आर्यपिण्डविशेषत्वं तद्वत्‌ ॥ ६० ॥
इसी तरह आर्य पिण्ड(शरीर) की विशेषता हैं

वर्णाश्रम ऋंखला के साथ नारीजाति-सम्बन्धीय विज्ञानका दिग्दर्शन कराकर अब महर्षि सूत्रकार अन्य प्रकारकी ऋंखला का दिग्दर्शन करा रहे हैं

और कह रहे हैं कि, जैसे वर्णाश्रम ऋंखला के लिये नारीजाति का प्राधान्य है, वैसे ही आर्य पिण्ड मात्र की विशेषता है । यद्यपि आर्यपिण्ड ओर अनार्यपिण्ड दोनों ही मानवपिण्ड हैं, परन्तु सृष्टिके आदिकालसे आर्यपिण्डपिण्डरूपी वर्णाश्रम धर्मी मनुष्यजातिके शरीरकी विशेषता प्रसिद्ध है।
क्‍या सभ्यताके विचारसे, क्या आचारके विचारसे, क्या सामाजिक व्यवस्थाके विचारसे, क्या धर्मज्ञानके विचारसे, क्या आध्यात्मिक लक्ष्यके विचारसे ओर क्या स्थायी जीवनशक्तिके विचारसे, यह मानना ही पड़ेगा कि, आर्यपिण्डकी विशेषता है

इसका विज्ञान कह रहे हैं--
आदित: सुसंस्कृतत्वात्‌ ॥ ६१ ॥

आदिसे सुसंस्क्रृत होनेसे

सृष्टिके आदिकालसे आर्यपिण्ड वैदिक संस्कारोंसे सुसंस्क्रृत होनेसे सृष्टिमें उसकी विशेषता मानी गयी है और वह संस्कार वर्णाश्रम ऋंखला और आचारमूलक है ।
अब अन्य ऋंखलाका दिग्दर्शन कराया जाता है--
तस्मात सुसंस्कारकेन्द्रम्‌ ॥६२॥
इसलिये सुसंस्कारका केन्द्र है

आर्यपिण्ड आदिसे सुसंस्क्रृत होनेके कारण पूर्णावयव है। पूर्णावयव होनेके कारण अभ्युदय और निःश्रेयसके संस्कारोंको पूर्णतया ग्रहण करनेका केन्द्र बनता है। अन्तःकरण ही जीवका प्रधान यन्त्र है।
जब जीव पूर्णावयव हो जाता है, तो उसका प्रधान यन्त्र भी पूर्णावयव हो जाता है। ज्ञब अन्तःकरण पूर्णावयव हो जाता है, तो अन्तःकरणके जो चार अवयव--मन, बुद्धि, चित्त ओर अहंकार है, वे भी पूर्णावयव हो जाते हैं ।
जब चारो पूर्णावयव हो जाते है, तो आर्यपिण्डमें सुसंस्कारग्राहक चित्तके पूर्ण हो जानेके कारण उसमे अभ्युदय और निःश्रेयस दोनोके सम्बन्धके संस्कार-ग्रहण क्री शक्ति स्वतः ही उत्पन्न हो जाती है।
सृष्टिके आदिमें पूर्णावयव मनुष्य उत्पन्न होते है, इस कारण भगवान्‌ ब्रह्माकी प्रथम सृष्टि परमहंसोकी होती है । उसके बादकी सृष्टिको सुसंस्क्रृत रखनेके लिये वर्णाश्रम-ऋंखला बॉधी जाती है ।
उसी समयसे संस्क्रृत संस्कारसमूह आर्यपिण्डमें अंकित रह जाते हैं ओर रजोवीर्यके द्वारा वे क्रमानुगत आकृष्ट होते रहते है जैसा कि, संस्कारपादमे कहा गया है।

ओर भी कहा जाताहै--

त्रिविधाऽऽकाशसम्बन्धश्च ॥ ६३ ॥
इस कारण तीनों आकाशके साथ उसका सम्बन्ध है
पिण्डके आकाशको चित्ताकाश, ब्रह्माण्डके आकाशको चिदाकाश ओर अनन्तकोटि ब्रह्माण्डके आधारभूत आकाशको महाकाश कहते हैं। जीव जब पञ्चकोषकी पूर्णतासे पूर्णावयव हो जाता है और उसमें सुसंस्कार-संग्रहका पूर्ण अधिकार हो जाता है, तो स्वतः ही त्रिविध आकाशसे उसका सम्बन्ध हो जाता है।
यही कारण है कि, योगयुक्त अन्तःकरण व्यापकता को धारण करता है और यही कारण है कि, एक पिण्डसे दूसरें पिण्डका हाल ओर एक लोकसे लोकान्तरका हाल जान सकता है। योगिराजकी तो बात ही क्या, समाहित अन्तःकरणकी सहायतासे श्राद्ध-क्रिया द्वारा लोकान्तरमें जीवकी तृप्ति होती है और उपासक अपने
उपासनालोक में अपने इष्टदेवके साथ सम्बन्ध स्थापन कर सकता है। उसी प्रकार योगयुक्त ज्योतिषशास्त्रवेत्ताओंने अपने ब्रह्माण्डसे अतिरिक्त अनेक नक्षत्र और राशिआदिका पता लगाकर उसका आविष्कार किया था, ये सब त्रिविध आकाशके साथ सम्बन्ध स्थापनके साधारण उदाहरण हैं।
और भी कहा जाता है--
शुद्धाशुद्धस्पर्शास्पर्शाधिकारि ॥ ६४ ॥
इस कारण शुद्धाशुद्ध और स्पर्शास्पर्श का अधिकारी है।

मनुष्यके पूर्णावयव होकर विशेष अधिकार प्राप्त करनेका उदाहरण पूज्यपाद महर्पि सूत्रकार दे रहे हैं।
मनुष्यपिण्ड जब पञ्चकोषकी पूर्णतासे हो जाता है, उसी पूर्णावयव होनेके कारण पञ्चकोषके विभिन्न-विभिन्न अधिकारोंके साथ उसमें शुद्धिप्राप्ति और अशुद्धिप्राप्ति एवं स्पर्शास्पर्शसे शुभाशुभप्राप्तिका अधिकार हो जाता है।
इन पांचों कोषोंमें शुद्धाशद्ध और स्पर्शास्पर्शका अच्छा और बुरा परिणाम हुआ करता है। अन्नमयकोषके बुरे परिणामकों दर्शनशास्त्रमें मल कहते हैं । प्राणमयकोषके बुरे परिणामको विकार कहते हैं। मनोमयकोषके बुरे परिणामको विक्षेप कहते हैं।
विज्ञानमयकोषके बुरे परिणामको आवरण कहते हैं ओर आनन्दमय-कोषके बुरे परिणामको अस्मिता कहते हैं। जब जीवमें पूर्णता होती है, तो पांचों कोषमे अच्छा और बुरा परिणाम होने लगता है। शुद्धिसे अच्छा परिणाम होता है और अशुद्धिसे बुरा परिणाम होता है।
इस जीवकी पूर्णावयवकी दशाममें स्वाभाविक रूपसे उसमें जड़ताकी कमी होने और चेतनताका अधिकार बढ़ जानेसे उसके पांचों कोषही विशेष शक्ति-सम्पन्न हो जाते हैं, तब नानाप्रकारसे पूर्णावयव जीवरूपी मनुष्य स्पर्शके दोष-गुण ओर शुद्धाशुद्धके अधिकार अलग-अलग रूपसे पञ्चकोषोंके द्वारा संग्रह
करनेमें समर्थ होता है। यही कारण है कि, पूर्णज्ञानमय वेद ओर वेदसम्मत शास्त्रसमूह शुद्धाशुद्ध-विवेक ओर स्पर्शास्पर्श-विवेककी आज्ञा हाथ उठाकर देते हैं।
प्रथम प्रमाण देते हैं--
विष्ठादिभि: प्रथम ॥६५॥
विष्ठादिसे प्रथम
शुद्धाशुद्ध विचार और स्पर्शास्पर्श-विचार अन्नमयकोषकी प्रधानतासे कैसे हो सकता हे, उसके लिये एक उदाहरणसे ओदाहरणका रहस्य समझाया जाता है।
विष्ठा-मूत्रादिके सम्बन्धसे स्थूलशरीरका अशुद्ध होना और स्थूल शरीरमें स्पर्श-दोषका पहुँचना जैसे सम्भव है, वैसे जल-मृत्तिका आदि द्वारा उस स्पर्शदोष और अशुद्धताका नाश होना भी सिद्ध है। इस प्रकारसे अन्नमयकोषके स्पर्शास्पर्श और शुद्धाशुद्धका रहस्य समझना उचित है।
वेद और शास्त्रोंमें शुद्धाशुद्ध विवेक और स्पर्शास्पर्श विवेकका जो बहुधा वर्णन हैं, वह सभी अन्नमय-कोष अर्थात् स्थूल शरीरके सम्बन्धसे नहीं है। जिन जिन शुद्ध पदार्थोका इसप्रकारका सम्बन्ध स्थूलशरीरके सम्बन्धसे हो सकता है, उसके विज्ञानका दिग्दर्शन इस उदाहरणसे कराया गया है।
मल अन्नमयकोषके बुरे परिणामको कहते है। यह दार्शनिक शब्द मल उस बुरी शक्तिको कहते हैं जो शरीरमें जड़ता और तमोगुणको बढ़ाती है। अशुद्ध पदार्थोके छूने ओर लग जानेसे शरीरमें मलशक्ति बढ़ जाती है और शुद्धिसे मलशक्ति घट जाती हैे।
इसी प्रसंगमे इतना कहना आवश्यकीय है कि, शुद्धाशुद्ध और स्पर्शास्पर्श विवेकके सम्बन्धमें शात्रोंमें जितना विचार किया है, उसके मूलमें त्रिगुणविचार औ अधिदेवविचारका बड़ा सम्बन्ध रक्‍खा गया है ।
अधिदेवविचारका उदाहरण गङ्गाजल आदि समभाना उचित है और गुणविचारका उदाहरण मधु, पलाण्डु, गोमूत्र, गोमय आदि समझने योग्य हैं। मधु हिंसासे प्राप्त होनेपर भी सत्त्वगुण वर्धक होनेसे पवित्र माना गया है। उसीप्रकार पलाण्डु मूल होनेपर भी तमोगुणवर्धक होनेसे अपविन्न माना गया है।
उसीप्रकार गोमय आदि गौका मलमूत्र होनेपर भी उसके सत्त्वगुणके प्रभावसे वह सर्वथा पवित्र माना गया है।
इस प्रकारसे पृज्यपाद त्रिकालदर्शी महर्षिगणने देवराज्यके सम्बन्धको देखकर ओर सत्त्व-रज-तम इन तीनों गुणोंको देखकर दार्शनिक दृष्टिसे शुद्धाशुद्धविबेक ओर स्पर्शास्पर्शविवेक का मौलिक सिद्धान्त निश्चय किया हैे। वह सिद्धान्तसमूह काल्पनिक नहीं है, गम्भीर दार्शनिक भित्तिपर स्थित है ॥
दूसरा प्रमाण दिया जाता है--
शवादिभिर्द्वितीय: ॥ ६६ ॥
शवादिस्पर्शसे द्वितीय

शवआदि स्पर्शके द्वारा जो स्पर्शदोष और अशुद्धता शास्त्रों में कही गयी है, वह साक्षात् रुपसे प्राणमयकोषके सम्बन्धसे कही गयी हैं।
उसीप्रकार शवादिस्पर्शके अनन्तर धातु ओर अग्रिस्पर्श द्वारा उस दोषकी हानि कहा गया है, सो भी उसी प्राणमयकोष के सम्बन्धसे निर्णीत हुआ है। जीव जब लोकान्तरको जाता है, तो प्राणमयकोष ही अन्य कोषोंको लेकर निकल जाता है। उस अवस्थामें शवमें से प्राणशक्तिका एकबारही अभाव हो जाता है।
इस कारण प्राणरहित शव दूसरे व्यक्तिके प्राणमयकोषकी शक्ति-विशेषको खैंच लेनेका यथा देश-काल-पात्र-सामर्थ्य प्राप्त करता है। ऐसी दशामें शवके स्पर्शकारी व्यक्तिकी रूपान्तरसे प्राणशक्तिके क्षयकी सम्मावना हो सकती है।
उसीके बचावके लिये शास्त्रोंमें शवके स्पर्श करनेसे स्पर्शदोष और अशुद्धताका उल्लेख है। इसी कारणसे स्वजातिद्वारा शव-वहनकी विधि है और इसीकारण शव-स्पर्शके अनन्तर नानाप्रकारसे पवित्र होनेकी विधि है।
प्राणमय-कोषके सम्बन्धका ही कारण है कि, राजरोगीके शवको प्रायश्वित्तादि द्वारा संस्कृत करके वहन करनेकी विधि भी पाई जाती है ।
पुराणोंमे इसका ज्वलन्त उदाहरण है कि महाशक्तिशाली पूर्णावतार भगवान्‌ श्रीकृष्णचन्द्रके प्राणहीन विग्रहको स्पर्श करते ही भक्त अर्जुनकी सब शक्ति उस शवमें खिंच गयी थी ।
इसी उदाहरणसे औदाहरण समझना उचित है कि, बहुतसे शुद्धाशुद्ध-विवेक और स्पर्शास्पर्शविवेक प्रधानतः प्राणमयकोषके सम्बन्धसे निश्चित किये गये हैं। दूसरी ओर बहुतसे शुद्धाशुद्ध और स्पर्शास्पर्शविवेक अवस्थान्तर होनेसे कई कोषोंके साथ साक्षात्सम्बन्धयुक्त हो जाते हैँ ।
विज्ञानको स्पष्ट करनेके लिये एक उदाहरण दिया जाता हैे। अन्नादि खाद्यपदार्थका शुद्धाशुद्ध-विवेक और स्पर्शास्पर्शविवेक अवस्थान्तरसे मनोमयकोष और विज्ञानमयकोषसे भी सम्बन्धयुक्त माने जाते हैं; परन्तु प्राणमयकोषके साथ भी उसका सम्बन्ध है।
सुवर्ण, रौप्य, कांसा, मृत्तिका आदिका शुद्धाशुद्ध-विवेक भी इसी प्राणविज्ञानसे सम्बन्ध रखता हैं। म्लेच्छादि और अन्त्यजादिके स्पर्शसे दूषितअन्न अपना फल प्राणमयकोषमें प्रथम प्रारम्भ करता है।
स्पर्शकारीके प्राणकी आकर्षण-विकर्षण शक्ति अन्नको दूषित कर देती है और वह अन्न उदरस्थ होनेपर वही शक्ति ग्रहणकारीके प्राणको दूषित करती है।
वही अन्न यदि पापीका हो तो मनोमयकोषको दूषित करके वीर्यमें पहुँचकर शुद्धसृष्टिका बाधक द्वोता है; क्योंकि मन, वायु और वीर्य, तीनोंका परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है।
उसी अन्नदोषके विषयमें पितामह भीष्मने प्रमाण करके दिखाया था कि, आसुरी सम्पत्तिके व्यक्तिका अन्नग्रहण करनेसे विज्ञान-मयकोष तक मलिन हो जाता है। यही कारण था कि पौत्रवधूको सभामें घृणितरूपसे लाञ्छित होते देखकर भी वे मौन रहे।
इससे स्पष्ट हुआ कि, अन्नदोषसे विज्ञानमय-कोषतक मलिन होकर बुद्धितकमें विकार उत्पन्न हो सकता है । प्राणमयकोषके सम्बन्धसे शुद्धाशुद्ध और स्पर्शास्पर्श विवेककी व्यवस्था अधिक व्यापक है।
उपासनाके दिव्यदेशसमूहमें उपासना-पीठके सम्बन्धसे जो स्पर्शास्पर्श और शुद्धाशुद्ध- विचार वर्णाश्रम ऋंखलामें माना गया है, वह सब प्राणमयकोषके सम्बन्धसे ही माना गया हैं।
सब देवमन्दिरोंमे आर्य, अनार्य, उन्नत, और अवनत वर्णके मनुष्यके समानरूपसे प्रवेश नहीं करनेका जो सिद्धान्त हैं, वह भो प्राणमयकोष के सम्बन्धसे ही है ।
शूद्र-प्रतिष्ठित दिव्य देवमूर्ति आदिको ब्राह्मण के लिये प्रणाम करनेका जो निषेध है, सन्यासीके लिये प्रत्येक पीठको केवल स्पर्श करनेकी जो विधि पाई जाती है, उसका कारण भी यही विज्ञान है ।
शूद्रद्वारा प्रतिष्ठित देवविग्रह पीठादिमे शुद्रसंस्कार-शक्ति अवश्य निहित रहती है। प्रत्येक देवस्थानमें प्रस्तरादि निर्मित मृत्तिकी पूजा नहीं होती, उसमें प्राणमयकोषद्वारा स्थापित देवपीठकी पूजा होती है।
वह देवपीठ शुूद्र अन्तःकरणके संस्कारसे संस्कृत हो तो उसको यदि शुद्ध ब्राह्मण प्रणाम करे, तो ब्राह्मणकी क्षति नहीं है, उस देवपीठको प्राणशक्तिकी क्षति होगी। इसी उदाहरणसे अन्य ओदाहरणसमूह समझना उचित है।
यहाँ कारण है कि, भगवानकी पूजामें सबका अधिकार होनेपर भी देवमन्दिर-प्रवेश आदिमें ब्राह्मणादि जातिभेद, उपासना-सम्प्रदाय-भेद और स्पर्शास्पर्श-विचारभेद माना गया है। जब किसी पीठमें प्राणप्रतिष्ठा की जाती दे, तो देवताको उपासक पहले अपने शरीरमें लाकर तब पीठमें उनका स्थापन करता हँ।
इस कारणसे भी पीठमें स्थापनकर्ताका संस्कार आदि विद्यमान रहता है। अतः जिस पीठमें स्पर्शास्पर्शकी जैसी मर्यादा है उसमें हानि पहुँचनेसे उस पीठकी शक्तिमें हानि हो जाती है। यही कारण है कि देवमन्दिरोंमें स्पर्शास्पर्शविवेक अधिक रखा गया है।
इस प्रकारसे वर्णाश्रम ऋंखला-मूलक शुद्धाशुद्ध-विवेक और स्पर्शास्पर्श-विवेक अधिकार और उसका विज्ञान अति गम्भीररहस्यपूर्ण है।
अब तीसरा प्रमाण दिया जाता है ।
अशौचादिभिस्तृतीयः ॥ ६७॥
अशौचादिसे तृतीय

ग्रहणाशौच, जननाशौच, मरणाशौच आदि तथा उसका शुद्धिविचार सब मनोमयकोषसे साक्षात्‌ सम्बन्ध रखनेवाले हैं, जिसके विज्ञानका मनन करने पर मनोमयकोषके साथ सम्बन्ध रखनेवाला शुद्धाशुद्ध-विज्ञान सरल हो जाता है।
सूर्यके साथ पृथ्वीका और चन्द्रके साथ पृथ्वीका जो आकर्षण-विकर्षण-शक्तिका सम्बन्ध है, उनसे ज्योतिः तथा प्राणशक्ति आदिका जो सम्बन्ध है, उसको जड़पदार्थवादी भी स्वीकार करते हैं। और देवीशक्तिको माननेवाले आस्तिक जन तो बहुत कुछ मानते हैं।
सूर्य-ग्रहणके समय चन्द्रमाके बीचमें आ जानेसे ओर चन्द्रग्रहणके समय पृथ्वीके मध्यमें आ जानेसे उस स्वाभाविक शक्तिके आने-जानेमें उस समयके लिये पूर्ण बाधा आ जाती हैं। ऐसे देवदुर्विपाकके समय इसलोक वासियोंके अन्तःकरणमे बड़ा भारी परिणाम होना स्वभावसिद्ध है।
इस परिणामके द्वारा स्पर्शास्पर्श-विवेक और शुद्धाशुद्ध-विवेकका शास्त्रानुसार विचार भी विज्ञानानुमोदित है । उसीप्रकार जननाशौच और मरणाशौचका विज्ञान भी अतिरहस्यसे पूर्ण है।
वर्णाश्रम ऋंखला के अनुसार जिस कुल का रजोवीर्य शुद्ध है, उसकी तो बात ही क्या है, क्योंकि उसके साथ नित्यपितरोंका बहुत कुछ प्रतिभाव्य स्थापित हो जाता है ; साधारण कुलोंमें भो उस कुलकी परलोकगामी आत्माएँ ओर उस कुल में आनेवाली आंत्माएँ वासना-जालसे उस कुलके साथ विजड़ित रहती हैं!
उस वासना-जालके कारण और मोहसम्बन्धसे आकर्षण और विकर्षेणशक्तिके कारण नित्य-पितरोंकी प्रेरणासे उस कुलके सब व्यक्तियोंके चित्तपर संयोग-वियोगका प्रभाव पड़ता है। इसमें अधिदेव कारण रहनेसे यह प्रभाव अलक्षितरूपसे ही पड़ता हैँ।
इसी प्रभावके विचारसे जननाशौच और मरणाशौचका शुद्धाशुद्ध-विबेक निर्णीत हुआ है। किन शुद्धाशुद्ध और स्पर्शास्पर्श विवेकोंके साथ जप-दानादि विधि और ब्रह्मचर्यव्रत आदिका जो सम्बन्ध रक्खा गया है, उसका भी यही कारण है।
अब चौथा प्रमाण दिया जाता है---
संसर्गादिभिश्चतुर्थः ॥६८॥
संसर्गादिसे चतुर्थ ॥६८॥

संसर्गसे जो सत् असत् प्रभाव पड़ता है, वह साक्षारुपसे विज्ञानमयकोषपर पड़ता है। इसी कारण वेद और वेदसम्मत शास्त्रोंमें संसर्गसम्बन्धीय स्पर्शास्पर्श और शुद्धाशुद्धविवेक इसी विज्ञानपर निश्चित किया है ।
ईश्वरको न माननेवाले नास्तिकके गृहमें नहीं जाना, उसका संसर्ग नहीं करना, आचारहीन अनार्य मनुष्य और इन्द्रियसेवा-परायण म्लेच्छ आदि तथा दुराचारी और वेश्या आदिके ससर्गका निषेध जो शास्त्रोंमें कहा है और उनका प्रायश्चित्तादिका जो विधान किया है,
उसीप्रकार तीर्थ-दर्शन, देव-दर्शन, साधु-दर्शन और तथा प्रायश्चित्तादि पुण्यात्मा-संसर्ग आदिकी जो महिमा शास्त्रोंमें कही गयी है, सो इसी विज्ञानसे अनुमोदित है।
इसप्रकारके अशुभ और शुभ संसर्गके द्वारा एकाधारमें प्राणमयकोष, मनोमयकोष और विज्ञानमयकोष प्रभावित हो जाता है। उनके निकटस्थ वातावरणसे और उस वातावरणकी आकर्षण-विकर्षणशक्तिसे प्राणमयकोष प्रभावित होता है ।
उनके हाव-भाव, आचार-विचारादिका प्रभाव मनोमयकोषपर पड़ता है और उनके कथनोपकथन और भाव आदिका प्रभाव विज्ञानमयकोषको प्रभावित करता है। इसी कारण संसर्गदोष और संसर्गगुणजनित शुद्धाशुद्ध और स्पर्शास्पर्श विवेककी आज्ञा और उसका प्रायश्चित्तादि शास्त्रोंमें वर्णित है।
इसी प्रकारसे इसी गम्भीर दार्शनिक युक्तिको अवलम्बन करके ईश्वरनिन्दक व्यक्तियों के स्थानमें और इन्द्रिय परायण म्लेच्छ आदिकी वासभूमिमें जानेका निषेध शास्त्रमें किया गया है ।
इसप्रकारसे वर्णाश्रम-शृंखलाके अनुसार अनेक शुद्धाशुद्ध-विवेक और स्पर्शास्पर्श-विवेक विज्ञानमयकोषमें कार्यकारी होनेसे माने गये हैं। वेद और शास्त्रोंमें शुद्धाशुद्ध और स्पर्शास्पर्श-निर्णय के विवेक-सिद्धांत जो आर्यजातिके अभ्युदय और निःश्रेयसके लक्ष्यसे किये गये हैं,
वे सब इसीप्रकार पञ्चकोषपर पड़ने वाली सूक्ष्मशक्तियोंको योगदृष्टिसे अलौकिक प्रत्यक्ष करके पूज्यपाद त्रिकालदर्शी महर्षियोंने निर्णय किये हैं। वे सब सिद्धान्त गभीर विज्ञानानुमोदित हैं और लौकिक बुद्धिसे समझे न जानेपर भी उपेक्षा करने योग्य नहीं हैं ॥ ६ ॥
अब पाँचवाँ प्रमाण दिया जाता है
सदसद्भिः पञ्चमः ॥ ६९ ॥
सदसत् के द्वारा पाँचवाँ ॥ ६९ ॥

शुद्धाशुद्ध और स्पर्शास्पर्शविवेक वर्णाश्रम-शृङ्खलाका मौलिक सिद्धान्त है।
जीवका अभ्युदय और निःश्रेयस उसका लक्ष्य है और मनुष्यमें अस्वाभाविक संस्कारका हान करके स्वाभाविक संस्कारका अधिकारवृद्धि करना उसका रहस्य है। पहले पादोंमें यह सिद्ध हो चुका है कि जीव धर्म-साधन द्वारा पहली अवस्थामें अभ्युदय और अन्तिम अवस्था निःश्रेयस प्राप्त करके कृतकृत्य होता है।
पहले यह भी सिद्ध हो चुका है कि, वर्णाश्रमधर्मके आचारोंके पालन द्वारा आर्यजातिमें स्वतःही प्रवृत्तिका निरोध और निवृत्तिका पोषण होता हुआ जितना ही उसमें जीव-बन्धनकारी अस्वाभाविक संस्कारका हान और एक अद्वितीय स्वाभाविक संस्कारकी अभिवृद्धि होती जाती है,
उतना ही वह मुक्तिकी ओर अग्रसर होता जाता है। मनुष्यके अभ्युदय और निःश्रेयसके मार्गको सरल रखने के लिये शुद्धाशुद्ध और स्पर्शास्पर्शविवेक एक अत्युत्तम शृङ्खला है और यह भी सिद्ध हो चुका है कि, किस प्रकार पञ्चकोपोंकी शुद्धिकी रक्षा द्वारा यथाक्रम मल, विकार, विक्षेप,आवरण और अस्मिता
ये पाँचों बढ़ने नहीं पाते हैं। जिन-जिन क्रियाओंसे अशुद्धता होकर आत्माका आवरण बढ़ता जाता हो, जिनके स्पर्शद्वारा यह आवरण घनीभूत हो वह क्रिया सर्वथा विचारपूर्वक अभ्युदय और निःश्रेयस प्रार्थीके लिये त्याज्य है।
यह क्रिया स्थूलशरीरसे लेकर सूक्ष्मशरीर और कारणशरीरपर्यन्त प्रभाव उत्पन्न करती है। अतः शुद्धाशुद्ध और स्पर्शास्पर्शविवेकका रहस्य यही है कि, पूर्वकथित मल, विकार, विक्षेप, आवरण और अस्मिता बढ़ने न पावे।
शुद्धाशुद्धविवेक और स्पर्शास्पर्शविवेककी शुद्ध और अशुद्ध क्रिया पूर्णावयव जीवरूपी मनुष्यके अन्नमयकोष, प्राणमयकोष, मनोमयकोष और विज्ञानमयकोपपर कैसा प्रभाव उत्पन्न करती है, उसका सामान्य दिग्दर्शन पहले सूत्रोंमें आ चुका है।
अब इस सूत्रमें आनन्दमयकोषपर साक्षात् रूपसे कैसी क्रियाओंका प्रभाव पड़ता है, सो कहा जाता है। सत् ब्रह्म और असत माया है, सत् आत्मा और असत् अनात्मा है, सत् शरीरस्थ कूटस्थ और असत् इन्द्रिय एवं उसके विषय है। सत् जगदम्बा जगदीश्वर और असत् दृष्ट तथा अदृष्ट भोग्यपदार्थ हैं।
सत उपास्य इष्टदेव और असत् जगत् है। सत्का राज्य प्रत्याहारसे लेकर समाधिपर्यन्त है और असत् का राज्य द्रष्टा-दृश्यसम्बन्ध करनेवाली त्रिपुटिका सभी विषय है। अतः जिन-जिन शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक क्रियाओंके द्वारा पूर्वलिखित सत् का सङ्ग होता है,
उसके द्वारा आनन्दमयकोष निर्मल होता है और उसमें अस्मिता बढ़ने नहीं पाती है और पूर्वकथित असत् विषयोंके सङ्गद्वारा आनन्दमयकोष क्रमशः मलिनताको प्रात होता रहता है।
इस गहन विषय को समझनेके लिये और दार्शनिक मतभेद निराकरणके लिये यह समझा जाय कि सत् अनुगामी और सत् से युक्त सब क्रियाएँ सत् कहाती हैं और ऐसी क्रियाओंसे पञ्चकोकोष पवित्र हो जाते हैं।
मुनिगण इस प्रकार उन्नत शुद्धाशुद्ध-विवेक और स्पर्शास्पर्श-विवेक द्वारा आनन्दमयकोषको पवित्र रखते हैं और असत् से अपवित्रता आ जाने पर सत् को स्पर्श करके पवित्र होते हैं ॥ ६६॥
प्रसङ्गसे पारस्परिक सम्बन्ध दिखाया जाता है--

अन्योऽन्यसम्बद्धाश्च ॥ ७० ॥
परस्पर सम्बन्धयुक्त भी है ॥ ७० ॥

वर्णाश्रम-शृंखला और सदाचारका लक्ष्य जीवका अभ्युदय और निःश्रेयसप्राप्ति करना है।
नियमितरूपसे सत्त्वगुण-वृद्धि करते रहना और आत्माको आवरण-करनेवाले पाँचों कोषोंको क्रमशः शुद्ध रखते हुए आत्मज्ञानका उदय करना उसका उद्देश्य है। पाँचोंकोषोंमें मलिनता न बढ़ने पावे, यही शुद्धाशुद्ध और स्पर्शास्पर्शविवेकका मौलिक रहस्य है ।
यद्यपि कुछ शुद्धाशुद्धविवेक और स्पर्शास्पर्शविवेक आनन्दमयकोषके विचारसे, कुछ विज्ञानमयकोपके विचारसे, कुछ मनोमयकोषके विचारसे, कुछ प्राणमयकोषके विचारसे और कुछ अन्नमयकोषके विचारसे निर्णीत हुए हैं, परन्तु वेद और शास्त्रोंमें उनका अलग-अलग अधिकार नहीं दिखाया गया।
इसका प्रधान कारण यह है कि, ये पाँचोंकोष परस्पर में दृढ़रूपसे गुम्फित रहनेके कारण एकही शुद्धि और मालिन्यका प्रभाव थोड़ा-बहुत सबपर पड़ा करता है।
एक शरीरको अथवा प्राणको मलिन करनेवाला अशुद्ध पदार्थ अथवा अस्पृश्य विषय तत् तत् कोषको अशुद्ध करता हुआ न्यूनाधिकरूपसे सब कोषोंमें अपना प्रभाव डालता रहता है ।
एक कोषसे वह शुद्ध अथवा अशुद्धकारिणी क्रिया प्रारम्भ होनेपर भी सब कोषोंको न्यूनाधिकरूपले प्रभावित करती है ; क्योंकि सब कोष परस्पर सम्बन्धयुक्त हैं ॥ ७० ॥
और भी कहते हैं--

त्रिविधाश्च ॥७१॥
सब त्रिविध भी है ॥१॥

शुद्धाशुद्ध और स्पर्शास्पर्श-विवेकके विषयमें विचारभेद तथा अधिकारभेद पाया जाता है। देश-भेदके अनुसार भी इन दोनोंका अनेक पार्थक्य देखनेमें आता है।
वर्ण-भेद. आश्रमभेद, स्त्री-पुरुषभेद, बालक-वृद्धादिभेदसे भी स्पर्शास्पर्शविवेककी व्यवस्था शास्त्रोंमें पायी जाती है। आचार्यों के मतमें भी अनेक भेद देखनेमें आते हैं। सम्प्रदाय आदिके भेदसे भी भेद प्रतीत होता है।
इसकारण जिज्ञासुओंके शंका-समाधानके अर्थ कहा जाता है कि, त्रिगुणभेदके अनुसार विभिन्न अधिकार-भेदके कारण शुद्धाशुद्ध और स्पर्शास्पर्शविवेक तथा प्रायश्चित्तादिके विषयमें मतभेद पाया जाता है;
परन्तु यह निश्चित सिद्धान्त है कि, अशुद्धता और स्पर्शदोषका प्रभाव जिस कोषसे प्रारम्भ होता है, उसी कोषकी शक्तिको लक्ष्यमें रखकर शुद्धिके निमित्त प्रायश्चित्तका विधान सर्वथा उपादेय समझा जायेगा।
साथ ही साथ यह भी मानना पड़ेगा कि अधिदैव शक्तियुक्त गोदान और गंगा-स्नानादि पुण्यकार्य सर्ववादिसम्मत माने जाने का कारण भी यही है कि, उनमें अधिदेव-शक्तिकी प्रधानताके कारण त्रिगुण-भेदसे सब अधिकारियों के लिये वह समानरूपसे हितकर है।
ये पञ्चकोषके अधिकार परस्परमें गुम्फित रहनेके कारण वर्णाश्रमशृङ्खलाके शुद्धाशुद्ध और स्पर्शास्पर्शविवेकमें बहुत विचित्रता आ जाती है। यही कारण है कि अन्नकोषका प्रभाव प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय-कोषतकको प्रभावित करता है।
इसीविचारसे प्रायश्चित्तका भी निर्णय होना चाहिये। इसमें देश-काल-पात्रका विचार अवश्य ही रहेगा, जैसे कि, जितना अन्तःकरण परिमार्जित होगा उतना ही प्रभाव अधिक होगा और दूसरी ओर यह भी है कि यदि व्यक्ति आत्मज्ञानी हो तो उस प्रभावको वह ज्ञानके द्वारा भस्मीभूत भी कर सकता है।
प्रायश्चित्तनिर्णयके विषयमें इसी विज्ञानका अनुसरण करना उचित है कि, जिस कोषके साथ जिस दोषका प्राधान्य है, उसीको सम्मुख रखकर व्यवस्था देनी उचित है।
इस प्रकारसे वर्णाश्रमशृङ्खलाका सहायक शुद्धाशुद्धविवेक और स्पर्शास्पर्शविवेक अतिदृढ़ दार्शनिक भित्तिपर स्थित होनेसे उसकी व्यवस्था परम मंगलकर है और
उसके अनुसार आचारका पालन करनेसे तथा विचारके द्वारा प्रायश्चित्तादिकी व्यवस्था रखनेसे आर्यजाति और आर्य्यपिण्डके अभ्युदय और निःश्रेयसका मार्ग सरल बना रहता है ।। ७१ ॥

/end
This long series on one of the key features of Hinduism "शुद्धाशुद्धविवेक और स्पर्शास्पर्शविवेक" or छुआछूत as it is known today.
Again, idea behind sharing it not to preach "Tradism" but proper Purva-Paksha away from the shadow of Padre framework.

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17 Oct
In Vedanta there is no alternative to "Shabda Pramana". If the truth Vedas was an objective reality (Drishya) then yes one could have tested and verified it with Pratyaksha, Anuman etc Pramanas.
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But if Truth is Subject himself (Drashta), then by which Pramana Subject will know himself? There is no other option but Shabda Pramana ie Veda.

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चैतन्य(ब्रह्म) तो महावाक्यरुपी(वेद) शब्द प्रमाण के अलावा अन्य किसी भी प्रमाण से जाना ही नही जा सकता है।
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cc @jayasartn
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17 Oct
Idiot!! Confuses referencing with "Shabda Pramana". First these "Scientific reasoning and logical acumen"( or whatever) self-conceited Dhakkans should develop the understanding of "Pramana" as it's stated in Scriptures. ImageImage
Don't get fooled by the Sanskrit terms used by Oak in his books and talks eg like this one.

It has nothing to do with Pramana Shashtra of Indic Aastik or Nastik Darshans. Oak's methodology has been nicely deconstructed by @jayasartn in her book. Let me quote.
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"...he often talks about a methodology in his videos and blogs for dating Mahabharata war. He compared the
methodologies of sage Patanjali, Karl Popper and Richard Feynman and arrived at a combination.
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16 Oct
Socialist-Sarkari Bania is one vertex of the that blood sucking triangle of Neta-Babu-Socialist-Sarkari Bania to siphon of people's money with facade of Socialism.
This arrangement was devised by Sekoolar-Savarnas and still operational since 1947.

It works like this.Socialist-Sarkari Bania gets loan from Govt owned banks to run business per verbal order from Neta and executed on the paper by Babu.They just eat up all the money with some facade of industrial activity.Finally SS Bania is closes it showing it as failure. 1/2
Now, Socialist-Sarkari Bania is back to the bank again on the pretext of another industrial activity and cycle repeats.

Take for example the scam involving Ahmad Patel and Sandeshra group with total loan amount of Rs 14,500 crore.
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hindustantimes.com/india-news/san…
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15 Oct
Today I read a very interesting thing about Arundhati, the wife of Sage Vashishtha and its symbolism as a star of Saptarshi Mandal. I didn't know this symbolism of Arundhati to such a detail.
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" The image of Arundhati is of iconic proportions such that her name is found invoked across the country irrespective of the languages spoken and the background of the people. Not many know that the true persona of Arundhati can be known from old Tamil texts!
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Arundhati is held as an epitome of pativratatva — a virtue that has no equivalent word in English, except the term ‘chastity’. Interestingly this virtue has a word in Tamil as “karpu” with two ancient Tamil texts giving elaborate description of what this virtue stands for.
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14 Oct
I was reading a book critiquing Nilesh Oak's work on the dating of MBH. I guess this criticism is true about his work.
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"Analogies as astronomy positions

The Voyager- Simulation Nyaya is capable of proving even analogous statements.
A verse in Mahabharata compares seven Kaurava brothers attacking Bhima with seven planets attacking the Moon.

An enthusiastic Oak armed with this Nyaya runs the simulator and finds seven planets –
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that include Uranus, Neptune and Pluto – lined up in the sky from east to west in his Mahabharata date, corroborating this analogy![34]
Analogies have a special place in Nilesh Nilkanth Oak’s claims on ‘logical reasoning’.
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14 Oct
काँग्रेस (सेकुलर-सवर्ण)-अशरफ की प्रेम कहानी का एक और प्रमाण बेंगलुरु से। यह हमेशा याद रखें कि यह कोई नयी चीज नही है जो हाल के वर्षों में हुई है। इस प्रेम-कहानी की शुरुआत महात्मा गाँधी द्वारा १९२१ में हुई थी।
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जबतक आप इस बात पर विचार नही करेंगे कि भारत पर इस्लामिक शासन के दौरान अस्तित्व में आया आक्रमणकारी विदेशी मुसलमानों (अशरफ वर्ग जो भारतीय मुसलमानों को बहुत ही हेय दृष्टि से देखता था और उनसे बिल्कुल अलग-थलग रहता था) का वर्ग और इन अशरफों की(और बाद में अंगरेज की) स्वामिभक्ति करने1+
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वाला हिंदूओं का रायबहादुरी वर्ग २०वीं सदी की शुरुआत में एकाएक कहाँ गायब हो गया, तबतक आप १९२० से २०१४ तक की भारत की राजनीति को आप समझ नही पायेंगे।
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