केरल में यह दलित लड़का अपने माता-पिता के लिए कब्र खोद रहा है, वह पुलिसवालों से कह रहा है, 'तुम लोगों ने मेरे मां-बाप की जान ले ली, अब बोलते हो कि मैं इनका अंतिम संस्कार भी नहीं कर सकता.'
तिरुवनंतपुरम के एक गांव में दलित लड़के के पिता खाना खा रहे होते हैं, तभी पुलिस आती है और 1/1
कहती है कि घर खाली करो. राहुल राज के पिता कहते हैं कि खाना खाकर हमलोग चले जाएंगे लेकिन पुलिस नहीं मानती है. इस अपमान और पीड़ा से व्यथित होकर राहुल के पिता खुद पर पेट्रोल डाल आग लगाने की धमकी देते हैं. जिसके बाद पुलिस के साथ लाइटर की छीना-झपटी में लाइटर जमीन पर गिर पड़ती है और 1/2
राहुल के माता पिता की जलकर मौत हो जाती है. आप जानते हैं कि कितनी जमीन के लिए राहुल राज के माता-पिता को अपनी जान गंवानी पड़ी? 1 एकड़ के 33वें हिस्से की खातिर राहुल की सिर से माता-पिता का हाथ हट गया. यह दलित लड़का बेसहारा हो चुका है, राहुल गुस्से और बेइंतहां गम में है लेकिन 1/3
बावजूद इसके खुद अपने माता-पिता के लिए कब्र खोद रहा है. इस बेहद ही पीड़ादायक परिस्थिति में भी राहुल ने अपना होश ओ हवाश नहीं गंवाया है, पता है क्यों? क्योंकि राहुल राज जैसे करोड़ों दलित इस देश में सदियों से अपमान का घूंट पी रहे हैं. वे हजारों वर्षों से दुख झेले जा रहे हैं… 1/4
दुत्कारे जा रहे हैं और इसे ही अपनी नियति मान बैठे हैं. मैं पूछती हूं कि जिन्हें नाज है हिंद पर क्या उन्हें ऐसी तस्वीरें विचलित नहीं करती हैं, क्या उन्हें रोना नहीं आता है? इस ब्राह्मणवादी व्यवस्था में सभ्य समाज के लोग दलितों को टच तक नहीं करना चाहते हैं. 1/5
कहीं किसी टीवी बहस या सामाजिक विमर्श में उनका जिक्र तक नहीं किया जा रहा है. सारे लिबरल और प्रोग्रेसिव पत्रकार इन मु्द्दों पर खामोश हो जाते हैं क्योंकि वे अपने विशेषाधिकार को नहीं छोड़ना चाहते हैं. किसान आंदोलन के बीच सवाल यह भी पूछा जाना चाहिए कि क्यों ज्यादातर दलित भूमिहीन हैं?
क्यों ज्यादातर दलित मजदूरी करने को ही विवश हैं? क्यों सदियों की हकमारी आज भी की जा रही है? किस मुंह से यह देश खुद को विश्वगुरु कहेगा? कहां हैं हिंदू संगठन जो दिन रात दलित-आदिवासियों के नाम पर सिर्फ झूठा रोना रोते हैं?तमाम रिसर्च और रिपोर्ट्स इसकी तस्दीक करते हैं कि इस देश में 1/7
दलित-आदिवासी के मरने पर मीडिया कवरेज ही नहीं मिलती. हाथरस में दलित लड़की का गैंगरेप होता है, रात में पेट्रोल-डीजल डालकर उसे जला दिया जाता है लेकिन देश की मीडिया बिक जाती है और पीड़ित के परिवार को फंसाने की कोशिश में लग जाती है. कब यह सवर्ण मीडिया दलित-पिछड़ों के साथ खड़ा होगा?1/8
बाबा साहेब की संविधान की वजह से हम आज पढ़, लिख औ बोल पा रहे हैं लेकिन क्यों संस्थानों में बैठे मनुवादी हमें कदम-कदम पर रोकने की कोशिश कर रहे हैं? क्यों वे नहीं चाहते हैं कि एक ऐसा भारत बने जिसमें सभी की भागीदारी हो? क्यों वे संसाधनों/संस्थानों पर कुंडली मारकर बैठे हुए हैं? 1/9
क्यों वे पढ़-लिखकर भी मनु के विधान को बनाए रखना चाहते हैं, जन्म के आधार पर विशेषाधिकार पाना चाहते हैं? इसलिए कहती हूं कि उनकी भावनाएं दिखावटी और खोखली हैं, उनका पढ़ना लिखना बेकार है क्योंकि वे भेदभाव पर आधारित समाज को मौन सहमति दे चुके हैं.
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भारत की प्रथम महिला टीचर माता #सावित्रीबाई_फुले ने महिलाओं और शूद्रों को पढ़ाने का बीड़ा उठाया था.
ऐसा करने के लिए उन्होंने अपनी जान की बाजी तक लगा दी थी. जब भी वे पढ़ाने जाती थीं तो ब्राह्मणवादी लोग उनपर गोबर और पत्थर फेंकते थे. मनुवादियों को लगता था कि ऐसा करने से (1/1)
सावित्री बाई फुले पढ़ाना छोड़ देंगी. लेकिन प्रथम महिला टीचर ब्राह्मणवादियों के आगे नहीं झूकीं. वे जब भी पढ़ाने जातीं तो 2 साड़ी साथ लेकर जाती. रास्ते में गोबर फेंकने वाले ब्राह्मणों का मानना था कि शूद्रों और महिलाओं को पढ़ने का अधिकार नहीं, यह पाप है, मनु के विधान के खिलाफ है 1/2
सावित्री बाई फुले घर से जो साड़ी पहनकर निकलती थीं वो दुर्गंध से भर जाती थी. स्कूल पहुंच कर वे दूसरी साड़ी पहन लेती. फिर महिलाओं को पढ़ाने लगती थीं. सावित्री बाई फुले उस दौर में अपने पति को खत लिखा करती थीं. उन खतों में सामाजिक मुद्दों और ब्राह्मणवादी व्यवस्था का जिक्र होता. 1/3
पेशवा साम्राज्य के वक्त दलितों को थूकने के लिए अपने गले में हांडी लटकाना पड़ता था, कमर पर झाड़ू बांधना पड़ता था ताकि जब वे चले तो झाड़ू उनके पैरों के निशान मिटाता चले. पेशवा और उनके पूर्वज दलितों के साथ जानवरों जैसा व्यवहार करते थे (1/1)
दलित सवर्णों के तालाब से पानी निकालने की सोच भी नहीं सकते थे, इसलिए महार जाति के लोग पेशवाओं के ब्राह्मणवादी व्यवस्था से लड़ने के लिए ब्रिटिश सेना में शामिल हुए.
1 जनवरी 1818 को महार जाति (दलित) के 500 जाबांज लड़ाकों ने पेशवाओं की विशाल सेना को भीमा कोरेगांव में धूल चटा दिया 1/2
सदियों से अपमान झेल रहे दलितों ने पेशवाओं से बदला लिया, उन्होंने ब्राह्मणवादी व्यवस्था में कील ठोंक दिया. यह लड़ाई थी गरिमा और सम्मान वापस पाने की, यह लड़ाई थी हक छीनने की. सदियों की दासता की बेड़ियों को महारों ने तलवार से काट दिया था 1/3