों।परिस्थितियों के हिसाब से उन्होंने लचकदार रवैया भी अपनाया,
बागपत में एक छोटा सा गांव है सनौली.जो उस ज़िले में रहते हैं वही इस गांव को जानते हैं और बाहर के लोगों के पास कोई वजह भी नहीं थी इसे जानने की पर फिर 2005 आया.किसान अपने खेत में काम कर रहे थे.अचानक ज़मीन से कुछ बर्तन भांडे निकले.उन्होंने सोचा ज़रूर किसी ने अंदर खज़ाना दबा रखा है.
धीरे धीरे खुदाई करने लगे पर बात कहां दबती. खुल गई.शोर मच गया.अखबारों तक में खबर छपी.आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया को अंदाज़ा हो गया कि हो न हो फिर से सिंधु घाटी सभ्यता की एक साइट मिली है.2005 में विद्वानों का एक दल उस खेत में जा पहुंचा. महीनों खोदता रहा. कब्र मिलीं. बर्तन मिले.
सोने और बाकी धातुओं के कुछ आभूषण भी लेकिन ऐसा कुछ खास हुआ नहीं कि इतिहासकार चौंकते.खैर, खुदाई रुक गई.एक बार रुकी तो फिर 2018 तक रुकी ही रही.एक बार फिर एएसआई ने दल भेजा.उन्होंने खोदना शुरू किया लेकिन इस बार ये साधारण नहीं होनेवाला था.पहले तो कुछ ताबूत मिले.इनमें पुरुषों और महिलाओं
Mercy Petition of Savarkar. 14 Nov 1913. To Reginald Craddock, Home member of the Government of India.
Source- Savarkar, Vikram Sampath.
- रिहा हुआ तो संवैधानिक प्रगति और ब्रिटिश सरकार की वफादारी का निष्ठावान पैरोकार बनूंगा.
- मेरे द्वारा संवैधानिक विचार अपनाने पर भारत और उससे
बाहर के बहुत से भटके युवा जो मुझे आदर्श मानते हैं वो भी इसी विचारधारा पर लौट आएंगे.
- सरकार जिस तरह चाहे मैं सेवा को तत्पर हूं.चूंकि मेरा परिवर्तन ईमानदारी से हो रहा है तो मेरे भविष्य के कार्यकलाप भी वैसे ही होंगे.
- शक्तिशाली ही केवल दयालु हो सकता है इसलिए पश्चातापी पुत्र सरकार
के अभिभावक जैसे द्वार के सिवाय कहां लौट सकता है?
जब ये लिखा जा रहा था तब गांधी भारत में नहीं थे. अब तक ऐसा कोई प्रमाण भी नहीं मिला जिससे पता चलता हो कि सावरकर को इस दया याचिका की सलाह गांधी से मिली हो. हालांकि कई याचिकाओं के बावजूद जब सावरकर और उनके भाई को मुक्ति नहीं मिली तो
ता ना ना ना ना ना ना ना s s s s
ता ना ना ना ना ना ना ना ...
अगर ये धुन गाकर सुना दूं तो नब्बे के दशक का हर बच्चा इसे तुरंत पहचान लेगा। कुछ ने तो शायद अंदाज़ा लगा भी लिया होगा। ये धुन हमारे बचपन में यूं पैबस्त है मानो ज़िंदगी में सुखदुख। ब्लैक एंड व्हाइट टीवी पर दूरदर्शन के ज़रिए
गूंजती ये धुन बीन जैसा काम करती थी जिसे सुनकर हम बच्चे सांप की तरह लपककर टीवी के सामने कुंडली मार कर बैठ जाते थे। उसके बाद होश कहां रहता था...
हम पूरी चेतना के साथ मालगुडी कस्बे की दुनिया में प्रवेश करते थे।स्वामी का वो कस्बा मद्रास से कुछ ही दूरी पर बसा था..शायद 1935 के आसपास।
फ्रैरैडरिक लॉयले नाम के अंग्रेज़ ने उसे आबाद किया था।वही लॉयले जिसकी मूर्ति मालगुडी में लगी है।मेंपी के जंगल के पास जहां सरयू नाम की नदी बहती है ठीक उसी के किनारे मालगुडी की दुनिया थी।मैसूर और मद्रास को अलग करनेवाली सीमा पर उसका अस्तित्व था। सरयू के बहुत किस्से मिलते हैं।
एक दौर में जो नायक होता है वही बदले दौर का खलयनाक होता है। भारत में इंदिरा हों या पाकिस्तान में ज़िया.. हर कोई लोकप्रियता के दौर के बाद एक वक्त के लिए नायक से खलनायक में तब्दील हुआ ही है। कुछ ऐसा ही भारत से 13 हज़ार किलोमीटर दूर बसे क्यूबा नाम के देश में हुआ। फुलगेन्शियो बतिस्ता
नाम का नायक सालों के शासन के बाद बतौर खलनायक अपने देश से भाग निकला। भागने से पहले उसने जितनी हो सकता था उतनी दौलत अपने DC-4 विमान में भर ली। उसने डोमिनियन रिपब्लिक में जाकर शरण ली जहां उसका तानाशाह दोस्त सत्ता पर काबिज़ था। वो तारीख 1959 की 1 जनवरी थी। इसके बाद क्यूबा के आसमान पर
जो सूरज चमका उसका नाम फिदेल कास्त्रो था। साल 2008 तक कास्त्रो ही क्यूबाई आसमान पर चमक बिखेरते रहे।
कास्त्रो ने क्यूबाई क्रांति की शुरूआत महज़ 82 साथियों के साथ की थी जिनमें सिर्फ 12 ही सरकारी गोलियों का शिकार होने से बच सके थे। इन 12 लोगों ने 25 महीनों के भीतर ही सारे क्यूबा को
‘’मैंने एक दस साल के लड़के को आते देखा। वो एक छोटे बच्चे को पीठ पर लादे हुए था। उन दिनों जापान में अपने छोटे भाई-बहनों को खिलाने के लिए अक्सर बच्चे ऐसा करते ही थे,लेकिन ये लड़का अलग था।वो लड़का यहां एक अहम वजह से आया था।उसने जूते नहीं पहने थे।चेहरा एकदम सख्त था।उसकी पीठ पर लदे
बच्चे का सिर पीछे की तरफ लुढ़का था मानो गहरी नींद में हो।लड़का उस जगह पर पांच से दस मिनट तक खड़ा रहा।इसके बाद सफेद मास्क पहने कुछ आदमी उसकी तरफ बढ़े और चुपचाप उस रस्सी को खोल दिया जिसके सहारे बच्चा लड़के की पीठ से टिका था।मैंने तभी ध्यान दिया कि बच्चा पहले से ही मरा हुआ था।उन
आदमियों ने निर्जीव शरीर को आग के हवाले कर दिया।लड़का बिना हिले सीधा खड़ा होकर लपटें देखता रहा।वो अपने निचले होंठ को इतनी बुरी तरह काट रहा था कि खून दिखाई देने लगा। लपटें ऐसे धीमी पड़ने लगी जैसे छिपता सूरज मद्धम पड़ने लगता है।लड़का मुड़ा और चुपचाप धीरे धीरे चला गया।‘’
जो तस्वीर