पुराने समय के समाज में महिलाओं और पुरुषों के लिए कई नियम बने थे जिन्हें रिवाज या परंपरा कहा गया।
प्राचीन भारतीय समाज में स्वास्थ्य एवं शुचिता की दृष्टि से इन नियमों का पालन आवश्यक था।
कालांतर में यही रिवाज कुरीतियों में बदल गए..
रजस्वला होने के समय रसोई अथवा मंदिर न जाना, अलग कक्ष में सोना आमोद-प्रमोद से दूर रहना, प्रसव के उपरान्त 30-40 दिन प्रसूति कक्ष में पुरुष का प्रवेश वर्जित होना उतना ही वैज्ञानिक था जितना आज शल्य चिकित्सा के बाद गहन चिकित्सा इकाई में रहना..
उस समय की कल्पना कीजिए जब कीटाणुनाशक सेनिटाइजर,डिटाॅल और सेनेटरी नैपकिन तो दूर की बात है साबुन भी नहीं हुआ करते थे,बिजली नहीं थी और स्त्री का जीवन बहुत ही श्रमसाध्य था।
लकड़ियाँ तोड़-बीन कर लाना,हाथ चक्की से अनाज पीसना और फिर खाना बनाना तो सामान्य दिनों में भी कठिन रहा होगा..
क्या एक रजस्वला स्त्री के लिए ये सहज रहा होगा?
जब किचिन में नल खोलते ही पानी की सुविधा नहीं थी,स्नान आदि के लिए दूर नदी अथवा तालाब तक जाना होता था.
आप कर पातीं यह सब?
स्त्री होने के नाते आप जानती होंगी कि उन दिनों में महिला का शरीर किस तरह की पीड़ा सहता है,कितनी असुविधा होती है..
इसी प्रकार शुचिता की दृष्टि से स्त्रियों को उन दिनों में अलग कक्ष में रखा जाता था। इसलिए नहीं कि वे अस्पृश्य थीं
बल्कि इसलिए कि उन्हें इस समय अनावश्यक कष्ट न सहना पड़े..
कालांतर में हम जैसे ही कुछ लोगों ने इन्हें स्त्री शोषण का साधन बना लिया।
यही बात माहवारी के समय पूजाघर अथवा मंदिर में स्त्रियों के प्रवेश पर लागू होती है..पूजन करने के लिए हम सभी स्वच्छ और शुद्ध हो कर ईश्वर के पास जाते हैं..आप भी ऐसा ही करती होंगी..
माहवारी एक शारीरिक प्रक्रिया भर है जिसके माध्यम से गर्भाशय का अशुद्द रक्त शरीर से बाहर निकलता है।
तो ऐसे संवेदनशील समय में जब आपके शरीर की प्रतिरोधक क्षमता न्यून हो और आप शारीरिक रूप से असहज हो तो क्या आप ईश्वर की पूजा शांत चित्त से कर पाएंगी..?
ऐसा नहीं है कि सभी मंदिरों में स्त्रियों का प्रवेश मासिक धर्म के समय और अन्यथा वर्जित है..
आप संभवतया इस तथ्य से अवगत होंगी कि प्रत्येक पूजा के लिए विधि और विधान अलग-अलग हैं..कुछ अर्चनाएं केवल महिलाओं द्वारा की जाती हैं, कुछ केवल पुरुषों द्वारा ..अधिकांश पूजा विधियों में पति-पत्नी दोनों को साथ बैठना होता है..ये एक प्रकार के नियम हैं उनके लिए जो इनमें विश्वास करते हैं..
आप नहीं मानतीं तो आप स्वतंत्र हैं।अपने घर में अपने ईश्वर का ध्यान कीजिए,जैसे चाहे रहिए किंतु मंदिर उनका होता है जो ईश्वर में विश्वास रखते हैं,उसकी सेवा-पूजा सच्ची श्रद्धा से करते हैं।मंदिर कोई नेहरू उद्यान अथवा गाँधी मैदान नहीं है,सार्वजनिक स्थल भी नहीं,इतना तो मानना ही होगा..
क्या आप जानती हैं कि ग्रहण के सूतक को विज्ञान भी मानता है क्योंकि इस समय वातावरण में अनेक हानिकारक विकिरण होते हैं जो हमारी आँखों, खाद्य पदार्थों, गर्भस्थ शिशु आदि के लिए सही नहीं है..
इसीलिए ग्रहण के आस-पास खानपान नहीं होता और बाहर निकलना वर्जित होता है..
हमें गर्व है कि हमारा धर्म एक वैज्ञानिक धर्म है जिसकी प्रत्येक परंपरा और नियम के पीछे एक वैज्ञानिक तथ्य है।
सोचिएगा..न समझे तो हम से संपर्क करें..
🙏
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#प्रसंगवश..
दिशा रवि की आयु 21, 22 या 24 कुछ भी हो सकती है..किंतु उसके विचारों से परिलक्षित उसकी सोच हमें यह सोचने पर बाध्य करती है कि हम कहाँ चूके हैं..
यदि आपका संवाद इन दिनों किसी किशोरवय के बालक या बालिका से हुआ हो तो आप जानते पाएंगे कि वामपंथी घुन कितने गहरे पैठ चुका है।
स्वाभाविक भी है..
पूर्व प्राथमिक कक्षाओं से ही छद्म धर्मनिरपेक्षता और विकृत वैश्विकता का विष घोला जाता है।
आप धार्मिक हों या न हों उससे कोई अंतर नहीं पड़ता क्योंकि आपके पास समय नहीं है और हवा में जहर घुला है..
हमारे चारों ओर का वातावरण कुछ ऐसा बना दिया गया है कि बच्चे न चाह कर भी विष पीने को बाध्य हो रहे हैं।
किशोरावस्था तक पहुँचते-पहुँचते स्थिति
आपके नियंत्रण से बाहर चली जाती है।
न्यूनतम समर्थन मूल्य की बात करें?
कैसे चलता है नकली किसानों का गोरखधंधा?
कैसे लगाते हैं वो देश की अर्थव्यवस्था को चूना..?
आइए सीधे शब्दों में समझने का प्रयास करते हैं..
तो शुरुआत से शुरू करते हैं..
एक किसान 70 रुपये की अपनी उपज
80 रुपये में एक नकली किसान को बेचता है..नकद..बिना किसी आय कर के..
नकली किसान 80 रुपये की ये खरीद
सरकार को 100 रुपये में बेचता है..
आय कर विभाग के लिए कोई गुंजाइश नहीं यहाँ ..
किसने कितना कमाया..कोई हिसाब नहीं..
नया कृषि कानून खरीदने और बेचने वाले दोनों से आधार और PAN नम्बर की अनिवार्यता चाहता है जो नकली किसानों यानि दलालों के लिए परेशानी वाली बात होगी..
आइए आज बात करते हैं श्री रामचन्द्र काक की जो 1945 से 1947 तक कश्मीर के मुख्यमंत्री रहे।
एक कश्मीरी पंडित होने के नाते रामचन्द्र जी अच्छी तरह जानते थे किस प्रकार सूफी समाज ने कश्मीरी संस्कृति और रिवाजों का ह्रास किया और उन्होंने महाराजा हरी सिँह से परिग्रहण संधि पर हस्ताक्षर करने से पहले कुछ वर्ष रुक कर निर्णय लेने को कहा..
सप्तॠषि वैदिक काल के सबसे महान ऋषि माने जाते हैं। अपनी योग और प्रायश्चित की शक्ति से उन्होंने बहुत लंबी आयु अर्थात् लगभग अमरत्व की सिद्धि प्राप्त की..।
सप्त ऋषियों को चारों युग में मानव प्रजाति के मार्गदर्शन का कार्य सौंपा गया ।वे आदि योगी शिव के सहयोग से पृथ्वी पर संतुलन बनाये रखते हैं..
आठवीं सदी की कहानी है.
बप्पा रावल के रणबाँकुरे लाम पे निकलते थे मुँह अँधेरे,
तलवार के धनी आटे की लोईयां सुबह रेत में दबाते,शाम तक जब लौट के आते,गर्म रेत में दबी लोईयां निकालते, फोड़ कर छाछ दूध संग खाते..
बस यही थी बाटी की शुरुआत..
सौंधा रहा होगा ना रेत में सिंकी बाटी का वो स्वाद?
एक बार गलती से बाटियों में गन्ने का रस गिर गया..
रेगिस्तान के लोग खाने को फेंकने की सोच भी नहीं सकते..वैसे ही चूर कर खाई गईं और जन्म हुआ बाटियों के साथी चूरमे का..
कालांतर में बाटी की मुलाकात दाल से हुई..आगे तो आप जानते ही हैं..
दाल बाटी चूरमा, जो खाए वो सूरमा..
बाटी राजस्थान के साथ-साथ मालवा क्षेत्र का भी लोकप्रिय व्यंजन है..
राजस्थान में इसे उड़द की छिलके वाली दाल या उड़द मोगर के साथ बनाया जाता है तो मालवा में अरहर की दाल के साथ किंतु सबसे अधिक पसंद की जाती है पंचमेल दाल जिसमें पाँच प्रकार की दालें मिला कर पकाई जाती हैं..
टेनिस कोई वास्ता न होते हुए भी राज्य टेनिस एसोसिएशन के अध्यक्ष बन बैठे।
फिर सरकारी जमीन पर कब्ज़ा कर अपना टेनिस कोर्ट बनाया।
समरथ को नहीं दोष गोसाईं..
एक दिन उस चौदह वर्षीय खिलाड़ी लड़की के पिता से बोले कि उसमें प्रतिभा है पर विशेष प्रशिक्षण चाहिए..
अगले दिन लड़की अपनी एक सहेली के साथ टेनिस के विशेष प्रशिक्षण के लिए अधिकारी महोदय के टेनिस कोर्ट पहुँची।