पूर्व कैबिनेट सेक्रेटरी स्वर्गीय श्री T. S. R. Subramanian ने अपनी पुस्तक "India at Turning Point, the Road to Good Governance" में एक किस्से का जिक्र किया है। आप भी सुनिए। सुब्रमनियन साहब रिटायर हो चुके थे और नॉएडा में रहते थे।
चूंकि नए नए दादा बने थे और लड़का अमेरिका में था, इसलिए उनको उससे बात करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय फ़ोन सुविधा (ISD) की जरूरत थी। उस समय मोबाइल का जमाना नहीं आया था। सब काम लैंडलाइन पे ही होता था।
साहब ने BSNL के नजदीकी ऑफिस से संपर्क किया और जरूरी दस्तावेज और राशि जमा करवा दी। लेकिन हफ्ता दस दिन के बाद भी जब ISD सुविधा चालू नहीं हुई तो उन्होंने वापिस कार्यालय में संपर्क किया। तब पता चला की वो एक बहुत जरूरी फीस भरना भूल गए थे, जिसे आम भाषा में 'रिश्वत' भी कहा जाता है।
रकम थी मात्र दस हजार रूपये। रिश्वत मांगने वाले को शायद ये नहीं पता था कि वो किससे रिश्वत मांग रहा है। सुब्रमनियन साहब ने लिखा है कि वे अगर चाहते तो टेलीकॉम सचिव को फ़ोन करके उस छोटे से अधिकारी की खाट खड़ी कर सकते थे।
लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया, बल्कि जल्दी काम होने के लिए रिश्वत देना उचित समझा। उन्होंने ये भी लिखा है कि यदि वे अपने "रसूख" का इस्तेमाल करके (बिना रिश्वत दिए) ISD कनेक्शन ले लेते तो हो सकता था कि उनको बाद में 'operational problems' का सामना करना पड़ता।
ऐसे ही एक और किस्से में वे बताते हैं कि किस तरह उन्होंने अपने 38000 के बिजली बिल (जो कि गलती से आया था) को ठीक करवाने के लिए उत्तर प्रदेश के ऊर्जा सचिव को फ़ोन लगाया था और एक ही दिन में उनका काम हो गया था। उन्होंने अपने एक और निजी अनुभव का जिक्र किया है।
1970 की बात है। लखनऊ में उत्तरप्रदेश के ऊर्जा सचिव के आवास पर पार्टी चल रही थी कि अचानक बिजली चली गयी। सचिव साहब ने तुरंत इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड के चेयरमैन को फ़ोन लगाया और दस मिनट में बिजली आ गयी।
ये बात किसी से छुपी नहीं है कि उत्तरप्रदेश में आज भी, दिन में दस घण्टे बिजली गायब रहना आम बात है। इन तीनों किस्सों में मुझे एक ही चीज समझ आयी। और वो ये कि किस तरह ये पूरा सिस्टम केवल एक खास तबके की सेवा के लिए ही काम करता है।
ये वही तबका है जिसको सोशलिस्ट, डेमोक्रेटिक, रिपब्लिक भारत देश के आम लोगों ने मिलकर देश की आम जनता की उन्नति तथा देश के विकास के लिए अपनी शक्ति दे रखी है। लेकिन ये तबका केवल अपनी ही सेवा कर रहा है। इस तबके में नौकरशाह, नेता, उद्योगपति सब आते हैं।
साहब का एक चेक पास होने में चार दिन लग गए तो उन्होंने पूरे पब्लिक सेक्टर को सफ़ेद हाथी बताकर कटघरे में खड़ा कर दिया और उसकी अर्थी निकलने की पेशकश तक कर दी। उन्हें ये नहीं पता कि RTO में एक NOC लेने के लिए आम आदमी को भरपूर रिश्वत देने के बाद भी तीन महीने से भी ज्यादा लग जाते हैं।
हमारी न्याय व्यवस्था इतनी महान है कि साढ़े तीन करोड़ केस लंबित हैं जिन में से कई तो चालीस साल से भी ज्यादा समय से चल रहे हैं, लेकिन रसूख वालों के केस कि सुनवाई आधी रात को भी हो जाती है। आम आदमी पुलिस में FIR तक नहीं लिखवा सकता। क्या-क्या ख़तम करेंगे साहब?
बैंक तो चलो बेच भी दोगे, न्यायालय, पुलिस, मंत्रालय को भी बेचोगे क्या? क्यूंकि "inefficiency" और "lethargy" तो वहाँ बैंकों से भी ज्यादा है। और इस 'inefficiency and lethargy' की जड़ कहाँ है ये किसी से नहीं छुपा है।
बाकी छोड़िये जब बात MP/MLA की सैलरी की आती है तो एक रेसोलुशन पास करके तुरंत सैलरी भत्ते बढ़वा लिए जाते हैं। शायद इन साहब को नहीं पता बैंकर आज भी 2012 की सैलरी पर काम कर रहे हैं और तीन साल से भी ज्यादा समय से वेतन संशोधन का इंतजार कर रहे हैं।
इन साहब को ये भी नहीं पता होगा कि बैंकों में ज्यादातर ब्रांच आधे या उससे भी कम स्टाफ पे चल रही हैं। ये शायद नहीं जानते कि बैंकों के उच्चाधिकारी, जिनकी नियुक्ति राजनेताओं कि सहमति के बिना नहीं होती है, एक आम बैंकर पर थर्ड पार्टी प्रोडक्ट्स बेचने लिए किस तरह का दबाव बनाते हैं
और उनके चंद रुपयों के कमीशन के लालच के चक्कर में कितने बैंकर आत्महत्या करने पर मजबूर हो रहे हैं। मैं किसी नेता विशेष को जिम्मेदार नहीं ठहराता, मगर ये जो self-sustaining सिस्टम बना हुआ है, जो कि आम जनता कि और से बिलकुल उदासीन और उसकी परेशानियों से बिलकुल अनभिज्ञ है,
इसका बदलना अति आवश्यक हो चुका है। किसी को तो शुरुआत करनी होगी। नहीं तो एक दिन ऐसा भी आएगा जब पूरा देश ही efficiency के नाम पे निजी हाथों में चला जाएगा। ईस्ट इंडिया कंपनी वाली कहानी दोबारा मत दोहराइये।
भूल-चूक लेनी देनी माफ़ कीजियेगा। मेरा उद्देश्य यहां किसी को ठेस पहुँचाना नहीं है। मैं केवल अपना पक्ष रखने आया हूँ।
एक बार अकबर ने एक सपना देखा। सपने में उसने देखा कि बादलों में एक बड़ा ही सुन्दर महल बना हुआ है। राजा उस महल की सैर कर ही रहा था कि सपना टूट गया। दरबार में बादशाह ने अपना सपना दरबारियों को सुनाया।
अब दरबारी ठहरे एक से बढ़ कर एक चापलूस।
"हुज़ूर, ऐसा महल तो आपके पास ही होना चाहिए।"
"अगर ऐसा महल हमारे राज्य में होगा तो हुज़ूर की शान में चार चाँद लग जाएंगे।"
"उस महल को देखने इतने पर्यटक आएंगे कि मुल्क मालामाल हो जाएगा।"
"आप कहें तो दुनिया के एक से बढ़कर एक कारीगर आपके लिए हाज़िर कर दें।"
बादशाह को भी बादलों में महल बनवाने की बात जाँच गयी। बादशाह ने अपने सबसे खास दरबारी बीरबल को बुलाया।
"बीरबल, क्या तुम हमारे लिए ऐसा महल बनवा सकते हो?"
बीरबल बड़ा चालाक और मौकापरस्त व्यक्ति था।
नीति आयोग और अमिताभ कांत जी को रिफॉर्म्स की इतनी जल्दी है कि वो बेसिक होमवर्क करना ही भूल जाते हैं। रिफॉर्म्स के लिए पहला जरूरी कदम होता है आधारभूत ढांचा बनाना। उदाहरण के लिए डिजिटाइजेशन को लेते हैं।
बायोमेट्रिक डिवाइस और सॉफ्टवेयर डिजिटाइजेशन के लिए मूलभूत जरूरत है। इसलिए सरकार को चाहिए था कि देश में बायोमेट्रिक डिवाइस के निर्माण को प्राथमिकता देती। लेकिन सरकार तो जल्दी में थी। डिजिटाइजेशन डंडे के जोर पर लागू करवा दिया।
बायोमेट्रिक डिवाइस चीन से मंगवानी पड़ी। आज भी ज्यादातर बायोमेट्रिक डिवाइस चीन से आती हैं। दूसरा कदम था कि लोगों को कैशलेस लेन-देन के लिए बढ़िया माध्यम उपलब्ध कराना। बिना किसी साइबर सिक्योरिटी सिस्टम के आनन फानन में UPI लागू कर दिया।
शाहरुख़ खान बॉलीवुड एक्टर्स द्वारा चलाये जा रहे सोशल एक्टिविज्म के बारे में कहते हैं कि "हम लोग 'भांड' लोग हैं। हमें केवल भांडगिरी ही करनी चाहिए।"
भांड एक आम भाषा का शब्द है जिसके दो मतलब हैं। पहला मतलब है नाच गा कर लोगों का मनोरंजन करने वाला। इस में एक कला स्वांग या बहरूपिया भी होती है। बहरूपिये का काम होता है भिन्न भिन्न रूप धर के लोगों का मनोरंजन करना।
और एक बहरूपिये की कला-दक्षता का निर्णय इससे होता है कि वो जो भी रूप धरे उसमें पूरी तरह रम जाए। जो भी करे अपने स्वांग के हिसाब से ही करे। अब चाहे स्वांग रानी लक्ष्मीबाई का हो या चाहे किसी वेश्या का। भांड अपने स्वांग (अंग्रेजी में 'रोल') के साथ बेईमानी नहीं कर सकता।
Politicians are bound to be vote oriented. It is the duty of the permanent executive (bureaucrats) to advise rightly to the government and do not compromise with the larger national interest. But these days bureaucrats have forgotten the foundational characteristic of bureaucracy
That is, work in anonymity. Neither Macaulay (father of modern education system), nor Sardar Patel wanted Civil services to be a celebrity job. Macaulay said that a civil servant should have "ordinary prudence".
Sardar Patel said that let the politicians be face of the government, civil servants should be at its core. But these days bureaucrats are busy in becoming "Singham" and "firebrand". They do live raids on YouTube, indulge in spat on Twitter and what not.
एक बार जब हस्तिनापुर की राज्यसभा में युधिष्ठिर और दुर्योधन में से भावी युवराज के चयन का प्रश्न चल रहा था तब विदुर ने दोनों की न्यायिक क्षमता जांचने का सुझाव दिया। राज्यसभा में चार अपराधी बुलाये गए जिन पर कि हत्या का आरोप सिद्ध हो चुका था।
बारी थी सजा निर्धारित करने की। पहला नंबर दुर्योधन का आया। दुर्योधन ने तुरंत चारों को मृत्युदंड सुना दिया। फिर युधिष्ठिर का नंबर आया। युधिष्ठिर ने पहले चारों का वर्ण पूछा। फिर वर्ण के हिसाब से शूद्र को 4 साल, वैश्य को 8 साल, क्षत्रिय को 16 साल की सजा दी।
और ब्राह्मण को अपनी सजा स्वयं निर्धारित करने के लिए कहा। लोकतंत्र में इस कहानी का काफी महत्व है।
जब मैं UPSC की कोचिंग कर रहा था तो इंटरव्यू गाइडेंस के लिए UPSC के एक रिटायर्ड मेंबर लेक्चर के लिए आये थे।
ये कौनसा देश है जो आगे बढ़ रहा है? कहीं अपनावाला देश तो नहीं? पर हमको तो नहीं दिखाई देता। लेकिन नेता लोग तो कह रहे हैं कि आगे बढ़ रहा है। और लोकतन्त्र कहता है नेता बहुत समझदार होते हैं। फिर तो सही ही बोल रहे होंगे। मतलब देश तो आगे बढ़ रहा है।
बस हमको पता नहीं चल रहा।कहीं ऐसा तो नहीं तो देश चुपचाप आगे बढ़ रहा हो, किसी को बिना बताये। हो सकता हैकि जब रात को हम सो रहे हों तब देश चुपके से आगे बढ़ जाता हो और सुबह हम लोगों के मजे लेनेके लिए रुक जाता हो।नेताओं को पता लग ही जाता होगा। क्यूंकि वे तो बेचारे रात दिन काम करते हैं।
पब्लिक ही है जो आलसियों की तरह रात को सो जाती है। पब्लिक सोती है तभी तो देश आगे बढ़ता है। मतलब पब्लिक ही देश के आगे बढ़ने में बाधक है। या फिर ये भी हो सकता है कि देश हमको बिना साथ लिए ही आगे बढ़ रहा है। नेता भी आगे बढ़ रहे हैं, इसीलिए उनको पता है।