कुछ दिनों पहले एक बैंकर साथी ने पिछले कुछ दिनों से बंद पड़े हमारे ज्ञान चक्षु खोलने की कोशिश करते हुए बताया कि पुरानी पेंशन स्कीम से सरकारी कर्मचारी बर्बाद हो जाएंगे और नई पेंशन स्कीम पुरानी वाली से कहीं बेहतर है।
पहले तो हमने इस तर्क को श्रीमदमोदीगीता का प्रभाव मनाते हुए नज़रअंदाज़ करने की कोशिश की मगर बाद में अहसास हुआ कि इस प्रकार तो ना जाने कितने बैंकर भाई और अन्य सरकारी कर्मचारी 'राष्ट्रहित' में अपने भविष्य का बलिदान देकर दधीचि के छद्माभास में बैठे होंगे।
इसलिए आज हम 2014 के बाद ही खुले कई ज्ञानचक्षुओं को पुनः बंद करने की असफल कोशिश करने के लिए अपना वित्तीय वर्षांत के अंतिम सप्ताहांत के चार घंटे बर्बाद करके ये थ्रेड लेकर आये हैं।
नई पेंशन स्कीम यानी NPS का फुल फॉर्म है "National pension scheme"। नेशनल यानी राष्ट्रीय। कई लोग तो यहीं पिघल जाते हैं। "How can you oppose something that is 'राष्ट्रीय'?"
वैसे भी चाणक्य ने कहा है कि राष्ट्रहित के लिए व्यक्तिहित का बलिदान देना पड़े तो दे देना चाहिए। इसलिए हो सकता है कुछ दिनों बाद "राष्ट्रीय" पेंशन स्कीम का विरोध राष्ट्रद्रोह भी घोषित कर दिया जाए।
वैसे लहर तो आजकल ऐसी चल रही है कि सरकारी कमचारियों की सैलरी भी बंद कर दी जाए तो भी "राष्ट्रभक्त" इसे "राष्ट्रहित" में एक क्रन्तिकारी कदम ही बताएँगे। लेकिन वो बाद की बात है।
NPS के पक्ष में जो सबसे बड़ा तर्क दिया जाता है वो ये कि पुरानी पेंशन स्कीम देश पर वित्तीय बोझ है। कारण? एक तो ये कि पुरानी पेंशन अंशदायी (contributory) नहीं है। और दूसरा ये कि रिटायर्ड लोग प्रोडक्टिव नहीं होते तो उनको क्यों ही कुछ देना।
यानी पेंशन के लिए कर्मचारी की तनख्वाह में से कोई प्रत्यक्ष कटौती नहीं होती बल्कि पेंशन को सरकार अपनी नैतिक जिम्मेदारी मानती थी। इसके पीछे का भाव ये था कि एक सरकारी कर्मचारी अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण और सबसे सक्रिय भाग सरकार की सेवा में बिताता है।
जीवन में से 25 से 60 की आयु निकाल देने से बचता है बचपन, लड़कपन और बुढ़ापा। और दिन में से 9 बजे से 6 बजे तक का समय निकाल दो तो बचा सोना, नहाना-धोना, और खाना।
(ध्यान रहे कि आज के महान PR शास्त्रियों और "राष्ट्रभक्तों" की तरह पहले सरकारी कर्मचारियों को ज़ाहिर तौर पर रिश्वतखोर और कामचोर नहीं माना जाता था)। तो ऐसे में उस कर्मचारी के बुढ़ापे की जिम्मदारी सरकार की हो जाती है।
चाणक्य के कहने पर "राष्ट्र के लिए" एक पूरे वर्ग को सूली पर चढ़ा देने वाले लोग ये भूल जाते हैं कि चाणक्य ने ये भी कहा था कि सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारियों, देवदासियों, अपराधियों और वृद्ध वेश्याओं के जीवन निर्वाह की जिम्मेदारी सरकारी की होती है।
(मौर्यकाल में वेश्याएं सम्माननीय होती थीं, और आज की भाँति हर व्यक्ति को रोज नैतिकता और राष्ट्रभक्ति की परीक्षा नहीं देनी पड़ती थी)। चाणक्य का वही वेलफेयर स्टेट वाला कांसेप्ट भारतीय संविधान की प्रस्तावना में "Socialism" शब्द के रूप में आधुनिक रूप में प्रकट हुआ।
लेकिन बाद में आई पूंजीवादी सरकार। मैंने पहले भी ये बात कहीं है कि हमारी सरकार अर्थव्यस्था में जापान जैसे विकसित देशों के रास्ते पर चलने की जगह मेक्सिको जैसे देशों के रास्ते पर चल रही है।
वैसे तो इनके पास नॉर्वे, स्वीडेन जैसे विकसित देशों का पेंशन मॉडल फॉलो करने का रास्ता था लेकिन इन्होनें अपनाया चिली और मेक्सिको वाला पेंशन मॉडल। दरअसल 1973 में चिली में सैनिक तानाशाही स्थापित हो गई। और फिर वही हुआ जो अक्सर तानाशाही सरकारों में होता है।
अपने पसंद के अमेरिका में पढ़े हुए "शिकागो बॉयज" के कहने पर ताबड़तोड़ निजीकरण, सरकारी संस्थानों की तालाबंदी, पूंजीपतियों को खुली छूट। नतीजन 9 साल में ही अर्थव्यस्था बर्बाद हो गई और 1982 में चिली दिवालिया हो गया।
(चिली के निजीकरण और फिर राष्ट्रीयकरण पर कभी और बात करेंगे)।
सरकारी खजाने पर भार कम करने के लिए पुरानी गैर-अंशदायी पेंशन स्कीम हटाई गई और नई कंट्रीब्यूशन आधारित मार्केट लिंक्ड पेंशन स्कीम लागू की गई।
लेकिन इससे भी अर्थव्यस्था में ज्यादा सुधर नहीं आया और 1997 में दोबारा चिली आर्थिक मंदी में डूब गया। इन सबका एक नकारात्मक प्रभाव ये पड़ा कि चिली की नई कंट्रीब्यूटरी मार्केट लिंक्ड पेंशन स्कीम वहां के कई और देशों में लागू कर दी गई। (और सब के सब 1997 में आर्थिक मंदी का शिकार हुए)।
बस यही स्कीम लगभग उसी रूप में 2004 में भारत में भी लागू कर दी गई। फर्क इतना था कि विदेशों में नियोक्ता को कुछ भी देने कि जरूरत नहीं थी। (वैसे इसका कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता)। और इसी के साथ सरकारी कर्मचारी का भविष्य शेयर मार्केट के हवाले कर दिया गया।
भारत की ही तरह चिली वाले मॉडल में भी रिस्क के हिसाब से तीन चार प्लान ऑप्शन थे। रिसर्च में ये साबित हुआ कि जो प्लान जिस उद्देश्य से बनाया गया था उसमें वो पूरे तरह फेल रहा। कारण साफ़ था। मार्केट की अनिश्चितता।
हाई रिस्क हाई रिटर्न वाली स्कीम ने कम रिस्क कम रिटर्न वाली स्कीम से भी कम रिटर्न दिया। क्योंकि एक आम आदमी को पता भी नहीं होता है कि पेंशन फण्ड का पैसा मार्केट में कहाँ इन्वेस्ट किया जा रहा है। भारत में भी स्कीम के लागू होते ही इसके दुष्प्रभाव दिखने लगे।
जहाँ पुरानी पेंशन स्कीम में आखिरी सैलरी की 50% तक पेंशन मिलती थी, अब दशकों की नौकरी के बाद हाथ में पेंशन एक हजार से भी कम मिलने लगी।
कैलकुलेशन मुश्किल नहीं है। अगर आप 30 साल नौकरी करते हैं और हर महीने दस हजार रूपये NPS में देते हैं (14% के हिसाब से ही सरकार भी 11000 जमा करवाएगी), तो 6% के हिसाब से 60 साल की उम्र के बाद आपको पेंशन मिलेगी 38000 रूपये महीने।
और आज से 30 साल बाद 38000 रूपये की क्या वैल्यू होगी ये किसी को समझाने की जरूरत नहीं। और ये तो तब है जब आपके रिटायरमेंट के वक़्त मार्केट सही चल रहा हो। नहीं तो कोरोना काल में NPS ने नेगेटिव रिटर्न भी दिए हैं। और जरूरी नहीं है कि NPS में आपका पैसा सुरक्षित ही हो।
क्योंकि NPS फण्ड मैनेजर्स ने लोगों के भविष्य का पैसा DHFL और IL&FS जैसी कंपनियों में भी लगाया हुआ है। अरे भाई जब सब मार्केट के ही भरोसे छोड़ना है तो NPS का ड्रामा करना ही क्यों। एम्प्लोयी को बोल दो कि भाई हर महीने इतना पैसा मार्केट में लगाना है। livemint.com/companies/news…
कम से कम डूबेगा तो उसकी खुद की गलती से। मार्केट लिंक्ड पेंशन स्कीम का यही तो फायदा है। लड़ाई होगी चीन और अमेरिका में और बुढ़ापा खराब होगा आपका। फ्रॉड करेगा विजय माल्या और घर बिकेगा आपका। NPS के पीछे की मानसिकता यही है कि वृद्ध लोग समाज पर बोझ हैं।
"Use and Throw" इसके पीछे की फिलोसोफी है। कर्मचारी को जिंदगीभर चूस के बुढ़ापे में मार्केट के भरोसे मरने के लिए छोड़ दो। वैसे भी आजकल सरकार ने सरकारी कर्मचारियों के खिलाफ PR कैंपेन चला रखा है। साहब संसद में जा के "सरकारी बाबुओं" को निकम्मा बताते हैं।
सरकार के पालतू ढोल सुबह-शाम सरकारी संस्थानों के निजीकरण की वकालत करते मिलते हैं। और फिर अंधभक्तों के रूप में खजेले कुत्ते तो छोड़ ही रखे हैं सोशल मीडिया पर जो सुबह शाम निजीकरण की माला जपते रहते हैं।
धन्य है ये सरकार और इसके आर्थिक सलाहकार जिनको नेताओं की पांच लाख की पेंशन नहीं खलती मगर अगर सरकारी कर्मचारी अपनी सैलरी का आधा भी अपने बुढ़ापे में पा जाए तो इनके अर्थशास्त्र गड़बड़ा जाते हैं।
कस्टमर साहिबा: मैं इंटरनेट बैंकिंग का ID password भूल गई हूँ। रिसेट करवाना है।
बैंक स्टाफ: ओके, पिछली बार कब लॉगिन किया था?
कस्टमर साहिबा: याद नहीं, तीन चार साल हो गया।
बैंक स्टाफ: कोई बात नहीं। मोबाइल पर बैंक की इंटरनेटबैंकिंग की वेबसाइट खोलो। उसमें फॉरगेट पासवर्ड पे जाओ। फिर उसमें फॉरगेट यूजरनाम पे जाओ।
कस्टमर साहिबा: इसमें तो CIF और अकाउंट नंबर मांग रहा है?
बैंक स्टाफ: हाँ तो डालो न।
कस्टमर साहिबा: मेरे पास नहीं है।
बैंक स्टाफ: क्यों? पासबुक नहीं लाई?
कस्टमर साहिबा: नहीं।
बैंक स्टाफ: कल पासबुक लेकर आना। बाकी का काम तब होगा।
कस्टमर साहिबा: घर पर भी नहीं है पासबुक। शायद खो गई।
बैंक स्टाफ: अच्छा आधार और पैन कार्ड दीजिये।
कस्टमर साहिबा: ओरिजिनल नहीं है। मोबाइल में फोटो है।
एक सीनियर बैंकर जिनसे सिर्फ दो दिन मुलाकात हुई मगर एक जैसी परिस्थितियों का भुक्तभोगी होने के कारण अच्छी मित्रता हो गई, कुछ दिन पहले मिले। बताया कि कुछ दिन से छुट्टी पे चल रहे हैं। हमने पूछा कि फरबरी-मार्च में छुट्टी?
वो भी बैंक में? वो भी ब्रांच मैनेजर रहते हुए? और वो भी सिंगल अफसर ब्रांच में? हम उनके इस सौभाग्य पर मन ही मन ईर्ष्या में जल-भुन रहे थे कि उन्होंने बताया कि उनको डॉक्टर ने MDD और GAD बताया है। अब ADS, CBS, CCDP वगैरह तो समझ में आता है ये MDD और GAD पहली बार सुना था।
पूछने पर सर ने बताया कि MDD मतलब Major Depression Disorder और GAD मतलब General Anxiety Disorder. अब बात थोड़ी गंभीर हो गई थी। सर ने बताया कि बीमारी का अंदेशा तो काफी पहले से था लेकिन डॉक्टर को दिखाने का समय ही नहीं मिल पा रहा था।
बैंकर, विशेषकर ब्रांच मैनेजर्स जब आपस में मिलते हैं तो अक्सर मैनेजमेंट के खिलाफ अपना दुखड़ा रोते हैं जिसमें स्टाफ की कमी और कंट्रोलर के घटिया व्यवहार के साथ साथ सैटरडे संडे को जबरदस्ती बैंक खुलवाने वाला मुद्दा भी होता है।
उनमें से अक्सर कई लोग ये दावे करते हुए पाए जाते हैं कि चाहे जो हो जाए वो छुट्टी के दिन ब्रांच नहीं खोलते। ऐसे ब्रांच मैनेजरों को देखकर प्रेरणा मिलती है। लेकिन वही प्रेरणा बेवफा हो जाती है जब पता चलता है कि जो मैनेजर चौड़े होकर मैनेजमेंट के खिलाफ सीना ठोक रहे थे,
वही शनिवार रविवार के दिन व्हाट्सएप ग्रुप में साहब की नजरों में गुड बॉय बनने के लिए फोटो डाले बैठे रहते हैं
"branch opened for pending work",
"branch opened for compliance"
"branch opened for loan sourcing"
"branch opened for फलाना धिमका कैंपेन"
"branch opened for साहब की खुशी"
अधिकतर बातों से सहमत हूँ। लेकिन "स्वहित" पूरा होने से सरकार का समर्थक बन जाने वाली बात से नहीं। अगर ये बात एक व्यक्ति के लिए कही गई है तो सही है। मगर ऐसा होना नहीं चाहिए। स्वहित पूरा होने से सरकार समर्थक बन जाने वाली समस्या से ही तो हमारे नौकरशाह और यूनियन लीडर ग्रसित हैं।
इनके अपने हित पूरे हो रहे हैं इसलिए देश और बैंकर जाए भाड़ में। सरकार भी यही चाहती है। आपका पेटभरा रहे तो दूसरे के भूखे होने पे सवाल मत उठाओ। इसमें कोई दोराय नहीं कि सोशल मीडिया पर बहुत सारे नैरेटिव चलते हैं। कई देश विरोधी भी हैं।
उदाहरण के तौर पर The Wire के संस्थापक को लेते हैं। इनका न्यूज़ पोर्टल बेहूदगी की हद तक जाकर भारत और भारतीय संस्कृति और की आलोचना करने से नहीं चूकता। कई लोग जानते भी होंगे कि इनके ही भाई एक अलगाववादी हैं और द्रविड़िस्तान बनाने का सपना देखते हैं। और भी ऐसे कई गिना सकता हूँ।
लोगों की एक मानसिकता है कि सरकार का विरोध नहीं करना चाहिए। क्यूंकि अगर सरकार का विरोध करोगे तो फिर सरकार के सामने अपनी मांगें कैसे रख पाओगे? लॉजिकली सही बात है।
जिससे लड़ाई लड़ोगे, जिसके खिलाफ आवाज उठाओगे उससे तो ये उम्मीद तो नहीं करोगे न कि वो तुम्हारे भले की सोचे, तुम्हारी जरूरतें पूरी करे। जैसे, अगर बैंकर सरकार की विदेश नीति, कृषि नीति, आर्थिक नीति पर सवाल उठाते हैं तो फिर सरकार को पूरा हक़ है कि वो आपको निजी हाथों में सौंप दे।
कम से कम सरकार में बैठे कुछ लोग और सरकार के समर्थक तो यही मानते हैं। इसके प्रत्युत्तर में मैं दो तर्क दूंगा। जब 1885 में कांग्रेस का गठन हुआ था तो वहां नरम दल का राज था। ये लोग अंग्रेज सरकार का विरोध तो करते थे मगर तरीके से।