लगता है जैसे अपने समर्थकों और कार्यकर्ताओं का साथ न देना अब भाजपा की ऐसी आदत बन गई है जिससे छुटकारा पाने के लिए उसके लिए बड़ा कठिन काम है।
बंगाल में जब २०१६ से पहले यहाँ जब लोगों ने पार्टी को अपना समर्थन देना चाहा तो कोई भी स्थानीय नेता आगे आकर वह समर्थन न ले सका।
इसी समय दिल्ली से मंत्री आकर पता नहीं क्यों ममता बनर्जी को good humour में रखना चाहते थे। नतीजा क्या हुआ? पार्टी स्ट्रक्चर नहीं खड़ा हो सका।
२०१८ के बाद आनन-फ़ानन में पार्टी स्ट्रक्चर खड़ा करने की कोशिश की गई जो शायद २०२० तक कुछ हद तक खड़ा तो हो गया लेकिन स्थानीय नेता तब भी वैसे ही रहे जैसे पहले थे।
नतीजा यह हुआ कि अधिकतर स्थानीय नेता आज भी क्लास मॉनिटर का चुनाव जीतने लायक़ न बन सके।
इन नेताओं की राजनीति एबीपी आनंद के स्टूडियो में शुरू होती है और वहीं ख़त्म होती है। ये सुबह-सुबह नहा धोकर, कंघी वग़ैरह करके स्टूडियो पहुँचते हैं और वहीं बैठकर असली परिवर्तन के सपने देखते हैं।
राजनीति पर इनका विचार लफ़्फ़ाज़ी और बौद्धिक जुगाली से आगे नहीं जा पाता।
पश्चिम बंगाल में चुनावी हिंसा का इतिहास देख लें तो समझ में आएगा कि लेफ़्ट द्वारा शुरू की गई परंपरा को कैसे टीएमसी ने आगे बढ़ाया। ऐसे में चुनाव के बाद स्थानीय नेताओं और दिल्ली से आए नेताओं को कार्यकर्ताओं के साथ खड़ा होना चाहिए था।
एक कार्यकर्ता मरता है तो १००० संभावित कार्यकर्ता आपका साथ न देने का वादा ख़ुद से करते हैं। यह बात सही है कि बिना क़ीमत दिए परिवर्तन नहीं लाया जा सकता पर क़ीमत केवल कार्यकर्ता ही क्यों दे? ये क़ीमत नेता क्यों नहीं दें?
देख कर विश्वास नहीं होता कि यह दीन दयाल जी की पार्टी है।
मुझे नहीं पता कि केंद्र सरकार क्या कर सकती है पर इतना पता है कि केंद्र सरकार इतनी असहाय नहीं हो सकती कि उसके प्रधानमंत्री एक शब्द न बोलें।
मंत्रियों के पालक बालक खोज खोज कर घुरहू पतवारू को भी जन्मदिन और मरणदिन की शुभकामना देते रहते हैं पर ऐसे मौक़ों पर सबसे पहले चुप्पी साधते हैं।
केरल और बंगाल जैसे राज्यों में ऐसा लगातार चलता आ रहा है। एक बार ख़ुद से प्रश्न करके देखें कि केरल में सफल न हो पाने का कारण कहीं यह तो नहीं कि हमारे साथ उतने कार्यकर्ता नहीं खड़े होते जितनी हमें आवश्यकता है। या इसलिए नहीं खड़े होते कि हम उनके साथ आवश्यकता पड़ने पर नहीं दिखते।
ग़ालिब की तर्ज़ पर बाज़ार से गुज़रा हूँ, ख़रीदार नहीं हूँ को राजनीति में अप्लाई करना सम्भव नहीं। आप राजनीति में रहकर राजनीति न करके अपना और अपने लोगों का नुक़सान करते हैं।
फ़ेडरल स्ट्रक्चर की रक्षा करते हुए फ़ेडरेशन को ढहते हुए देखना किसके हित में है, इस पर आप शोध कर लें।
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मैं आवश्यक एक कृषि सुधार,
तुम जबरन एक प्रोटेस्ट प्रिये,
मैं सकल राष्ट्र में व्याप्त शांति,
तुम दिल्ली का अनरेस्ट प्रिये,
मैं मेहनत पर निर्भर किसान,
तुम काश्तकार एम एस पी पर,
मैं परेशान एक लोकतंत्र,
तुम पोषित कोई पेस्ट प्रिये!
मैं यू एस ए की प्रोफ़ेसर,
तुम राडिया कन्सल्टेंट प्रिये,
मेरी निधि पर भारी फिसिंग,
इक “एरर ऑफ़ जज्मेंट प्रिये,”
तुम दिल्ली की कैबिनेट मेकर,
मैं हॉर्वर्ड तक फ़ॉर्वर्ड,
मैं पत्रकारिता की मशाल,
तुम उसका अटेनमेंट प्रिये!
मैं कृषक फ़्रेंडली गौरमिंट,
तुम कोई चक्का जाम प्रिये,
मैं फ़िक्स्ड रेट एम एस पी का,
औ तुम मंडी का दाम प्रिये,
मैं खटनी-रत कोई किसान,
तुम मिया ख़लीफ़ा फ़ॉर्मिंग की,
मैं थनबर्गित एक गूगल-शीट,
तुम ट्वीटित कोई ईनाम प्रिये!
आज शनिवार है और अरुणाचल के एक छोटे से ब्लॉक में पोस्टेड हमारे मित्र ADO साहब साढ़े नौ बजे अपनी बाइक पर असिस्टेंट को लेकर निकल गए हैं खेतों की Geo Tagging करने ताकि Farm Traceability ensure की जा सके और आप सरकार को गाली देते हुए देश की राजधानी बंद करना चाहते हैं।
आपको नींद से जागने की आवश्यकता है। ये जो पचास वर्षों से लगातार एक ही बात सुनाई जा रही है कि देश के एक दो राज्य ही देश का भोजन उत्पादन करते हैं उस धारणा में दरार पड़ चुकी है। संभलने की आवश्यकता आपको है।
बाक़ी राज्यों में किसान की किसानी बहुत मज़बूत हुई है, बस उन्हें स्पेस नहीं मिलता कि वे बता सकें कि क्या कर रहे हैं क्योंकि वे बेचारे दिल्ली से दूर रहते हैं।
यह कैसा तर्क है कि; एक भी श्लोक रामायण में दिखा सकते हो जो साबित कर दे कि श्रीराम के अयोध्या लौटने पर पटाखे जलाए गए थे?
कोई यह साबित कर सकता है कि इस पृथ्वी पर पहले शुभ कार्य में नारियल या फूल का प्रयोग किया गया था? पहले पूजन में ही दीपक का प्रयोग किया गया था?
क्या हजारों वर्ष पुरानी सभ्यता के धार्मिक, सांस्कृतिक अनुष्ठान या पूजा पद्धति के नियम पहले ही दिन तय हो गए होंगे? क्या किसी ने पहले ही दिन लिख कर नियम बना दिए थे कि बस इतना ही करना है और इससे बाहर कुछ नहीं करना है?
जिस संस्कृति का इतिहास सहभागिता का अनुपम उदाहरण रहा हो, उसके विकास में समय समय पर नियम जुड़े न हों, इस बात की गारंटी कोई दे सकता है? यदि पहले दिन किताब लिख कर रख दी गई होती तो क्या हमारे इतने देवता होते? हमारे यहाँ पूजा की इतनी पद्धतियाँ होतीं?
जाट आंदोलन,अर्बन नक्सल,दिल्ली दंगा,तुर्की प्लान,एमपी किसान ‘आंदोलन’, शाहीन बाग, जेएनयू..... हाथरस, ऐसे षड्यंत्र तानाशाही के विरुद्ध किए जाते हैं।
नरेंद्र मोदी को वर्षों तक तानाशाह कहने का सबसे बड़ा परिणाम यह है कि विपक्ष(कांग्रेस) अपने प्रॉपगैंडा में ख़ुद ही विश्वास करने लगा है।
लोकतंत्र में विरोध के तरीक़े षड्यंत्र और मीडिया से नहीं बल्कि परोक्ष रूप से रैली, डिबेट, शासन का विकल्प और नेतृत्व देने में है। समस्या यह है कि इतने षड्यंत्र करने के बाद की बदनामी और लोकतांत्रिक तरीक़े अपनाने पर असफल होने का भय विपक्ष को केवल षड्यंत्र करने तक रोक के रखता है।
विपक्ष पोषित पत्रकार और संपादक हवाट्सऐप यूनिवर्सिटी का चाहे जितना मज़ाक़ बना लें और सच को हँसी में चाहे जितना उड़ा लें, सच यही है कि सोशल मीडिया बहुत मज़बूत है और सूचना प्रसार से देश का राजनीतिक भविष्य तय करने की क्षमता रखता है।
मैं सीधी सोच का कंज़्यू-मर,
तुम कोई ऐड-जेहाद प्रिये,
मैं रामायण की चौपाई,
तुम ट्विस्टेड इक संवाद प्रिये,
मेरा विरोध बस शब्दों तक,
पर दोष सदा मेरे माथे,
पर भूल न जाना, मुझसे ही,
बाज़ार सदा आबाद प्रिये,
मैं शरद पवार के सच जैसा,
तुम भारत भर की भ्रांति प्रिये,
मैं हूँ यूएसए की उथल-पथल,
तुम हो ईरान की शांति प्रिये,
मैं नीतिवचन शिवसेना का,
तुम तड़पन जैसे अरनब की,
मैं हूँ राहुल की लीडरशिप,
तुम कम्यूनिस्टों की क्रांति प्रिये!
मैं सहज पुरातन संस्कार,
तुम एक किताबी तर्क प्रिये,
मैं सर्वस्व समेटे द्रोणगिरि,
तुम हो बूटी का अर्क प्रिये,
मैं दर्शन बल वाला मानस,
तुम व्यक्ति-बंध वाला शरीर,
वह, जिसे मापना दुर्लभ हो,
है इतना लंबा फर्क प्रिये!