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साल 2016 के वो तीस सेकेंड जिन्होंने IAS सुहास एलवाई को Tokyo2020 पैरालंपिक्स तक पहुंचा दिया
मंगलवार 29 नवंबर, 2016. यूपी का जिला आजमगढ़. पूरा शहर जश्न की तैयारी में था. लोग बेहद खुश थे. और आश्चर्य की बात ये कि इस खुशी में न तो गन्ना शामिल था और न ही धान.
इन दो फसलों के लिए मशहूर आजमगढ़ की खुशी का कारण सुदूर कर्नाटक में जन्मा एक 33 साल का युवा था. जो उस वक्त शहर का हाकिम होने के साथ नंबर एक का बैडमिंटन स्टार भी था. शायर कैफी आज़मी का ये शहर इस रोज़ सुहास लालिनकेरे यतिराज यानी सुहास एलवाई के तराने गा रहा था.
चाइना में हुई एशियन बैडमिंटन चैंपियनशिप का गोल्ड जीतने के बाद मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से मिलकर लौटे सुहास अपने स्वागत में शहर को उमड़ा देख आश्चर्यचकित हो गए. लेकिन ये आश्चर्य आने वाले दिनों में उनके लिए बेहद नॉर्मल होने वाला था. उन्होंने राह ही ऐसी चुन ली थी.
और उसी चुनी राह पर चलते-चलते अब सुहास पैरालंपिक्स तक पहुंच गए हैं.
# कौन हैं Suhas?
लेकिन सुहास हमेशा से बैडमिंटन नहीं खेलना चाहते थे. ना ही उनकी टू डू लिस्ट में IAS बनना था. 2 जुलाई 1983 को कर्नाटक के शहर हसन में पैदा हुए सुहास बचपन से ही एक पैर से विकलांग हैं.
सुहास का दाहिना पैर पूरी तरह फिट नहीं है. और जैसा कि रवायत है, किसी की कमियां समाज से देखी नहीं जातीं. समाज सब छोड़कर उस व्यक्ति की कमियों का तमाशा बनाना शुरू कर देता है.
लेकिन सुहास के सिविल इंजिनियर पिता ऐसे हालातों में अपने बेटे के साथ चट्टान की तरह खड़े रहे.
उनकी अलग-अलग जगहों पर होती पोस्टिंग और समाज के ताने कभी भी सुहास के भविष्य के आड़े नहीं आ पाए. पिता और परिवार के साथ शहर दर शहर बदलते हुए सुहास ने अपनी पढ़ाई पूरी की. गांव के स्कूल से शुरू हुई सुहास की पढ़ाई खत्म हुई सुरतकल शहर में.
सुहास ने यहीं के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलजी से कम्प्यूटर साइंस में डिस्टिंक्शन के साथ अपनी इंजिनियरिंग पूरी की.
सुहास के इंजिनियर बनने के पीछे भी मजेदार क़िस्सा है. बारहवीं के बाद उन्होंने मेडिकल और इंजिनियरिंग, दोनों की परीक्षा दी. और सुहास दोनों में पास भी हो गए.
पहले ही राउंड की काउंसिलिंग के बाद उन्हें बैंगलोर मेडिकल कॉलेज में सीट भी मिल गई. लेकिन मन अभी भी इंजिनियरिंग की ओर ही था. पूरा परिवार चाहता था कि सुहास डॉक्टर बनें और सुहास उनकी इच्छा के आगे सरेंडर भी कर चुके थे.
लेकिन तभी एक दिन उन्हें मुंह लटकाए बैठा देख सुहास के पिता ने कहा,
‘जा बेटे, जी ले अपनी जिंदगी’
बस, यहीं से तय हुआ कि सुहास इंजिनियर ही बनेंगे. पढ़ाई में बेहद तेज सुहास खेलकूद में भी आगे रहते थे. और बाकी भारतीय बच्चों/युवाओं की तरह उनका भी मन क्रिकेट समेत कई खेलों में रखता था.
हालांकि क्रिकेट के अच्छे खिलाड़ी रहे सुहास ने कभी एथलीट बनने के बारे में नहीं सोचा था. इंजिनियरिंग के बाद उन्होंने लगभग हर भारतीय इंजिनियर के ड्रीमप्लेस बेंगलुरु में एक आईटी फर्म जॉइन कर ली.
सब सेट था. जिंदगी ठाठ से चल रही थी लेकिन जिन्हें इतिहास बनाना होता है वो रुकते कहां हैं
उनकी भूख कभी खत्म नहीं होती. नौकरी के चक्कर में बेंगलुरु से जर्मनी तक घूमते-टहलते सुहास को हमेशा लगता कि कुछ कमी है. जीवन में पैसा भी है और ऐशो-आराम भी लेकिन ये जीवन पूर्ण नहीं है. सुहास के मन में रह-रहकर सिविल सर्विसेज जॉइन करने का ख्याल आता रहा.
और इसी बीच साल 2005 में सुहास के पिता की मृत्यु हो गई.
इस घटना ने मानो उन्हें झकझोर दिया. पहले से ही नौकरी के साथ सिविल सर्विसेज की तैयारी कर रहे सुहास ने अब मन पक्का कर लिया. एक दिन सबको चौंकाते हुए सुहास ने जमी-जमाई नौकरी छोड़ी और बताया कि उन्होंने सिविल सर्विसेज के प्री
और मेंस एग्जाम निकाल लिए हैं और अब उन्हें IAS ही बनना है. नौकरी छोड़ने के बाद सुहास ने सिविल का इंटरव्यू भी क्लियर किया और साल 2007 में वह यूपी कैडर से IAS बन गए. भारत में ज्यादातर लोग इस कठिन परीक्षा को पास करने के बाद रुक जाते हैं लेकिन सुहास यहां भी नहीं रुके.
# Badminton Champion Suhas
शौकिया बैडमिंटन खेलने वाले सुहास ने साल 2016 की पैरा एशियन चैंपियनशिप में भाग लेने का फैसला किया. बिना किसी को बताए वह चुपचाप सात दिन की छुट्टी लेकर चाइना निकल गए. लेकिन चाइना पहुंचकर आजमगढ़ के डीएम सुहास को लगा कि जीवन इतना भी आसान नहीं है.
अपने पहले इंटरनेशनल टूर्नामेंट के पहले ही सेट में सुहास हार गए. और दूसरा सेट भी 12-9 से विपक्षी प्लेयर की ओर जा रहा था. लेकिन इसी स्कोर पर मिले ड्रिंक्स ब्रेक ने सब बदल दिया.
इस बारे में सुहास ने दी लल्लनटॉप को बताया,
‘इस ड्रिंक्स ब्रेक के दौरान मेरे एक दोस्त ने मुझे टोका.
उसने कहा- डरकर क्यों खेल रहे हो भाई? और उसके टोकने के बाद मैंने भी सोचा कि एक हार से क्या ही होगा? और अगर हारना ही है तो अपना नेचुरल गेम खेलकर हारेंगे.’
और इतना सोचना था कि गेम पलट गया. सुहास ने ना सिर्फ ये मैच बल्कि टूर्नामेंट का गोल्ड मेडल भी जीत लिया.
और उनके इस गोल्ड ने सुहास की PCS बीवी ऋतु सुहास की शिकायत भी दूर कर दी. दरअसल सुहास के वक्त बे-वक्त बैडमिंटन खेलने से ऋतु को अक्सर शिकायत होती थी. लेकिन सुहास की मेहनत का फल जब गोल्ड मेडल के रूप में आया तो ऋतु की खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा.
एलवाई सुहास और ऋतु के मिलने का क़िस्सा भी बिल्कुल फिल्मी है. इस बारे में सुहास ने हमें बताया,
‘ये पहली नज़र के प्यार वाला हाल था. नौकरी की शुरुआत में मेरी पहली पोस्टिंग आगरा में हुई. और उसी दौरान ऋतु की पहली पोस्टिंग भी आगरा में ही हुई.
यहां जब एक मीटिंग के दौरान मैं पहली बार इनसे मिला, तभी मुझे लग गया कि जीवन तो इन्हीं के साथ बिताना है. फिर धीरे-धीरे हमारी मुलाकातें होने लगीं और इन्हीं मुलाकातों के दौरान बात बढ़ते-बढ़ते शादी तक आ गई.’
एलवाई सुहास और ऋतु सुहास अभी दो बच्चों के माता-पिता हैं.
मौजूदा वक्त में नोएडा के डीएम की पोस्ट पर तैनात सुहास ने साल 2018 में जकार्ता में हुए एशियन पैरा गेम्स में ब्रॉन्ज़ मेडल भी जीता था. इस मेडल से जुड़ा एक दिलचस्प क़िस्सा सुनाते हुए सुहास ने दी लल्लनटॉप से कहा,
‘2018 के एशियन गेम्स से पहले मैं दिन-रात तैयारी में ही लगा रहता था.
तमाम दूसरे प्लेयर्स के वीडियो देखना, अपने वीडियोज शूट करके अपनी कमियों को सुधारना और मौका मिलते ही रैकेट उठा लेना. उस वक्त मेरा जीवन ऐसे ही चल रहा था. और ऋतु को ये बाद सख्त नापसंद थी. लेकिन एशियन चैंपियनशिप के गोल्ड के बाद उनका वह थोड़ी सॉफ्ट हो चुकी थीं.
और इसका फायदा उठाकर मैंने अपनी प्रैक्टिस और तेज कर दी.
फिर इसी दौरान आई दिवाली. घर वालों का प्लान था कि पूरे दिन घर में रहेंगे, शाम की तैयारी करेंगे. लेकिन मेरे दिमाग में तो एशियन पैरा गेम्स थे. बस मैं सुबह उठा, नाश्ता किया और अपनी बैडमिंटन किट उठाकर निकल गया प्रैक्टिस करने.
मैंने इस छुट्टी का पूरा फायदा उठाया और शाम को बेहद खुश होकर घर लौटा. लेकिन मुझे ये बात पता ही नहीं थी कि घर पर तूफान मेरा इंतजार कर रहा है. दिवाली के पूरे दिन मेरे गायब रहने से ऋतु बहुत गुस्सा हुई और फिर उसने मुझे जकार्ता गेम्स का ब्रॉन्ज़ मेडल जीतने के बाद ही माफ़ किया.’
एशियन चैंपियनशिप और एशियन पैरा गेम्स में मेडल जीतने के बाद सुहास ने पीछे मुड़कर नहीं देखा. अपने छोटे से करियर में वह कई इंटरनेशनल और नेशनल गोल्ड मेडल्स जीत चुके हैं. पांच साल में लगभग दो दर्जन मेडल्स अपने नाम करने वाले सुहास अब Tokyo2020 Paralympics के लिए तैयार हैं.
Success has many fathers but failure is an orphan.
वर्ल्ड कैडेट चैंपियनशिप में भारत के नाम दर्जनों मेडल्स हैं. लेकिन प्रिया मलिक जितनी बधाई किसी को नहीं मिली. आज से पहले 97.6 पर्सेंट लोगों को पता ही नहीं था कि ऐसा कोई टूर्नामेंट भी होता है. लेकिन फिर, बात वही है.
ये चार साल में एक बार आने वाले ओलंपिक्स का जोश जो करा दे कम है.
गोल्ड मेडल आया तो इन महामूर्खों को दिखा मौका. और झट से सेलिब्रेट कर लिया. फिर ये कौन देखे कि कहां से आया. अभी ओलंपिक्स चल रहे हैं तो वहीं से आया होगा. इतनी खोजबीन कौन करे, कहीं पिछड़ गए तो?
हम उल्लू लोग जीवनभर स्पोर्ट्स ही फॉलो करते रह जाते हैं और इवेंट आते रौला इन लोगों का बन जाता है. और ये बात कम ही लोग जानते हैं इस देश में रौला ही चलता है. और यही रौला इस देश को बर्बाद करेगा.
चार साल अन्य कामों में बिजी लोग ओलंपिक्स आते ही बिलों से निकलकर रौला बनाने लगते हैं.
अब ओलंपिक्स मेडल लेकर आएगी बचपन में लकड़ी बीनने वाली लड़की?
क़रीब 14 साल पहले की बात है. मणिपुर की राजधानी इम्फाल से लगभग 20 किलोमीटर दूर पड़ने वाले एक गांव की पहाड़ियों पर दो बच्चे पसीने से तरबतर खड़े थे.
जलावन की लकड़ियां लेने घर से निकले 16 साल के सनातोम्बा मीटी और उनकी 12 साल की बहन की समझ नहीं आ रहा था, कि अब करें क्या. आसपास कोई मदद करने वाला भी नहीं था और सनातोम्बा से लकड़ियों का गट्ठर उठे ही ना. तभी उनकी बहन ने कहा,
‘मैं उठाऊं क्या?’
पहले तो सनातोम्बा समझ नहीं पाए कि उसे क्या जवाब दें. जो गट्ठर उनसे नहीं उठ रहा, वो पूरे चार साल छोटी बहन कैसे उठाएगी? लेकिन कोई और चारा ना देख सनातोम्बा ने हां कर दी. और फिर जो हुआ उसने उस 12 साल की लड़की को ओलंपिक तक पहुंचा दिया.
इस बार ओलंपिक्स मेडल जीत पाएंगी 'पुनर्जन्म' लेकर लौटी विनेश फोगाट?
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बचपन में जब हमें खेलते-खेलते चोट लगती थी तो घर के बड़े-बुजुर्ग हमें चुप कराने के लिए कहते थे- चोट खेल का हिस्सा हैं. बड़े हुए तो समझ आया कि बात सही तो थी लेकिन इतनी सीधी नहीं.
चोट खेल का हिस्सा तो है लेकिन इसे खेल में कोई चाहता नहीं, ये जबरदस्ती घुसपैठ करती है. कई बार तो प्लेयर्स इससे उबरकर वापसी कर लेते हैं, लेकिन कई दफा ये चोट करियर भी खत्म कर जाती है.
उम्मीद के हमारे चौथे एपिसोड में आज बात ऐसी ही एक प्लेयर की, जिसे चोट ने और बेहतर बना दिया.
जिसकी चोट इतनी खतरनाक थी कि लोगों को लगा अब करियर खत्म! लेकिन हरयाणे की इस छोरी ने दंगल जारी रखा. चोट को परास्त कर वापसी की और एक बार फिर से तैयार है… दुनिया पर छा जाने के लिए. विनेश फोगाट नाम की ये पहलवान Tokyo2020 Olympics में मेडल की हमारी सबसे बड़ी उम्मीदों में से एक है.
ग़रीबी को तो पटक दिया लेकिन ओलंपिक्स मेडल की रेस जीत पाएगा 'योगी का चेला'?
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ग़रीबी. तंगहाली या गुरबत. वो शय जिसकी चपेट में आने वाला परेशान ही रहता है. लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इस शय को ऐसा पटकते हैं, कि फिर ये लौटकर उनके पास नहीं जा पाती.
दी लल्लनटॉप की Tokyo2020 स्पेशल सीरीज ‘उम्मीद’ के तीसरे एपिसोड में आज बात ऐसे ही एक एथलीट की, जिसने ग़रीबी को अपने रास्ते में नहीं आने दिया. और ऐसा दांव चला कि आज पूरी दुनिया उसकी फैन है.
# कौन हैं Bajrang Punia?
बजरंग पूनिया.
रेसलिंग के लगभग हर बड़े इवेंट में मेडल जीतने वाले भारतीय रेसलर. हरियाणा के झज्जर जिले से आते हैं. बजरंग जब छोटे थे तो उनके परिवार के पास खेल-कूद का सामान खरीदने के पैसे नहीं थे. लेकिन बजरंग का मन तो खेल-कूद में ही लगता था. ऐसे में उन्होंने अपनी समस्या का सटीक जुगाड़ निकाला.